इस हिस्से में हम उन आदिवासियों की कहानियां सामने रख रहे हैं जो पुलिसिया ज्यादती के चलते सालों से जेलों में बंद हैं.
17 मार्च 2020 की तारीख लग गयी थी.आधी रात गुज़र चुकी थी और 22 साल का देवा मंडावी नीलावाया पंचायत के मल्लापारा गांव में अपने घर के आंगन में आराम से सो रहा था. रात के लगभग तीन बजे कुछ आवाज़ों से उसकी नींद खुल गई. उसने पाया कि खाट के अगल-बगल वर्दी पहने हथियारबंद लोग खड़े थे.उनमें से एक ने उसकी छाती पर बन्दूक के बट से वार किया.वो लोग उसे पकड़ने की कोशिश करने लगे लेकिन जैसे-तैसे अंधेरे का फायदा उठाकर देवा उनकी पकड़ से भाग निकला. वो आखिरी दिन था जब देवा की मां ने उसे देखा था.
वो वर्दी पहने लोग जो देवा को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे, डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड (डीआरजी-स्थानीय आदिवासी युवा और आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों की पुलिस फ़ोर्स) थे. सुबह तक दंतेवाड़ा जिले की नीलावाया पंचायत में आने वाला मल्लापारा चारों तरफ से घेर लिया गया था. सुबह डीआरजी वाले फिर देवा के घर पहुंचे और उसकी 60 साल की विकलांग मां लक्खे को धमकी देने लगे कि वह अपने बेटे को उनके पास भेज दे वरना वो उसे मार देंगे.
न्यूज़लॉन्ड्री ने लक्खे से मल्लापारा में मुलाकात की. उन्होंने कहा, "उस रात को वह अचानक से हमारे घर में आये और मेरे बेटे को मारने लगे. किसी तरह वह उनकी पकड़ से भागने में कामयाब रहा. तकरीबन सुबह छह बजे मैं आग जला कर ताप रही थी, तब वो पुलिस वाले फिर से मेरे घर आये. उसमें तीन औरतें थीं बाकी 15-20 पुरुष थे. वह कह रहे थे कि मैं अपने बेटे को उनके पास जाने बोल दूं वरना वो उसे मार देंगे. वो डंडे से मुझे मारने लगे, उन्होंने दो बार डंडे से मुझे मारा. मैं उनके हाथ जोड़ने लगी तो तीसरा डंडा लकड़ी के खम्बे में मार कर रुक गए. उन्होंने मेरे घर का दरवाज़ा तोड़ दिया और घर में मौजूद पैसे, मच्छरदानी, साबुन, जूते, मुर्गा, हल्दी, मसाले और सल्फी (बस्तर के इलाकों में पेड़ से निकाले जाने वाली देसी शराब) लेकर चले गए.”
लक्खे ने बताया कि पुलिस वाले उनके घर से दस हज़ार रुपये लूट कर ले गए थे जो उनके परिवार ने बकरा बेच कर और उनके बच्चों (दो बेटों और बहू)ने मजदूरी करके कमाए थे.
25 वर्षीय जोगी मंडावी लक्खे के दूसरे बेटे चन्नाराम मंडावी की पत्नी हैं. वो कहती हैं, "मैं सुबह-सुबह महुआ बीनने गयी थी, वापस आयी तो पता चला कि पुलिस वाले हमारे घर से पैसे और सामान भी लूट कर ले गए. मैं उनके पीछे भी गयी, जब मैंने उनसे हमारे पैसे और सामान लौटने कहा तो वह मुझे मारने की धमकी देने लगे और बोले-यह तुम्हारे पैसे नहीं हैं गांववालों के पैसे हैं,गांव वालों ने इकट्ठा कर तुम्हारे पास रखवाए थे. भाग जाओ."
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Contributeलक्खे कहती हैं, "मेरा बेटा साधारण जीवन जी रहा था. वन उपज बेच कर या थोड़ी बहुत खेती कर हम लोग जीवन काट रहे थे. वो नक्सली नहीं था. उस रात अगर वो भागता नहीं तो वो या तो उसे मार देते या फिर उसे नक्सली बना कर जेल में डाल देते. इसी डर से वह भागा और अब घर भी नहीं आता. उसने किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा है. पता नहीं उससे कब मिलना हो पाएगा.”
17 मार्च को मल्लापारा के कई और घरों में पुलिस वालों ने लूटपाट की थी. इसी तरह बगल में गुर्रेपारा में भी मारपीट और लूटपाट की गई. नीलावाया पंचायत के इन गांवों में ऐसे बहुत लोग हैं जिन्हें नक्सली गतिविधियों में शामिल होने का इल्ज़ाम लगा कर जेल में डाल दिया गया है. इनमें से कुछ नाबालिग भी हैं.
गौरतलब है कि मल्लापारा गांव के तीन बच्चों को पुलिस ने फरवरी महीने में नक्सली गतिविधियों में शामिल होने का इलज़ाम लगा कर गिरफ्तार किया था. फरवरी और मार्च में मल्लापारा में हो रही लूटपाट और गिरफ्तारियों के पीछे गांव वाले मोहन भास्कर नाम के व्यक्ति की नक्सलियों द्वारा की गयी हत्या से जोड़ कर देखते हैं.
नीलावाया के पटेलपारा का रहने वाला मोहन भास्कर डीआरजी/पुलिस में भर्ती होना चाहता था. वह उन्हीं के साथ रहता था और पुलिस की तरफ से उसे भरोसा दिलाया गया था कि जल्द ही उसकी भर्ती डीआरजी में हो जाएगी. पुलिस में भर्ती की चाह में मोहन गांव वालों के साथ बुरी तरह से पेश आने लगा था. वह उनके साथ अक्सर मारपीट करने लगा था. डीआरजी के साथ गश्त के दौरान वह गांव वालों से बदसलूकी करता था.
अरनपुर थाने में दर्ज की गयी एक एफआईआर के अनुसार 30 जनवरी को नक्सली सोना हेमला, धुरवा और हिड़मा, मोहन को नीलावाया से अपने साथ ले गए थे और एक फरवरी को उसकी लाश सड़क किनारे मिली थी. नक्सलियों ने मोहन की गला रेत कर हत्या कर दी थी. पुलिस ने इस मामले में नक्सली सोना हेमला, धुरवा, हिड़मा अवं अन्य नक्सलियों के ऊपर नामजद एफआईआर दर्ज की थी.
मोहन की हत्या के बाद पुलिस ने गांववालों को इसका जिम्मेदार बताना शुरू कर दिया था. इस मामले में पुलिस ने गांव की तीन नाबालिक लड़कियों मनीषा सोना मड़कम, कोशी मल्ला मंडावी और कमली नाग कुर्रम को भी गिरफ्तार किया है.
उन तीनों नाबालिग लड़कियों के साथ गीदम मजदूरी करने गयी जोगी मंडावी कहती हैं, "फरवरी के महीने में हम आठ लोग मेलावाड़ा और गीदम मजदूरी करने गए थे. जब एक दिन गीदम में हम मजदूरी कर लौटने के बाद फॉरेस्ट कैंप के पास ठेकेदार के दिए हुए ठिकाने पर रात को आराम कर रहे थे तो कुछ लोग सादे कपड़ों में आकर हमसे पूछताछ करने लगे. उन लोगों ने वहां आकर पूछा कि कौन-कौन नीलावाया से है और जवाब देने पर हमारे गांव के आठ लोगों को पुलिस थाने ले आये. वो हमसे पूछ रहे थे कि हम लोग गीदम क्यों आये थे? जब हमने पुलिस को बताया कि हम मजदूरी करने आये थे तो वह कहने लगे कि हम झूठ बोल रहे हैं. वो कहने लगे कि हमें नक्सलियों ने भेजा है जासूसी करने. फिर वो कहने लगे-तुमने मोहन को क्यों मारा, जैसे तुमने मोहन को मारा है वैसे ही हम तुमको मारेंगे. "
साथ में मजदूरी करने गयी 15 साल की एक अन्य लड़की पैके इड़िया मांडवी कहती है, "पुलिस हमसे कह रही थी कि हमने मोहन को मारा है और उसको मारने के बाद तुम लोग इधर आ गए. पुलिस वाले कह रहे थे-तुम लोगों को लगा होगा कि हम लोग गांव में तुमको मार देंगे इसलिए तुम इधर भाग आये."
नीलावाया के आठ नाबालिगों को पुलिस ने रात भर कारली पुलिस लाइन में रखा था. अगले दिन पांच लोगों को उन्होंने छोड़ दिया था और तीन को नाबालिगों की जेल भेज दिया.
न्यूज़लॉन्ड्री ने मार्च महीने में मनीषा के पिता सोना मड़कम से मल्लापारा में बात की थी. उन्होंने तब बताया था, "वो मुझे बताकर मजदूरी करने गयी थी. उसने कहा था कि घर में चूड़ी, साबुन वगैरह सामान नहीं है इसलिए वह मजदूरी करने जा रही है."
मनीषा की मां देवे मड़कम रोते-रोते कह रही थी, "मुझे खाते-पीते, उठते-बैठते बेटी की याद आती है. नींद नहीं आती है, रोज़ इंतज़ार रहता है कि मेरी बच्ची घर आएगी."
कोशी की मां देवे मंडावी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "उसने बोला था कि वह दो हफ्ते के लिए काम करने जा रही है और घर के लिए सामान खरीद करलाएगी. मेरी बेटी बहुत काम करती थी, सिर्फ 14 साल की होने के बावजूद वह घर के लिए मजदूरी करने जाती थी. पिछले साल भी वो मजदूरी करने गयी थी और हमारे लिए कपड़े लेकर आयी थी. जब से उसे पुलिस पकड़कर ले गयी है तब से हमारी ज़िन्दगी रुक सी गयी है. हर सुबह मुझे उम्मीद रहती है कि शाम तक मेरी बेटी घर लौट आएगी."
(नोट: न्यूज़लॉन्ड्री ने मनीषा, कोशी और कमली के परिवार से मार्च में बात की थी. कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र कैदियों को रिहा करने के आदेश के तहत तीनों लड़कियां फिलहाल ज़मानत पर हैं.)
नक्सली घोषित किये जाने का खौफ
निलावाया पंचायत के गांवों के लोगों में खौफ है कि उन्हें पुलिस द्वारा कभी भी नक्सली घोषित कर जेल में डाला जा सकता है.
न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत के दौरान 21 साल के लखमा कहते हैं, "जब भी मैं नकुलनार, पालनार, पाटोली या दंतेवाड़ा के बाज़ार जाता हूं, तो डर लगा रहता है कि पुलिस मुझे पकड़ कर नक्सली घोषित ना कर दे. गांव में भी डर लगा रहता है कि पुलिस, डीआरजी वाले आकर गिरफ्तार न कर लें या मार न दें. इसलिए गांव के जवान लड़के-लड़की मजदूरी करने अक्सर शहर चले जाते हैं. लेकिन डर हर जगह लगता है, वो लोग आएंगे, हमें मारेंगे और नक्सली कह कर जेल में डाल देंगे. जब तक हम बेगुनाह होंगे तब तक 4-5 साल जेल में चले जाएंगे."
17 साल के मासाराम मंडावी कहते हैं,"एक साल पहले मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी, पुलिस वाले आते-जाते कभी भी रोक लेते हैं और कहने लगते हैं कि- तुम नक्सलियों की मदद करते हो. एक डर सदा के लिए हमारे मन में बस गया है कि हम पर कभी भी नक्सली होने का इल्ज़ाम लगा के जेल में डाला जा सकता है.”
दमन और जेल
नीलावाया के गुर्रेपारा की मुये मंडावी जब भी अपने घर से 20-30 मीटर की दूरी पर स्थित महुए के पेड़ को देखती हैं, तो साल 2018 की वह भयानक दोपहर उनकी आंखों के सामने आ जाती है. उस दोपहर इनके पति पोडिया लक्का मंडावी उनके घर की छत के कबेलू लगा रहे थे. छत ठीक करने के बाद वो अंदर चौके से खाना निकालकर आंगन में रखने गए. दोनों पति-पत्नी खाना खाने के लिये बैठने ही वाले थे कि तभी कुछ पुलिस वाले उनके घर के पास आ पहुंचे और उन्हें बुलाने लगे.
मुये बताती हैं, "खाने का बर्तन मेरे हाथ में देकर, वो हमारे घर के पास वाले महुए के पेड़ के नीचे खड़े पुलिस वालों के पास गए. लगभग 200 पुलिस वाले वहां थे. वो बस वहां पहुंचे ही थे कि उनमें से कुछ पुलिस वालों ने उनको पकड़ लिया और मारने लगे. मैं भाग कर वहां गयी, मेरे पीछे गाँव की और भी औरतें वहां आयी. पुलिस वालों से मैं बार-बार पूछ रही थी कि वो मेरे पति को क्यों मार रहे हैं. लेकिन वो मेरी बातें अनसुनी कर रहे थे. वह सब औरतों को धमकाने लगे. मेरी सास ने जब उनको रोकने की कोशिश कि तो पुलिस वाले उनको भी मारने लगे."
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते वक़्त पोदिया की 75 साल की मां देवे मंडावी कहती हैं, "मैंने जब पुलिस को मेरे बेटे को ले जाने से मना किया और पूछा कि वो क्यों उसको ले जा रहे हैं तो उन्होंने मुझे डंडों से बहुत मारा. एक हफ्ते तक मैं चल नहीं पायी थी. उस मार के बाद से मेरा शरीर टूट गया है.”
देवे आगे कहती हैं, "मेरी बहु जब भी पेशी पर जाती है उस दिन मैं घर के आंगन में झाड़ू लगाकर रखती हूं, इस उम्मीद में कि शायद शाम को मेरा बेटा घर आएगा. शाम तक इंतज़ार करती हूं, लेकिन जब शाम को बहु आकर कहती है कि आज भी नहीं छोड़ा तो सारी उम्मीदें टूट जाती हैं. पैसे की कमी के चलते पिछले दो साल से बेटे से भी मिलने नहीं जा पायी हूं. मेरी बहू अक्सर अपने साथ चलने को कहती है लेकिन मैं मना कर देती हूं. क्योंकि मुझे पता है कि मेरे बच्चे से जेल में मिलने जाने के लिए उसने खुद दूसरों से कर्ज़ा ले रखा है, मैं और बोझ क्यों बढ़ाऊं.
गौरतलब है कि पुलिस ने पोदिया मांडवी को 20 मई 2018 को चोलनार रोड पर हुए बम विस्फोट और नक्सली हमले के मामले में आरोपी बनाया है. न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद किरंदुल थाने में दर्ज एफआईआर के मुताबिक पेट्रोलिंग पर गयी पुलिस पार्टी के वाहन को पेरपा चौक के आगे नक्सलियों ने बम विस्फोट से क्षतिग्रस्त कर दिया था.
पुलिस द्वारा दाखिल एफआईआर में 18 लोगों के नाम आरोपी के रूप में लिखे हैं. इनमें एक जगह पोदिया भी लिखा हुआ है. एफआईआर में सिर्फ पोदिया लिखा हुआ है. ना उपनाम लिखा है और ना ही पता लिखा है. बाकी आरोपियों का भी बस पहला नाम लिखा है. गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में एक नाम के कई लोग होते हैं, इसलिए आदिवासी संस्कृति में अपना नाम बताते वक़्त वह अपने पिता का नाम और उपनाम लगाते हैं जिससे उनकी पहचान हो सके.
इस एफआईआर में गौर करने वाली दूसरी बात यह है कि इसमें भी वही घटनाक्रम लिखा है जो छत्तीसगढ़ की पुलिस नक्सली हमलो से सम्बंधित हर एफआईआर में लिखती है भले ही चाहे घटना अलग हो. इसमें भी लिखा है कि नक्सली एक दूसरे का नाम पुकार रहे थे जिसके बाद कुछ लोगों को नाम लिखे है और पुलिस पार्टी को भारी पड़ता देख नक्सली जंगल की आड़ लेकर भाग गए.
गुर्रेपारा की रहने वाली सोमढ़ी सोडी के पति 30 वर्षीय भीमा सोडी को पुलिस ने फ़रवरी में गिरफ्तार कर लिया था. उन पर नक्सलियों द्वारा की गयी मोहन भास्कर की हत्या में शामिल होने का आरोप लगा था.
सोमढ़ी न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत के दौरान कहती हैं, "मेरे पति बेलाडिला के किरंदुल बाज़ार में केले बेचने गए थे, लेकिन पुलिस ने उन्हें बाज़ार में गिरफ्तार कर लिया. उनकी गिरफ्तारी की ख़बर उनके साथ गए एक व्यक्ति ने दी थी. उनको दंतेवाड़ा के एक पुलिस थाने में ले गए थे. जब मैं उनसे मिलने पहुंची तो वह रो रहे थे और कह रहे थे कि उनको उल्टा लटकाकर पीटा गया था. वह उन पर हत्या में शामिल होने का दबाव बना रहे थे.”
गौरतलब है कि 17 मार्च को जब डीआरजी/पुलिस के जवान नीलावाया में आये थे तो सोमड़ी के अनुसार उन्होंने उनके घर में भी लूटपाट की थी. वह कहती हैं, "मेरे पति जेल में हैं. जैसे-तैसे वन उपज या फल बेच कर पैसे इंतज़ाम करती हूं. जिससे घर चल जाए और थोड़े बहुत पैसे वकील को दे सकूं. मेरे घर में केले का पेड़ है, केले बेचकर 50-60 रुपये दर्जन के हिसाब से पैसे मिल जाते हैं लेकिन उस दिन डीआरजी वाले मेरे पेड़ के सारे केले ले गए.मैंने उनसे जब केलों के पैसे मांगे तो मुझसे चुप रहने बोलने लगे और ज़मीन पर बिस्किट का आधा पैकेट फेंक कर चले गए."
गुर्रेपारा के सरपंच सुकेश कवासी कहते हैं, "उन्होंने भीमा को बहुत मारा था और उसे कह रहे थे कि वह कबूल करे कि वो मोहन की हत्या में शामिल था. पुलिस ने बोला था कि उसे दो दिन बाद छोड़ देंगे लेकिन दो दिन बाद जब हम गए तो पुलिस ने कहा कि वह नक्सली है, जनमिलीशिया कमांडर है."
पुलिस द्वारा नक्सली मामलों के नाम पर गिरफ्तार किये गए लोगों से मिलने के लिए न्यूज़लॉन्ड्री ने ताड़मेटला का भी दौरा किया. ताड़मेटल वही गांव है जहां सुरक्षा बलों ने मार्च 2011 में 160 घर जला दिए थे.
ताड़मेटला के रहने वाले 50 साल के लखमा अंधा मड़कम का घर भी 2011 में जला दिया गया था. वह बताते हैं, "आज भी सुरक्षाकर्मी (डीआरजी, पुलिस, सीआरपीएफ) आते है और हमें मारपीट कर चले जाते हैं. वो गांव वालों से कहते हैं- तुम नक्सलियों के लिए काम करते हो. लड़कों को मारते-मारते बुरकापाल तक ले जाते है फिर छोड़ देते हैं और अगर पकड़ लेते हैं तो फिर जेल में डाल देते हैं.
35 साल की माड़वी भीमे के पति माड़वी अंधा पिछले चार सालों से सुकमा जेल में हैं. वह कहती हैं, "मेरी पति शादी का धान बांटने एक दूसरे पारा (झोपड़ियों का समूह) में गए थे तब उनको पुलिस ने पकड़ लिया था. फिर वो उन्हें चिंतलनार पुलिस थाने ले गए.पुलिस ने हमको यह तक नहीं बताया कि उन्होंनेमेरे पति को गिरफ्तार कर लिया. इनके गिरफ्तारी की जानकारी बर्रेपारा के एक ग्रामीण ने दी. चार दिन ढूढ़ने के बाद मुझे पता चला कि वो सुकमा जेल में हैं.”
भीमे कहती हैं, "सबसे पहले मैंने एक वकील को दंतेवाड़ा में मुक़दमा लड़ने के दस हजार रुपये दिए, उसके बाद 19 हजार रुपये एक दूसरे वकील को जगदलपुर में दिए. फिर 20 हजार रूपये एक वकील को सुकमा में दिए. पहले दो वकील बोलते थे कि वो मेरे पति को जेल से निकलवा देंगे लेकिन कुछ नहीं हुआ. इसलिए तीसरा वकील किया है. 20 हजार दे चुकी हूं, अब वो तीन हजार और मांग रहा है. वकीलों को पैसे दे सकूं इसलिए मैं मिर्ची तोड़ने की मजदूरी करने आंध्र प्रदेश जाती हूं. मेरे चार बच्चे हैं, उन सबको भी पालना है. एक बच्चा मजदूरी भी करता है.
ताड़मेटला में कुछ ऐसे भी बच्चे है जो अब एक तरह से अनाथ हो चुके हैं. गोंचे मढ़ा पिछले तीन सालों से जगदलपुर जेल में हैं. बुरकापाल में हुए नक्सली हमले के मामले में उनकी गिरफ्तारी हुई थी.उनकी पत्नी को मरे 5 साल हो चुके है और जब से वो जेल में हैं. उनके पांच बच्चे अकेले हो गए थे. हालांकि उनकी भाभी गोंचे चन्नी अब उन बच्चों को ध्यान रखती हैं.
23 साल की कुड़ुम बुद्री के पति कुड़ुम सुक्का बुरकापाल मामले में पिछले तीन साल से जेल में हैं. वह कहती है, "हमारे एक बच्चे की मौत हो गयी. उसकी मौत पर भी जेल से जमानत नहीं मिला था उनको. अब डर लगता है कि पता नहीं मेरे पति कभी वापस आएंगे या नहीं."
छत्तीसगढ़ के नक्सली इलाकों में आदिवासियों पर झूठे मुकदमे कोई नयी बात नहीं है और ऐसे बहुत से उदाहरण भी है जहां कई साल जेल में बिताने वालों की बेगुनाही साबित हुई है. आदिवासियों को झूठे मुकदमों से बरी करने के मद्देनज़र मार्च 2019 में छत्तीसगढ़ सरकार ने एक समिति बनायी थी. इस समिति के अध्यक्ष उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश एके पटनायक है. यह समिति छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में 23 हजार से भी ज़्यादा आदिवासियों के खिलाफ हुए मुकदमों की समीक्षा करने के लिए गठन हुई थी.
समिति ने अक्टूबर 2019 में छत्तीसगढ़ एक्साइज एक्ट के अंतर्गत लगने वाले 313 मुक़दमों को ख़ारिज कर दिया था. मार्च 2020 में समिति ने भारतीय दंड सहिंता (इंडियन पीनल कोड) के तहत आने वाले 234 मुकदमो की समीक्षा की थी जिसमें समिति ने 91 मुकदमों को वापस लेने का तय किया है. हालांकि समिति आदिवासियों से सम्बंधित मुकदमों की समीक्षा का काम कर रही है, लेकिन छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर अभी भी बिना किसी ठोस सबूत के जेलों में रखने की कहानियां बिखरी हुई हैं.
आदिवासियों के खिलाफ हुए मामलों में एफआईआर दर्ज होने से लेकर उनको कोर्ट में पेश करने तक पुलिस के गैरज़िम्मेदार रवैये के ढेरों उदाहरण हैं जिसके चलते बेगुनाह लोगों को सालों-साल जेल में कैद रहना पड़ता हैं.
छत्तीसगढ़ की जेलों में कैद आदिवासियों की कहानियों की शृंखला के तीसरे भाग में हम कुछ ऐसी मामलों पर नज़र डालेंगे जो पुलिसिया तंत्र की कार्यप्रणाली की पोल खोलते नज़र आते हैं.
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छत्तीसगढ़ आदिवासी प्रिजनर्स - 4 हिस्सों की एनएल सेना सीरीज का यह दूसरा पार्ट है. छत्तीसगढ़ की जेलों में बिना कानूनी कार्यवाही या सुनवाई के बंद आदिवासियों पर विस्तृत रिपोर्ट.
पहला पार्ट: छत्तीसगढ़ पार्ट 1: भारतीय गणतंत्र के अभागे नागरिक
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यह स्टोरी एनएल सेना सीरीज का हिस्सा है, जिसमें हमारे 35 पाठकों ने योगदान दिया. यह मानस करमबेलकर, अभिमन्यु चितोशिया, अदनान खालिद, सिद्धार्थ शर्मा, सुदर्शन मुखोपाध्याय, अभिषेक सिंह, श्रेया भट्टाचार्य और अन्य एनएल सेना के सदस्यों से संभव बनाया गया था.थ
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