शीत युद्ध 2.0: जी-सेवेन या अमेरिकी सर्कस

अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के पास चीन को हाशिए पर रखने के बाद किसी वैकल्पिक विश्व व्यवस्था का कोई ब्लूप्रिंट नहीं है.

WrittenBy:प्रकाश के रे
Date:
Article image

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जी-7 की शिखर बैठक में भारत के अलावा रूस, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया के नेताओं को भी न्यौता भेजा है. इस संदर्भ में अब तक जो टिप्पणियां और प्रतिक्रियाएं आयी हैं, उनके हवाले से वैश्विक राजनीति के मौजूदा दौर को समझने में बड़ी मदद मिल सकती है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों की हलचलों को कोरोना संक्रमण से पैदा हुई परिस्थितियों ने काफी हद तक प्रभावित किया है, परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये सब कोरोना पूर्व की खींचतान का ही विस्तार है.

भारत में या अन्यत्र भी इस समूह (जी-7) के विस्तार को लेकर राष्ट्रपति ट्रंप की इच्छा के बारे में जो चर्चा है, उसका बहुत अधिक महत्व नहीं है. यह सभी जानते हैं कि इसमें रूस को शामिल करने पर ब्रिटेन और कनाडा को आपत्ति है. चूंकि अमेरिका और उसके सबसे नज़दीकी सहयोगी देश ब्रिटेन और कनाडा चीन को लेकर आक्रामक हैं, तो रूस के लिए सदस्यता को स्वीकार कर पाना मुश्किल होगा.

चीन-अमेरिका शीत युद्ध

रूसी संसद के ऊपरी सदन फ़ेडरेशन काउंसिल के विदेशी मामलों की समिति के प्रमुख कोंस्टेंटाइन कोसाचेव ने कहा है कि चार देशों को राष्ट्रपति ट्रंप का आमंत्रण चीन को अलग-थलग करने का एक प्रयास है. एक अहम बात जो कोसाचेव ने रेखांकित की है, वह यह कि न तो अमेरिकी राष्ट्रपति को जी-7 के विस्तार का अधिकार है और न ही आमंत्रित देशों को निर्णय प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का. इस तरह से रूस ने इस बैठक में शामिल होने से इनकार तो कर ही दिया है, साथ ही उसने यह संकेत भी दे दिया है कि मौजूदा माहौल में आगे भी किसी ऐसे आमंत्रण को स्वीकार कर पाना मुश्किल होगा. वैसे रूस ने प्रस्तावित बैठक की रूप-रेखा पर अमेरिका से स्पष्टीकरण भी मांगा है. इस संदर्भ में यह ध्यान देने की बात है कि चीन और रूस के संबंध बीते कुछ सालों में गहरे हुए हैं.

हमें इस सच्चाई को भी स्वीकार करना होगा कि अमेरिका और चीन के बीच पिछले सालों का व्यापार युद्ध अब एक शीत युद्ध का रूप ले चुका है, या दोनों देश कम-से-कम शीत युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने कोरोना प्रकरण तथा वाणिज्य-व्यापार को लेकर लगातार चीन के विरुद्ध बयानबाज़ी की है. चीनी टेलीकॉम कंपनी हुवावे के संस्थापक रेन झेंग की बेटी और कंपनी की मुख्य वित्तीय अधिकारी मेंग वांझाऊ की दिसंबर, 2018 में कनाडा में गिरफ़्तारी के बाद कनाडा और चीन के संबंध ख़राब चल रहे हैं. यह गिरफ़्तारी अमेरिका के इशारे पर हुई थी. अमेरिका का आरोप है कि ईरान पर उसके प्रतिबंधों के बावजूद हुवावे ने एक ईरानी कंपनी के साथ लेन-देन किया था. अमेरिका मेंग का प्रत्यर्पण करना चाहता है और कनाडा में इस बाबत अदालती कार्रवाई जारी है.

हॉन्ग कॉन्ग की सुरक्षा को लेकर चीन द्वारा प्रस्तावित क़ानून के विरोध में अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा जारी विरोधपत्र पर अमेरिका के अलावा ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने भी हस्ताक्षर किए हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन में चीन को घेरने की कवायद में कोरोना वायरस के संक्रमण के सभी पहलुओं पर जांच के प्रस्ताव को लाने में ऑस्ट्रेलिया की अग्रणी भूमिका थी. चीन और ऑस्ट्रेलिया में तनातनी का आलम यह है कि दोनों देश के आयात-निर्यात पर अधिक शुल्क लगाने का सिलसिला शुरू हो चुका है. ऐसे माहौल में स्वाभाविक रूप से चीन जी-7 की हलचलों को लेकर खिन्न है और उसने इसे चीन के विरुद्ध एक छोटे गुट की संज्ञा दी है.

उल्लेखनीय है कि 2014 में रूस द्वारा क्रीमिया पर कब्जे के बाद उसे इस समूह से हटा दिया गया था. तब इसे जी-8 के नाम से जाना जाता था. फिलहाल सात देशों के अलावा यूरोपीय संघ के प्रतिनिधि भी इसमें शामिल हैं. जहां तक भारत को मिले आमंत्रण का मामला है (रिपोर्टों के मुताबिक प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति ट्रंप से फ़ोन पर बातचीत में आमंत्रण को स्वीकार कर लिया है और शिखर बैठक में उनके शामिल होने की पूरी संभावना है.), तो यह जी-7 में प्रधानमंत्री मोदी की दूसरी शिरकत होगी. वे पिछले साल फ़्रांसीसी राष्ट्रपति मैकरां के न्यौते पर गए थे.

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल में पांच बार इस समूह की बैठकों में शामिल हो चुके हैं. ऐसे में इस आमंत्रण और प्रधानमंत्री के जाने को भारतीय विदेश नीति या व्यापार सहयोग के लिए बहुत अधिक महत्व देना सही नहीं होगा, जैसा कि हमारी मीडिया का बड़ा हिस्सा और बहुत सारे विश्लेषक दे रहे हैं. इसकी एक बड़ी वजह यह है कि पिछली बैठकों में और हाल के राष्ट्रपति ट्रंप के व्यवहार तथा प्राथमिकताओं को लेकर कई तरह के संदेह जताए जा रहे हैं.

यूरोपीय संघ और चीन

कोसाचेव का कहना है कि चीन जैसे अनेक ऐसे देश हैं, जो प्रभावशाली और शक्तिशाली हैं. ऐसे में चीन को छोड़कर चार देशों को बुलाकर राष्ट्रपति ट्रंप चीन के विरुद्ध देशों का एक गुट खड़ा करना चाहता हैं. कोसाचेव कहते हैं कि किसी एक देश को निशाने पर रखकर कोई समूह बनाने के वे विरोधी हैं. रूसी विदेश मंत्रालय ने भी स्पष्ट किया है कि चीन की भागीदारी के बिना कोई भी वैश्विक प्रयास सफल नहीं हो सकता है. इस बात से शायद ही कोई ट्रंप समर्थक भी असहमत हो सकता है.

चीन को अलग-थलग करने के राष्ट्रपति ट्रंप के इरादे से जी-7 में यूरोपीय संघ के देश भी ऊहापोह में हैं. वे अमेरिकी राष्ट्रपति के पिछलग्गू या उनके एजेंडे पर चलते हुए नहीं दिखना चाहते हैं. एक अंदेशा तो यह है कि राष्ट्रपति ट्रंप इस बैठक का इस्तेमाल चीन के विरोध के लिए करेंगे और इसमें वे यूरोप को भी अपने पाले में दिखाना चाहेंगे, दूसरा अंदेशा यह भी है कि वे नवंबर में होनेवाले अपने चुनाव में इस बैठक से फ़ायदा उठाना चाह रहे हैं. जैसा कि जानकार इशारा कर रहे हैं, यूरोपीय संघ चीन के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को संकट में नहीं डालना चाहता है तथा वे जी-7 को समूह के घोषित उद्देश्यों पर वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं.

कोरोना संक्रमण के कारण पहले जून में प्रस्तावित बैठक में जाने से जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने मना कर दिया था. इसी बीच चांसलर मर्केल के नेतृत्व में यूरोपीय देशों के साथ चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ होने वाली बैठक को भी रद्द करना पड़ा है, लेकिन दोनों नेताओं ने बातचीत की है और जल्दी ही इस बैठक के आयोजन की संभावना है. जी-7 को लेकर राष्ट्रपति ट्रंप के इरादे और यूरोप के असमंजस में इस बैठक के मतलब को किनारे नहीं रखा जा सकता है. चांसलर मर्केल कह चुकी हैं कि सिर्फ़ इस बात को लेकर चीन के साथ संबंध तनावपूर्ण नहीं बनाए जा सकते हैं कि उसने आर्थिक रूप से बहुत प्रगति की है. हाल में जर्मनी के विदेश मंत्री हीको मास ने बहुपक्षीय व्यवस्था पर ज़ोर दिया है.

राष्ट्रपति ट्रंप के पदभार संभालने के बाद से अमेरिका और यूरोपीय संघ के संबंधों में बहुत गिरावट आयी है और इसके लिए सबसे अधिक दोषी राष्ट्रपति ट्रंप को ही माना जाता है. मर्केल और मैकरां इस बारे में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से बयान भी देते रहे हैं. पेरिस जलवायु सम्मेलन, ईरान परमाणु समझौता, नाटो के प्रबंधन, जेरूसलम को इज़रायल की राजधानी मानने, विश्व स्वास्थ्य संगठन से अलग होने, ब्रेक्ज़िट आदि कई ऐसे मसले रहे जिनको लेकर यूरोपीय संघ और राष्ट्रपति ट्रंप व उनके प्रशासन का रूख अलग-अलग और परस्पर विरोधी रहा है.

यूरोपीय संघ और रूस

चीन के साथ अपने संबंधों की वजह से रूस किसी भी ऐसी गुटबाज़ी का हिस्सा नहीं हो सकता है, जो उसके हितों के विरुद्ध हो और चीन के साथ उसके संबंधों पर नकारात्मक असर डाले. राष्ट्रपति ट्रंप का रूख चाहे जो रहा है, अमेरिका ने लगातार रूस पर पाबंदियां लगायी हैं तथा उसकी अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों में अड़ंगा डालने की कोशिश की है. सीरिया और यूक्रेन के मामलों में इसे साफ़ देखा जा सकता है. इसके उलट चीन पूरी तरह से रूस के साथ खड़ा रहा है. जैसा कि पेपे एस्कोबार ने अपने एक लेख में रेखांकित किया है, “इस सहयोग का एक परिणाम यह है कि दोनों देशों ने मध्य एशिया में पुरानी आपसी होड़ को त्याग दिया है. भले ही यह होड़ फिर उभर सकती है, पर इस क्षेत्र में वैश्विक शक्तियों की होड़ में चीन ने रूस की पक्षधरता की है.”

कोसाचेव भी कहते हैं कि पश्चिम में रूस-विरोधी अभियान ने रूस को चीन के क़रीब जाने में योगदान दिया है, उसी तरह चीन-विरोधी अभियान भी इस निकटता पर सकारात्मक असर डालेगा. अमेरिका में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टी तथा सुरक्षा और विदेश नीति से जुड़े लॉबी समूहों में ऐसे तत्वों की भरमार है, जो रूस को परंपरागत और ख़तरनाक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखते हैं. हालांकि यूरोप में भी कमोबेश ऐसा ही माहौल रहा है, जो नाटो और यूरोपीय संघ के अधिकारियों के बीच-बीच में आते बयानों से समझा जा सकता है, परंतु कुछ समय से यूरोपीय संघ ने रूस से सहयोग बढ़ाने में दिलचस्पी ली है. इस पर भी अमेरिका को आपत्ति रही है.

रूस के महत्वपूर्ण प्रभावशाली थिंक टैंक काउंसिल ऑन फ़ॉरेन एंड डिफ़ेंस पॉलिसी से जुड़े वरिष्ठ प्रोफ़ेसर सर्गे कारागानोव ने रेखांकित किया है कि रूस और यूरोपीय संघ के संबंध सामान्य होने की ओर अग्रसर हैं. इस संबंध में यह भी संज्ञान लिया जाना चाहिए कि एशिया में रूस के व्यापार का लगातार विस्तार हो रहा है. चीन का वर्चस्व तो बढ़ ही रहा है. ऐसे में तमाम रूस या चीन विरोधी परंपरागत हैंगओवर के बावजूद यूरोप का इन दो देशों के संबंधों को बेहतर बनाना अमेरिका के अनिश्चित नीतिगत व वाणिज्यिक सोच के साथ आंख मूंदकर जाने से बेहतर विकल्प है.

कारागानोव तो यहां तक प्रस्तावित करते हैं कि रूस भविष्य में दो ध्रुवों- चीन और अमेरिका- के बीच संतुलनकारी भूमिका तथा नए गुट-निरपेक्ष देशों के लिए संरक्षणकारी भूमिका निभा सकता है. ऐसा होगा या नहीं, यह बाद की बात है, लेकिन इससे यह संकेत तो मिलता ही है कि रूस बदलती विश्व व्यवस्था में अपने लिए एक विशिष्ट भूमिका की आकांक्षा रखता है और इसे पूरा करने के लिए वह यूरोप के साथ संबंधों को सुधारने में अपनी ओर से पूरी कोशिश करेगा.

ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा

इन तीन देशों ने चीन विरोधी अभियान में अमेरिका का पूरा साथ दिया है, पर रूस को जी-7 में शामिल करने के राष्ट्रपति ट्रंप के `इरादे को इनका समर्थन मिल पाना बहुत मुश्किल है. ब्रिटेन और कनाडा ने स्पष्ट ही कर दिया है. ब्रिटिश प्रधानमंत्री जी-7 को डी-10 के रूप में विस्तारित करना चाहते हैं. यहां डी का मतलब डेमोक्रेसी से है और इस प्रस्तावित समूह के प्राथमिक एजेंडे के रूप में 5जी तकनीक में चीन के वर्चस्व को तोड़ने को चिन्हित किया गया है.

हाल ही में ब्रिटेन ने हुवावे कंपनी को इस तकनीक के विस्तार का एक अस्थायी लाइसेंस दिया है, पर जल्दी ही उसकी वापसी की आशंका है. इसके लिए सत्तारूढ़ कंज़रवेटिव पार्टी के भीतर से भी दबाव है. यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के पूरी तरह से अलग होने की आख़िरी तारीख़ इस साल के अंत में है. ऐसे में ब्रिटेन अपने लिए भी एक भूमिका की तलाश में है. हॉन्ग कॉन्ग के मसले में भी उसकी गहरी दिलचस्पी है और सात पूर्व विदेश सचिवों ने प्रधानमंत्री से इस मुद्दे पर भी लोकतांत्रिक देशों की लामबंदी का आग्रह किया है.

कनाडा में भी जी-7 के आयोजन के समय को लेकर असंतोष है और उन्हें आशंका है कि यह एक तमाशा भी बन सकता है, पर सरकार के भीतर और बाहर के जानकारों का मानना है कि प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को बैठक में शामिल होना चाहिए. प्रधानमंत्री ट्रूडो ने कुछ दिन पहले कह दिया था कि रूस को अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन के कारण जी-7 से अलग किया गया था और वह अब भी वैसा ही कर रहा है, इसलिए उसे बाहर ही रखा जाना चाहिए.

प्रधानमंत्री के पहले विदेश नीति सलाहकार प्रोफ़ेसर रोनाल्ड पेरिस की राय है कि ‘ट्रंप की आंख खोदने से हमें कोई फ़ायदा नहीं होगा और ट्रूडो उनसे अपने नीतिगत मतभेद को कम उकसावे वाले तरीक़ों से व्यक्त कर सकते हैं. पेरिस का भी मानना है कि ट्रंप प्रशासन ने इस समूह को कमतर किया है. कनाडा में राष्ट्रपति ट्रंप के दुबारा चुने जाने के लेकर भी एक भय है. इसी कारण कनाडाई कूटनीतिज्ञ कॉलिन रॉबर्टसन का सुझाव है कि इस बैठक में शामिल होना चाहिए क्योंकि ट्रंप फिर से राष्ट्रपति बन सकते हैं और कनाडा को चीन समेत कई मोर्चों पर अमेरिका की ज़रूरत होगी.

वरिष्ठ ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार लौरा टिंगल ने ऑस्ट्रेलिया से अमेरिका की यात्रा पर ट्रंप प्रशासन द्वारा लगायी गयी रोक का हवाला देते हुए लिखा है कि अमेरिका को कभी नाराज़ नहीं करने की ऑस्ट्रेलिया की नीति इस मामले में भी दिख रही है. उन्होंने देश में चल रहे एक चुटकुले का उल्लेख भी किया है कि लोग अमेरिका से पहले चीन आना-जाना शुरू कर देंगे. इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन द्वारा राष्ट्रपति ट्रंप के आमंत्रण को स्वीकार करने की बात लिखी है. टिंगल ने एक अहम बात कही है कि यह समूह एक सांकेतिक महत्व ही रखता है. अमेरिका में चल रहे प्रदर्शनों का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि यह बैठक एक राजनीतिक दिखावा है और पहले की बैठकों का इस्तेमाल भी राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने घरेलू दर्शकों के लिए किया है. टिंगल ने चासंलर मर्केल का उदाहरण देते हुए कहा है कि कोरोना संकट से पैदा हुई आर्थिक चुनौतियां प्रधानमंत्री की प्राथमिकता होनी चाहिए, न कि सर्कस में हिस्सेदारी.

भारत और जी-7

ऊपर के विश्लेषण से स्पष्ट है कि जी-7 के सदस्य देशों में प्रस्तावित बैठक को लेकर असमंजस की स्थिति है और वे राष्ट्रपति ट्रंप, रूस और चीन को लेकर अलग-अलग कारणों से असहज हैं, भले ही उस असहजहता को पारंपरिक शब्दावली से ढंकने की कोशिश की जा रही है. यह भी साफ़ दिखता है कि न केवल यूरोपीय संघ, बल्कि अन्य देश भी, अमेरिका समेत, चीन और रूस के साथ संबंधों को पूरी तरह से बिगाड़ना भी नहीं चाहते हैं. उनके पास चीन को हाशिए पर रखकर एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था का कोई ब्लूप्रिंट भी नहीं है. अन्य देशों, विशेषकर यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया, का चीन से कटकर रहने का कोई इरादा भी नहीं है. ऐसे में चुनावी महीने से पहले अमेरिका जाने और चीन के विरुद्ध ट्रंप प्रशासन के कोरस का हिस्सा बनने की चिंता इस बैठक पर पहले ही ग्रहण लगा चुकी है.

फिर भारत की भागीदारी को कैसे देखा जाए! क्या यह ह्यूस्टन की हाउडी मोदी और अहमदाबाद की नमस्ते ट्रंप रैलियों की कड़ी में एक आयोजन होगा, जिसे बहुत से पर्यवेक्षक चुनावी गणित से जोड़कर देखते हैं? क्या भारत दो ताक़तवर देशों के शीत युद्ध में अमेरिका के पक्ष में खड़ा होगा? क्या यह सुविचारित निर्णय होगा या स्थितियों के कारण कोई विवशता होगी?

मेघनाद देसाई ने लिखा है कि इस शीत युद्ध में भारत अलग नहीं रह सकेगा. देश के भीतर सरकार समर्थक समूहों और मीडिया ने चीन के विरुद्ध माहौल बनाना शुरू कर दिया है और लद्दाख में दोनों देशों की सेनाओं की गतिविधियों ने इस माहौल को और सघन ही किया है. हमारे देश में चीन के साथ व्यापक व्यापार और निवेश के बावजूद बहुत अरसे से चीन-विरोधी मानस बना हुआ है. क्या ये कारक प्रभावी होंगे? अगर भारत अमेरिकी ख़ेमे में शामिल होता है, तो फिर क्या सरकार के पास चीन को लेकर कोई आर्थिक और सामरिक रणनीति है? या फिर सबकुछ राष्ट्रपति ट्रंप की तरह भारतीय नेतृत्व के लिए भी घरेलू दर्शकों के लिए मन-मुताबिक एक और इवेंट होगा?

भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रपति ट्रंप का व्यवहार उनके अपने सहयोगी देशों के साथ कैसा रहा है? बदलती विश्व व्यवस्था में भारत के पक्ष में एक बड़ी सकारात्मक बात यह है कि उसके संबंध तमाम देशों के साथ कमोबेश ठीक हैं. इसका लाभ उठाने के बारे में भी सोचने का एक विकल्प है. बहुपक्षीय अंतरराष्ट्रीय तंत्र और गुट-निरपेक्षता से हमारा अधिक भला हो सकता है. ध्यान रहे, हाथियों की लड़ाई में केवल घास ही नहीं कुचली जाती, अक्सर आसपास के पेड़ भी उखड़ जाते हैं या तबाह हो जाते हैं.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like