संशय’ पत्रकारिता का बुनियादी उसूल है. सवाल करना लाज़िमी है, चाहे सामने कितनी बड़ी हस्ती क्यों न हो, लेकिन जहां बदनीयती हो वहां ऐसा करना अपराध मान लिया जाता है. विनोद दुआ के साथ यही हुआ है. वे लगातार सवाल पूछ रहे थे. उन पर मुकदमा दर्ज करवा दिया गया. जिस तरीके से एक के बाद एक सवाल पूछने वाले, संशय करने वाले पत्रकारों को प्रताड़ित किया जा रहा है, लगता है कि सरकारें अब केवल उन्हीं लोगों को पत्रकारिता करने देंगी जो उनके अपने लोग हैं. यह लीक बहुत पहले अमेरिका में बनी थी, दशकों बाद अब भारत में इसकी नकल की जा रही है. अमेरिकी पत्रकारों के लिए सच का पीछा करने कि ज़िद बेरोज़गार होने की गारंटी बनता गया. नतीजा यह हुआ कि संशयवादी पत्रकारों की जगह ‘देशभक्त पत्रकारों’का उदय हुआ. आज ऐसा ही कुछ भारत में हो रहा है. सवाल उठाने वाले पत्रकारों की देशभक्ति पर सवाल उठाये जा रहे हैं. राबर्ट पैरी, असोसिएटेड प्रेस से जुड़े मशहूर खोजी पत्रकार रहे हैं जिनकी दो साल पहले मौत हो गयी, उन्होंने इस परिघटना पर कुछ साल पहले एक महत्वपूर्ण लेख लिखा था जिसका अनुवाद यहां प्रस्तुत है. अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है.
‘संशयवादी पत्रकारिता’ का चरम दौर 1970 के दशक के मध्य में आया जब प्रेस ने रिचर्ड निक्सन के वाटरगेट घोटाले का उद्घाटन किया और वियतनाम की जंग से जुड़े पेंटागन के दस्तावेज़ों समेत सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआइए) के कुकर्मों का परदाफाश किया, जैसे अमेरिकियों की अवैध जासूसी और चुनी हुई सरकार का तख्तापलट करने में चिली की सेना को सीआइए द्वारा दी गई मदद, आदि.
प्रेस की इस नई आक्रामकता के पीछे कुछ कारण थे. बेकार की वजहों से वियतनाम की लंबी जंग में मारे गए 57,000 अमेरिकी फौजियों के चलते कई रिपोर्टर ऐसे रहे जिन्होंने सरकार को संदेह का लाभ देना बंद कर दिया था.
प्रेस अब जनता के जानने के अधिकार का आह्वान करने लगा था, भले ही मामला राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे गोपनीय मसले से ही क्यों न जुड़ा हो.
पत्रकारों का यह संशयवाद उन सरकारी अधिकारियों के आड़े आ रहा था जिन्हें अब तक विदेश नीति में अपनी मनमर्जी से काम करने की छूट मिली हुई थी. दूसरे विश्व युद्ध के दौर के ‘वाइज़ मेन’ और ‘ओल्ड ब्वायज़’ को अब अपनी किसी भी कार्रवाई के पीछे जनता की सहमति प्राप्त करने में ज्यादा दिक्कत होने लगी थी.
राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा अभिजात्य वर्ग, जिसमें सीआइए के तत्कालीन निदेशक जॉर्ज एचडब्लू बुश भी शामिल थे, वियतनाम जंग के बाद उभरी पत्रकारिता को दुनिया भर में अपने आभासी शत्रुओं के खिलाफ अमेरिका की हमला करने की क्षमता के लिए एक खतरे के रूप में देख रहा था.
राबर्ट पैरी
वाटरगेट और वियतनाम की जंग के बाद जो अविश्वास फैला, उसी के सहारे हालांकि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े रूढ़िपंथी तत्वों का नए सिरे से उभार भी हुआ और इराक की विनाशक युद्धभूमि में कूदने से पहले वह प्रेस पर नियंत्रण की इस हद तक पहुंच गया कि अपेक्षया कहीं ज्यादा ‘देशभक्त’ प्रेस को वो यह बताने लगा कि उसे जनता को क्या पढ़वाना चाहिए.
‘संशयवादी’ पत्रकारिता से ‘देशभक्त’ पत्रकारिता में परिवर्तन का एक आरंभिक बिंदु 1976 में आया था जब सीआइए के कुकर्मों पर ओटिस पाइक की रिपोर्ट को रोका गया था. सीआइए के निदेशक बुश ने परदे के पीछे रह कर कांग्रेस को इस बात पर राज़ी किया था कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र इस रिपोर्ट को दबाया जाना बहुत ज़रूरी है.
सीबीएस न्यूज़ के संवाददाता डेनियल के हाथ पूरी रिपोर्ट लग गई और उन्होंने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया. उन्होंने विलेज वॉयस को रिपोर्ट लीक कर दी और लापरवाह पत्रकारिता के आरोप में उन्हें सीबीएस से निकाल दिया गया.
70 के दशक में मीडिया की जंग पर लिखी अपनी पुस्तक चैलेंजिंग दि सीक्रेट गवर्नमेंट में कैथरीन ओमस्टेड ने लिखा, “रिपोर्ट में लगे आरोपों से मीडिया का ध्यान हटाकर उसके असमय उद्घाटन की ओर केंद्रित करने का काम बड़ी कुशलता के साथ कार्यपालिका ने किया.”
ओमस्टेड ने लिखा, “बाद में सीआइए के वकील (मिशेल) रोगोविन ने माना कि राष्ट्रीय सुरक्षा को रिपोर्ट से होने वाले नुकसान को लेकर कार्यपालिका की ‘चिंता’ उतनी वास्तविक नहीं थी.” शॉर के मामले ने हालांकि इस मामले में एक अहम लकीर खींचने का काम किया.
अभी तो ‘संशयवादी पत्रकारों’ के खिलाफ हमले की यह शुरुआत भर थी.
70 के दशक के अंत में कंजर्वेटिव नेताओं ने अपना एक अलग मीडिया का ढांचा खड़ा करने में पैसा लगाना और साथ ही ऐसे हमलावर समूहों को पोषित करना शुरू किया जिनका काम मुख्यधारा के ऐसे पत्रकारों को निशाना बनाना था जिन्हें कुछ ज्यादा ही उदारवादी या अपर्याप्त देशभक्त समझा जाता था.
निक्सन के पूर्व वित्तमंत्री बिल साइमन ने इस काम की पहल की. एक कंजर्वेटिव संस्थान ओलिन फाउंडेशन के प्रमुख रहे साइमन ने समान विचार वाले उन फाउंडेशनों को एक साथ लाने का काम किया जो लिंड और हैरी ब्रेडली, स्मिथ रिचर्डसन, स्काइफ परिवार और कूर्स परिवार से जुड़े थे ताकि वे अपने संसाधनों का निवेश कंजर्वेटिव सरोकारों को आगे बढ़ाने में कर सकें.
फिर कंजर्वेटिव विचार वाली पत्रिकाओं में पैसा लगाया जाने लगा तथा राष्ट्रीय मीडिया के कथित ‘उदार रवैये’ की मलामत करने वाले एक्युरेसी इन मीडिया जैसे हमलावर समूहों को वित्तपोषित करके उदारवादी पत्रकारों को निशाने पर लिए जाने का काम शुरू हुआ.
अस्सी के दशक के आरंभ में रोनाल्ड रीगन के राष्ट्रपति बनने के साथ इस रणनीति ने रफ्तार पकड़ी.
सरकार ने इस काम के लिए एक महीन तरीका अपनाया जिसे अंदरखाने “परसेप्शन मैनेजमेंट” यानी धारणा प्रबंधन का नाम दिया गया. इसकी कमान उन बौद्धिक नीति-निर्माताओं को थमायी गई जिन्हें अब नियो-कंजर्वेटिव या नव-रूढ़िपंथी के नाम से जाना जाता था. इसमें उन पत्रकारों को निशाना बनाया जाना शामिल था जो सरकार से असहमत होते थे.
रोनाल्ड रीगन अमेरिकी राष्ट्रपति
इसीलिए जब न्यूयॉर्क टाइम्स के संवाददाता रेमंड बॉनर ने अल सल्वाडोर से दक्षिणपंथी हत्यारे गिरोहों पर रिपोर्ट की, तो उनकी खूब आलोचना हुई और उनकी देशभक्ति को चुनौती दी गई. बॉनर ने अल मोजोते शहर के आसपास सल्वाडोर की सेना द्वारा 1982 की शुरुआत में किए गए एक नरसंहार का उद्घाटन किया था. इस सेना को अमेरिकी समर्थन प्राप्त था. इस ख़बर ने व्हाइट हाउस को नाराज़ कर दिया था. यह ख़बर तब प्रकाशित हुई जब रीगन मानवाधिकारों के मामले में सेना के कामों का बखान कर रहे थे.
रीगन की विदेश नीति की आलोचना करने वाले दूसरे पत्रकारों की ही तरह बॉनर की प्रतिष्ठा पर भी सार्वजनिक हमले किए गए और उनके संपादकों पर निजी रूप से दबाव बनाया गया कि वे उन्हें नौकरी से हटाएं. बॉनर का करियर जल्द ही खत्म हो गया. मध्य अमेरिका से हटाए जाने के बाद उन्होंने अख़बार से इस्तीफा दे दिया.
बॉनर का इस्तीफा राष्ट्रीय समाचार मीडिया को एक कड़ा संदेश था कि जो पत्रकार रीगन के व्हाइट हाउस को चुनौती देंगे उनका यही हश्र होगा. (कई साल बाद जब एक फॉरेंसिक जांच में अल मोजोते नरसंहार की बात सच साबित हुई, तब न्यू यॉर्क टाइम्स ने बॉनर को दोबारा अपने यहां नौकरी पर रख लिया).
कंजर्वेटिव कार्यकर्ता हालांकि नियमित रूप से बड़े अखबारों में और टीवी नेटवर्क पर “उदार मीडिया” का रोना रोते रहते थे, लेकिन रीगन प्रशासन को वास्तव में अमेरिकी समाचार संस्थानों के शीर्ष पदों पर ऐसे तमाम लोग अपने आप मिल गए जो उनके हमकदम होने को तैयार बैठे थे.
न्यूयॉर्क टाइम्स में कार्यकारी संपादक एबे रोजेंथाल आम तौर से साम्यवाद के घोर विरोध वाली नियो-कंजर्वेटिव लाइन लेते थे और इज़रायल के जबरदस्त समर्थक थे. नए मालिक मार्टिन पेरेज़ के आने के बाद कथित रूप से वामपंथी न्यू रिपब्लिक भी कुछ ऐसे ही विचलन की स्थिति में चला गया और उसने निकारागुआ के कांट्रा विद्रोहियों का खुलकर समर्थन किया.
मैं जिस असोसिएटेड प्रेस में काम करता था, वहां के जनरल मैनेजर कीथ फुलर को रीगन की विदेश नीति का सशक्त समर्थक और 1982 के हालिया सामाजिक बदलाव का घोर आलोचक माना जाता था. फुलर ने साठ के दशक की निंदा करते हुए और रीगन के चुनाव की सराहना करते हुए एक भाषण भी दिया था.
वॉरसेस्टर के अपने एक भाषण में फुलर ने कहा था, “हम जब उथल-पुथल भरे साठ के दशक को आज पीछे मुड़कर देखते हैं, तो उस दौर की याद करते हुए कंपकंपी पैदा हो जाती है जो इस देश की नस ही काट देने पर आमादा था.” उन्होंने कहा था कि साल भर पहले रीगन का चुना जाना इस बात का द्योतक है कि यह देश ”काफी” कराह चुका था…
अकेले फुलर ही नहीं, कुछ अहम समाचार संस्थानों के अधिकारियों के भी ऐसे ही ख़याल थे जहां रीगन की आक्रामक विदेश नीति का खुली बांहों से स्वागत किया जा रहा था. ऐसे श्रमजीवी पत्रकार जो इस बदलाव को नहीं देख पा रहे थे, खतरे के कगार पर खड़े थे.
रीगन की 1984 के चुनाव में भारी जीत के समय तक तो कंजर्वेटिवों ने ऐसे पत्रकारों और नेताओं के खिलाफ़ बाकायदे नारे गढ़ लिए थे जो अब भी अमेरिकी विदेश नीति के अत्याचारों की मुखालफ़त करते थे. ऐसे लोगों को ”ब्लेम अमेरिका फिस्टर्स” कहा जाता था और निकारागुआ वाले संघर्ष के मामले में विरोधियों को ”सेंदिनिस्ता के हमदर्द” कह कर पुकारा जाता था.
ऐसे अपशब्दों का पत्रकारों की देशभक्ति पर व्यावहारिक असर यह हुआ कि रीगन की विदेश नीति पर संशयवादी रिपोर्टिंग को हतोत्साहित कर दिया गया तथा प्रशासन को जनता की निगाह से दूर मध्य अमेरिका और मध्य पूर्व में अपने सैन्य अभियान चलाने की ज्यादा छूट मिल गई.
अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश
धीरे-धीरे पत्रकारों की नई पीढ़ी आई जो इस समझदारी से युक्त थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों पर बहुत ज्यादा शक़-शुबहा करियर के लिए घातक साबित हो सकता है.
व्यावहारिक तौर पर ये पत्रकार अच्छी तरह जानते थे कि रीगन की विदेश नीति को खराब दर्शाने वाली बेहद ज़रूरी ख़बरों को भी चलाने का शायद ही कोई मतलब बने, सिवाय इसके कि आप खुद कंजर्वेटिवों के विस्तारित होते हमला तंत्र का शिकार बन जाएंगे. आपको विवाद में घसीट लिया जाएगा. पत्रकारों के खिलाफ़ ऐसी हरकतों के लिए रीगन के लोग एक शब्द का इस्तेमाल करते थे- “कॉन्ट्रोवर्सियलाइज़”.
मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि ईरान-कॉन्ट्रा वाले गोपनीय अभियानों को सामने लाने में अमेरिकी मीडिया को इतनी देर क्यों लगी, जिसके तहत ईरान की चरमपंथी इस्लामिक सरकार को गोपनीय तरीके से हथियार बेचे गए और उससे निकले कुछ मुनाफे समेत अन्य गोपनीय कोषों से निकारागुआ में सेंदिनिस्ता की सरकार के खिलाफ़ कॉन्ट्रा के युद्ध में वित्तीय मदद दी गई.
एपी को खोजी खबरों के लिए वैसे तो नहीं जाना जाता था और मेरे वरिष्ठ ऐसी ख़बरों के उत्सही समर्थक भी नहीं थे, लेकिन हम लोग 1984, 1985 और 1986 में इस ख़बर को इसलिए कर पाने में कामयाब हुए क्योंकि तब न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और दूसरे समाचार संस्थान इस ओर से अपना मुंह फेरे हुए थे.
इस घोटाले को सामने लाने में दो घटनाओं से मदद मिली- निकारागुआ के आकाश में अक्टूबर 1986 में एक आपूर्ति विमान का मार गिराया जाना और नवंबर 1986 में लेबनान के एक अख़बार में ईरान के मामले में ख़बर प्रकाशित होना.
1986 के अंत और 1987 के आरंभ में ईरान-कॉन्ट्रा कवरेज की बाढ़ आ गई, लेकिन रीगन प्रशासन शीर्ष अधिकारियों जैसे खुद रीगन और जॉर्ज एचडब्लू बुश को बचा पाने में कामयाब रहा.
उस वक्त बढ़ रहे कंजर्वेटिव मीडिया की कमान रेवरेंड सुन म्युंग मून के वॉशिंगटन टाइम्स के हाथ में थी. उसने ऐसे पत्रकारों और सरकारी जांच अधिकारियों को आड़े हाथों लिया जो इस मामले को रीगन और बुश से जोड़ने का दुस्साहस करते थे.
ईरान-कॉन्ट्रा घोटाले को रोकने की कोशिश मुख्यधारा के मीडिया में भी हुई. न्यूज़वीक, जहां मैं 1987 के आरंभ में काम करने गया, उसके संपादक मेनार्ड पार्कर यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि रीगन भी इसमें फंस सकते हैं.
रिटायर्ड जनरल ब्रेन्ट स्काउक्रॉफ्ट और तत्कालीन प्रतिनिधि डिक चेनी के साथ न्यूज़वीक के एक साक्षात्कार में पार्कर ने इस बात के लिए समर्थन जताया था कि रीगन की भूमिका का बचाव किया जाना चाहिए, भले ही उसके लिए झूठे साक्ष्य गढ़ने पड़ जाएं. पार्कर ने कहा था, ”कभी-कभार आपको वह करना पड़ता है जो देश के भले में हो.”
ईरान-कॉन्ट्रा के षडयंत्रकारी ओलिवर नॉर्थ पर जब 1989 में मुकदमा चला, तब पार्कर और दूसरे समाचार अधिकारियों ने आदेश जारी किया कि न्यूज़वीक का वाशिंगटन ब्यूरो उसे कवर नहीं करेगा. पार्कर शायद चाहते थे यह घोटाला सामने न आने पाए.
बाद में हालांकि जब नॉर्थ का मुकदमा बड़ी खबर बन गया, तब मुझे मुकदमे के घटनाक्रम से वाकिफ़ रहने के लिए रोज़मर्रा की सुनवाई के काग़ज़ हासिल करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी. इसके कारण और ईरान-कॉन्ट्रा घोटाले से जुड़े कुछ और मतभेदों के कारण मैंने 1990 में न्यूज़वीक से इस्तीफा दे दिया.
ईरान-कॉन्ट्रा मामले के विशेष अधिवक्ता लॉरेंस वाल्श जो कि रिपब्लिकन थे, उन्हें भी प्रेस की ओर से मलामत झेलनी पड़ी जब उनकी जांच का दायरा 1991 में व्हाइट हाउस तक जा पहुंचा जहां इसे दबाया गया था. मून का वाशिंगटन टाइम्स लगातार छोटे-छोटे मामलों पर वाल्श और उनके स्टाफ के खिलाफ़ छापता था, जैसे कि बुजुर्ग वाल्श हवाई जहाज़ की पहली श्रेणी में क्यों सफ़र करते हैं या उन्होंने खाने के लिए रूम सर्विस का इस्तेमाल क्यों किया, इत्यादि.
वाल्श पर केवल कंजर्वेटिव मीडिया ही हमला नहीं कर रहा था. रिपब्लिकन शासन के 12 साल के अंत में मुख्यधारा के पत्रकारों को भी इस बात का अहसास हो चुका था कि उन्हें अगर अपने करियर में आगे बढ़ना है, तो रीगन-बुश के धड़े की ओर झुके रहना होगा.
इसीलिए जब जॉर्ज एचडब्लू बुश ने वाल्श की जांच को पलीता लगाने के लिए 1992 में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर ईरान-कॉन्ट्रा मामले में बंद छह लोगों को माफी दे दी, तब बड़े पत्रकारों ने बुश की खूब सराहना की. उन्होंने वाल्श की इस शिकायत को दरकिनार कर डाला कि आपराधिक कृत्यों के गोपनीय इतिहास और उसमें बुश की निजी भूमिका पर लंबे समय से चली आ रही परदा डालने की कोशिशों में यह आखिरी कवायद थी.
वॉशिंगटन पोस्ट के ‘लिबरल’ टिप्पणीकार रिचर्ड कोहेन ने इस मामले में बुश का बचाव करते हुए उनके कई सहयोगियों के बारे में लिखा, खासकर पूर्व रक्षा मंत्री कैस्पर वीनबर्गर को माफी दिए जाने को उन्होंने काफी पसंद किया जिन्हें न्याय को रोकने का दोषी ठहराया गया था लेकिन वॉशिंगटन में वे काफी लोकप्रिय थे.
कोहेन ने 30 दिसंबर, 1992 के अपने स्तंभ में कोहेन लिखते हैं कि वीनबर्गर के बारे में उनकी राय जॉर्जटाउन के सेफवे स्टोर में अपना शॉपिंग कार्ट खुद खींचते हुए उनसे हुई कई मुलाकातों के दौरान बनी थी. वे लिखते हैं, ”सेफवे में हुई मुलाकातों के आधार पर मैं कह सकता हूं वीनबर्गर एक जमीनी आदमी हैं, स्पष्ट हैं और उनकी मंशा बुरी नहीं है- और वॉशिंगटन में भी उन्हें इसी तरह से देखा जाता है.” कोहेन ने लिखा, “सेफवे का मेरा दोस्त कैप छूट गया और मेरे लिए यह अच्छी बात है.”
सच के लिए लड़ते हुए वाल्श को बहुत ताने सुनने पड़े और उनकी तुलना सफेद व्हेल मछली के पीछे पड़े कैप्टन अहाब से की गई. लेखिका मार्जोरी विलियम्स वॉशिंगटन पोस्ट के अपने आलेख में उनके बारे में लिखती हैं, ”वॉशिंगटन के उपयोगितावादी माहौल में वाल्श जैसी दृढ़ता पर संदेह होता है. वे इतने हइी थे कि ऐसा आभास होने लगा… जैसे कि वे वॉशिंगटन के न हों. इसीलिए उनके प्रयासों को प्रतिशोध भरा, अविादी और वैचारिक कहा जा रहा है और ऐसा कहने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है… लेकिन हकीकत यह है कि वाल्श जब लौटकर अपने घर जाएंगे, तो उनके बारे में यही धारणा बनेगी कि वे हार कर लौट गए.”
जनवरी 1993 में रीगन-बुश दौर की समाप्ति तक “संशयवादी पत्रकार” का दौर भी खत्म हो गया, कम से कम राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसलो पर.
कई साल बाद जब ऐतिहासिक तथ्य सामने आए कि ईरान-कॉन्ट्रा मामले में गंभीर अपराधों को नजरंदाज़ कर दिया गया था, तब मुख्यधारा के समाचार संस्थान खुलकर रीगन-बुश के बचाव में आ गए.
कॉन्ट्रा ड्रग ट्रैफिकिंग का विवाद जब 1996 में दोबारा उभरा, तब वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स और लॉस एंजिलिस टाइम्स ने गैरी वेब नाम के पत्रकार पर मिलकर हमला बोल दिया जिसने इस घोटाले को पुनर्जीवित किया था. यहां तक कि 1998 में सीआइए के इंस्पेक्टर जनरल द्वारा अपने अपराधों को कबूलने के बाद भी अहम अख़बारों ने इस मसले को दरकिनार करने की अपनी नीति नहीं छोड़ी.
(वेब की साहसिक रिपोर्टिंग के लिए उन्हें सैन जोस मर्करी न्यूज़ से निकाल दिया गया, उनका करियर चौपट हो गया, उनकी शादी टूट गई और दिसंबर 2004 में उन्होंने अपने पिता की रिवॉल्वर से खुद को गोली मार कर जान दे दी).
जॉर्ज डब्लू बुश की विवादास्पद “जीत” के साथ 2001 में जब रिपब्लिकन शासन की वापसी हुई, तो समाचार संस्थानों के बड़े अधिकारियों और पत्रकारों को समझ में आ गया कि उनके करियर की रक्षा तभी हो सकेगी जब वे उसे अमेरिकी झंडे में लपेट कर चलेंगे. यहीं पर ”देशभक्त” पत्रकारिता का प्रवेश हुआ और ”संशयवादी” पत्रकारिता बाहर हो गई.
यह प्रवृत्ति 11 सितंबर, 2001 के हमले के बाद और गहरा गई जब कई अमेरिकी पत्रकारों ने अमेरिकी झंडे वाला लैपल लगा लिया और इस संकट से निपटने में बुश के खराब तरीके पर आलोचनात्मक रिपोर्टिंग करने से लगातार बचते रहे.
मसलन, बुश को जब बताया गया कि “देश पर हमला हुआ है” उस वक्त वे दूसरे दरजे के एक क्लासरूम में थे. वे सात मिनट तक ठिठके रह गए. इसे जनता से छुपाया गया, भले ही व्हाइट हाउस पूल रिपोर्टरों ने इसे फिल्माया भी और इसके गवाह भी रहे. (लाखों अमेरिकी दो साल बाद माइकल मूर की फिल्म फॉरेनहाइट 9/11 में इस फुटेज को देखकर दंग रह गए थे).
नवंबर 2001 में बुश की वैधता के बारे में दूसरे सवालों से बचने के लिए फ्लोरिडा में पड़े वोटों की मीडिया में हुई गिनती के नतीजों को गलत दिखाया गया ताकि यह दर्शाया जा सके कि अगर कानूनी रूप से पड़े सभी वोट गिने जाते तो अल गोर की जीत हो जाती.
बुश ने जब 2002 में ओसामा बिन लादेन और अफगानिस्तान से अपना ध्यान हटाकर सद्दाम हुसैन और इराक पर केंद्रित किया, तो “देशभक्त” पत्रकार उनके साथ चल दिए.
कुछ बचे-खुचे संशय करने वाले पत्रकारों को चुप करा दिया गया, जैसे एमएसएनबीसी के मेजबान फिल डोनाहाउ, जिनका शो इसलिए रद्द कर दिया गया क्योंकि उन्हें कई युद्ध-विरोधियों को उसमें बुला लिया था.
अधिकतर अख़बारों में कभी-कभार छपने वाले आलोचनात्मक लेख भीतर के पन्नों में दबा दिए गए जबकि इराक के कथित जनसंहारक हथियारों के बारे में प्रशासन के दावों से जुड़ी ख़बरों को स्वीकार्यता के लहजे में पहले पन्ने पर बैनर की तरह छापा गया.
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्टर जूडिथ मिलर ने प्रशासन में अपने दोस्ताना सूत्रों की मदद से जनसंहार के हथियारों से जुड़ी कई ख़बरें लिखीं, जैसे उनमें से एक यह थी कि इराक द्वारा अलुमिनियम के ट्यूब की खरीद इस बात का सबूत थी कि वह परमाणु बम बना रहा था. इसी लेख के बाद वाइट हाउस ने चेतावनी जारी की कि अमेरिकी जनता अब इराक के जनसंहारक हथियारों के फटने चलने का इंतज़ार नहीं कर सकती.
फरवरी 2003 में तत्कालीन विदेश मंत्री कोलिन पावेल ने जब संयुक्त राष्ट्र में दिए अपने संबोधन में इराक पर डब्लूएमडी का जखीरा इकट्ठा करने का आरोप लगाया, तब राष्ट्रीय मीडिया उनके चरणों में लोटने लगा. वॉशिंगटन पोस्ट का ऑप-एड पन्ना उनके चुस्त और सारगर्थित उद्घाटन की प्रशंसा से भर दिया गया, जो बाद में सफेद झूठ और अतिरंजना का सम्मिश्रण साबित हुआ.
“संशयवादी” पत्रकारिता का हाल इतना बुरा हो चुका था कि- वह या तो इंटरनेट के हाशिये पर ठेल दी गई थी या फिर नाइट-रिडर के वॉशिंगटन ब्यूरो में कुछेक साहसी लोगों के पास बची हुई थी- ”देशभक्त” रिपोर्टर वस्तुपरकता का दिखावा करना तक छोड़ चुके थे और इसमें उन्हें कोई दिक्कत नज़र नहीं आती थी.
जंग छेड़ने की ऐसी जल्दबाज़ी थी कि फ्रांस और दूसरे पुराने साझीदार देश जिन्होंने ऐसा करने में सतर्कता बरतने की चेतावनी दी थी, उनका समाचार संस्थानों ने मिलकर मखौल उड़ाया. इन देशों को ”ऐक्सिस ऑफ वीज़ल्स” (घुटे हुए चालाक देशों की धुरी) का नाम दिया गया और केबल टीवी ने उन लोगों को घंटों कवरेज दी जिन्होंने ‘फ्रेंच फ्राईज़” का नाम बदलकर ‘फ्रीडम फ्राईज़” रख दिया.
एक बार हमला शुरू होने के बाद एमएसएनबीसी, सीएनएन और अन्य अहम टीवी नेटवर्कों व फॉक्स के देशभक्त लहजे के बीच फ़र्क करना मुश्किल हो गया. फॉक्स न्यूज़ की तर्ज पर एमएसएनबीसी ने प्रचारात्मक सेगमेंट प्रसारित करने शुरू कर दिए जिनमें अमेरिकी फौजियों के नायकीय फुटेज दिखाए गए जो अकसर धन्यवाद की मुद्रा में खड़े इराकियों के बीच खड़े होते थे और पार्श्व में तेज़ संगीत बजता होता था.
ऐसे “एम्बेडेड” (सेना के साथ नत्थी) रिपोर्टर जंग में अमेरिकी पक्ष के उत्तेजित पैरोकारों की भूमिका निभा रहे थे, लेकिन स्टूडियो के भीतर भी वस्तुपरकता का अभाव साफ़ दिखा जब बंधक बनाए गए अमेरिकी सैनिकों की ख़बर के इराकी टीवी पर प्रसारण के बाद अमेरिकी समाचार वाचकों ने जिनेवा कनवेंशन के उल्लंघन को लेकर आक्रोश जताया जबकि उसे बंधक इराकियों की प्रसारित छवियों में कुछ भी गलत नज़र नहीं आया.
जैसा कि जूडिथ मिलर ने बाद में धड़ल्ले से कहा, कि उन्हें अपनी बीट वैसी ही दिखी “जैसी हमेशा उन्होंने कवर की थी- हमारे देश को खतरे” वाली बीट. उन्होंने डब्लूएमडी की तलाश कर रही अमेरिकी सैन्य इकाई के साथ खुद को ”एम्बेडेड” (नत्थी) बताते हुए दावा किया कि उन्हें सरकार की ओर से ”सुरक्षा मंजूरी” प्राप्त है.
हो सकता है कि 57 वर्षीय जूडिथ मिलर देशभक्ति और पत्रकारिता के सम्मिश्रण का एक अतिवादी उदाहरण हों, लेकिन वे अपनी पीढ़ी में इकलौती नहीं हैं जिसने अस्सी के दशक के सबक को आत्मसात कर लिया है- वो यह, कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर सवाल उठाने वाली पत्रकारिता खुद को बेरोज़गारों की कतार में खड़ा करने का एक आसान तरीका है.
पिछले दो साल के दौरान इराक में डब्लूएमडी तो नहीं मिले लेकिन वहां एक अडि़यल उग्रवाद ज़रूर पैदा हो गया है और ”देशभक्त” पत्रकारिता के खूनी परिणाम अब अमेरिकी जनता के सिर पर चढ़कर बोल रहे हैं. कठिन सवाल न पूछ कर पत्रकारों ने भ्रम का ऐसा माहौल बनाने में अपना योगदान दिया है जिसने करीब 2000 अमेरिकी सैनिकों की जान ले ली है और दसियों हज़ार इराकी जिसके चलते मारे जा चुके हैं.
रीगन के राज में शीर्ष सैन्य इंटेलिजेंस अफ़सर रह चुके सेना के अवकाश प्राप्त लेफ्टिनेंट जनरल विलियम ओडोम ने भविष्यवाणी की है कि इराक पर आक्रमण ”अमेरिकी इतिहास में महानतम रणनीतिक विनाश साबित होगा”.
इस विनाश के मूल में ”देशभक्त” पत्रकारों और उनके सूत्रों के बीच के मधुर संबंध रहे हैं.
मिलर ने 16 अक्टूबर को उपराष्ट्रपति डिक चेनी के चीफ ऑफ स्टाफ लुइस ‘स्कूटर’ लिब्बी के साक्षात्कार के दौरान दर्शकों को साझा रहस्यों और परस्पर विश्वास पर टिकी एक बंद दुनिया की झलक गलती से दिखला दी.
मिलर की स्टोरी के मुताबिक लिब्बी ने उनसे 2003 में दो बार आमने-सामने मिलकर बात की और एक बार फोन पर बात की, जब बुश प्रशासन हमले के बाद खड़े हुए सवालों को टालने की कोशिश में जुटा था कि आखिर राष्ट्रपति ने युद्ध के फैसले के लिए सहमति कैसे हासिल की.
मिलर ने लिब्बी को एक ”पूर्व हिल स्टाफर” की भ्रामक पहचान में छुपने की छूट दे दी, लेकिन लिब्बी एक विसिलब्लोअर पूर्व राजदूत जोसफ विल्सन पर बरस पड़े जो बुश के इस दावे को चुनौती दे रहे थे कि इराक ने अफ्रीकी देश नाइजर से संवर्द्धित यूरेनियम मंगवाया था.
मिलर-लिब्बी के साक्षात्कारों में लिब्बी ने विल्सन की पत्नी वैलेरी प्लेम का हवाला दिया जो सीआइए की अंडरकवर अफसर थीं और अप्रसार के मसले पर काम कर रही थीं.
दक्षिणपंथी स्तंभकार रॉबर्ट नोवाक ने 14 जुलाई, 2003 को अपने स्तंभ में यह दावा करते हुए कि प्रशासन के दो अफसरों से उन्हें जानकारी मिली है, प्लेम का राज़फाश कर दिया और विल्सन को कलंकित करने के लिए यह लिखा कि हो सकता है प्लेम ने अपने पति की नाइजर यात्रा का इंतज़ाम किया हो.
सीआइए के एक एजेंट के कवर का इस तरह उघड़ जाना आपराधिक था. यह मामला जांच तक पहुंच गया जिसका जिम्मा विशेष दंडाधिकारी पैट्रिक फिज़गेराल्ड को दिया गया जो आलोचना करने के चलते विल्सन को दंडित करने की संभावित प्रशासनिक साजि़श का पता लगा रहे हैं. मिलर ने जब लिब्बी के साथ अपनी मुलाकातों को प्रमाणित करने से इनकार किया तो फिज़गेराल्ड ने उन्हें 85 दिनों के लिए जेल में डलवा दिया. बाद में लिब्बी के कहने पर मिलर ने सब कुछ बताया.
प्लेम का मामला बुश प्रशासन के लिए शर्मिंदगी की बड़ी वजह बना और न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए भी- जहां अब भी मिलर के सहकर्मी “देशभक्त” पत्रकार की अपनी पुरानी भूमिका में कायम हैं और अमेरिकी जनता के समक्ष तमाम गोपनीय बातों को ज़ाहिर किए जाने के विरोधी बने हुए हैं.
मसलन, वॉशिंगटन पोस्ट के स्तंभकार रिचर्ड कोहेन- जिन्होंने 1992 में जॉर्ज एच.डब्लू. बुश द्वारा दिए गए उन क्षमादानों की काफी सराहना की थी जिनके चलते ईरान-कॉन्ट्रा मामले की जांच दब गई- ने भी फिज़गेराल्ड की जांच के खिलाफ़ यही रुख़ अपनाया.
कोहेन ने ”लेट दिस लीक गो” शीर्षक से अपने स्तंभ में लिखा, ”पैट्रिक फिज़गेराल्ड अपने देश की सबसे अच्छी सेवा यही कर सकते हैं कि वे वॉशिंगटन छोड़ दें, शिकागो लौट जाएं और वास्तव में कुछ अपराधियों को दंड दिलवाएं.”
फिज़गेराल्ड अगर कोहेन की बात मानकर बिना दोष सिद्ध किए जांच को बंद कर देते हैं, तो वॉशिंगटन में यथास्थिति बहाल हो जाएगी. इस तरह बुश प्रशासन का रहस्यों पर दोबारा नियंत्रण हो जाएगा और वे कुछ मित्रवत ”देशभक्त” पत्रकारों को बदले में कुछ खबरें लीक कर देंगे जिससे उनका करियर सुरक्षित बना रहेगा.
इसी यथास्थिति को प्लेम वाले मामले से खतरा है, लेकिन इस मामले में कुछ और बड़ी चीज़ें दांव पर लगी हुई हैं जो दो विशिष्ट सवालों को जन्म देती हैं:
पहला, क्या पत्रकार पुराने दौर के उन मानकों की ओर वापस लौंटेंगे जब जनता के सामने ज़रूरी तथ्यों का उद्घाटन करना ही उनका लक्ष्य हुआ करता था?
इसे दूसरे तरीके से ऐसे कह सकते हैं कि क्या पत्रकार यह तय करेंगे कि ताकतवर लोगों से कठिन सवाल पूछना ही किसी पत्रकार की देशभक्ति का सच्चा इम्तिहान होता है?
(यह लेख जनपथ डॉट कॉम से साभार है)