उन रिपोर्टरों और पत्रकारों में गहरी नाराजगी है जिन्होंने कोविड-19 की महात्रासदी को कवर किया.
भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट में मजदूरों के पलायन और उनके लिए किए गए सरकारी कोशिशों को लेकर सरकार का पक्ष रख रहे थे. इस दौरान उन्होंने ‘कुछ लोगों’ की तुलना गिद्दों से कर दी. कोर्ट की सुनवाई को कवर करने वाली एक पत्रकार बताती हैं, मेहता ने ‘कुछ लोगों’ को कहा, लेकिन उनका इशारा पत्रकारों की तरफ था.
पत्रकार कहती हैं कि उनके निशाने पर पत्रकार थे इसका अंदाजा उनके द्वारा सुनाई गई कहानी से चल जाता है. दरअसल मेहता ने पत्रकारों को गिद्ध कहने के लिए साल 1994 में पुलित्जर अवार्ड जीतने वाली, फोटो जर्नालिस्ट केविन कार्टर की तस्वीर का तर्क दिया. यह तस्वीर कार्टर ने सूडान अकाल के दौरान उतारी थी जिसे न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित किया गया था. तस्वीर के लिए कार्टर को खूब तारीफ मिली तो कठोर आलोचना का भी सामना करना पड़ा था.
तुषार मेहता ने कार्टर की तस्वीर को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जो व्याख्या दी वो भी गलत था. उन्होंने कोर्ट में जो बोला था वह पहले से ही वाट्सऐप पर वायरल था. यानी व्हाट्सप्प से लिया ज्ञान मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में सुना दिया.
ऐसा कहने वाले सिर्फ मेहता नहीं
दिल्ली और देश के अलग-अलग हिस्सों में मजदूरों की बदहाली दिखाने वाले पत्रकार सत्ता पक्ष के निशाने पर रहे. उन्हें अलग-अलग तरह से परेशान करने की कोशिशें की गईं. कई जगहों पर एफआईआर भी दर्ज हुई. कहीं पत्रकारों को जेल में भी डाल दिया गया. ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि पत्रकार अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए सत्ता में बैठे लोगों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास करा रहे थे.
अकेले हिमाचल में ही 5 पत्रकारों पर 14 एफआईआर दर्ज हुए. वहीं यूपी में भी पत्रकारों के ऊपर मामला दर्ज हुआ. झारखंड में तो एक पत्रकार को सिर्फ कोरोना को लेकर अधिकारी से सवाल पूछने को लेकर पांच दिन जेल में डाल दिया गया.
इतना ही नहीं मजदूरों पर ख़बर कर रहे पत्रकारों को ‘गरीबी टूरिज्म’ बताया गया. किसी ने कहा, पत्रकार टीआरपी के लिए मजदूरों की कहानी को बढ़ा चढ़ाकर दिखा रहे है. जो समस्या दिखाई जा रही थी उसपर बात करने के बजाय हर चीज पर बात करने की कोशिश की गई.
मेहता भी इससे नहीं बचे. वे कोर्ट में सरकार का पक्ष रख रहे थे और इस दौरान उन्हें सरकार का पक्ष रखना था, लेकिन पत्रकारों पर ही सवाल खड़े कर दिए. नए भारत में कुछ नया भले न हुआ हो लेकिन ‘सवाल के बदले सवाल’ की एक नई परंपरा शुरू हो गई है. हालांकि मोदी सरकार के वकील द्वारा पत्रकारों के काम पर सवाल करना कोई हैरान करने वाली बात नहीं है. इस तरह की बात केंद्र सरकार के कई मंत्री कह चुके हैं.
ज़ी न्यूज़ के एडिटर इन चीफ सुधीर चौधरी को इंटरव्यू देते हुए भारत सरकार की मंत्री स्मृति ईरानी ने पत्रकारों को ही गुनहगार बता दिया था. ईरानी ने कहा था, ‘‘कुछ मीडिया हाउसेज़ हैं जो श्रमिकों के पैदल चलने की और उनकी इस हालत की फोटो खींचकर 20 हज़ार रुपए में बेच रहे हैं. तो क्यों आप राजनेताओं पर ही दोष लगा रहे हैं या उनपर दोष लगा रहे है जो राजनीति कर रहे हैं. वो भी उतने ही गुनाहगार है जो ऐसे श्रमिकों की फोटो खींचकर बेंच रहे है. मैं तो स्तब्ध हुई जब मैंने वह रिपोर्ट देखी जहां पता चला कि आठ हज़ार से दस हज़ार के बीच पैदल चल रहे मजदूरों की तस्वीरें बेंचे जानी खबर दिखाई गई थी.’’
अभिनय और राजनीति में आने से पहले ईरानी कुछ समय के लिए पत्रकारिता में थीं और इत्तफाक की वो सुधीर चौधरी के साथ स्ट्रिंगर रही हैं. पत्रकारिता और अभिनय की दुनिया से ताल्लुक होने के बावजूद ईरानी को नहीं पता कि फ्रीलांसर क्या होता है. फ्रीलांसर का काम इसी तरह से चलता है. तस्वीरें बेंचना गुनाह है या उन मजदूरों को उस हालत में पहुंचाना?
मजदूर और मेहता
तुषार मेहता एक बेहतरीन वकील की तरह सरकार का सालों से पक्ष रखते आ रहे हैं. खुद तुषार मेहता और सरकार मजदूरों की स्थिति को किस तरह देख रही है इसका अंदाजा मेहता के उस बयान से लगाया जा सकता है जो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में ही दिया था. उन्होंने कहा था कि ‘‘31 मार्च के बाद सड़कों पर कोई मजदूर नहीं था.’’
यह बयान ना सिर्फ हैरान करने वाला है बल्कि मेहता की असंवेदनशीलता का बखूबी बयान करता है. यह बताता है कि मेहता लॉकडाउन की घोषणा के बाद अपने एसी के बंद कमरे से शायद बाहर भी नहीं निकले. इस दौरान उन्होंने सोशल मीडिया या टेलीविजन भी नहीं चलाया था. वरना 31 मार्च क्या मई के आखिरी दिनों तक लोग पैदल अपने घरों की तरफ जाते नज़र आए और रास्ते में मरते रहे.
24 मार्च की देर शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 21 दिनों के लिए तालाबंदी की घोषणा के बाद उसके बाद मजदूरों का हुजूम सड़कों पर निकल गया था जो मई के महीने तक जारी रहा. जब सरकार ने एक मई को श्रमिक एक्सप्रेस चलाने की घोषण की थी तब सड़कों पर मजदूरों की संख्या में कमी आई, लेकिन पैदल चलना जारी ही रहा.
बतौर रिपोर्टर मैं भी उन दिनों दिल्ली-गाजियाबाद स्थित नेशनल हाइवे पर मौजूद था और रिपोर्ट कर रहा था. मजदूरों की बेबसी और ज़िन्दगी बचाने की जद्दोजहद उनकी आंखों में उतर आई थी. सड़कों पर गाड़ियां नहीं थी, लोगों का सैलाब था. लोग भाग रहे थे मौत की डर से. कोरोना से नहीं भूख से मौत का डर था. जो मिला उसकी बस एक ही चिंता थी कोरोना से शायद बच जाए, लेकिन भूख से मौत पक्की है. लेकिन तुषार मेहता को कोई सड़क पर नहीं दिखा.
उनके गिद्ध कहने से क्या फर्क पड़ता है
एनडीटीवी मजदूरों की स्थिति पर काफी विस्तार से रिपोर्टिंग करता नजर आया. इसके तमाम रिपोर्टर इस दौरान ग्राउंड पर थे. प्राइम टाइम से इतर रवीश कुमार का एक नया शो ‘देस की बात’ शुरू हुआ. जिसमें वे अपने रिपोर्टरों से बात करते हैं.
एनडीटीवी हिंदी के रिपोर्टर रवीश रंजन शुक्ला लॉकडाउन के दौरान उत्तर प्रदेश कई इलाकों से सड़क पर जा रहे मजदूरों की कहानी सामने ले आए. तुषार मेहता द्वारा गिद्ध कहे जाने पर वे कहते है, ‘‘मुझे उनके कहे का कोई दुःख नहीं हुआ. एसी कमरे में बैठकर वो गिद्ध कहे, भेड़िया कहे, मोर कहे या बुलबुल उससे क्या फर्क पड़ता है. उनके सर्टिफिकेट की ज़रूरत मुझे नहीं है. हमने अपना काम ईमानदारी से किया और कर रहे हैं.’’
रवीश रिपोर्टिंग के दौरान पैदल अपने घरों को जा रहे लोगों की बदहाली का जिक्र करते हुए के एक सात साल की लड़की की कहानी बताते हैं, ‘‘मैं यूपी के चंदौली में था. मैंने देखा झारखंड के सैकड़ों लोग महाराष्ट्र से आए थे. वो लोग ट्रक से वाराणसी तक आए थे और वहां से पैदल चल रहे थे. उसमें एक बहुत छोटी, शायद छह या सात की बच्ची थी. उसके पैर में चप्पल तक नहीं था. वो अपने गोद में एक छोटे से बच्चे को लेकर चल रही थी. उसके साथ में उसकी मां थी जो बेहद दुबली थी, उसका वजन 25 से 30 किलो रहा होगा. उम्र ज्यादा नहीं रही होगी, लेकिन गरीबी और परेशानी आदमी की उम्र बढ़ा देती है. वो छोटी बच्ची रो रही थी. उस दिन धूप तेज़ थी. उससे हमने बात करने की कोशिश की, लेकिन वो कुछ बोल ही नहीं रही थी. मैंने देखा उसके आंख का आंसू होंठ तक आकर सूख गया था, उसका चेहरा पत्थर हो गया था. उसे देखकर मैं और मेरा कैमरामैन हैरान रह गए.’’
स्वराज्य एक्सप्रेस के पत्रकार गुरमीत सप्पल ने लॉकडाउन के दौरान कई इलाकों से रिपोर्टिंग की. तुषार मेहता के बयान पर इनकी भी राय रवीश रंजन शुक्ला जैसी ही है. ये कहते हैं, ‘‘तुषार मेहता क्या कहते हैं उससे हमें फर्क नहीं पड़ता है. उनसे इससे बेहतर की उम्मीद नहीं किया जा सकता है. वो सरकार को बचाने के लिए कोर्ट में खड़े थे तो वो कुछ भी करके बचायेंगे ही. वैसे भी उनको को समझना चाहिए की पूरी दुनिया में गिद्धों को बचाने की कोशिश की जा रही है. वे विलुप्त हो रहे हैं. प्रकृति को उनकी ज़रूरत है. हम जो काम कर रहे थे वो सरकार को तो बुरा लगेगा ही क्यों सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा तो कर दी थी, लेकिन उनतक चीजे नहीं पहुंच पाई. वैसे इस तरह की बातें हमारे कुछ दोस्त यार भी कर रहे थे उनकी बातों का ज़रूर थोड़ा बुरा लगता था.’’
गुरमीत सप्पल कहते हैं कि रिपोर्टिंग के दौरान मुझे सबसे ज्यादा हैरान इस बात ने किया कि भारत में एक बड़ी आबादी है जो साईकिल खरीदने की स्थिति में नहीं है. जब मैं पैदल जा रहे लोगों से पूछता था कि साईकिल से निकल जाते तो वे कहते थे साहब साईकिल नहीं है और ना खरीदने के लिए पैसे हैं. यह मेरे लिए हैरान करने वाला था.
‘द बिहार मेल’ नामक वेबसाइट के लिए काम करने बिहार के कैमूर जिले के रहने वाले मनोज कुमार बिहार-यूपी बॉर्डर से हर रोज हजारों मजदूरों की कहानी कहते दिखे. लम्बे समय से प्रिंट मीडिया के पत्रकार रहे मनोज कुमार कहते हैं, ‘‘एक पत्रकार का काम होता है लोगों की तकलीफ को कहना और हमने वहीं किया. हम एक माध्यम है बस. अब इसमें गिद्ध वाली बात कोई नहीं है. दूसरी बात मुझे लगता है कि हर किसी को अपनी जिम्मेदारी निभानी थी. सरकार असफल रही तभी तो लोग सड़कों पर आ गए. अब उनके बचाव में उतरे तुषार मेहता कुछ तो कहेंगे ही.’’
एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान से जुड़े पत्रकार जो इस दौरान लगातार ग्राउंड पर थे, वे कहते हैं, ‘‘सेंट्रल दिल्ली की एक बड़ी हवेली में सुरक्षा गार्डों के बीच रहने वाले ऐसी बातें कहें तो शोभा नहीं देता. वो क्या जाने की इस दौरान रिपोर्टिंग करना कितना मुश्किल था. किसी को गिद्ध कह देना या कुछ भी कह देना बेहद आसान है. लोग आपके सामने रो रहे हैं और आप सांत्वना के लिए हाथ भी नहीं बढ़ा सकते हैं. अगर गलती से हाथ लग गया तो सेनेटाईजर से धोते-धोते दिमाग में एक ही बात जमी रहती है कि कहीं हम संक्रमित न हो जाएं. वैसे भी वो वहां सरकार की नकामी का बचाव करने के लिए मौजूद थे. वे वकील हैं. वकीलों का काम पैसे लेकर अपराधियों को बचाना होता है. किसी मजदूर या गरीब आदमी का केस कभी सुप्रीम कोर्ट में लड़े हैं? इसका जवाब वे हां में नहीं दे सकते हैं. हम लोग तो मजदूरों की कहानी कहने के लिए अपनी जिंदगी जोखिम में डाल रहे हैं. अपनी क्या परिवार की भी जिंदगी जोखिम में डाल रहे थे.’’
जान जोखिम में डालकर कर रहे थे काम
कोरोना से बचने के लिए सरकार पहले दिन से ही सोशल डिस्टेंसिंग रखने का सलाह देते नज़र आई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ़-साफ़ शब्दों में कहा था कि दुनिया के विकसित देश जब खुद को नहीं संभाल पा रहे हैं तो हम क्या ही कर सकते हैं. खुद का बचाव करने के लिए हमें सोशल डिस्टेंसिंग का गंभीरता से पालन करना होगा, लेकिन रिपोर्टिंग के दौरान लोगों से बहुत दूरी रखना एक मुश्किल काम था. शुरूआती दिनों में मुबई से कई पत्रकारों की कोरोना पॉजिटिव होने की खबर सामने आई. ऐसे में खुद की चिंता के साथ-साथ परिवार की चिंता भी थी/ है. तमाम कठिनाइयों के बावजूद पत्रकार सड़क पर मौजूद रहे.
इसको लेकर रवीश रंजन शुक्ला कहते हैं, ‘‘मैं रिपोर्टिंग के दौरान अपने घर बहराइच से 50 किलोमीटर दूर था. पिताजी बोले की आकर मिल जाओ, लेकिन जाने की हिम्मत नहीं थी मुझमें. वे बुजुर्ग है. हम तमाम इंतजाम रखते थे, लेकिन ग्राउंड में लोगों की बदहाली को देखकर उनके दुःख में शामिल हो जाते हैं. उनकी कहानी कहते हुए सोशल डिस्टेंसिंग का पालन रखना मुश्किल था. एक डर तो अक्सर ही रहता था कि घर पर मेरा एक बेटा है और एक तीन साल की बेटी है. बेटी को एकबार बुखार हुआ तो मेरी चिंता बढ़ गई थी कि शायद मैं बाहर से लेकर तो नहीं आ गया. यह डर पहले भी था और अब भी है, लेकिन इस दौर की कहानी कहना भी ज़रूरी है.’’
रवीश रंजन आगे कहते हैं, ‘‘लॉकडाउन के दौरान ग्राउंड पर काम करना बहुत मुश्किल रहा, लेकिन तब काम करने की ज़रूरत थी. जिसका असर भी हुआ. ग्राउंड पर रिपोर्टर्स के लिए भी सबकुछ बंद था. सड़क पर छोटे-छोटे बच्चों की आंखें लाल नजर आती थीं. उनके पैरों में सूजन थी. बेचारे लंगड़ाते हुए चल रहे थे. उस दौरान हम अपने परिवार को भूल जाते थे. कई दफा रोना आता था.’’
मनोज कुमार इस सवाल के जवाब में कहते हैं कि हम लोग तो रोज भीड़ में ही थे, लेकिन खुद का ख्याल रखने के अलावा हमारे पास कोई और माध्यम नहीं था. मैं हर वक़्त मास्क लगाकर रहता था. सेनेटाईजर साथ में रखता था. जूता घर के बाहर रखता था. घर आकर खुद को सेनेटाईज करता था. नहाता था तब घर के अंदर जाता था, लेकिन हर वक़्त एक चिंता तो लगी ही रहती थी कि इतने लोगों से मिल रहे हैं.’’
नोएडा स्थिति मीडिया संस्थान से जुड़ी एक पत्रकार का जब कोरोना टेस्ट पॉजिटिव आया तो उनकी सबसे पहली चिंता माता-पिता थे. उनके मां-पिता रक्तचाप के मरीज हैं. अब दिल्ली में सैकड़ों पत्रकार कोरोना के संपर्क में आ चुके हैं.
सवाल पूछने वालों से ही सवाल
तुषार मेहता की एक और आदत है जो उन्हें शायद कार्टर की फर्जी कहानी की तरह वाट्सऐप या किसी दूसरे सोशल मीडिया से सीखी हो. क्योंकि यह सवाल मजदूरों की तकलीफ बता रहे तमाम पत्रकारों से सोशल मीडिया पर लम्बे समय से पूछा जा रहा है. मजदूरों के लिए आपने क्या किया. आप कुछ नहीं करते और सरकारों से खाली सवाल करते हैं.
सुप्रीम कोर्ट में जिस रोज पत्रकारों की तुलना मेहता ने गिद्ध से की थी उसी दिन उन्होंने ठीक वैसे ही कुछ लोगों की तरफ सवाल उछाल दिया था. कोर्ट की सुनवाई देख रही पत्रकार बताती हैं कि ऐसा वो पहले भी कर चुके हैं. उस दिन उन्होंने ऐसा बोला तो सामने कपिल सिब्बल वकील के रूप में मौजूद थे. उन्होंने इसका जवाब दिया और बताया की मैंने चार करोड़ डोनेट किया है. पर यहां हम व्यक्तिगत सवाल जवाब के लिए खड़े नहीं हुए हैं.
मेहता का कुछ लोगों से किया गया यह सवाल पत्रकारों की तरफ भी था. इससे पहले भी जब सुप्रीम कोर्ट में पलायन कर रहे मजदूरों को लेकर एक्टिविस्ट हर्ष मंदर और अंजलि भारद्वाज द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान मेहता ने याचिका डालने वालों पर सवाल उठाते हुए कहा, ‘‘आपने श्रमिकों की किस तरह मदद की है.’’
दरअसल उस दिन अंजलि भरद्वाज और हर्ष मंदर की तरफ से वकील प्रशांत भूषण पक्ष रख रहे थे. उन्होंने कोर्ट को बताया कि रिकॉर्ड पर अध्ययन है कि 11,000 से अधिक श्रमिकों को एक महीने पहले लॉकडाउन लागू होने के बाद से न्यूनतम मज़दूरी का भुगतान नहीं किया गया है.
भूषण का इतना कहना था कि मेहता खफा हो गए और उन्होंने कहा कि "किसने कहा कि किसी को भुगतान नहीं किया गया है? क्या आपका संगठन पीआईएल दाखिल करने के बजाय किसी अन्य तरीके से श्रमिकों की मदद नहीं कर सकता है?’’
इस पर, प्रशांत भूषण ने पलटवार करते हुए कहा कि याचिकाकर्ताओं ने पहले ही अपना काम कर दिया है और भोजन वितरित कर रहे हैं, लेकिन क्या आप चाहते हैं कि हम 15 लाख लोगों को खिलाएं?"
जनता की बेहतर जिंदगी की जिम्मेदारी पत्रकारों और एक्टिविस्ट की है या सरकार की है? इस सवाल के जवाब में मनोज कुमार कहते हैं कि हर आदमी की अलग-अलग जिम्मेदारी तय है. मजदूरों के रहने और खाने का इंतजाम करना सरकार का काम है ना की पत्रकारों का पर. सबको अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए. अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए किसी पर सवाल खड़े कर देना गलत है.’’
मनोज कुमार ने जैसा बताया की उन्होंने हर रोज प्रवासी मजदूरों की अपनी तरफ से मदद की है. ग्राउंड पर मौजूद ज्यादातर रिपोर्टर्स इस दौरान लोगों की मदद करते नजर आए. किसी ने बताया तो किसी ने चुप रहना वाजिब समझा. बीबीसी हिंदी के पत्रकार सलमान रावी का एक वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ जिसमें वे अपना जूता उतारकर एक मजदूर को देते नजर आते हैं. ऐसा ही रवीश रंजन शुक्ल के साथ हुआ वे कहते है कि मैं जब 14 दिनों के लिए रिपोर्टिंग पर निकला तो जूता पहनकर गया था और आया हवाई चप्पल पहनकर. रास्ते में जो भी जरूरतमंद नजर आया हमने अपने तरफ से सबकी मदद की लेकिन हर चीज को दिखाना ज़रूरी नहीं है.
गुरमीत सप्पल ने बताते हैं कि हम जब ख़बर कर रहे थे तो हमारे अपने ही साथी सवाल उठा रहे थे. तुम क्यों मदद नहीं कर रहे हो. तुम क्या कर रहे हो. ऐसे में हमने निर्णय लिया की कुछ दिन हम लोगों की सिर्फ मदद करेंगे. ऐसा नहीं था कि इससे पहले हम मदद नहीं कर रहे थे, लेकिन वो हम किसी को बता नहीं रहे थे. लेकिन इस बार हमने विडियो भी रिकॉर्ड किया और सोशल मीडिया पर साझा भी किया. जिसके बाद काफी संख्या में लोग सामने आए और कहा कि हम तो वहां नहीं पहुंच सकते, लेकिन पैसे भेज सकते हैं बताओ कहां भेजे. मैंने कहा कि पैसे नहीं आप सामना भेज दीजिए. आप यकीं नहीं करेंगे भर-भर के सामान आना शुरू हो गया. बाद में हमें मना करना पड़ा लोगों को.’’
पीआईएल की दुकानें बंद होनी चाहिए
सरकार मजदूरों के मामले को संभालने में विफल रही है उसके बाद सरकार का बचाव करने उतरे तुषार मेहता कोर्ट में नाराज़ हो जाते है.
ऊपर आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भरद्वाज और पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर द्वारा दायर याचिका की सुनवाई के दिन की घटना का हमने जिक्र किया है. उसी दिन सुनवाई के वक़्त मेहता नाराज़ होकर बोले, ‘‘कुछ लोगों का सामाजिक कार्य केवल जनहित याचिका दाखिल करने तक ही सीमित है.’’
लाइव लॉ पर छपी खबर के अनुसार मेहता इतने पर नहीं रुके उन्होंने यह तक कह दिया कि ‘‘जब तक देश इस संकट से बाहर नहीं निकलता है, तब तक पीआईएल की दुकानें बंद होनी चाहिएं.’’
इसको लेकर अंजलि भारद्वाज कहती हैं, ‘‘कोई भी पीआईएल किसी समस्या को लेकर दायर किया जाता है ताकि वो दूर हो सके. अब उस पर बात करने के बजाय तुषार मेहता कह रहे हैं कि यह बार-बार क्यों किया जा रहा है. यानी सवाल क्यों उठाये जा रहे हैं. क्यों पीआईएल दायर हो रहे हैं. वे सवाल पूछते हैं कि आप उनकी क्या मदद कर रहे हैं?
पहली बात की हम तमाम लोग जरुरतमंदों तक मदद पहुंचाने में लगे हुए, लेकिन कोर्ट में मामले के मकसद को सवाल करने की बड़ी दिक्कत है. पीआईएल में जो तथ्य सामने रखे जा रहे हैं उसका समाधान ढूंढने की ज़रूरत है ना की इस तरह उन पर ही सवाल उठाना है. कभी कहा जा रहा है कि पब्लिसिटी के लिए किया जा रहा है तो कभी कहना की पीआईएल दुकान है, कभी कहना की गिद्ध है. ऐसी बात इसलिए भी कही जा रही है ताकि बाकी लोग समस्यायों को लेकर कोर्ट ना आएं और ना ही हक़ीकत दिखाए.’’
यानी हम सच न दिखाएं?
तुषार मेहता के बयान के बाद मीडिया संस्थानों और मीडिया संगठनों ने नाराजगी जाहिर की है. इंडियन एक्सप्रेस ने कठोर शब्दों का प्रयोग करते हुए संपादकीय लिखा और मेहता की आलोचना की.
वहीं वर्किंग न्यूज़ कैमरामैन्स एसोसिएशन ने तुषार मेहता के बयान पर नाराजगी जाहिर करते हुए एक बयान जारी किया है. एसोसिएशन के प्रमुख एसएन सिन्हा, तुषार मेहता के बयान पर सख्त होकर कहते हैं कि सरकार की नाकामी को ढंकने के लिए उनके पास कोई पॉइंट नहीं था तो उन्होंने मैसेंजर को ही बुरा-भला कहना शुरू कर दिया. पत्रकारों ने अपना काम किया. मेहता ने तो देश की सबसे बड़ी अदालत में एक तस्वीर की झूठी व्याख्या कर दी. पत्रकारों ने कुछ झूठ तो नहीं बताया और दिखाया. दरअसल वो चाहते नहीं है कि सच दिखाया जाए. उन्होंने अप्रैल में कहा था कि सड़क पर कोई नहीं है लेकिन मई तक लोग सड़कों पर थे.’’
उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति के प्रमुख हेमंत तिवारी, तुषार मेहता के बयान की निंदा करते हुए कहते हैं, ‘‘आज़ादी के बाद से पहली बार पत्रकार बेहद ज़रूरी मुद्दे उठा रहे हैं. अपनी जान की परवाह किए बगैर काम कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ उनकी नौकरियों पर खतरा है. कई लोगों को निकाला भी जा रहा है. ऐसे में उनको लेकर इस तरह की टिप्पणी करना संवेदनहीनता के अलावा कुछ भी नहीं है.’’
इस त्रासदी के समय बतौर रिपोर्टर मैं खुद दिल्ली और आसपास के इलाकों में मौजूद था और खबरें कर रहा था. तुषार मेहता के इस बयान ने मुझे बेहद तकलीफ दिया. मैं बस ये कहूंगा कि शायद तुषार मेहता को सच देखने की आदत नहीं है. अगर सच देखने की आदत होती तो वे जान पाते कि सड़क पर पैदल चलने वालों की खबर दिखाने वाले या उनकी बात करने वाले क्यों बहुत जरूरी हैं.