आर्टिकल 15: समाज के संतुलन को असंतुलित करने वाली फिल्म

जाति की समस्या को सामयिक संदर्भों में दिखाने की कोशिश.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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“जात-जात में जात है, जस केलन के पात, रैदास न मानुष बन सके जब तक जात न जात”

हर जाति के भीतर भी जाति है. संत रविदास ने 15वीं सदी में कहा था कि पशु से मनुष्य बनने की प्रक्रिया तब तक पूरी नहीं होती जब तक जाति खत्म नहीं होती. लेकिन आज 21वीं सदी में 600 साल बाद भी लोग 2000 साल पुरानी पशुता को सगर्व ढो रहे हैं. आर्टिकल 15 उस पशुवत आचरण को आईना दिखाती है. फिल्म ऐसा माध्यम है जहां चीजों को लार्जर दैन लाइफ या महामानव बनाकर प्रस्तुत करना मजबूरी मानी जाती हैं. नायक या नायिका अंतत: एक ऐसा चरित्र बन जाते हैं जिनसे हर समस्या का समाधान करने की अपेक्षा की जाती है. और ऐसा करने की प्रक्रिया में ज्यादातर महानायक-महानायिकाएं खुद के कैरीकेचर में तब्दील हो जाते हैं.

आर्टिकल 15 इस लिहाज से यथार्थ के धरातल पर खड़ी फिल्म हैं. यह बेमतलब किसी को महामानव बनाकर और सारी समस्याओं को चुटकी में हल कर देने वाला नायक नही गढ़ती हैं. दंबग और सिंघम जैसी पुलिसिया छवि गढ़ने की बजाय यह दर्शकों के सामने अयान रंजन को ले आती है. दबंग या सिंघम के मुकाबले अयान इस फिल्म में इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उतना यथार्थवादी चरित्र ही जाति जैसी गंभीर समस्या का सामना कर सकता था. इतना वास्तविक जो अपनी पहली नियुक्ति में ऐसे सवालों से जूझता हैं जो पहली बार उसके सामने आते हैं, वह उन्हें समझने की कोशिश करता है और असफल रहने पर सामान्य मनुष्य की तरह ही झल्लाकर कहता है ‘व्हाट द फक इज़ गोंइग ऑन हियर’.

यह झुंझलाहट उस सामान्य व्यक्ति की है जिसे अपने आस-पास के सहकर्मी बताते हैं कि पासी जाटवों से भी नीचे आते है, इसलिए जाटव पासियों का छुआ नहीं खाते. अयान रंजन भले ही ब्राह्मण है लेकिन उसे बता दिया जाता है कि मंहतजी कान्यकुब्ज ब्रह्मण हैं इसलिए सरयूपारीण अयान रंजन को अपनी हैसियत पता होनी चाहिये. फिल्म बड़ी खूबसूरती से देश के अलग-अलग हिस्सों में बिखरी जातीय घृणा, जातीय राजनीति की तस्वीरों को एक कसी हुई पटकथा में पिरोती हैं. ऊना के दलित युवाओं की पिटाई, बदायूं में नाबलिग दलित लड़कियों का बालात्कार, सीवर में आये दिन दम तोड़ता सफाईकर्मी, भीम आर्मी, और साथ में राजनीतिक घात-प्रतिघात.

यह फिल्म संविधान के अनुच्छेद 15 का पुनर्पाठ है. हमारे ईद-गिर्द यत्र, तत्र, सर्वत्र फैली जाति की अदृश्य स्वीकार्यता को सामने लाने में लेखक, निर्देशक पूरी तरह से सफल रहे हैं. यहां नामों में छिपा वर्ण विन्यास आपको सहज ही फिल्मकार की या कहानी पर काम करने वाले की बारीक नजर का मुजाहिरा कर देता है. ब्रह्मा के शीर्ष से जन्मा हुआ ब्रह्मदत्त है और पैरों से जन्मा ‘नोखई’. इसे एक कांस्टेबल की माई ने ‘समाज का संतुलन’ नामक कुछेक दंत कथाओं में भी पिरोया हैं. इन कथाओं का सार है कि हर कोई राजा नहीं हो सकता, यहां केवल एक राजा होगा, कुछ दरबारी होंगे, कुछ नौकर, कुछ संतरी. यही समाज का नियम है. जाति का यह औचित्य हमारे आस-पास चौतरफा फैला हुआ है, अलग-अलग रुपों में. कहीं-कहीं इसे केवट और शबरी से जोड़कर दैवीय आधार देने की चेष्टा भी की जाती है. हिंदू रीति की अंतिम क्रिया में डोम का आग देना भी जातियों के इसी जटिल और कुटिल औचित्यीकरण का तरीका हैं. संतुलन के इसी औचित्य को मनोज पाहवा का एक डायलॉग थोड़ा और आगे बढ़ाता है- “आप लोगों का ट्रांसफर हो जाता हैं हमें मार दिया जाता हैं”. जाहिर है सर्किल अफसर उसी संतुलन में रम जाना चाहता है. वह इस संतुलन को छेड़ना या नए सिरे से देखना नहीं चाहता.

फिल्म बड़ी सफाई से एक बड़ी समस्या को सामने रखती है. हमारा संविधान, समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व की खूबसूरत अवधारणा की बात करता हैं. लेकिन समाज हमारा कुछ ऐसे नियम-कानूनों पर अमल करता है जो संविधान की इन धारणाओं के सर्वथा विपरीत खड़ी हैं. इन्हीं विपरीत स्थितियों की बात करते हुए आयुष्मान खुराना का मर्म स्पर्शी डायलॉग है. “इस संतुलन में कुछ भारी गड़बड़ी है इसे सही करने के लिए एकदम नये तरीके से सोचना होगा.” जाति पर वार की कोशिशें बुद्ध से लेकर कबीर और रैदास से लेकर पेरियार तक हुई हैं, लेकिन वो तरीका अभी तक ईजाद नहीं हुआ जो अलग तरीके से इस संतुलन को चुनौती देकर तोड़ सके.

आर्टिकल 15 वो तरीका तो नहीं बताती लेकिन जाति पर एक मजबूत हथौड़ा ज़रूर चलाती हैं. इस चोट से जाति की ईमारत ध्वस्त भले न हो लेकिन इसमें दरार ज़रूर पड़ जायेगी.

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फिल्म के निर्देशक अनुभव सिन्हा मुल्क के बाद एक और सामाजिक विषय लेकर आए हैं. उन्होंने गौरव सोलंकी के साथ मिलकर फिल्म की पटकथा लिखी है. गौरव एक समय में तहलका पत्रिका के लिए फिल्मों की समीक्षा करते थे. उस दौर की उनकी फिल्मी समीक्षाएं बेहद निर्मम हुआ करती थी. जाहिर है इस मौके पर भूमिकाएं बदल गई हैं. अब कसौटी पर खुद गौरव सोलंकी हैं जिनकी पीड़ा औसत दर्जे वाली हिंदी फिल्में हुआ करती थी. यह काम पेशेवर समीक्षकों का है कि वो इस फिल्म और इसके पटकथा लेखक की समीक्षा किस तरह से करते हैं लेकिन 2 घंटे 10 मिनट की अवधि वाली यह फिल्म अपनी कसी हुई कहानी के लिए सराहना पाएगी. फिल्म में बार-बार ऐसे अवसर आते हैं जब आपकी उत्सुकता चरम पर पहुंचती है कि आगे क्या होगा.

राजनीति पर फिल्में बनाना और निबाह ले जाना दो अलहदा बाते हैं. हमारे सामने प्रकाश झा का उदाहरण है जिनकी आरक्षण से लेकर चक्रव्यूह तक तमाम फिल्में दावा राजनीतिक फिल्म होने का करती है लेकिन उसके सजावटी भाव से आगे नहीं बढ़ पाती. आर्टिकल 15 न सिर्फ अपने विषय को निबाहने में कामयाब रही है बल्कि इस समय के चर्चित तमाम मुद्दों को बहुत सफलता से समेट लेती है. एक और एक को मिलकर ग्यारह करने वाली भूमिका अगर पूछी जाय तो यह श्रेय फिल्म के बैकग्राउंड म्युजिक को जाएगा, जो हर बार दर्शकों को स्वाभाविकता (ऑबिवियस) के मुहाने पर ले जाकर अपूर्ण छोड़ जाता है.

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