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Contributeचर्चा के 116वें अंक में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा श्रम कानूनों में किया गया बदलाव, प्रधानमंत्री द्वारा किया गया 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज का ऐलान और पीएमओ द्वारा सार्वजनिक किए गए पीएम केयर फंड की जानकारी आदि पर बात हुई.
इस बार चर्चा में पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च से सुयश तिवारी, न्यूज़लॉन्ड्री के स्तंभकार आनंद वर्धन और शार्दूल कात्यायन शामिल हुए. चर्चा का संलाचन न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने किया.
चर्चा की शुरूआत में अतुल ने सबसे पहले कोरोना वायरस पर अपडेट देते हुए बताया कि पूरे विश्व में 44 लाख से अधिक लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं. वहीं भारत की बात करे तो यह संख्या 81 हजार पहुंच चुकी है. वायरस से ठीक होने वालों की संख्या भारत में 27 हजार से अधिक है. सुयश से सवाल करते हुए अतुल ने कहा कि कई प्रदेशों में जो श्रम कानूनों में बदलाव हुए है, उसका क्या प्रभाव मजदूरों और उद्योगों पर पड़ने वाला है.
अतुल के सवाल का जवाब देते हुए सुयश कहते हैं, “केंद्र सरकार और राज्य सरकारों द्वरा श्रम कानूनों में किए गए बदलाव में से कौन सा कानून लागू होगा, यह बता पाना अभी तो स्पष्ट नहीं है. लेकिन जहां तक आप ने बात की राज्य सरकारों की, तो कारखाना अधिनियम 1948 के तहत फैक्टरियों में काम करने वाले मजदूरों से कंपनी प्रतिदिन 9 घंटे और सप्ताह में 48 घंटे से ज्यादा काम नहीं करा सकती थी. यह एक्ट राज्य सरकारों को एक छूट भी देती हैं कि सरकार किसी भी सामाजिक आपदा के समय काम करने के समय को बढ़ा सकती हैं जिसके तहत ही कई प्रदेशों ने मजदूरों को प्रतिदिन 12 घंटे और सप्ताह के 72 घंटे काम करने का तय किया है.”
राज्य सरकारों द्वारा उठाया गया यह कदम इसलिए भी अहम है कि कोरोना के समय में सोशल डिस्टेंसिग का ध्यान रखते हुए फैक्टरियों में मजदूर की संख्या एक तिहाई कर दी गई है. सरकारों की कोशिश हैं कि मजदूरों की वजह से कंपनियों का प्रोडक्शन ना रुके और अर्थव्यवस्था की गति बनी रहे. मजदूरों से ज्यादा काम करवाने पर पहले की तरह ही उन्हें ओवर टाइम और अन्य तरह से पैसे दिए जा रहे है. कारखाना अधिनियम के तहत राज्य सरकार यह सब नोटिफिकेशन निकालकर कर सकती हैं जिसकी अवधि तीन महीने तक होती है.
आनंद और शार्दूल को चर्चा में शामिल करते हुए अतुल कहते हैं, “श्रम कानूनों के इतिहास को देखें तो इसे लागू करवाने में कई मजदूरों संगठनों का योगदान है, जिस तरह से मजदूरों को प्रताड़ित किया जाता था, उन सब चीजों को ध्यान में रखते हुए यह कानून बने थे. लेकिन प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के नाम पर जो राज्य सरकारें काम के घंटों में बदलाव कर रही है. उससे मजदूरों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा.”
इसके जवाब में आनंद कहते हैं, “श्रम कानूनों में किया गया बदलाव अस्थाई है. यह आपदा के समय के लिए किया गया है और जब स्थितियां सामान्य होंगी तो यह बना रहेगा या नहीं यह बाद की बात है. तब इस कानून की प्रशासनिक स्क्रूटिनी की जा सकती है. इसके दूसरे पक्ष को देखें तो बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल जहां सबसे ज्यादा पलायन होता है, हो सकता है इस कानून के कारण पलायन रुक जाय. कानूनों में बदलाव की मांग काफी समय से की जा रही थी लेकिन अब यह संयोग ही हैं कि आपदा के समय कानूनों में बदलाव किया गया है.
विशाखापट्टनम में हुए गैस लीक मामलों से इन कानूनों को जोड़ते हुए अतुल शार्दूल से पूछते हैं अगर इस तरह से नियमों में बदलाव किया जाएगा तो एलजी पॉलीमर कंपनी में घटना घटी हैं, क्या सरकारें उस तरह की घटनाओं को नजरअंदाज कर देंगी. शार्दूल कहते हैं, “मैं पूरी तरह से ऐसा नहीं मानता. लेकिन यह सरकार का नेचर है कि वह जनरलाइजेशन करती है. अभी के मौजूदा हालात में मजदूर अपने घर जाना चाहता है, क्योंकि उसमें डर की भावना है.
श्रम कानूनों में बदलाव के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा हुई. पूरी चर्चा सुनने के लिए पॉडकास्ट सुने. न्यूजलॉन्ड्री को सब्सक्राइब करना न भूलें.
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शार्दूल कात्यायन
लाइफ इन द अंडरग्रोथ- डाक्यूमेंट्री
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सुयश तिवारी
आनंद वर्धन
व्यंग उपन्यास - द मेमोरीज ऑफ यंग स्टेट - उपमन्यु चटर्जी
अतुल चौरसिया
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