दैनिक जागरण: फर्जीवाड़े का एक और अध्याय

चित्तौड़गढ़ की ईंट और ‘मैं भारत’ का रोड़ा जुटाकर दैनिक जागरण ने कुनबा जोड़ा.

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9 मई, 2020 को दैनिक जागरण के लखनऊ संस्करण ने अपने पहले पेज पर अपनी तारीफ के कसीदे काढ़ते हुए टॉप पर एक खबर छापी. ख़बर का शीर्षक था- “दैनिक जागरण फिर बना देश का नं. 1 अख़बार.” खबर में बताया गया था कि अख़बार 2003 से लगातार देश का नं. 1 अख़बार बना हुआ है. ‘समय चाहे कितना भी मुश्किल भरा हो, खबरों की विश्वसनीयता और सटीक जानकारी जागरण को पाठकों के बीच एक अलग पहचान देती है. इंडियन रीडरशिप सर्वे के मुताबिक, 6.87 करोड़ पाठकों के भरोसेमंद समाचार पत्र की लोकप्रियता और साख पर फिर लगी मुहर.’

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अखबार में प्रकाशित ख़बर

लेकिन जिन पाठकों ने जागरण को देश का नं. 1 अख़बार बनाया है क्या दैनिक जागरण भी वाकई अपने पाठकों के भरोसे और विश्वास को उतना ही अहमियत देता है? इसका जवाब है, ‘शायद नहीं’. हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि अख़बार ने जिस दिन (9 मई) पहले पेज पर अख़बार के नंबर 1 होने का श्रेय अपने पाठकों को दिया, ठीक उसी दिन पेज नं. 9 तक पहुंचते-पहुंचते उनके इस भरोसे को तोड़ने का काम भी कर दिया. हवा-हवाई, और बरगलाने वाली एक ख़बर भी उसी दिन जगरण ने अपने पाठकों को परोस दी.

9 मई को जागरण के लखनऊ संस्करण में पेज नं. 9 पर “जागरण विशेष- मेरा गांव मेरा देश” में राजस्थान के जयपुर से “भले मर जाएं लेकिन मुफ्तखोरी मंजूर नहीं” शीर्षक से एक खबर छापी. ख़बर में बताया गया था कि राजस्थान के सिरोही और जालौर जिले के आदिवासियों के स्वाभिमान से ‘प्रशासन’ भौचक है. क्योंकि ये लोग इस लॉकडाउन में भी बिना काम किए मुफ्त में कोई भी सामान लेने को तैयार नहीं हैं.

चित्तौड़गढ़ की अप्रैल 2019 
में हुई घटना की फोटो को दैनिक जागरण ने सिरोही का बताकर  अखबार में प्रकाशित कर दिया.

खबर के मुताबिक- ‘प्रशासन’ उन आदिवासियों को मनाने में जुटा. महराणा प्रताप को अपना आदर्श मानने वाले ये आदिवासी अडिग हैं कि चाहे जान जाए लेकिन मुफ्तखोरी नहीं करेंगे. कुछ ने ‘प्रशासन’ की मिन्नत के बाद कर्ज के रूप में इस शर्त पर सामान लेना शुरू कर दिया है कि बाद में मजदूरी करेंगे. जिसका सिरोही और जालौर के कलेक्ट्रेट ने वचन भी दे दिया है. अन्त में ख़बर में लिखा है कि ‘प्रशासन ने’ इनमें से कुछ लोगों को बेसहारा जीवों के लिए भोजन प्रबंध करने वाली एक समाजसेवी संस्था में रोटी बनाने का काम दिया है.

ख़बर पढ़कर एक औसत इंसान भी यही सार निकालेगा कि उपरोक्त कार्य ‘प्रशासन’ के जरिए किया जा रहा है, न कि किसी एनजीओ के जरिए. साथ ही खबर में एक फोटो भी लगी हुई है जिसके कैप्शन में लिखा है- राजस्थान के सिरोही में बच्चों संग एक आदिवासी महिला. सौजन्य- जिला प्रशासन.

न्यूज़लॉन्ड्री ने इस ख़बर की पड़ताल की तो पाया कि ख़बर तथ्यहीन और फर्जी है. हमने पाया कि ये पूरा कार्य प्रशासन नहीं बल्कि एक एनजीओ “मैं भारत” के तहत किया जा रहा है और जिला प्रशासन का इसमें कोई भूमिका नहीं है. जयपुर स्थित मैं भारत संस्था लगभग 10 साल से समाज की भलाई के लिए काम कर रही है. कोरोना संकट के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान भी ग्रामीण इलाकों में ये संस्था बेरोजगार हुए लोगों को राशन आदि बांटने का कार्य कर रही है.

इसी क्रम में सिरोही जिले में ये मामला सामने आया. जिसमें आदिवासी लोगों ने एनजीओ वालों से कहा कि हम मुफ्त में ये राशन नहीं लेंगे, बल्कि आप हमें इसके बदले में कोई काम दे दें, तब हम ये ले सकते हैं. इस पर विचार करते हुए एनजीओ ने उनमें से कुछ लोगों को संस्था से सम्बन्धित कार्यों में लगा दिया. गौरतलब है कि इस पूरे प्रकरण में स्थानीय प्रशासन की कोई भूमिका नहीं थी. लेकिन हैरानी की बात ये रही कि जागरण ने अपनी रिपोर्ट में फर्जी तरीके से सिर्फ सिरोही जिला प्रशासन की भूमिका की तारीफ करते हुए पूरी खबर लिख मारी. और मैं भारत नाम का जो एनजीओ यह पूरा काम संचालित कर रहा था, आज से नहीं बल्कि लॉकडाउन शुरू होने के साथ ही, उसे बड़ी चतुराई से किनारे कर दिया.

खबर के अंत में यह लिख दिया कि, “प्रशासन ने” एक स्वयंसेवी संगठन में इन्हें काम दिलवा दिया है.”पूरी खबर में सिर्फ यहीं एक बार संगठन का जिक्र आया है वह भी प्रशासन के हवाले से. जागरण ने जालौर जिले को भी इस घटना से जोड़ा है जबकि यहां आदिवासी हैं ही नहीं. लेकिन जागरण ने न सिर्फ जालौर के कुछ गावों के नाम स्टोरी में दिए हैं बल्कि वहां के कलेक्टर को भी इसमें शामिल कर दिया है.

हमने एनजीओ के संचालक रितेश शर्मा से इस बारे में विस्तार से बात की. रितेश ने बताया, “जागरण की रिपोर्ट में फैक्ट को बिलकुल बदल कर डाला गया है. इस कार्य में प्रशासन का कोई सपोर्ट नहीं है, हम तो जब से लॉकडाउन हुआ है तभी से इस पर काम कर रहे हैं. हमारा एनजीओ “मैं भारत” लगभग 10 साल से ग्रामीण एम्पॉवरमेंट का काम कर रहा है. इसका उद्देश्य है गांव सेल्फ डिपेंडेंट होना चाहिए. वर्तमान में हमने कोरोना के कारण जिन लोगों की नौकरियां छूट गई हैं, जो बाहर सूरत, मुम्बई आदि में फैक्ट्री में काम करते थे, और न उनके पास जमीनें हैं, तो उनमे राशन का वितरण शुरू किया था, ताकि उन्हें कुछ सपोर्ट मिल जाए. ये खबर तो अप्रैल में ही कई अन्य अख़बारों में भी सही फैक्ट के साथ छप चुकी है.”

रितेश आगे बताते हैं, “इसी दौरान जब हम गुजरात बॉर्डर के पास सिरोही जिले के ट्राइबल एरिया में पहुंचे, तो वहां लोगों ने हमसे कहा कि आप इस राशन की जगह हमें कोई काम दे दो, हम फ्री में ये नहीं लेंगे. क्योंकि लॉकडाउन है तो कोई काम तो था नहीं, इसलिए हमने जो आवारा गाय, कुत्ते आदि घूमते रहते हैं उनके लिए रोटी बनाने का काम उन्हें दे दिया है. अब लगभग 150 परिवार रोटेशन के साथ ये काम कर रहे हैं.”

जागरण ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि समाजसेवी रितेश ने बताया कि ये सामग्री आदिवासियों में बंटी. इस पर रितेश हैरानी से कहते हैं, “मुझसे तो जागरण वालों ने बात भी नहीं की. मुझे तो अपने व्हाट्सएप्प ग्रुप में पता चला की ऐसी भी कोई कहानी चल रही है. हमें तो कुछ मालूम ही नहीं. और मेरा हवाला भी इस एक रिपोर्ट में दिया है, बाकि 2-3 रिपोर्ट छपी हैं उनमे मेरा भी हवाला नहीं दिया है. हमारी संस्था को तो गायब ही कर दिया.”

अन्त में रितेश कहते हैं, “मैं इस पर आगे लीगल नोटिस देने पर विचार कर रहा हूं. आप मुझे बताओ! कुछ भी रिपोर्ट छाप देते हैं. और देखो! रिपोर्ट में लिख दिया कि जालौर के अंदर आदिवासी हैं, जबकि जालौर के अंदर कोई आदिवासी है ही नहीं. जालौर कलेक्टर हिमांशु गुप्ता से इस बारे में हमारी आज तक बात तक नहीं हुई. हां! सिरोही के कलेक्टर भगवती प्रसादजी को हमने जरुर एक लेटर दिया था कि हम एक मुहिम चलाए हुए हैं, तो इसमें प्रशासन हमें सहयोग करे. लेकिन प्रशासन ने न तो कभी कोई आदमी हमारे साथ भेजा और न ही हमें कोई सपोर्ट किया. हालांकि वे हमारे काम से खुश हैं. सारी एक्टिविटी हमारी है. लेकिन जागरण ने लिखा है कि प्रशासन कर रहा है, फिर हमारा नाम बीच में लाने की जरूरत क्या है. बाकि और जिस अख़बार ने भी कवर किया है, पूरी तरह संगठन का नाम अच्छे से दिया है.”

फोटो का फर्जीवाड़ा

पूरी रिपोर्ट में जागरण ने ख़बर के तथ्यों के साथ ही हेराफेरी नहीं की है बल्कि जिस फोटो का प्रयोग किया है उसमें भी हेराफेरी की है. ख़बर में जिस फोटो का इस्तेमाल किया गया है वह फोटो सिरोही की नहीं बल्कि चित्तौड़गढ़ की है. वह फोटो अप्रैल 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त की है. जिसे राजस्थान के फ्रीलांस पत्रकार माधव शर्मा ने अपनी एक स्टोरी के दौरान क्लिक किया था. यह स्टोरी आदिवासी भील समुदाय की भूख और गरीबी के ऊपर लिखी गई थी जो द वायर में उसी वक्त प्रकाशित भी हुई थी.

लेकिन जागरण में यही फोटो सिरोही जिले की बताकर और जिला प्रशासन को साभार देकर प्रकाशित की गई है. कहने की जरूरत नहीं कि फोटो के लिए माधव शर्मा से कोई स्वीकृति लेने का सवाल ही नहीं है. जागरण के इस फर्जीवाड़े पर संज्ञान लेते हुए पत्रकार माधव ने दैनिक जागरण लखनऊ एडिटर को एक मेल लिखकर स्पष्टीकरण मांगा है. और आगे लीगल नोटिस पर भी विचार कर रहे हैं.

माधव शर्मा ने हमें बताया, “लोकसभा चुनावों के दौरान अप्रैल 2019 में मैंने चित्तौड़गढ़ के भील आदिवासियों पर एक स्टोरी की थी. जहां बहुत गरीबी और भुखमरी है, उसकी ये फोटो है. इन्होंने बिना बताए सिरोही की बताकर छाप दिया है और लिखा है कि प्रशासन से ये फोटो मिली है. मुझे तो आजतक ऐसे कही से किसी कलेक्टर से फोटो प्राप्त नहीं हुई, जबकि कुछ को तो मैं पर्सनली जानता हूं. और हमारी फोटो को कोई अधिकारी किसी और को कैसे दे सकता है.”

माधव आगे कहते हैं, “इस पर मैंने लखनऊ के एडिटर आशुतोष शुक्ला को एक मेल लिखा है, जिसका अभी तक कोई जवाब नहीं आया है. अगर कोई रिप्लाई नहीं आता है तो मैं आगे इस पर क़ानूनी कार्रवाई करूंगा. साथ ही स्टोरी में और भी जो फैक्ट इन्होंने दिए हैं वो भी बिलकुल बेबुनियाद और पूरी तरह गलत हैं. ये स्टोरी इनसे पहले भास्कर, हिंदुस्तान टाइम्स आदि में भी सही रूप में छप चुकी है.”

खबर का स्रोत जानने के लिए हमने ख़बर के रिपोर्टर नरेंद्र शर्मा से सम्पर्क किया. यह पूछने पर कि आपने तो सारा क्रेडिट प्रशासन को क्यों दिया, जबकि ये काम एक एनजीओ कर रहा है? उन्होंने कहा, “मैंने प्रशासन और एनजीओ दोनों का नाम लिखा है. अब प्रशासन उस एनजीओ का नाम बता नहीं पा रहा था तो हमने छाप दिया कि बाद में उसके बारे में जानकारी कर लूंगा. अगर आपको उस संस्था के बारे में कोई जानकारी हो तो आप, मुझे बता दो. मैं एक और रिपोर्ट छाप दूंगा.

खबर की फोटो के कॉपीराइट और दूसरे स्थान की होने के संबंध में पूछने पर उन्होंने कहा, “देखो भाईसाब! मैंने खुद तो क्लिक की नहीं थी, मुझे तो प्रशासन ने मुहैया कराई थी.” तो आपने सिर्फ प्रशासन के कहने भर से ख़बर बना दी. एक पत्रकार और इतने बड़े मीडिया हाउस से होने के नाते आपने खबर छापने से पहले उसको कन्फर्म करना मुनासिब नहीं समझा. इस सवाल का वह कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए.

हमने दैनिक जागरण लखनऊ के एडिटर आशुतोष शुक्ला को फोन कर इस बारे में उनका पक्ष जानने की कोशिश की. लेकिन उन्होंने हमारा फोन काट दिया.

भले ही दैनिक जागरण दुनिया का नंबर एक अखबार होने का दावा करता हो लेकिन उसकी खबरों की विश्वसनीयता कितनी है यह ख़बर उसकी एक झलक देती है.

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