जलसा घर: सत्यजीत रे की क्लासिक रचना

कला और पूंजीवाद के अंतरद्वंद्व का कथानक है जलसा घर.

WrittenBy:धर्मेंद्र सिंह
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जलसा घर (1958) सत्यजीत रे की चौथी फ़िल्म थी. 1955 में उन्होंने पथेर पंचाली बनायी. यह फ़िल्म विभूति भूषण बंदोपाध्याय के इसी नाम के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित थी. 1956 में अपराजितो के निर्माण के साथ वह विश्व सिनेमा के क्षितिज पर अपनी गंभीर आमद दर्ज करा चुके थे.

अक्टूबर 1958 के दूसरे सप्ताह में रिलीज़ हुई जलसा घर असाधारण रूप से पहली दोनों फ़िल्मों से अलग थी. इस असाधारणता की बुनियाद में सत्यजीत रे का वह विमर्श था जिसमें यह चिंता शामिल थी कि उभरती हुई आधुनिकता की नव-मशीनी और पूंजीवादी संरचना के भीतर कला और संस्कृति की क्या हैसियत होगी? क्या आधुनिकता संस्कृति और उसकी आभिव्यक्तिक कलाओं, जैसे संगीत, नृत्य इत्यादि के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार करेगी जैसा वह एक कमॉडिटी मसलन टूथपेस्ट या बिस्किट के साथ करती है!

क्या संस्कृति की क्लासिकल परम्पराएं भी बाज़ार में हासिल होने वाली एक कॉमोडिटी बन कर रह जाएंगी? क्या व्यवसायीकरण की आंधी लोगों के कलात्मक आस्वादन की क्षमताओं को बदल डालेगी? इन प्रश्नों के सवाल ढूंढ़ने के लिए रे को जो कथात्मक विन्यास चाहिए था वह उन्हें एक बंगाली कहानीकार ताराशंकर बनर्जी की कहानी में मिल गया और इसी कहानी ने जलसाघर की उस पटकथा का काम किया जिसमें कैमरे के ज़रिए रे ने राजों-रजवाड़ों के यहां चली आ रही वैचारिक जड़ता के बाबजूद वहां पनपने वाली संगीत की प्रश्रयवादी परंपराओं को आधुनिकता के मूल्यों के बरक़्स खड़ा करके एक तनावग्रस्त विमर्श का निर्माण किया.

फ़िल्म की कहानी बीसवीं सदी के तीसरे अथवा चौथे दशक के ग्रामीण बंगाल की कहानी है. जमीदारियां ज़मींदोज होने लगी हैं लेकिन जलसाघर का नायक, ज़मींदार विशंभर रॉय अपनी हवेली के भीतर बने हुए एक हॉल- जिसे वह गीत-संगीत की गोष्ठियों के आयोजनस्थल होने कारण जलसा घर कहता है- के सहारे जीवित है.

जलसा घर वस्तुतः जलसा घर से नहीं, ज़मींदार की दरकती हुई हवेली की जर्जर छत से शुरू होती है जहां रे का कैमरा वृद्ध और चिंताग्रस्त ज़मींदार और उसके सामने उजाड़ पड़े हुए नदी के खादर मैदान को एक साथ पकड़ता है. ज़मींदार का घरेलू सेवक अनंत ‘हुज़ूर’ के लिए हुक्का लगाकर छत पर लाता है. ज़मींदर का पहला संवाद अनंत से है-

‘कौन सा महीना है?’‘फागुन हुज़ूर’- हुक्का लगाकर अनंत जवाब देता है. ‘बसंत काल’‘हां हुज़ूर’

कहीं से आती हुई शहनाई की स्वर लहरियां विशंभर रॉय की समयसंज्ञता के बोध को विक्षुब्ध कर देती हैं. शहनाई के सुर ज़मींदार के इलाक़े के गांगुली बाबू के घर से आ रहे हैं. बजती हुई शहनाई के बीच में ही विशंभर रॉय अपनी बची खुची ज़मींदारी के मामले देखने वाले अपने नायब को छत पर तलब करते हैं. ‘माहिम के घर शहनाई क्यों बज रही है?

‘उसके बेटे का उपनयन है हुज़ूर’‘क्या ये बंदे अली की शहनाई है.’ ज़मींदार दूर से शहनाई के सुर पहचान लिए.‘हां हुज़ूर’

‘क्या निमंत्रण आया था?’ ‘आया था हुज़ूर.’

‘क्या वह निमंत्रण लेकर खुद आया था?’

‘नहीं हुज़ूर, चिट्ठी पत्री आयी थी.’

क्या आप जाएंगे? नायब ने पूछा.

क्या मैं कहीं जाता हूं.

ना हुज़ूर

तो फिर ?

नायब नीचे चला जाता है, ज़मींदार बंदे अली की शहनाई के साथ अतीत में और फ़िल्म फ़्लैशबैक में.

माहिम गांगुली जनार्दन बाबू का लड़का था. वह नदी के किनारे की रेत उठाने का पट्टा चाहता था. नायब ज़मींदार को बताता है कि उसने व्यापार से ख़ूब पैसा कमा लिया है. गांव में बड़ा घर बनवा लिया है. यहां रे पहली बार जलसा घर को दर्शक के सामने लाते हैं. दीवार पे पुरखों के आदम क़द चित्र, उम्दा फ़र्नीचर, एक बड़ा आपादमस्तक दर्पण और जलसा घर की छत के बीचों बीच लटका हुआ काँच का विशाल झूमर, जिसे जलसाघर की परिवर्तित स्थितियों के प्रतीक का काम करना था.

ज़मींदार के लड़के का उपनयन समारोह है. बैंक ने और क़र्ज़ देने से मना कर दिया है. माहिम गांगुली साहूकारी का काम करता है और जिस दिन वो ज़मींदार से पट्टे के लिए मिलने आया है उसी दिन ज़मींदार के इकलौते बेटे के घर ये समारोह हो रहा है. नायब सलाह देता है कि माहिम से ही उधार ले लिया जाए जिससे विशंभर रॉय इंकार कर देता है. ज़मींदार होकर माहिम जैसे छोटे साहूकार से उधार! वह अपने नायब ताराप्रसन्न से तिजोरी खोलकर कुछ घर के कुछ गहनों के जरिए इंतज़ाम करने को कहता है.

माहिम बताता है कि उसे भी थोड़ा बहुत संगीत का शौक़ है. विशंभर रॉय नायब से उस दिन शाम को होने वाले जलसाघर के आयोजन में माहिम को भी बुलाने के लिए कहता है. जलसाघर की शमाएं रोशन कर दी जाती हैं. दुर्गाबाई, जिनका चरित्र बेगम अख़्तर ने निभाया है और यथार्थ में गायी गयी ठुमरी उन पर फ़िल्मायी गयी है, जलसा घर में ठुमरी प्रस्तुत करती हैं.

यहां रे का कैमरा संगीत के आस्वादन, उसकी समझ और उस पर की प्रतिक्रियाओं को दिखाने के लिए ज़मींदार विशंभर रॉय और नव-धनाढ्य माहिम गांगुली; दोनों की दोहरी भंगिमाओं को क़ैद करता है. ठुमरी पे ज़मींदार की प्रतिक्रियाएं माहिम गांगुली की प्रतिक्रियाओं से हाव-भाव में पूरी तरह अलग हैं.

माहिम गांगुली के स्तर पर, संगीत की उसकी समझ उसके नवोदित पूंजीवादी चरित्र और एक शेख़चिल्लीपूर्ण ‘डिलेटांटी’ की भूमिका से टकराती है. वह ठेके पट्टे वाला आदमी है. उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं है लेकिन संगीत का आस्वादन करने के उसके मध्यमवर्गीय प्रतिमान संस्कृति की परंपरानिष्ठता से भदेसपन की हद तक अलहदा हैं.

इसी बिंदु पर रे की जलसाघर संस्कृति के विमर्श को सबसे गंभीर और उलझनग्रस्त मुद्दों की ओर खींच लाती है. ज़मींदार की ज़मींदारी अपने आप में एक अप्रासंगिक और विघटित होती हुई जड़-संरचना है लेकिन क्या उस संरचना के भीतर की अन्य उपसंरचना- जो कि उसका जलसाघर है- भी अपने गंभीर मूल्यों के साथ विघटित होने के लिए अभिशप्त है! जलसा घर भूस्वामी वर्ग की जड़ हो चुकी सामाजिक और राजनीतिक चेतना बनाम उनकी गम्भीर सांस्कृतिक चेतना के द्वंद्व का अखाड़ा बन जाता है. क्या कला और संस्कृति के प्रारूप अब माहिम गांगुली जैसी मध्यमवर्गीय चंचलता और परंपराविहीन परिवेश में जीवित रहने के लिए मजबूर होंगे.

यहां रे का विमर्श फ़्रैंकफ़र्ट शाखा के जर्मन दार्शनिक थियोडॉर अडोर्नो (1903-1969) और मैक्स होर्खाइमर (1895-1973) की उस अवधारणा के समानांतर आ पहुंचता है जिसे दोनों ने दूसरे विश्व युद्ध की छाया में लिखी गयी अपनी रचना ‘डाइलेक्टिस ऑफ एन्लाइटेनमेंट’ में ‘कल्चर इंडस्ट्री’ और ‘एस्थेटिक्स’ में ‘सेमी लिटरेसी’ का नाम दिया था.

कल्चर इंडस्ट्री के विचार में दोनों चिंतक यह दलील पेश करते हैं कि आधुनिक पूंजीवादी समाज में कला किसी कारख़ाने में पैदा होने वाली ‘वस्तु’ बना दी जाती है. वह लोगों के नाम पर उन्हें ही धोखा देने के लिए तैयार की जाती है. अख़बार, मास मीडिया, पत्रिकाएं, रेडियो सभी एक ही तरह के लोकलुभावन फ़ॉर्मेट में ढाल दिए जाते हैं. संस्कृति और कला के उच्चतर मूल्यों तक न पहुंचकर उसकी त्वचा का इस्तेमाल किया जाता है और उससे जनता को छला जाता है.

इस ‘कल्चर इंडस्ट्री’ को किसी भी सामान्य पण्य की तरह मुनाफ़े के लिए चलाया जाता है. यहां वही चीज़ बनायी जाती है जो अधिक से अधिक लाभांश पैदा करके दे भले ही यह उत्पादन एक ऊब भरे दोहराव जिसे अडोर्नो ने ‘सेमनेस’ कहा था, की क़ीमत पर ही क्यों न हो. कला अथवा संगीत कहने भर के लिए कला-संगीत रह जाते हैं. उनके अंतरतम की समस्त गंभीरता और औदात्य का तर्पण कर दिया जाता है. (देखिए, p. 95-130, डाइलेक्टिक्स ऑफ़ एनलाइटेनमेंट, फिलोसोफिकल फ़्रैग्मेंट्स, स्टेनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2002)

सेमी लिटरेसी के विचार को, जो जलसाघर के संदर्भ में माहिम गांगुली के चरित्र पर और अधिक उपयुक्तता से लागू होता है, अडोर्नो ने 1950 से 1968 के बीच में दिए गए अपने ‘लेक्चर्स’ में प्रस्तुत किया था जो बाद में ‘एस्थेटिक्स’ के नाम से प्रकाशित हुए. सेमी लिटरेसी से अडोर्नो का तात्पर्य था कि कोई व्यक्ति किसी चीज़ के बारे में बिना उसका वास्तविक अनुभव किए हुए सिर्फ़ ‘इन्फ़ॉर्म्ड’ हो और मात्र उन ‘इंफ़ॉर्मेशंस’ के आधार पर उस चीज़ के बारे में बिना कुछ जाने यह मानता रहे कि वह उस चीज़ के बारे में सब कुछ जानता है. (देखिए, p. 197, एस्थेटिक्स, थियोडॉर अडोर्नो, पॉलिटी प्रेस, कैम्ब्रिज, 2018)

रे का कैमरा माहिम गांगुली की इसी अर्ध-साक्षरता को उद्घाटित करता है. एक गंभीर राग, जिसे वह ‘जानने’ का अभिनय करता है, को सुनते हुए नाक में बार बार इत्र लगाने और भौंह की अस्वाभाविक हरकतें उसे डिलेटांटी साबित करती हैं. वह राग की जगह महफ़िल में शराब ढूंढ़ता है.

रे के जलसा घर का ज़मींदार विमल मित्र के उपन्यास और इसी शीर्षक के साथ बनी अबरार अल्वी की फ़िल्म ‘साहिब, बीबी और ग़ुलाम’ (1962) के ज़मींदारों से अलग है. साहिब बीबी और ग़ुलाम के ज़मींदारों की सांस्कृतिक अभिरुचियां अपनी सार्थकता खोकर केवल अय्याशी की भारपूर्ति रह गयी हैं. जलसाघर का ज़मींदार ‘अर्ध-साक्षर’ नहीं है. उसे संगीत की गहन समझ है. वह स्वयं संगीतवादक है. उसकी सामाजिक चेतना असंदिग्ध रूप से सामंती है किंतु सांस्कृतिक चेतना निर्दोष और समयातीत है. वह माहिम गांगुली की मध्यवर्गीय समृद्धि से प्रतिस्पर्धात्मक ईर्ष्या रखता है.

गांगुलीवाड़ी में नए-नए लगे जेनरेटर से आने वाली फट-फट की आवाज़ विशंभर रॉय के सितार के स्वरों से ही नहीं उसके वर्गीय अहंकार से भी टकराती है. ज़मींदार की हवेली में ईंधन की पुरानी मशालें हैं और माहिम गांगुली के घर विद्युत जेनरेटर का नया प्रकाश! वह छत पर चढ़कर गांगुलीवाड़ी देखता है. काल का तुलनात्मक बोध उसे अवसाद में डुबो देता है. बावजूद इसके वह माहिम को स्व-घोषित संगीत के ज्ञान के दावे के कारण जलसाघर में बुलाता है.

जलसा घर की दूसरी कॉन्सर्ट एक ट्रेजडी के समानांतर आयोजित होती है. एक जलसे के दिन विशंभर रॉय एक दुर्घटना में अपनी पत्नी और इकलौते बेटे को गंवा देता है. जलसाघर एक अंतिम बार खुलने के क्षण तक के लिए बंद कर दिया जाता है. यहां से फ़िल्म जलसा घर के फ़्लैशबैक को छोड़कर पुनः विशंभर रॉय के उदास एकाकी जीवन के वर्तमान से जुड़ जाती है. जलसाघर धूल फांक रहा है. माहिम समृद्ध होता जा रहा है और ज़मींदार दरिद्र. घर के सामानों की नीलामी होने लगी है. जो बचा है वो नौबतख़ाने का एक हाथी और एक घोड़ा है. ज़मींदार बहुत दिनों बाद हवेली से बाहर निकलता है. सामने एक लॉरी जाती हुई दिखती है. पीछे लिखा है- गांगुली एंड कम्पनी. सत्यजीत रे कैमरे के एक ही फ़्रेम में तीनों वस्तुगत सत्ताओं के चलचित्र लेते हैं. समय की विघटनता का प्रतीक हाथी, भविष्य में आने वाली बेरहम स्पीड की प्रतीक एक मोटर लॉरी और वर्तमान के क्षणबोध में रुकी पड़ी विशंभर रॉय की निजी उदासी.

इस बार जलसा माहिम के घर में है. लखनऊ से एक कत्थक नर्तकी को आना है. वह विशंभर रॉय को बुलाता है. ज़मींदार पुनः बहाना बना कर मना कर देता है लेकिन ‘गांगुली एंड कम्पनी’ की लॉरी उसके वर्गीय अहं को सक्रिय कर चुकी है. वह तिजोरी से आख़िरी बचे गहने निकालकर बंद पड़े जलसाघर को खुलवाता है और 300 रुपए खर्च करके उसी नर्तकी को बुलाता है जिसे माहिम के जलसाघर आना था. ज़मींदार का जलसा घर खुलता है. झूमर पर जाले हैं. दर्पण पर धूल है और पूर्वजों के चित्रों पर धूमिलता. ज़मींदार का नौकर अनंत जलसा घर की क़ालीन अनफ़ोल्ड कर देता है.

रे का कैमरा फ़िल्म के सबसे सुंदर दृश्यों में से एक; उस नौकर की आंखों की चमक को एक बेहद क्लोज़ शॉट से दर्शाता है. माहिम भी आता है. जलसा शुरू होता है. माहिम गांगुली की आर्थिक समृद्धि के सापेक्ष रे उत्कर्ष (क्लाइमेक्स) के पलों में पुनः माहिम की सांस्कृतिक दरिद्रता की भंगिमाओं को दिखाते हैं. वह कला के त्वचीय रूप पर झूमता है. अज्ञेय की असाध्य वीणा के निर्णायक क्षणों की भांति जलसाघर के आख़िरी जलसे में कलात्मक आस्वादन पर सभी की अनुभूतिगत प्रतिक्रियाएं अलग-अलग होती हैं.

ज़मींदार संगीत की मौलिकता पर ख़ुश है. उसका नौकर अनंत अपने नियोक्ता की ख़ुशी और बहुत दिनों बाद जमे जलसे की वजह से ख़ुश है और माहिम संगीत को ‘जानने’ के अहसास पे ख़ुश है. जैसे ही नर्तकी कत्थक समाप्त करती है, माहिम अपनी जेब से तुरंत पैसा निकालकर नृत्यांगना की ओर उछालने का उपक्रम करता है. ज़मींदार तुरंत अपनी छड़ी से उसकी कलाई को रोक देता है. माहिम अवाक् रह जाता है. रे ‘जलसा घर’ के सबसे उत्कृष्ट शॉट को प्रस्तुत करते हैं. ‘कलाकार को इनाम देने का पहला हक़ मेज़बान का होता है’- विशंभर रॉय जवाब देता है और इनाम की एक मोहरबंद थैली एक गरिमापूर्ण शैली में नर्तकी को भेंट कर देता है.

जलसा समाप्त हो जाता है. ज़मींदार देर रात तक शराब पीता है. माहिम से अपनी वर्गीय ईर्ष्या के साथ बहते-बहते वह अपने सांस्कृतिक बोध को लांघकर अपने पूर्वजों की ऐतिहासिकता के साथ चला जाता है. अपने ‘ग्रांड-ग्रांड फादर’ की तस्वीर पर रेंगती हुई मकड़ी को झटकारता है. जलसा घर के विशाल दीप-खचित झूमर की प्रदीपिकाएं बुझने लगती हैं. वह डर जाता है. अनंत कहता है कि सवेरा हो गया है. सूरज निकल आया है. अस्तबल से घोड़ा हिनहिनाता है. ज़मींदार का ‘रक्त’ जाग उठता है. वह घोड़े को सरपट दौड़ाता है. नशे की अवस्था में संभाल नहीं पाता. गिर जाता है. मर जाता है. जलसा घर सत्यजीत रे की सबसे तनावग्रस्त पटकथाओं में से एक है. ज़मींदार की भूमिका बंगाली थिएटर के एक सशक्त कलाकार छवि विश्वास ने निभायी थी. रे की फ़िल्में भारतीय क्लासिकल संगीत की परम्पराओं के आकर्षण से आवेष्टित होती थीं.

जलसा घर का संगीत महान सितारवादक उस्ताद विलायत खान (1928-2004) तथा रॉबिन मजूमदार ने तैयार किया था. रे के इतिहास बोध में भारतीय शास्त्रीय संगीत सबसे प्रबल था. हिंदी में बनायी गयी उनकी फ़िल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1977) इस बात की तस्दीक़ है. ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में लखनऊ के आख़िरी नवाब का पतन भारतीय संगीत के उत्कर्ष की द्वंद्वात्मक परिस्थिति में होता है.

जलसा घर की विशिष्टता यह है कि इसमें संगीत फ़िल्म का ढांचा और विषय-वस्तु एक साथ है. उस से भी अधिक यह कि यह सांस्कृतिक आस्वादन के विमर्श को मनो-समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करने का प्रयत्न करती है. विशंभर रॉय के चरित्र की परस्पर अंतर्विरोधात्मक छवियों और माहिम गांगुली के चरित्र की डिलेटांटिज़्म को रे ने एक अद्वितीय सिनेमेटिक सौंदर्य के साथ पकड़ा.

रे पर यह आक्षेप लगाया जा सकता है कि जलसा घर में उनके द्वारा किया गया ज़मींदार का चरित्र चित्रण सहानुभूतिपूर्ण है लेकिन यह नहीं भूला जा सकता कि रे ने विशंभर रॉय के चरित्र के वर्गीय अहंकार को भी पूरी यथार्थता के साथ वर्णित किया है. नवोदित पूंजीपति माहिम गांगुली का संवेदनागत सतहीकरण किसी अंतर्निहित घृणा के कारण घटित नहीं होता बल्कि वह सतहीकरण नव-सामाजिक परिवर्तनों और कला-संस्कृति के अंतरसंबंधों की पेंचीदगी के अनुशीलन पर टिका होता है. परिणामस्वरूप, फ़िल्म का केंद्रीय विमर्श एक पतनशील संरचना के भीतर संस्कृति और कला का वर्तमान बनाम भविष्यागामी ‘संस्कृति उद्योग’ के समय में उसकी मौलिकता और परंपरा के पतन की कथा में रूपांतरित हो जाता है.

मैं नहीं जानता कि उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों के सिनमाघरों में यह फ़िल्म सब-टाइटल्स के साथ रिलीज़ हुई अथवा नहीं लेकिन 60 के दशक में यूरोप और यूएस में रिलीज़ के साथ ही इसने पश्चिमी सिनेमा में सत्यजीत रे के क़द को और बढ़ा दिया था. उन्हें उनके ही आदर्श फ़्रेंच फ़िल्मकार ज्यों रिनो (1894-1979) के बराबर का सिनेमाकार माना गया. ‘अरण्येर दिन रात्रि’ के साथ यह पश्चिमी सिने समीक्षकों की नज़र में रे की सबसे असाधारण सिनेमाई उपलब्धियों में से एक थी. यह ब्रिटिश फ़िल्म इंस्टीट्यूट् की ‘360 क्लासिक्स’ में भी शामिल है.

(लेखक उत्तर प्रदेश कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. अभिव्यक्त किए गए विचार निजी हैं )

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