इतना मुश्किल क्यों है मुस्लिम फंडामेंटलिज़्म पर बात करना

संविधान के सेक्युलर विचार अक्सर मुस्लिम कट्टरपंथियों को मजबूरी में मिला अवसर भर लगते हैं.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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2010 की किसी शाम रमजान के महीने में आरिफ़ मोहम्मद खान से इफ़्तार के दस्तरख्वान पर तफ़सील से बातचीत हुई. देवबंद के कुछ मौलानाओं ने एक फतवा जारी किया था. फतवे का सुर जैसा कि अमूमन होता है, स्त्रीविरोधी, मर्दवादी था. बातचीत लंबी चली तो आरिफ़ मोहम्मद खान के निजी अनुभवों का ज़िक्र छिड़ गया. ये बात तो सबको पता है कि 1986 में भारत सरकार द्वारा शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिये गये फैसले को पलटने के बाद आरिफ़ मोहम्मद खान ने तत्कालीन कांग्रेसनीत केंद्र सरकार से इस्तीफ़ा दे दिया था. लेकिन ये बात कम लोगों को पता है कि इस घटना के कई साल बाद तक उन्हें और प्रोफेसर मुशीरुल हसन को जामिया यूनिवर्सिटी कैंपस में घुसने नहीं दिया गया था. यूनिवर्सिटी में मौजूद मुस्लिम कट्टरपंथियों ने पूरी यूनिवर्सिटी को इन दोनों के ख़िलाफ़ बंधक बना लिया था. ये फंडामेंटलिस्ट, रूढ़िवादी कौन हैं? अपनी सुविधा से सेक्युलर और सुविधा से धर्मभीरू बन जाने वाले मुस्लिमों के इस तबके के लिए देश का सेक्युलर संविधान और उसके द्वारा प्रदत्त अधिकार क्या सिर्फ अवसर के अनुसार इस्तेमाल करने का ज़रिया भर है.

आज के समय में मुस्लिम कट्टरपंथ पर बात करने की राह में एक बड़ा रोड़ा मौजूदा राजनीतिक माहौल भी है. यहां मुख्यधारा के मीडिया से लेकर सड़क तक उन दक्षिणपंथी आवाज़ों की बन आयी है जो अपनी संकीर्ण, इस्लामोफोबिक मानसिकता के तहत लगभग हर चीज़ का सांप्रदायीकरण कर देते हैं. स्टीरियोटाइप का कोहरा इतना घना है कि वाजिब मुद्दों पर भी लोग बोलने से कतरा जाते हैं.

लंबे समय तक मेरा मानना रहा कि मुस्लिम या फिर किसी भी समाज के भीतर मौजूद बुराइयों, कुरीतियों पर समुदाय के भीतर से प्रगतिशील, विज्ञानसम्मत, उदार आवाज़ें उठनी चाहिए. कहा भी गया है कि- ‘जाके पैर न फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई.’ लेकिन एक समय ऐसा आया जब लगने लगा कि यह तरीका सही नहीं है. एक विचारशील व्यक्ति के तौर पर आपकी राय कम से कम आपकी रुचि के विषयों पर ज़रूर आनी चाहिए. हम अपने सामने घटित हो रही घटनाओं पर आंखें नहीं मूंद सकते. इस लेख को लिखने का एक खतरा यह भी है कि आपको संतुलनवादी करार दिया जाये. पर ये खतरे उठाने होंगे. हम हिंदू धर्म की समस्याओं, इसकी फॉल्टलाइन पर सिर्फ़ हिंदुओं के भरोसे बैठे रहे और हालत यह हुई कि संघ दो सीटों से आज देश की वैचारिक खुराक की गंगोत्री बन गया. आज चौतरफा हिंदू कट्टरपंथ और अराजकता का बोलबाला है. सोशल मीडिया पर ट्रोल हैं, जिनसे दक्षिणपंथ की वैचारिक संकीर्णता टपकती रहती है. सड़कों पर गौरक्षा से लेकर लव जिहाद से रक्षा करने वाले युवाओं का हिंसक समूह है. हमारे देखते-देखते ही ये सारी चीज़ें बदली हैं.

बीते हफ़्ते घटी कुछ घटनाओं ने मुस्लिम समाज के भीतर मौजूद इसी तरह की फंडामेंटलिस्ट ताकतों को एक बार फिर से उजागर किया है. कश्मीर की अदाकारा ज़ायरा वसीम ने अपना एक्टिंग करियर ये कहकर छोड़ने की घोषणा की है कि यह उनके ईश्वर की राह में रोड़ा बन रहा था. अटकलें लगायी जा रही हैं कि ज़ायरा का परिवार लंबे समय से कश्मीरी मौलवियों के दबाव में था और इसी का नतीजा है ज़ायरा का यह फैसला. एक फतवा मुस्लिम मौलवियों की तरफ से जारी हुआ तृणमूल कांग्रेस की सांसद नुसरत जहां के ख़िलाफ़ जिन्होंने एक हिंदू से शादी की और मांग में सिंदूर पहन लिया. सबसे ताज़ा वाकया राजनेता आरिफ़ मोहम्मद खान से जुड़ा है, जिनके एक बयान पर  मुसलमानों का रूढ़िवादी तबका पिल पड़ा है. बयान यह था- ‘नरसिंहा राव ने कहा था कि मुसलमान अगर गटर में रहना चाहता है तो उसे वहीं रहने दो.’ यह बयान बहुत पुराना है पर ज़ाहिरन मौजूदा राजनीतिक माहौल में कांग्रेस पार्टी को नुकसान और भाजपा को फायदा पहुंचा रहा है. दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बयान का ज़िक्र लोकसभा में दिये गये अपने भाषण में किया है.

बीसवीं सदी में दुनिया भर में धार्मिक फंडामेंटलिज़्म का विचार मजबूत होने के साथ ही भारत में भी इसकी जड़ें जमने लगी थीं. एक तरफ आरएसएस-हिंदू महासभा का उदय हो रहा था तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग. इनके उभार का चरम था देश का बंटवारा, 10 लाख लोगों की मौत और करोड़ों लोगों का विस्थापन. ऐसा लगा कि चीज़ें इस मुकाम पर आकर थम गयीं हैं. भारत ने एक सेक्युलर राज्य का विकल्प चुना. उस दौर का राजनीतिक नेतृत्व भी इस मायने में दूरदर्शी साबित हुआ कि इस देश की व्यापक विविधता को समेटने के लिए उसने राज्य और संविधान का स्वरूप धर्मविहीन और सेक्युलर चुना.

लेकिन धार्मिक फंडामेंटलिज़्म में आया ठहराव अस्थायी था. उस समय की दो घटनाओं से इसे समझना होगा. एक तरफ हिंदू फंडामेंटलिस्ट थे जिनके दामन पर राष्ट्रपिता की हत्या का दाग लगा था. इस अपराध के नैतिक दबाव में संघ और हिंदू महासभा का हिंदुराष्ट्र प्रोजेक्ट अगले दो-तीन दशकों के लिए थम गया. समाज में उनकी स्वीकार्यता लंबे समय तक संदिग्ध रही. दूसरी तरफ आम मुसलमानों के साथ बड़ी संख्या में वो मुस्लिम फंडामेटलिस्ट थे जो किन्हीं वजहों से पाकिस्तान नहीं जा पाये थे. लेकिन नये-नये आज़ाद हुए भारत में अल्पसंख्यक होने का अहसास, बहुसंख्यक आबादी से हो सकने वाले हमले का भय और देश के बंटवारे के अपराधबोध ने उन्हें आने वाले तीन-चार दशकों तक दबाव में रखा. लेकिन अस्सी के दशक में पैदा हुई राजनीतिक अराजकता के बीच दोनों तरफ के धार्मिक फंडामेंटलिज़्म ने अपना सिर फिर से उठाना शुरू कर दिया. शाह बानो के मामले में कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के एक समूह ने पूरे देश में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ अभियान चलाकर इसे मुसलमानों के अंदरूनी धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप बताकर प्रचारित किया. इसमें सैयद शहाबुद्दीन से लेकर एमजे अकबर जैसे लोग शामिल थे. इसके दबाव में आकर तत्कालीन राजीव सरकार ने संसद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने वाला कानून पारित किया.

बीसवीं सदी में मिश्रित जटिल समाजों के उदय के साथ सेक्युलरिज़्म के विचार ने गति पकड़ी तो साथ में इसकी प्रतिक्रिया में धार्मिक फंडामेंटलिस्ट विचारों ने भी जड़ पकड़ लिया. इनका मकसद धर्म या ईश्वर की सत्ता को राज्य की मुख्यधारा में लाना है. दुनिया के जिस भी हिस्से में आधुनिक सेक्युलर राज्य गठित हुए वहां उसकी प्रतिक्रिया में एक समान्तर फंडामेंटलिस्ट संस्कृति का आगाज हुआ. ईसाई, मुस्लिम, हिंदू, यहूदी या बौद्ध, हर धर्म में. यह एक सोची समझी प्रतिक्रिया थी, जिसका मकसद उन देशों में धार्मिक प्रभुता वाले राज्यों का निर्माण करना था जहां सेक्युलरिज़्म पैर जमा रहा था.

दुनिया के हर हिस्से में जहां भी फंडामेंटलिज़्म का विस्तार हुआ उन सबका एक ही आधार था, भय पैदा करना और सेकुलरिज़्म को धार्मिक आस्था और परंपराओं का दुश्मन साबित करना. जितना इन्हें रोकने की कोशिशें की गयी, वह उतना ही पलटकर इनके हित में गयी. भारत में आरएसएस का उदय इसका क्लासिक उदाहरण है, जिसने तीन बार अपने ऊपर लगे प्रतिबंधों का हर बार अपने हित में इस्तेमाल किया और हर बार पहले से ज़्यादा बड़ा बनकर उभरा. यही बात पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी के लगातार मजबूत होने के पीछे भी रही.

सेक्युलरिज़्म एक विचार है, आधुनिक, मिश्रित, बहुसांस्कृतिक समाजों के मद्देनज़र राज्य की सार्वजनिक दिनचर्या को, उसके रोजमर्रा के शिष्टाचार को व्यक्तिगत जीवन और धार्मिक आस्थाओं से अलग रखने का विचार. सेक्युलरिज़्म किसी धर्म का विरोधी न होकर धर्म को निजी व्यवहार में सीमित रखने तथा न्याय और व्यवस्था के लिए जिम्मेदार संस्थाओं को किसी विशेष धार्मिक सोच से मुक्त रखने की सोच है. इसके ठीक विपरीत फंडामेंटलिस्ट विचार हर चीज को नियंत्रित करने का तरीका धार्मिक किताबों और दैवीय आख्यानों में खोजता है. मौजूदा फंडामेंटलिज्म सभी धर्मों में कमोबेस एक सा है- कठोर नैतिक मूल्यों की पैरवी, सेकुलरिज़्म की निंदा, आधुनिक विचारों की जड़ें पुरातन पुस्तकों में खोजना या फिर आधुनिकता का विरोध करना.

ख़ैर, तात्कालिक मुद्दे की ओर लौटते हैं जो कि आरिफ़ मोहम्मद खान या ज़ायरा वसीम से जुड़ते हैं. जितना बड़ा सच दुनिया के लिए धर्म है, उतना ही बड़ा सच धार्मिक सुधार आंदोलन भी हैं. धार्मिक रूढ़ियों और कुप्रथाओं को समय के साथ परिमार्जित करते हुए नये वक़्त की ताल से ताल बिठाने का काम धर्म करते आये हैं. ईसाई जगत में कैथलिक रूढ़िवाद से विद्रोह के बाद ही प्रोटेस्टेंट चर्च की व्यापक धारा शुरू हुई. भारत में सनातन हिंदू परंपरा से आर्य समाज, जैन, बौद्ध, सिख जैसी अनगिनत धाराएं इसी सुधारवादी प्रक्रिया से उत्पन्न हुईं. इस्लाम जिसका हम यहां ज़िक्र कर रहे हैं वहां भी सूफियत की शानदार परंपरा रही है. लिहाजा यह कहना कि ज़ायरा वसीम का फैसला उनका निजी फैसला है, असल में धूर्तता है. ये वही लोग हैं जो बुरके को किसी की पहनने-ओढ़ने की आज़ादी का तर्क देकर उचित ठहराने की कोशिश करते हैं.

लेकिन यह तर्क बेहद खोखला है. ऐसा कोई पहनावा जो धर्म के द्वारा तय किया गया हो, जिसे 2000 सालों में सिर्फ एक धर्म ने अपनी पहचान से जोड़कर प्रश्रय दिया हो, वह 21वीं सदी में अचानक से पहनने-ओढ़ने की आज़ादी का मसला कैसे बन जाता है. क्या जिन घरों में महिलाएं बुरका पहनती हैं वहां के मर्द इस बात की इजाज़त दे सकते हैं उसके घर की महिलाएं बिना बुरका के रह सकती हैं. क्या बुरका घरों में परंपरा और आस्था के नाम पर शुरू से ही युवा हो रही लड़कियों पर थोपा नहीं जाता. जब यही सच है तब पहनने-ओढ़ने की आज़ादी का क्या तर्क है. यह कोई अकेला मसला नहीं है. 90 के दशक में नेल्सन मांडेला ने एक सार्वजनिक मंच पर प्रतिष्ठित अदाकार शाबाना आज़मी का माथा चूम लिया था. मुस्लिम मौलाना इस बात पर बिफ़र उठे थे. शाबाना आज़मी के ख़िलाफ़ उस दौर में भी फतवेबाजी हुई. अगर यही तर्क है कि ज़ायरा वसीम का निर्णय उनका निजी है तो फिर यही तर्क शबाना आज़मी के लिए क्यों नहीं लागू है. इस किंतु, परंतु के अपने खतरे हैं, लेकिन असली ख़तरा वह पाखंड है जिसमें सुविधा से सेक्युलर और सुविधा से मज़हबी होने के तर्क दिये जाते हैं.

यह मध्ययुगीन मर्दवादी मानसिकता है जो किसी नुसरत जहां के हिंदू से शादी करने से चोटिल हो जाती है. इस मानसिकता का संकट यह है कि वह जिसे बंधुआ संपत्ति के रूप में देखता आया है वह उसके बंधनों से आज़ाद न हो जाये. यह असल में आधी आबादी को अपनी गिरफ़्त रखने की सदियों पुरानी सोच का विस्तार है. इसकी व्याख्या सिर्फ संवैधानिक अधिकारों की आड़ में नहीं की जा सकती, बल्कि इसे वहां से समझना होगा जहां यह संवैधानिक मूल्यों से विरोधाभास पैदा करती है. ऐसे ही लोग दूसरी तरफ भी खड़े हैं जिन्होंने अपनी चोट सहलाने के लिए लव जिहाद जैसे मलहम ईजाद कर रखे हैं.

इसे समझने के लिए असदुद्दीन ओवैसी दिलचस्प उदाहरण हैं. तीन तलाक को अपराध घोषित करने के मुद्दे पर वो संसद में इसका विरोध करते हुए कहते हैं कि हमारा संविधान हमें इजाज़त देता है कि हम अपनी धार्मिक परंपराओं का पालन करें. इसी सुर में वो अपने बचाव का दूसरा तर्क ले आते हैं कि सबरीमाला में भाजपा सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी महिलाओं को प्रवेश देने का विरोध कर रही है. भाजपा को सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करना चाहिए.

संविधान का यही सुविधानुसार इस्तेमाल ओवैसी का आवरण उड़ा देता है. वो यह कभी नहीं कहते कि सबरीमाला में महिलाओं का प्रतिबंधित प्रवेश भी गलत है और मुसलमानों में तीन तलाक भी गलत है. ये दोमुंही बातें ही फंडामेंटलिज़्म की खुराक हैं. फिर ओवैसी, अमित शाह से अलग कैसे हुए जिन्होंने सबरीमाला के मुद्दे पर सीधे कह दिया कि अदालतें आस्था से जुड़े ऐसे फैसले नहीं दे सकती जिन्हें लागू करवाना संभव नहीं है.

आरिफ़ मोहम्मद खान की इस बात से किसी भी समझदार मुसलमान को क्या दिक्कत हो सकती है कि हिंदुस्तान के मुसलमानों का मुस्तकबिल हिंदुस्तान में है. अब वो चाहे तो इसकी मुख्यधारा का हिस्सा बन जायें या फिर फतवे, तीन तलाक और बुरके की लड़ाई में खुद को झोंक दे. यहां मुसलमान अपने दिमाग में एक बात स्पष्ट कर लें कि मुख्यधारा का हिस्सा बनने के लिए लड़ना होगा, संवैधानिक दयार में लड़ना होगा. यह देश आदर्श नहीं है. इसमें धर्म के साथ, जाति, समुदाय, पंथ, भाषा, बोली, संस्कृति जैसी अनगिनत फॉल्टलाइनें मौजूद हैं. यहां बड़ी आबादी ऐसी भी है जो ऐतिहासिक अन्याय का शिकार रही है. उन्हें भी लड़ना पड़ रहा है, मुसलमानों को भी लड़ना होगा, लेकिन रूढ़ियों से मुक्त होकर. रूढ़ियों को लादकर आगे बढ़ेंगे तो बोझ ज्यादा हो जायेगा, गति कम हो जायेगी, बाकी लोग आगे निकल जायेंगे, आपका सफ़र लंबा खिंच जायेगा.

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