संग-संग : सुतपा सिकदर और इरफान खान के साथ

टूट गई मजहब की दीवार: इरफान खान-सुतपा की यह प्रेम कहानी है. यह सहजीवन है. यह आधुनिक दांपत्‍य है.

Article image

इरफान खान और सुतपा सिकदर दिल्ली स्थित एनएसडी में मिले. साल था 1985... दिल्ली की सुतपा ने अपनी बौद्धिक रुचि और कलात्मक अभिरुचि के विस्तार के रूप में एनएसडी में दाखिला लिया था और इरफान खान जयपुर में न समा सके अपने सपनों को लिए दिल्ली आ गए थे. उनके सपनों को एनएसडी में एक पड़ाव मिला था. इसे दो विपरीत ध्रुवों का आकर्षण भी कह सकते हैं, लेकिन अमूमन जीवन नैया में एक ही दिशा के दो यात्री सवार होते हैं. सुतपा और इरफान लंबे समय तक साथ रहने (लिविंग रिलेशन) के बाद शादी करने का फैसला किया और तब से एक-दूसरे के सहयात्री बने हुए हैं. मुंबई के मड इलाके में स्थित उनके आलीशान फ्लैट में दर-ओ-दीवार का पारंपरिक कंसेप्ट नहीं है. उन्होंने अपने रिश्ते के साथ घर में भी कई दीवारें हटा दी हैं. शुरूआत करें तो...

इरफान- जब मैं जयपुर से दिल्ली जा रहा था तो मेरी मां चाहती थी कि पहले मेरी शादी हो जाए. उन्होंने दबाव भी डाला कि निकाह कर लो, फिर चाहे जहां जाओ. मेरे मन में ऐसी कोई इच्छा नहीं थी. बहरहाल, एनएसडी आए तो पहली बार पता चला कि लड़कियां भी दोस्त हो सकती हैं. उनसे दीगर बातें की जा सकती हैं. जयपुर में लड़की से दोस्ती का सीधा मतलब होता है कि वह आप की महबूबा... दोस्त... लड़का-लड़की दोस्त हो सकते हैं... यह सोच ही नहीं सकता था. मुझे सुतपा अच्छी लगती थी. इनसे इंटरेस्टिंग बातें होती थीं. मुझे अपने बारे में कुछ छिपाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. मैं अपना डर भी इन से शेयर कर लेता था. एनएसडी में सुतपा तेज थीं. डिजाइन, परफार्मेंस सब में आगे... मैं उन पर गौर करता था. कोई फिल्म देख कर आता था तो उनसे बातें करता था. अब कह सकते हैं कि हमलोग एक ही ढंग से सोचते थे. वहीं से गड़बड़ी शुरू हुई.

सुतपा- मेरे साथ ऐसी बात नहीं थी. मैं तो दिल्ली की ही पढ़ी-लिखी थी. मेरी दोस्ती थर्ड ईयर के स्टूडेंटस के साथ थी. इन लोगों को शुरू से प्राब्लम थी कि ये तो थर्ड इयर वालों के साथ रहती है. फ्रेशर पार्टी में कहीं से खाने-पीने का इंतजाम किया गया. उसी में इरफान ने अट्रैक्ट किया. उनमें झिझक के साथ एक प्राउड फीलिंग भी थी. बाद में उनकी क्युरियोसिटी मुझे अच्छी लगती रही. कुछ भी जानने-समझने की कोशिश उनके बारे में बातें. इरफान तो यों ही कह रहे हैं कि मैं परफॉर्म करती थी. सही कहूं तो इन में यह समर्पण शुरू से रहा है. उनमें एक मासूमियत भी थी. मुझे कई दफा कोफ्त होती थी कि भला इस उम्र में कोई इतना मासूम कैसे हो सकता है? इरफान को दिक्कत होती थी कि मैं अपने टीचर अनुराधा कपूर और कीर्ति जैन को उनके नाम से बुलाती थी. इरफान कुछ प्योर किस्म का था, जो मुझे बड़े शहरों के लड़कों में नहीं दिखा था. वैसे भी कोई लड़का आप पर निर्भर रहने लगे तो वह अच्छा लगने लगता है.

सुतपा- इरफान अशुद्ध नहीं हुए हैं. इनकी जबरदस्त ग्रोथ हुई है. सच कहूं तो मैं बहुत पीछे रह गई हूं. एनएसडी में निश्चित ही इनसे अधिक जानकार और समझदार थी. अभी सब कुछ उलट गया है. मैं कहूंगी कि मेरे अंदर वह ड्राइव नहीं था. मेरे अंदर जो भी था नैचुरल और रॉ था. मैंने उसे तराशा नहीं. इरफान ने हमेशा सारी चीजों को तराशा. वे आगे-आगे बढक़र सीखते रहे. कोई बच्चा एक किताब पढक़र खुश हो जाता है तो कुछ दस किताबें पढ़ना चाहता है. मैं हमेशा जल्दी में रहती थी. किसी डिबेट में जीत जाना मेरे लिए काफी होता था. जबकि इरफान डिबेट के बाद का सब्जेक्ट समझ जाते थे. अभी मैं कह सकती हूं कि करियर को लेकर मैं सचेत नहीं थी. मैं करिअरिस्ट नहीं थी. लेकिन शुरू से मैं इडेपेंटेंट रही. 14 साल की उम्र के बाद मैंने पिता जी से पैसे नहीं लिए. कभी नहीं लिया. मेरी कोशिश रही कि मैं हमेशा फायनेंसियली किसी पर निर्भर न रहूं. मुझे 7 से 5 की नौकरी भी नहीं करनी थी. इसी चक्कर में थिएटर हो गया. थिएटर में सभी टीचर तारीफ करने लगे की मैं फेवरिट रही. फिर लगा कि कोई बात तो होगी. मुझे अब जाकर लगता है कि मेरा कोई गोल था नहीं.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
imageby :

इरफान- सुतपा का फिल्मों से कुछ लेना-देना था ही नहीं. एनएसडी में फिल्म भी नहीं देखते थे. मैं एक बार जबरदस्ती ‘गंगा जमना’ दिखाने ले गया था. मेरा क्लियर था. मैं तो एनएसडी भी फिल्मों के लिए गया था.

सुतपा- मैं तो थिएटर टीचर बनना चाहती थी. हम दोनों अलग-अलग उद्देश्य से एनएसडी गए थे. मेरे घर में टीवी नहीं था. मेरे पैरेंट्स साल में एक-दो बार फिल्में दिखाते थे. जिन फिल्मों को अवार्ड वगैरह मिल जाते हैं. विज्ञान भवन में जाकर फिल्म देखते थे. इरफान ने ‘गंगा जमना’ दिखाई. मुझे इतनी गंदी लगी. मैंने कहा भी कि क्या फिल्म दिखाने ले गए. तब हमलोग इंटेलेक्चुअल किस्म की दुनिया में जीते थे. बंगाल के सत्यजित राय और मृणाल सेन की फिल्में देखते थे. हिंदी कमर्शियल सिनेमा से परिचय नहीं था. अब देखिए कि उसके लगभग बीस सालों के बाद मुझे ‘दबंग’ अच्छी लगती है. तब मैं सोच भी नहीं सकती थी कि गोविंदा की फिल्म देखूंगी. अभी मुझे गोविंदा जैसा एक्टर कोई और नहीं दिखता. क्या गजब की उनकी टाइमिंग है? मुझे लगता है कि तब मैं खुले दिमाग से फिल्म देखने नहीं जाती थी, अभी देखना शुरू किया तो अलग-अलग किस्म की फिल्में अच्छी लगती हैं.

इरफान से शादी के बारे में तो सोचा ही नहीं था. जब कागजों की जरूरत पड़ने लगी तो शादी का खयाल आया. घर लेना था. हम लोग साथ रहते थे. कभी बात भी नहीं की शादी की... लिविंग रिलेशनशिप तो अभी फैशन में आ गया है. हमने इसके बारे में सोचा ही नहीं. हम लोगों ने साथ रहने का फैसला कर लिया. ऐसा नहीं था कि हम दोनों पार्टनर की तलाश में थे. ट्राय कर रहे थे... उसकी जरूरती नही रही. दोनों एक-दूसरे को अच्छे लगे. फायनेंसियली भी हम आजाद रहे. मैं उन लड़कियों की तरह नहीं थी कि परिवार की जिम्मेदारी मर्द की है. अगर मैं कुछ कमाती हूं तो वह मेरी कमाई है. मेरे साथ की कई लड़कियां ऐसे ही सोचती थीं.

सुतपा- 96 में हमलोगों ने शादी कर ली. मेरे बड़े बेटे का जन्म होने वाला था. और फिर दूसरी जरूरतों में भी लोग पूछने लगे थे...

इरफान- मैं इनके घर जाता था. कभी किसी ने नहीं पूछा कि क्या करना है? कभी इनके घर में कोई खुसफुसाहट नहीं हुई. सभी देखते थे कि मैं आता-जाता हूं. कभी किसी ने नहीं पूछा कि शादी करोगे, नहीं करोगे, कब करोगे...

सुपता- 1992 के दंगे के बाद थोड़ा तनाव हो गया था. मेरा भाई डिप्रेशन में चला गया था. उसका फोन आया कि तुमलोग कहां हो... उसकी आवाज गहरी खाई से आती लग रही थी. मजहब का मामला कभी आया ही नहीं. एक बार इरफान ने कहा भी कि अगर तुम्हारी मां चाहें तो मैं धर्म परिवर्तन कर सकता हूं. मेरी मां ने साफ मना कर दिया था कि क्यों अपना धर्म छोड़ोगे?

इरफान- इनके पिता से मेरी अधिक बातें नहीं होती थीं, लेकिन उनके मन में प्यार रहता था. उनके अंतिम दिनों में मैं मिलने गया था. काफी बातें हुई थीं. उनके शौक अलग किस्म के थे. उन्होंने अपने घर के बाहर पेड़ लगाए थे. उनका जबरदस्त लगाव था मुझसे. मुझे तब लगा था कि अगर मैं उनके पास बैठा तो उनका दर्द कम होगा.

सुतपा- इरफान का अपने परिवार में एक अलग दर्जा है. इरफान भी अपनी मां की बहुत इज्जत करते हैं. हर तरह से मदद करते हैं. उन्होंने जाहिर कर दिया था कि मैं अपनी जिंदगी में किसी की दखल बर्दाश्त नहीं करूंगा. परिवार के लोगों ने सोचा नहीं और शायद उन्होंने समझ लिया होगा कि कहने पर भी इरफान मानेंगे नहीं. सच कहूं तो हिंदू परिवारों में मुसलमानों को लेकर धारणाएं बिठा दी जाती हैं. कहा जाता है कि वे बहुत गंदे रहते हैं. जब मैं इनके परिवार में गई तो मेरी धारणाएं टूटीं. संयोग ऐसा रहा कि दिल्ली से होने के बावजूद इरफान के पहले मेरा कोई मुसलमान दोस्त नहीं था. इरफान पहले मुसलमान दोस्त हैं, जो बाद में मेरे पति हो गए. मेरे लिए सब नया था. मुझे थोड़ा सांस्कृतिक झटका जरूर लगा था. इरफान और उनकी मां के बीच हर तरह की बातचीत होती है. उनका मध्यवर्गीय परिवार है. मुसलमान होने की वजह से माना जा सकता है कि वे कंजर्वेटिव होंगे, लेकिन मैंने उल्टा पाया कि मैं अपने पैरेंट्स से हर तरह की बात नहीं कर सकती थी. लेकिन इरफान अपनी मां से सारी बातें करते थे. फिर भी कहूंगी कि इरफान की मां के गहरे दिल में ये बात रहती है कि मैं धर्म परिवर्तन कर लूं.

इरफान- मेरी मां जिस माहौल में रही. उस माहौल में यह सोच नैचुरल है. कंवेशनल सोच तो यही है. धर्म की बात छोड़ दें तो साथ रहने पर लगने लगता है कि मुक्ति तो धर्म बदलने के बाद ही मिलेगी. मेरी मां की चिंता रहती है कि सुतपा तो जन्नत नहीं जा पाएगी. वह इसकी मिट्टी के लिए परेशान रहती है.

सुतपा- मेरे ससुराल में मुझे मिला कर तीन बहुएं हैं, लेकिन इरफान की मां सबसे ज्यादा मेरे करीब हैं. वह मुझसे अपनी हर चिंता शेयर करती हैं. मझली से उनकी बनी नहीं और छोटी को वह नाकाबिल मानती हैं. अपनी करीबी जाहिर करने के साथ उनकी चिंता बढ़ती है और वह कह बैठती हैं कि कलमा पढ़ ले. उन्हें लगता है कि इतनी प्यारी लड़की है और दोजख में जाएगी. वह गुस्से में या नफरत के भाव से नहीं बोलतीं या दबाव नहीं डालतीं.

इरफान खान के फेसबुक पोस्ट से लिया गया फोटो

इरफान- मेरी मां सुतपा का परलोक सुधारना चाहती हैं.

दिल्ली

इरफान- दिल्ली से आने का इरादा ऐसे ही बन गया. सोचा कि चलें कुछ काम करेंगे. मैंने एक्टिंग में कोशिश की. सुपता को लिखने का शौक था तो वह लिखाई में हाथ आजमाने लगीं. हमें काम मिलता रहा. हमलोग कुछ न कुछ करते रहे.

सुपता- हम लोगों को कभी स्ट्रगल नहीं करना पड़ा. हां, एक कमरे से चार कमरे और फिर इस डुप्लेक्स में आने का स्ट्रगल रहा, पर काम के लिए अपनानित नहीं होना पड़ा. कोई दौड़-भाग नहीं करनी पड़ी.

इरफान- तब तो हम ने सोचा भी नहीं था कि क्या होगा या क्या करना है? उस उम्र तो बेहतर काम पाने और खुद को देखने की ख्वाहिश रहती है. भौतिक जरूरतें तो पैसे आने के बाद पैदा होती हैं. मेरी एक ही इच्छा थी कि मैं अपनी खिडक़ी खोलूं तो सामने कोई मकान न दिखे.

सुतपा- उसी चक्कर में तो हम लोग गोरेगांव गए. वहां ऊपर के माले पर फ्लैट लिया. वहां भी मॉल आ गया तो अब यहां आ गए. मैंने खोज-खोज कर इरफान की इच्छा पूरी की. अजीब इत्तफाक है कि इस मामले में हम दोनों एक ही तरह सोचते थे. मुझे बहुत कोफ्त होती थी, जब डीएन नगर में सामने ब्रश करता हुआ आदमी खिडक़ी से दिखता था. वह इमेज कभी नहीं भूल सकती. हमें जैसे ही मौका मिला, हमने बड़ी और खुली जगह ली. उस जगह हमलोग काफी सुरक्षित थे क्योंकि वह इरफान के अंकल का फ्लैट था. दिल्ली से आने के बाद तो यह तकलीफ बड़ी होती थी.

इरफान- मुझे नेचर अच्छा लगता है. पेड़, पहाड़, जंगल मुझे खींचते है. बारिश होती है तो मैं बिल्कुल अलग आदमी हो जाता हूं. सुतपा भी ऐसा ही सोचती है.

सुतपा- इस वजह से हमारा प्यार नहीं हुआ. प्यार होने के बाद हमें यह समानता दिखी. इरफान और हम मुंबई के बाहर होते हैं तो हमारे बीच लड़ाई ही नहीं होती है. तब घरेलू चिंताएं नहीं रहती. इंसानों के बनाई चीजें नहीं दिखतीं.

इरफान- हमारी समस्याएं इंसानों की बनाई बेतरतीब चीजों से है. हमें यह बर्दाश्त नहीं होता.

सुतपा- मैं न्यूक्लियर फैमिली से आई थी. इरफान की ज्वाइंट फैमिली थी. शुरू में बहुत दिक्कत होती थी. कैसे मिले? किस के साथ क्या व्यवहार करें? अब तो ठीक हो गया है सब कुछ. दो साल पहले गई तो पता चला कि वास्तव में संयुक्त परिवार का क्या मजा है. मैं 15 दिनों तक वहां रही. इरफान तो ज्यादा बाहर नहीं निकलते थे. मैं तो अपने देवरों के बाइक पर घूमती रहती थी. हमें पता ही नहीं रहा कि बच्चे क्या खा रहे हैं, कहां खेल रहे हैं? मैं घूमती रहती थी. मैंने पूरा एन्जॉय किया. इनके परिवार में खूब उत्सव चलता है. लोग बाग आते जाते रहते हैं. 12-1 बजे तक लोग मिलने आते रहते थे.

इरफान - करिअर

इरफान- सुतपा मेरा काम जानती हैं. उन्हें बताना और समझाना नहीं पड़ता. कभी देर रात में निकलना. कभी सुबह लौटना. कभी हफ्तों-महीनों तक बाहर रहना. उस दरम्यान गॉसिप छप जाना. मुझे उस तरह से समझाना नहीं पड़ता. सुतपा सारी चीजें समझती हैं. हर कदम उन्होंने साथ दिया है. हमारी साथ काम करने की बहुत इच्छा है लेकिन वह मुमकिन नहीं है, ‘बनेगी अपनी बात’ सीरियल के समय हमने कोशिश की थी, लेकिन हमारे झगड़े बहुत होते थे.

सुतपा- ‘बनेगी अपनी बात’ के समय ज्यादा झगड़े ही नहीं हुए थे. बाद में तिग्मांशु धूलिया के लिए हमने एक बेस्ट सेलर बनाया था, उसमें काफी झगड़े हुए थे. इरफान बड़े अच्छे डायरेक्टर हैं. अभी कहूंगी तो शरमाएंगे और मना करेंगे, लेकिन अगर इरफान डायरेक्ट करें तो अभी के सारे डायरेक्टरों से अच्छा काम करेंगे.

इरफान- शायद मैं कभी डायरेक्ट करूं, लेकिन मुझे लगता है कि हम साथ काम नहीं कर सकते. हमारी रायटर-डायरेक्टर की टीम नहीं बन सकती. सुतपा अच्छे तरीके से बताती हैं कि मेरी कौन सी परफार्मेंस गलत रही. वह अच्छी क्रिटिक हैं. फिल्मों के बारे में ठीक-ठीक बताती है. मैं शुरू से उन पर भरोसा करता हूं. एनएसडी में मैं इतना गंदा एक्टर था. उस समय सुतपा ईमानदारी से मेरे काम की बुराई करती थीं और मुझे बर्दाश्त नहीं होता था. जब तक मैंने खुद को कैमरे में नहीं देख. तब तक मुझे लगता रहा कि मैं बहुत अच्छा एक्टर हूं. एक प्ले को रिकॉर्ड किया था. उसे देखने पर मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गई थी. उस प्ले के लिए मैंने सुतपा के भाई को भी बुला लिया था. उन्होंने प्ले देखने के बाद रिएक्ट नहीं किया. लोग बहुत तारीफ करते थे. सुतपा बहस करती थी.

सुतपा- पर मैं एक्टर के साथ कभी शादी नहीं करती. मुझे कोई अफसोस नहीं रहा कि मैंने काम छोड़ दिया. मैं टीवी पर एक्टिव थी. बाद में टीवी पर कुछ करने लायक रह नहीं गया. ‘राधा की बेटियां कुछ कर दिखाएगी’ कर रही थी. एक टाइम के बाद लगा कि अब कुछ नहीं हो सकता. फिल्म के लिए जरूरी नेटवर्किंग नहीं कर पाई. स्टारों से दोस्ती नहीं की. मेरे अंदर वह चीज ही नहीं है. ‘खामोशी’ और ‘शब्द’ में बड़े-बड़े स्टार थे. मैं ‘शब्द’ की शूटिंग में भी एक दिन नहीं गई. अपनी लिखी फिल्मों के सेट पर तो रह ही सकती थी. ‘शब्द’ में ऐश्वर्या को एक लाइन पर प्रॉब्लम थी तो उसने गोवा से फोन किया कि एक बार सुतपा से बात तो करा दो. मेरे व्यक्तित्व में ही कोई कमी होगी. फिल्मों के लिए वह जरूरी है. अभी सुजॉय घोष के लिए एक फिल्म कर रही हूं. विद्या बालन ने कहा कि सुतपा लिख दें तो अच्छा रहेगा. फिर अच्छा भी लगा. इरफान के एक्टर होने का यह फायदा हुआ है कि खूब घूमने का मौका मिलता है. पता नहीं मैं अकेले इतना घूम पाती कि नहीं? इरफान की सफलता से मेरी यात्राएं होती है. मैं आजाद नहीं हूं. अभी मैं निर्भर हूं, लेकिन मैं कुछ करूंगी और अच्छा करूंगी.

इरफान- सुतपा कह सकती हैं कि मन का काम मिलेगा तो करूंगी. हम तो मजदूर हैं. हम ना नहीं कर सकते. हमें शूटिंग पर जाना है तो जाना है.

सुतपा - मेरी चाहतें भी तो कम हैं. मैं डिजाइनर कपड़े नहीं पहनती. मेरा खर्चा ही क्या है कि मैं मरूं. अपने दोस्तों को देख कर हैरानी होती है कि वे क्यों ऐसा कर रही हैं.

संतुलन

सुतपा- मैं तो मानती हूं कि दोनों के बीच तालमेल रहे. अगर दोनों समान रूप से व्यस्त हो जाएं तो दिक्कत होती है. मीरा नायर जैसी हस्ती हो तो अलग बात है. ‘नेम सेक’ के समय देखा था. वह घर भी संभालती थीं. इंटरनेशनल फिल्म डायरेक्टर रही हैं. अपनी यूनिट की प्रॉब्लम भी सुलझा रही हैं. इरफान और तब्बू के कमरे में कौन से फूल लगेंगे, वह भी चुन रही हैं. समय निकालकर योग भी कर रही है. एक दिन के लिए इरफान के बच्चे आए हैं तो उनके लिए भी समय निकालना है. उनकी एनर्जी देख कर मैं हैरत में पड़ गई. सारे एंजेंडा पूरी कर लेती हैं.

इरफान- मैं नहीं कर सकता. मुझसे नहीं हो पाता. मैं तो चिढने लगता हूं.

सुतपा- मैं पूछती भी हूं कि तुम क्यों टरकते हो? शाहरुख भी तो स्टार है. बिजी है, लेकिन बच्चों को साथ खेलता है. जाओ काम करो और घर में आकर बेस्ट हस्बैंड और फादर बन जाओ.

इरफान- कम से कम बताता रहा हूं कि मैं अपने बीवी बच्चों से बहुत प्यार करता हूं.

आखिरी निर्णय

सुतपा- बड़ा फैसला अमूमन इरफान लेते हैं. उदाहरण के लिए उनके यहां नहीं होने पर मुझे यह घर पसंद आ जाए तो मैं आगे बढ़ कर हां नहीं बोल सकती. मैं इरफान की रजामंदी लूंगी या उनके आने का इंतजार करूंगी.

इरफान- मेरी तरफ से ऐसा कोई दबाव नहीं है. सुतपा को लगता है कि कहीं कोई चूक न हो जाए. बड़ा फैसला है. मैं अपनी चिंताओं से परेशान रहता हूं. मैं नहीं चाहता कि मेरी चिंताओं का असर बच्चों पर पड़े. मैं उन्हें परेशानियों बचाना चाहता हूं. कई बार आउटडोर में उन्हें ले जाना चाहता हूं, ले भी जाता हूं. वह जो एक्सपीरिएंस है वह पढ़ाई से बड़ा है. यह मुझे अपने पिता से मिली है. वे हमलोगों को जीप में लेकर जंगलों में निकल जाते थे. शनिवार-रविवार को हमलोग बाहर जरूर जाते थे. मेरे बचपन के वे पल सबसे ज्यादा सुहाना और जादुई है. मैं बच्चों की जिंदगी में वही जादू लाना चाहता हूं. पढ़ाई तो बोझ है.

सुतपा- मैं पढ़ाई को बोझ के तौर पर नहीं लेती. मेरा मानना है कि बच्चे मस्ती करें और घूमें, लेकिन पढ़ाई ना छोड़ें. उन्हें पढ़ना चाहिए. इस मामले में मैं पारंपरिक मां हूं. इरफान सचमुच मानते हैं कि बच्चे पढ़ें या ना पढ़ें?

इरफान- मैंने स्कूल में जो पढ़ा था, वह कहां काम आया? मेरी पढ़ाई तो स्कूल-कॉलेज से निकलने के बाद शुरू हुई. खुद को जाना फिर पढ़ना शुरू किया. मेरी पढ़ाई आज भी खत्म नहीं हुई है. वह तो बढ़ती जा रही है. अलग-अलग विषय सीख समझ रहा हूं.

सुतपा- इरफान भाग्यशाली रहे. उन्हें सब मिल गया. मुझे अपने बेटों की चिंता है. कल को वे बड़े होंगे तो उनके पास पढ़ाई और डिग्री तो रहनी चाहिए.

इरफान- आदमी अपने रास्ते खोज लेता है. कोई निकम्मा नहीं रहता. हम अपनी असुरक्षा बच्चों में डाल देते हैं. सोसायटी इतनी भ्रष्ट हो चुकी है. सारी विधा उस भ्रष्टाचार से बचाने या निबटने के लिए दी जाती है. बच्चा खुद की खोज ही नहीं कर पाता. मैं तो चाहूंगा कि बच्चा अपनी मर्जी से पढ़े और खेले.

सुतपा- मैं नहीं स्वीकार करती. हां, अगर मुझे कोई टीचर मिल जाए, जो मेरे बच्चे की पढ़ाई का खयाल रखे तो ठीक है. वर्ना मैं नहीं चाहूंगी कि वह दिन भर लैपटॉप से चिपका रहे और प्ले स्टेशन में भिड़ा रहे. अगर मेरे पास इतना वक्त होता और मैं इस काबिल होती कि उन्हें पढ़ा पाती तो मैं तुरत स्कूल से नाम कटवा देती. हम जिस माहौल में हैं, उसका तो खयाल रखना पड़ेगा.

खर्च

सतपा - इरफान को पता नहीं रहता कि कहां क्या खर्च हो रहा है?

इरफान - मैं ढाई तीन महीने तक बाहर था. इन ट्रीटमेंट के मूड में था. उस सीरिज के लिए मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी.

Also see
article image“अनिश्चितता ही निश्चित है इस दुनिया में”
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like