जब आप सदेह सामने आकर देश से बातें करते हैं और सारा देश टीवी के सामने होता है तब यह सच क्यों नहीं बताया गया?
कोरोना की मार से बेहाल देश से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक गहरे राज की बात कही कि‘‘कोरोना धर्म-जाति का भेद नहीं करता है.’’
मैं इस रहस्योद्घाटन से अवाक रह गया. यह तो हम जानते ही नहीं थे. मैं खोजने लगा कि प्रधानमंत्री ने यह कब कहा. देश के नाम अपने पहले संदेश में कहा जब उन्होंने जनता कर्फ्यू का कार्यक्रम देश को दिया था और ताली-थाली-घंटी-शंख बजाने को कहा था?नहीं, तब तो नहीं कहा.
देश के नाम दूसरे संदेश में कहा जब उन्होंने 21 दिनों की तालाबंदी घोषित की थी और9 तारीख को 9 मिनट तक दीप, टॉर्च या मोबाइल की रोशनी जलाने को कहा था? नहीं, तब तो नहीं कहा. देश के नाम तीसरे संदेश में कहा जब तालाबंदी आगे बढ़ाई और यह धमकी भी दी कि यदि उनके आदेशों का पालन नहीं हुआ तो कहीं-कहीं दी जाने वाली छूटों को भी तत्काल रद्द कर दिया जाएगा? नहीं, तब भी नहीं कहा. इन तीनों संदेशों में कहीं भी कोरोना के इस धर्मद्रोही चरित्र का खुलासा नहीं किया उन्होंने.फिर इतने बड़े सच का उद्घाटन कहां किया?
सुन रहा हूं कि ऐसा ट्वीट किया उन्होंने.मैं सोचता रहा कि जब आप सदेहसामने आकर देश से बातें करते हैं और सारा देश टीवी के सामने होता है तब यह सच क्यों नहीं बताया गया? सच का सच तो यह है न कि वह जितना फैलता है उतना ही शक्तिशाली होता है. लेकिन कुछ सच ऐसे भी होते हैं जो इसलिए बोले जाते हैं कि वे सुने भी न जाएं और दर्ज भी हो जाएं कि वे कहे भी गये हैं. यह सच की राजनीति है.कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक हैं ये बीमारियां! इनका वायरस पिछले लंबे समय से पाला और फैलाया जा रहा है. यह है घृणा और अविश्वास का वायरस!
नागरिकता कानून के खिलाफ चले आंदोलन के समय से घृणा का यह वायरस फैलाया जाता रहा जो अंतत: राजधानी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे के रूप में फूटा. मैं सोचता हूं कि यदि कोरोना नहीं फूट पड़ा होता तो हम क्या कर रहे होते? सारे देश में सांप्रदायिक दंगों की आग बुझाते होते और कुछ लोग मरते-मारतेहोते. कोरोना आज सांप्रदायिक दंगों का वैक्सीन बन गया.आज देश में उसी धर्मविशेष के खिलाफ फिर जहर भरा जा रहा है मानो उसी धर्म के लोगों ने कोरोना का विषाणु बनाया है और भारत को बर्बाद करने के लिए उसे फैलाया है.
कोई पूछे कि क्या इन शातिर लोगों को उस सच की जानकारी ही नहीं थी कि जिसे प्रधानमंत्री जानते हैं कि कोरोना धर्म-जाति का भेद नहीं करता है? अगर उन्हें यह जानकारी थी तो वे ऐसा कैसे कर गये? अब तो मरेंगे वे भी जैसा कि वे मर रहे हैं. अगर उन्हें इस सच की जानकारी नहीं थी तो वे वैसे शातिर नहीं हैं कि जैसा उन्हें बताने की कोशिश हो रही है. दिल्ली की तब्लीगी मरकज आदि में जो चूक हुई वह वैसी ही है जैसी चूक हर धर्मांधता करती है.
हिन्दुओं के कितने आयोजन कोरोना के इस दौर में भी हुए हैं, हो रहे हैं जिनमें ‘आपकी बताई कोई सावधानी’ नहीं बरती जा रही है. उसकी चर्चा न सरकार करती है, न समाचार चैनल बोलता है. समाचार और सरकारी प्रचार की जैसी जुगलबंदी इन दिनों चल रही है उसके बाद तो यही देखना है कि इस देश में कलम कब सर उठा कर चल पाती है!लेकिन एक राज की बात मुझे भी मालूम हुई है.
घृणा, अफवाह और अविश्वास का वायरसभी न देशों, न इंसानों के बीच भेद करता है. यह जब फैलता है तब सिर्फ शिकार करता है, शिकार की धर्म-जाति-रंग-भाषा-भूषा नहीं देखता है. वह ग्राहम स्टेंस को उनके दो मासूम बच्चों के साथ बंद गाड़ी में आग के हवाले कर देता है और हम मरने और मारने वालों के धर्म का पोथा बांचते रह जाते हैं. यह वायरस जब फैलता है तब मुंबई जैसे महानगर की धड़कनों में बसने वाले पालघर में तीन निरपराध लोगों की हत्या कर डालता है. उन तीन में दोसाधु थे और तीसरा उनकी गाड़ी का ड्राइवर था. अभागी घटना की खबर आईऔर घृणा का राजनीतिक वायरस सक्रिय हो गया.
दिल्ली से भाजपा के भोंपू संबित पात्र ने, मुंबई से पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने इसे हिंदू साधुओं की योजनापूर्वक की जा रही हत्या करार दिया और उन सबको कठघरे में खड़ा किया जो संविधान, नागरिक अधिकार की पैरवी और सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं. जहरीली आवाज़ में पूछा गया कि ये लोग अब क्यों नहीं कुछ बोल रहे? अपने सवाल का जवाब संबित पात्र ने खुद ही दिया. अब ये लोग कैसे बोलेंगे? हिंदू साधुओं की किसे फिक्र है!!सांप्रदायिकता के सवाल पर महाराष्ट्र सरकार और उसके मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की छवि भी कुछ साफ नहीं रही है लेकिन सत्ता का जादुई पत्थर सबको रगड़ डालता है.
उद्धव ठाकरे ने भी नये कपड़े पहन लिए हैं. उन्होंने तुरंत ही मामले की सच्चाई देश के सामने रख दी. पता चला कि यह सांप्रदायिकता का नहीं, मियां की जूती मियां के सर वाला मामला था. पिछले दिनों मॉबलिंचिंग नाम का जो नया वायरस बना है, यह उसी का करिश्मा था. इस हथियार से अब तक कितने ही मुसलमानों की जानें ली गई हैं लेकिन एक भी मामले की कानूनी जांच और एक को भी कानूनी सजा नहीं हुई है. लेकिन घृणा का वायरस तो फैला हुआ है.
पालघर में पिछले दिनों से बच्चाचोर की अफवाह का वायरस फैलाया गया. ये सभी एक-से ही गुण-धर्म के वायरस हैं. दोनों बेचारे साधु और उनका ड्राइवर इसी वायरस के शिकार हुए. हत्यारे यदि इस वायरस के शिकार नहीं होते तो इन्हीं साधुओं की चरणरज लेते पाये जाते. जब अफवाह-वायरस के शिकार लोग दोनों साधुओं को बच्चाचोर समझ कर उनकी अंधाधुंध पिटाई कर रहे थे, पुलिस वहां नहीं थी, ऐसी बात नहीं थी. वह वहीं थी लेकिन वह अपनी जान बचा रही थी. वह तब भी ऐसा ही करती थी जब मारा जा रहा आदमी हिंदू नहीं हुआ करता था.वह आज भी वैसा ही कर रही है. आप वही काट रहे हैं जो आपने बोया है. हम दोनों तरफ से कट रहे हैं क्यों कि हमें ऐसी फसल मंजूर नहीं है.