कौन है टीवी का ‘मुस्लिम चेहरा’? एक ठग?

पढ़े-लिखे विद्वान मुस्लिम रक्तपिपासु टीवी एंकरों के शो में नहीं पहुंचते क्योंकि वो स्टीरियोटाइप के खांचे में नहीं बैठते.

WrittenBy:मेहराज डी लोन
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कल्पना कीजिए कि आप अनाड़ियों के लिए विषविज्ञान याज़हर उतारने के पांच आसान नुस्खे जैसी एक-दो किताबें पढ़ लें और गले में सांप लपेटकर ट्विटर आदि सोशल मीडिया पर खुद को "विष विशेषज्ञ" घोषित कर दें. इसके बाद अर्नब गोस्वामी, सुधीर चौधरी और अलग-अलग चैनलों में मौजूद उनके बोंसाई संस्करण आपको बुलाकर प्राइमटाईम में अपना ही ज़हर उतरवाने लगे. एक महान "विष विशेषज्ञ" बताकर आपका चेहरा हर तरफ टीवी पर चिपका दिया जाए, जो इस क्षेत्र से जुड़े हर शोध और जानकारी को बता सकता है. इतना ही नहीं, आपके विचारों का दायरा सिर्फ ज़हर उतारने तक सीमित नहीं रहेगा. क्यूं पृथ्वी असल में गोल नहीं है, कैसे थार में आया रेतीला तूफान असल में आईएसआई की कारस्तानी है और कैसे गरीब साजिशन किसी को बदनाम करने के लिए भूखे मर रहे हैं, ऐसे‌ तमाम मार्मिक विषयों पर भी आपके विचार दर्शन की तरह प्रस्तुत किये जाएंगे.

इनके लिए क्रूर मसखरों की संज्ञा भी ज़रा बचकानी लगती है न? लेकिन ऐसा नहीं है.

कमोबेश यही तरीका इन लोगों द्वारा अपने कार्यक्रमों में "मुस्लिम प्रतिनिधियों" को चुनने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. वही कठपुतलियां जिनपर रात को चिल्लाये बिना, अपमानित और आहत किये बिना अर्नब और अमीश का पेट नहीं साफ होता. इन एंकरों के पैनलिस्ट चुनने के तरीके में यही एकमात्र समरूपता है इसलिए हे विष पुरुष, आप भी उनके बुलावे के लिए तैयार रहिए.

पर ठहरिए, अपनी कल्पना के पंखों को ज़रा समेटें और ध्यान रखें कि अर्नब, सुधीर या उनके बाकी मानस एंकर स्थिरता और समरूपता के लिए शायद ही जाने जाते हैं. मसलन, अपने अधिकतर "मेहमानों" से ये बहुत ही बेहूदा व्यवहार करते हैं, औक अगर कोई रत्ती भर भी इनसे अधिक प्रभावशाली है तो भीगी बिल्ली बनने में इन्हें तनिक भी देर नहीं लगती.

अगर इन लोगों के व्यवहार में कोई नियमितता है तो वो है इन सभी के द्वारा लगभग रोज़ाना फैलाई जा रही मुसलमानों के खिलाफ नफरत और सांप्रदायिकता. रोज़ाना होने वाले इस नाटक के पात्रों का चयन अब एक प्रमाणिक प्रक्रिया में बदल चुका है. जो भी राह चलता पहला दाढ़ी रखे, टोपी पहने ढोंगी मिले, उसे पकड़ो, बिठाओ और मन भर के उसपर चिल्लाओ. असल में चिल्लाया उस बहुरूपिए पर नहीं बल्कि उस समुदाय पर जा रहा है, जिसका "प्रतिनिधि" बताकर उसे स्टूडियो में बैठाया गया है.

हो सकता है ये बात कड़वी लगे लेकिन हर रात टीवी पर आने वाले काफी "मुस्लिम विचारकों" की वास्तविकता यही है. ये कठपुतलियां बनाकर, इस सर्कसके रिंग मास्टरों के ओछेपन और साम्प्रदायिकता फ़ैलाने के लिए ही लाए जाते हैं.

इसलिए इन बहुरूपियों के दिखावे पर न जाएं और खास तौर पर स्वघोषित "मौलवी", "मौलाना" या "इस्लामिक विचारक" से बचें.

इस्लाम में बाकी पंथ या संप्रदायों की तरह कोई पुजारी या पादरी जैसी विशिष्ट व्यक्तियों की श्रेणी नहीं होती. तो फिर ये "मौलाना" या "मौलवी" हैं कौन? आम भाषा में ये केवल उन लोगों को इज्ज़त देने वाले शब्द हैं जो समाज में अपनी धार्मिक समझबूझ के लिए जाने जाते हैं, जैसे कि "पंडित" या "गुरु जी" जैसे आदरसूचक शब्द.

मौलवी’ और ‘मौलाना’ शब्दों की जड़ें अरबी भाषा में होने के बावजूद ये पदवियां आमतौर पर भारतीय उपमहाद्वीप और मध्य एशिया में ही प्रयोग की जाती हैं. पारंपरिक तौर पर मौलवी, किसी मस्जिद के इमाम को ही संबोधित करने का दूसरा तरीका है.

अब इमाम कौन बन सकता है? आदर्श रूप से इमाम को निकट समाज में सबसे ज़हीन और इस्लाम के प्रति समर्पित व्यक्ति होना चाहिए. लेकिन आम तौर पर कोई भी व्यक्ति जो थोड़ी बहुत कुरान रट ले, जो इस्लामिक पद्धतियों को समझने लगे और दिन में पांच बार नमाज़ अदा करवाने के लिए मस्जिद में हाजिर हो सके, उसे ही योग्य मान लिया जाता है. मतलब ये कि इसके लिए किसी शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता नहीं है, इमाम कोई शैक्षणिक योग्यता नहीं है.

न ही "मौलाना", हालांकि यह थोड़ा ज्यादा वजन वाली उपाधि है जो पारंपरिक तौर पर उनके लिए इस्तेमाल होती है, जिन्होंने अपना जीवन इस्लाम की पढ़ाई करने और उसको पढ़ाने के लिए समर्पित किया हो. अरबी में इस शब्द का मतलब “रक्षक” या “मालिक” होता है. कुरान में इसको अल्लाह या भगवान् के लिए भी इस्तेमाल किया गया है. इसी वजह से उर्दू बोलने वालों के बीच इस शब्द का इंसानों के लिए इस्तेमाल विवादास्पद रहा है.

"इस्लामिक विचारक", बस यही इकलौता समझा जा सकने वाला परिचय है जिसे टीवी के चेहरे इस्तेमाल करते हैं. ये भी किसी और विषय के विचारक और शोधकर्ताओं की तरह ही हैं. ये वे लोग हैं जो इस्लामिक ग्रंथों और दर्शन पर अध्ययन व शोध करते हैं, और अपने खुद के विचार और शोध को संकलित करते हैं. विचारक बनने के लिए आपको मदरसे में ही पढ़ना हो, ये आवश्यक नहीं. आखिर दारुल उलूम देवबंद में पढ़ने वाला हर विद्यार्थी विचारक नहीं बन सकता जैसे कि कॉलेज से पास होने वाला हर स्नातक, ज्ञानी नहीं होता. आश्चर्य नहीं कि आज के समय में इस्लाम के सबसे बड़े विचारकों में से कुछ, कभी धार्मिक स्कूलों और ‌धार्मिक कॉलेजों में नहीं पढ़े.

ये विचारक, मीडिया द्वारा खींचे गए एक "सच्चे मुसलमान" के स्टीरियोटाइप खांचे में कहीं भी नहीं बैठते. ये लोग भी समाज के बाकी लोगों की तरह ही, अलग-अलग वेशभूषा, विचार और व्यवहार रखते हैं.

जावेद अहमद ग़मीदी

इनमें से एक हैं जावेद अहमद ग़मीदी हैं. ये इस्लाम के आज तक हुए अग्रणी विचारकों में से एक माने जाते हैं. ये उन आधा दर्जन लोगों में से हैं जिन्होंने 14 शताब्दियों में पूरे इस्लामिक विचार को संपूर्ण रूप से पुनर्निर्मित किया है.लेकिन ये टीवी के बनाये हुए पूर्वाग्रह कतई नहीं लगते.

एक और,

दुद्दीन ख़ान

ये वही दुद्दीन ख़ान हैं. ये भले ही टीवी वालों के स्टीरियोटाइप जैसे दिखते हों लेकिन अपने विषय पर इनकी पकड़ और गहराई में इनका कोई सानी नहीं है.

और ये दोनों उदाहरण भारतीय उपमहाद्वीप से हैं.

ऐसा नहीं है कि सच्चे इस्लामिक विचारकों को मीडिया से परहेज़ है. ग़मीदी तो काफी समय से पाकिस्तानी टीवी पर आते रहे हैं. ऐसा भी नहीं कि ये या इनके जैसे और विचारक दुर्लभ हैं. हां, ये ज़रूर है कि किसी श्रेष्ठ विचारक को लेकर आने से प्राइमटाईम पर होने वाली चीख-चिल्लाहट की प्रतियोगिता ख़तरे में पड़ सकती है. साथ ही यह एंकरों की बौद्धिकता की कलई खोल सकता है.

एक तर्क यह भी है कि इस क्षेत्र के विद्वान नहीं तो कुछ वरिष्ठ मुस्लिमों को ही लाना चाहिए जिनकी समाज में कोई इज्जत हो. पर शायद वे इस रक्तपिपासु टीवी पर दर्शकों को डराने के उद्देश्य से इस्तेमाल होने वाले बिजूके का किरदार नहीं निभाएंगे.

ये काम तो कुछ ऐसे ठगों का है.

पर एक ठग को जनमानस में बुराई का साक्षात अवतार बनाना आसान नहीं है. तो आप क्या करेंगे? आप एक ऐसा बहरूपिया ढूंढ़ते हैं जो आपके सालों से, सहेज कर बनाये हुए खांचे में फिट बैठता हो.उसके साथ कुछ खोखले अलंकार और उपाधि दें, और नाटक मंडली तैयार हो जाएगी. पर्दा उठता है, और एक ठग जो आपके मनचाहे दानव सा है, निकलता है. अब आप स्वतंत्र हैं इस दानव पर अपने मन की सारी भड़ास निकालने के लिए.

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