भारत के इतिहास में मजदूरों का इतना बड़ा पलायन शायद ही हुआ हो लेकिन इस दौरान बड़े-बड़े मजदूर यूनियन और उनके नेता सिरे से गायब दिखे.
कोरोना वायरस के प्रकोप को बढ़ने से रोकने के लिए देश भर में किए गए लॉकडाउन के बाद जिस तरह मजदूर अपनी जिंदगी को बचाने के लिए गांव-घरों की तरफ भागे वैसा शायद ही भारत के इतिहास में कभी हुआ हो.
देश के लगभग सभी राज्यों में इधर से उधर मजदूरों का पलायन हुआ और अभी भी जारी है. इस पलायन के दौरान कई मजदूरों की रास्ते में मौत भी हो चुकी हैं लेकिन इस बीच मजदूर यूनियनों की कोई मजबूत आवाज़ सामने नहीं आई.
देश में ज्यादातर राजनीतिक दलों से जुड़े उनके मजदूर यूनियन हैं. जो गाहे-बगाहे सड़कों पर उतरते रहते हैं लेकिन ताजा महाभगदड़ के दौरान किसी ने भी सरकार से मजदूरों के पलायन को रोकने और उनके लिए इंतज़ाम करने की कोई ठोस पहल नहीं की.
हैरान करने वाली बात यह है कि एक तरफ जहां मजदूर बदहाली की स्थिति में अपने घरों को लौटने को मजबूर थे उसी समय बीजेपी से राज्यसभा सांसद रहे और कई अख़बारों में कॉलम लिखने वाले बलबीर पुंज ने कहा कि मजदूर भूख के डर से नहीं भाग रहे, बल्कि परिवार के साथ छुट्टी मनाने, या रुपए पैसे के लालच में गांव जा रहे हैं.
ऐसा मानने वाले सिर्फ बलबीर पुंज ही नहीं बल्कि कई लोग हैं जिनको लगता है कि मजदूर अपने घर पर आराम करने के लिए गए हैं. उनको शहर में कोई परेशानी नहीं थी.
इस तरह के आरोपों पर हमने भिवानी से अपने घर समस्तीपुर लौट रहे एक मजदूर रघुवीर कुमार से बात की तो उन्होंने कहा, ‘‘आप ही बताओ मौज-मस्ती करने आदमी पैदल जाता है या गाड़ी से. आप मेरे दोस्त का पैर देखिए. छाले पड़ गए हैं. हम लोग भिवानी से पैदल गाजियाबाद आए हैं. ऐसा कहने वाले लोग हमें गाली दे रहे हैं. भूखे पेट कौन मौज मस्ती करता है.’’
‘मजदूरों के पलायन के पीछे साजिश’
हालांकि हैरान करने वाली बात यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानि आरएसएस से संबंध रखने वाले भारतीय मजदूर संघ जिसका निर्माण मजदूरों के हक़ में बोलने के लिए हुआ था उसका भी मानना है कि मजदूरों को शहर में कोई परेशानी नहीं थी बल्कि उनके पलायन के पीछे साजिश है. साजिश करने वाले एंटी नेशनल और अर्बन नक्सल हैं.
भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय सचिव ब्रजेश उपाध्याय ने न्यूजलॉन्ड्रीसे कहा, ‘‘मजदूरों को शहर में कोई परेशानी नहीं थी.ये जो पलायन हुआ उसके पीछे योजना थी. एक योजना के तहत मजदूरों का पलायन कराया गया.’’
मजदूरों के शहर से पलायन का कोई कारण नहीं था यह बताते हुए उपाध्याय कहते हैं, ‘‘कहा जा रहा है कि वेतन नहीं मिला तो वेतन मिलने का तो एक तय समय होता है. जैसे ज्यादातर जगहों पर महीने के पहले सप्ताह या दूसरे सप्ताह में वेतन दिया जाता है. तो इसकी समस्या तो नहीं ही थी. बताया गया कि नौकरी चली गई. तो नौकरी जाने का तो कोई सवाल ही नहीं बनता क्योंकि अभी कुछ दिनों के लिए कंपनियां और काम बंद हुआ हैं. सरकार ने यह भी कहा था कि इस दौरान किसी का भी पैसा न काटा जाए. तो कंपनी से निकाला जाना भी कोई कारण नहीं था. किसी को खाने के लाले पड़ गए ऐसा भी नहीं था. बंद होने के दूसरे दिन से पलायन शुरू हो गया. तो आखिर ऐसा कौन था जिसके पास अगले दिन के लिए ही खाने को नहीं था. इसीलिए पलायन को लेकर जो बातें सामने आई या लाई गईं वो बातें दरअसल सही नहीं थी. मजदूरों को भड़काया गया, प्रोमोट किया गया और पलायन की साजिश रची गई.’’
आप जिस साजिश की बात कर रहे हैं उसके पीछे कौन लोग थे? इस सवाल पर ब्रजेश उपाध्याय कहते हैं, ‘‘इसके पीछे एंटी नेशनल ताकतें है, नक्सल हैं, अर्बन नक्सल हैं. लेफ्ट के प्रभाव वाले संगठन हैं. कई राजनीतिक दल भी थे.’’
भारतीय मजदूर संघ के लगभग तीन करोड़ सदस्य हैं.इनका दावा है कि इस दौरान देश के 24 प्रान्तों में संघ के सदस्य लोगों को राशन और खाना बांट रहे हैं.
मजदूर संघ ने हालांकि इस पूरे मामले के दौरान सरकारों से कहा था कि तमाम मजदूरों को पांच हज़ार रुपए दिए जाए. ब्रजेश उपाध्याय कहते हैं, ‘‘इसका कोई आंकड़ा तो नहीं है लेकिन कई राज्य सरकारें हमारी बात मान रही हैं.’’
मजदूरों की इस बदहाली के पीछे सरकार द्वारा बिना तैयारी के लॉकडाउन करने का निर्णय माना जा रहा है. हालांकि की कुछ लोगों का कहना है कि सरकार के पास लॉकडाउन के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था. लेकिन अगर लॉकडाउन के अलावा कोई और रास्ता नहीं तो तो कम से कम सरकार को इसबात की जानकारी चीन और इटली में देखकर लग ही गया होगा. पहले सेलॉकडाउन की बेहतर तैयारी की जा सकती थी? ऐसा नहीं हुआ. जिसका खामियाजा मजदूरों को भुगतना पड़ा.
सरकार ने यह फैसला जल्दबाजी में लिया और निर्णय से पहले समय रहने के बावजूद कोई तैयारी नहीं की. इसके जवाब में बृजेश उपाध्याय सरकार की तारीफ करते नजर आते हैं. वे कहते हैं कि सरकार ने बेहतरीन काम किया है. जो भी स्थिति थी उसके अनुसार सरकार काम करती गई. उससे अधिक कुछ करने का मतलब पैनिक करना होता. हमें लॉकडाउन नहीं तोड़ना था. दुनिया के विकसित देश आज भारत की तारीफ कर रहे हैं. हमारी कोई गलती नहीं थी. विकसित देश भगवान भरोसे खड़े हैं. भारत में अभी स्थिति नियंत्रित है.’’
‘सरकारों ने मजदूरों का ख्याल नहीं रखा’
एक दौर था जब मजदूर यूनियन के लोगों के सामने सत्ता में बैठे लोगों को झुकना पड़ता था. कई मजदूर संगठन अब भी हैं लेकिन उनकी कोई खास पकड़ नजर नहीं आती. कोई बड़ा मजदूर नेता भी नहीं दिखता है. इसको लेकर जब हमने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया से जुड़े मजदूर संगठन सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन (सीटू) के जनरल सेक्रेट्री तपन कुमार सेन से सवाल किया तो वे नाराज़ हो गए.
तपन कुमार सेन ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है. जब सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा की उसके दूसरे दिन ही हमने सरकार को पत्र लिखकर आगाह किया कि मजदूरों खासकर दिहाड़ी मजदूरों का ख्याल रखा जाए. उसके बाद भी 24 मार्च को हमने दोबारा पत्र लिखा. 25 मार्च को कई अलग-अलग संगठन के लोगों ने मिलकर प्रधानमंत्री को पत्र लिखा और कहा कि मजदूरों के लिए जल्द से जल्द इंतज़ाम किया जाए. लेकिन ये सरकार पूंजीपतियों के सहारे चलती है. उनका ही ख्याल करती है. इसे मजदूरों की कोई फिक्र.’’
तपन सेन आगे कहते हैं, ‘‘लॉकडाउन से पहले सरकार ने कोई तैयारी नहीं की. मजदूरों का काम पहले से ही बंद था जो लॉकडाउन के बाद पूरी तरह से बंद हो गया. मजदूरों का बड़े स्तर पर पलायन 25 मार्च को शुरू हुआ और 30 मार्च को गृहमंत्रालय के मुख्य सचिव ने हर राज्य के सचिवों को पत्र लिखा कि मजदूरों के रहने और खाने का इंतजाम किया जाए. यानी लॉकडाउन की घोषणा के लगभग छह दिन बाद सरकार जगी.’’
भारतीय मजदूर संघ के सचिव द्वारा मजदूरों के पलायन के पीछे साजिश होने की बात पर तपन कहते हैं कि जो दवाई मोदीजी और अमित शाह ने दिया है वहीं दवाई बीएमसी के लोग बांट रहे हैं. मजदूरों के पलायन में साजिश, एंटी नेशनलऔर अर्बन नक्सल कैसे आ गए. मजदूरों का काम पहले से ही बंद था. लॉकडाउन के बाद उनके पास खाने को भी नहीं बचा. बहुत जगहों पर मकान मालिकों ने उनको घर से निकाल दिया.ऐसी स्थिति में जब सर पर कोई छत न हो और पेट में खाना न हो तो कोई भी चाहेगा कि अपने घर पहुंचे. वहां अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों से लेन-देन करके वो अपना काम चला सकता है. इसमें अर्बन नक्सल कैसे आए गए?
तपन सेन कहते हैं, ‘‘सरकार ने लॉकडाउन करते हुए मजदूरों का ख्याल नहीं रखा जिसका नतीजा हुआ कि एक बच्चे समेत 22 मजदूरों की मौत हो गई.’’
‘सरकार की इस मजदूर विरोधी हरकत को लेकर होगा बड़ा आंदोलन’
ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) भारत में एक मजबूत मजदूर संगठन हैं. समय-समय पर इस संगठन द्वारा देश के अलग-अलग हिस्सों में मजदूरों के हक़ के लिए आंदोलन किया जाता रहा है.
लॉकडाउन के बाद देश में लाखों मजदूरों के पलायन के वक़्त ये संगठन क्या कर रहा था. हमने एटक के बिहार के अध्यक्ष अजय कुमार से बात की. उन्होंने कहा, ‘‘जब से पलायन जारी हुआ है हम अपने स्तर पर काम कर रहे हैं, और अब भी कर रहे हैं. जिन मजदूरों ने हमसे संपर्क किया हमने उनके लिए इंतजाम किया. तमिलनाडु में जो लोग फंसे हुए थे हमलोगों ने वहां सीपीआई के सांसद से फोन करके उनकी मदद कराई. केरला में बेगूसराय और खगड़िया के मजदूर फंसे हुए थे वहां हमने लोगों की मदद कराई. बिहार सरकार और केंद्र सरकार को हमने पत्र लिखा और कहा कि मजदूरों को ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाय. बिहार सरकार के सचिव से भी हम मिले.’’
अजय कुमार आगे कहते हैं, ‘‘इसके अलावा हमने अलग-अलग राज्यों में जो हमारे नेता हैं उनका नम्बर जगह-जगह जारी किया कि किसी को उस राज्य में परेशानी हो तो उन नेताओं से संपर्क कर सकता है. जहां तक संभव होगा हम मदद करेंगे. हमारी राष्ट्रीय सचिव अमरजीत कौर ने 25 मार्च से लगातार पांच दिनों तक मोदी सरकार को पत्र लिखा कि मजदूरों के लिए इंतज़ाम किया जाए.’’
क्या लॉकडाउन से पहले मोदी सरकार को यह पता नहीं था कि लॉकडाउन के बाद मजदूरों को परेशानी आएगी. अगर यह ख्याल नहीं आया तो क्या यह माना जाए कि सरकार अब मजदूरों की नाराजगी और मजदूर यूनियन से नहीं डरती? इस सवाल के जवाब में अजय कुमार कहते हैं, ‘‘इस सरकार में मजदूरों की कोई हैसियत नहीं रही. उनके एजेंडा में मजदूर है ही नहीं. इसमें कोई संदेह नहीं है. जब संसद मजदूर विरोधी लोगों से भरी होगी, मजदूरों का पक्ष लेने वाले जब संसद और विधानसभा में नहींहोंगे तो मजदूर यूनियन की हैसियत तो कमजोर होगी ही.’’
मजदूरों को लेकर मोदी सरकार और बाकी राज्य सरकारों की असंवेदनशील पर अजय कहते हैं, ‘‘आज मजदूर संकट में हैं. भुखमरी के शिकार हो रहे हैं. मालिक काम से भगा दिया. लाखों की संख्या में मजदूर सड़कों पर हैं लेकिन सरकार रामायण और महाभारत दिखा रही हैं. सरकार को यह पता है कि उसने जो नफरत की राजनीति पिछले छह वर्षों में किया है उसमें लोग पेट से ज्यादा हिंदुत्व पर भरोसा करेंगे. तत्कालिक जो कष्ट हैं उसे भूल जाएंगे. इसी वजह से सरकार ने इनपर ध्यान नहीं दिया. चुनाव के समय ये हिन्दू-मुस्लिम में बंट जाएंगे.’’
ट्रेड यूनियन आगे क्या करेगा. इसपर अजय कहते हैं, ‘‘हमारा काम है मजदूरों में जागरूकता पैदा करता और सरकार की गलत नीतियों पर अपनी नाराजगी दर्ज कराना. सरकार ने मजदूरों के साथ जो किया है, उन्होंने जो संकट झेला है वो भूलने वाले नहीं है और ट्रेंड यूनियन इसके लिए तैयारी कर रही है. लॉकडाउन खत्म होने के बाद एक बड़ा आंदोलन देखने को मिलेगा.’’
भारतीय मजदूर संघ के नेता के आरोप पर अजय कहते हैं, ‘‘एक बलवीर पुंज जो आरएसएस की विचारधारा से जुड़े हुए हैं, उन्होंने कहा कि मजदूर पिकनिक मनाने जा रहे हैं. भारतीय मजदूर संघ का जो सचिव और सीनियर नेता होता है वो आरएसएस से ही होता है. इनकी जो सोच है उससे ये मजदूरों का संकट नहीं समझ सकते हैं.’’
पिछले कुछ सालों में मजदूर यूनियन और मजदूर आंदोलन हुए कमजोर
स्वराज पार्टी के अध्यक्ष और किसानों के अधिकारों की बात करने वाले योगेन्द्र यादव से जब हमने इस त्रासदी के दौरान मजदूर यूनियन की अनुपस्थिति को लेकर सवाल किया तो वे कहते हैं, ‘‘पिछले कई सालों में मजदूर आंदोलन काफी कमजोर हुआ है. उनकी ताकत कम हुई है. लॉकडाउन के बाद हुए पलायन के दौरना कुछ लोगों ने अच्छा काम किया लेकिन कईयों में अब ताकत नहीं बची है. जो बड़े यूनियन है उन्होंने कोई उम्मीद नहीं दिखाई.’’
लॉकडाउन की स्थिति में सरकार को पता होगा कि इसकी मार सबसे ज्यादा गरीब और मजदूर तबके पर होगा फिर भी उनके लिए कोई विशेष तैयारी नहीं की गई. क्या सरकार के एजेंडे में मजदूर नहीं हैं. इस सवाल के जवाब में योगेन्द्र यादव कहते हैं, ‘‘जहां तक सरकार का सवाल है आप प्रधानमंत्री का भाषण उठाकर सुन लीजिए. उसमें स्पष्ट है कि मजदूर उनकी दृष्टि पटल पर भी नहीं है. उनके मेंटल राडार पर मजदूर है ही नहीं. उसमें वो लोग है जो बालकनी में आकर थाली बजा सकते हैं. वो लोग हैं जो वायरस से ईलाज कराकर घर वापस आए हैं. डॉक्टर्स हैं. यह केवल मिडिल क्लास का, मिडिल क्लास के लिए और मिडिल क्लास के द्वारा चल रहा है. जिसमें मजदूर और किसान तो छिलका है. जिसको इस्तेमाल करने के बाद डस्टबिन में डाल दिया जाएगा.’’
इस पूरे मामले पर वरिष्ठ समाजवादी नेता शिवानन्द तिवारी न्यूजलॉन्ड्री से कहते हैं, ‘‘मजदूर संगठन वाकई इस पूरे त्रासदी के दौरान नहीं दिखे. असल में मजदूर संगठन अलग-अलग वामपंथी दलों से जुड़ा रहा. जिसमें किसानों के बीच में भी इनका काम है. आरएसएस ने भारतीय मजदूर संघ वामपंथियों के देखा देखी बनाया. जहां तक समाजवादियों का मजदूरों के हक़ में जो एक जमाने में काम था वो काम तो लगभग खत्म हो गया है. मजदूर संगठनों में उनका कुछ बचा नहीं है.’’
मजदूर यूनियन के कमजोर होने की कहानी पर बोलते हुए शिवानन्द तिवारी कहते हैं, “1973-74 में रेलवे मजदूरों का जो स्ट्राइक हुआ उसके बाद सरकार ने मजदूर यूनियन का दमन शुरू कर दिया. जिसके बाद से मजदूर यूनियन कमजोर होते गए. अब मजदूर संगठनों की भूमिका सिमटते हुए मैनेजमेंट से सौदेबाजी करके मजदूरों को थोड़ा रिलीफ दिला देना भर रह गया है.’’
मजदूर यूनियन के कमजोर होने से सरकार मजदूरों के नफा-नुकसान के बारे में नहीं सोचती हैं? इस सवाल पर शिवानन्द तिवारी कहते हैं, ‘‘राजीव गांधी के जमाने से आर्थिक उदारीकरण का जो दौर आया उसके बाद से पूरी मानसिकता बदल गई. हमलोग 1965-66 में नारा लगाते थे- ‘जब तक भूखा इंसान रहेगा, धरती पर तूफान रहेगा’, ‘कमाने वाला खायेगा, लूटने वाला जायेगा, एक नया जमाना आएगा’, ये नारा लगता था और इस नारे के प्रति लोगों का कमिटमेंट था लेकिन वो नारा अबकहां लगता है. भूखे लोगों की तादात कम तो नहीं हुई है. बढ़ी ही है लेकिन ये नारा बंद हो गया. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अब लगता है कि भूख से निजात नहीं पाया जा सकता.”
कुल मिलाकर आज जो हालात है उसमें ज़रूरी है कि कोई नेता मजदूर, किसान और गरीब तबके की बात नए सिरे से शुरू करे. तभी उनके हित में कुछ बेहतर हो सकता है.