सामुदायिक प्रसार के चरण में पहुंच चुकी इस महामारी से निपटने की वैश्विक दृष्टि क्या होगी?

यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त हो गईं- जैसा कि आज की अधिकांश विकासशील दुनिया (और अमेरिका) में है, तो हम महामारी का सामना नहीं कर सकते हैं.

WrittenBy:सुनीता नारायण
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

मैं यह लॉकडाउन में लिख रही हूं. भारत में कोरोनो वायरस सामुदायिक प्रसारण की स्थिति में आ चुका है जो संक्रमण का सबसे घातक चरण है. ऐसे में सरकारों ने अब नागरिकों से सभी आर्थिक गतिविधियों को रोकने और खुद को आइसोलेट करने का आह्वान किया है. यह स्पष्ट रूप से महत्वपूर्ण है.

जब से मैंने होश संभाले है, मुझे याद नहीं ऐसा कभी हुआ हो जब एक अदृश्य जीव इतने कम समय में वैश्विक स्तर पर जानलेवा बन गया हो. जनवरी के महीने में हमें इस वायरस के बारे में पहली महत्वपूर्ण जानकारी मिली. इस वायरस ने जानवरों के माध्यम से इंसानों में प्रवेश किया था और चीन में कई जानें भी ले चुका था. हमने लोगों को जबरन कैद में डालते हुए देखा. लाखों व्यवसायों एवं घरों को बंद करना पड़ा और रातों रात अस्पतालों का निर्माण किया गया. ऐसा लग रहा था मानो हम इस वायरस के खिलाफ जंग जीत चुके थे.

यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए एक हल्का झटका भर था और उम्मीद थी कि चीन जल्द ही इससे उबर जाएगा. व्यापार अपनी गति से चल रहा था. तभी अचानक इस वायरस ने अन्य देशों की तरफ रुख कर लिया. इटली में स्थिति पूरी तरह नियंत्रण से बाहर चली गई है और ईरान में तो हालात ऐसे हैं कि इस वायरस से मरने वालों की सही संख्या का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है.

अब यह वायरस पूरी दुनिया में फैल चुका है और विश्व का अधिकांश हिस्सा लॉकडाउन की स्थिति में है. हालात पूरी तरह से अविश्वसनीय हैं. यह लेख लिखे जाने तक भारत में कोरोना वायरस के 1,000 से ज्यादा मामले आ चुके हैं जिनमें से 27 लोगों की मौत हो गई है. हालांकि ये सारे आंकड़े तब कमतर प्रतीत होते हैं जब आप देखते हैं कि इटली में 92,000 के आसपास मामले सामने आ चुके हैं. अकेले न्यूयॉर्क शहर में 150,000 से अधिक मामलों की पुष्टि हुई है.

ऐसा कहा जा रहा है कि भारत में कोरोना वायरस के मरीजों की असली संख्या बहुत अधिक है क्योंकि हमारे यहां जांच के सीमित साधन उपलब्ध हैं. लेकिन यहीं से असली सवाल उठता है. भारत जैसे देशों में परीक्षण के साधन तो सीमित हैं ही, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं उससे भी अधिक सीमित हैं.

ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? सभी साक्ष्य अब इस तथ्य की ओर इशारा कर रहे हैं कि जैसे-जैसे महामारी समुदाय में फैलती जाएगी, मरने वालों की संख्या बढ़ेगी, क्योंकि ये गरीब देश उस तरह की गहन देखभाल नहीं कर सकते जिसकी इस बीमारी में जरूरत होती है. अतः हमारे सामने और कोई चारा नहीं है- हम सामुदायिक प्रसारण का खतरा मोल नहीं ले सकते. हमें इस वायरस को फैलने से रोकना ही होगा.

मेरे विचार से हमने लॉकडाउन करने में देरी कर दी है और हम क्वारंटीन के नियमों का सही तरीके से पालन करने में विफल रहे हैं. यह सही है कि हमें अपनी परीक्षण क्षमताओं को बढ़ाना होगा लेकिन यह भी स्पष्ट है कि एक बार यह वायरस फैल गया तो हम कभी भी पर्याप्त परीक्षण नहीं कर पाएंगे. अतः रोगियों की पहचान और उन्हें आइसोलेट करने के लिए परीक्षण किये जाने की आवश्यकता है.

लोग लॉकडाउन को अपनी मर्जी से तोड़ रहे हैं. अनपढ़ एवं गरीब जनता के पास तो कोई चारा नहीं है लेकिन पढ़ा लिखा, अमीर वर्ग भी ऐसा ही कर रहा है. सरकारों को यह तर्क हमें समझाना होगा. हमें जान लेना चाहिए कि इस लॉकडाउन की आवश्यकता इसलिए है ताकि हम वायरस का प्रसार रोक सकें. अन्य देशों में इस वायरस ने कुछ दिनों के अंदर ही पूरी की पूरी आबादी को अपनी चपेट में ले लिया है.

इस वायरस पर कोई नियम पुस्तिका नहीं है, लेकिन जो स्पष्ट है वह यह है कि इसे रोकने का एकमात्र तरीका इसके फैलने की श्रृंखला को तोड़ना है. ऐसा करना निश्चय रूप से कठिन है क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था बिलकुल ठहर जाती है. इससे आजीविका के साधन नष्ट हो जाते हैं, खासकर गरीबों एवं व्यापारियों के. ऐसी हालत में सरकार को हस्तक्षेप करने की जरूरत है. सामजिक सुरक्षा के साथ जनता तक जरूरी सामान की सप्लाई बनाए रखने की आवश्यकता है ताकि लोग इस अभूतपूर्व वैश्विक संकट से उबर सकें.

लेकिन इसके अलावा कई और बातें भी हैं. हमें इस समय का उपयोग कुछ बुनियादी बातों पर विचार करने के लिए करने की आवश्यकता है- जिनमें से एक वैश्विक सहयोग का मुद्दा है. यह सच है कि महामारी के आने का कोई सही समय नहीं होता लेकिन यह सबसे बुरा समय है. आज के समय में ऐसा कोई सम्मानित एवं गंभीर वैश्विक नेतृत्व या संस्था नहीं है जो वैश्विक संकट की इस घड़ी में सामने आये.

पिछले कुछ महीनों में हमने जो कुछ भी देखा है वह सब स्वार्थ और आत्म-संरक्षण की पराकाष्ठा है. हममें से ज्यादातर के लिए जो जलवायु परिवर्तन जैसे एक और अस्तित्वगत खतरे पर वैश्विक सहयोग की वकालत करने के लिए काम करते हैं, यह नई खबर नहीं होनी चाहिए. लेकिन यह आपको जरूर चौंकाता है कि ऐसे समय में भी, जब विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अपने घुटनों पर आ चुके हैं, हम एकजुट होकर इस वैश्विक महामारी के खिलाफ एक संगठित वैश्विक प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे पा रहे. ऐसा क्यों है? हमें और क्या करना चाहिए?

मैं आने वाले हफ्तों में इस पर चर्चा करना चाहती हूं. फिर, जाहिर है, सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा है- कोरोनो वायरस हमें जो सिखाता है (यदि हम सीखने की परवाह करते हैं) वह यह है कि हम केवल सबसे कमजोर कड़ी के जितने ही मजबूत हैं. यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक जनता की पहुंच नहीं हो या यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त हो गई हैं- जैसा कि आज की अधिकांश विकासशील दुनिया (और अमेरिका) में है, तो हम महामारी का सामना नहीं कर सकते हैं. किसी एक देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करना भी इसका जवाब नहीं है क्योंकि अगर विश्व का कोई भी हिस्सा कमज़ोर पड़ा तो बीमारी वहां से पूरे विश्व में फैल जायेगी.

हम कब तक अपनी सीमाओं को बंद रख पाएंगे? यह अगर काम करेगा तो कैसे? इसके बाद बारी आती है मेरे तीसरे सवाल की- जो कोरोना के बाद वैश्वीकरण की प्रकृति को लेकर है. क्या हम अपने इस सिस्टम की खामियों से सीख लेंगे? वैश्विक भागीदारी के माध्यम से स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं एवं स्थानीय स्वास्थ्य प्रणालियों में निवेश किये जाने की आवश्यकता है. आइये इस कठिन समय में हम यह चर्चा जारी रखें.

(यह लेख डाउन टू अर्थ की फीचर सेवा से साभार)

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
Also see
article imageकोविड-19: जहां यूरोप चूक गया उससे भारत को सबक लेना चाहिए
article imageऊंट के मुंह में जीरा है केंद्र सरकार का कोरोना राहत पैकेज
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like