कोरोना संकट: पूंजीवाद की जली दुनिया के लिए समाजवादी क्यूबा बना राहत का मल्हम

कोरोना संकट के दरम्यान कई उपायों के साथ क्यूबा इस मुसीबत से बाहर निकलने की राह दिखा रहा है.

WrittenBy:प्रकाश के रे
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कोरोना वायरस का संक्रमण 195 देशों में फैल चुका है. संक्रमित मामलों की संख्या पौने चार लाख के आस पास पहुंच रही है. कई विकसित और बड़े देश, जो आर्थिक और चिकित्सकीय संसाधनों से संपन्न हैं, इस संकट के सामने घुटने टेक चुके हैं. विकासशील और अविकसित देशों में संक्रमण फैलने की आशंका प्रबल होने से स्थिति के भयावह होने का अंदेशा है.

चिंताओं के गहन होते जाने का एक कारण तो किसी निश्चित उपचार का अभाव और संक्रमण का वैश्विक विस्तार है. लेकिन बीते चार दशकों की वैश्विक उदारीकरण की नीतियों की वजह से विकसित देशों से लेकर ग़रीब देशों तक में स्वास्थ्य व अन्य सामाजिक सेवाओं की बढ़ती गई बदहाली के चलते अनिश्चितता की स्थिति और सघन हुई है.

ऐसे वक्त में लातिनी अमेरिका का छोटा सा द्वीपीय देश क्यूबा इस अंधेरे में उम्मीद का दीया जला रहा है. आज दुनिया के 37 देशों में क्यूबा के डॉक्टर कोरोना वायरस से पीड़ितों का उपचार कर रहे हैं. इसके साथ ही क्यूबा फिलहाल 59 देशों को चिकित्सकीय मदद भेज रहा है.

ध्यान रहे, चीन के वुहान में रोगियों की मदद के लिए जो विदेशी सबसे पहले पहुंचे थे, उनमें क्यूबाई डॉक्टर भी थे. इतना ही नहीं, क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार ‘ग्रानमा’ के मुताबिक, अभी 61 देशों में क्यूबा के इंटरनेशनल मेडिकल ब्रिगेड के 28,268 सदस्य मौजूद हैं.

पेंसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के व्हार्टन स्कूल के एक अध्ययन के मुताबिक 2015 तक 77 देशों में 37 हज़ार क्यूबाई डॉक्टर मौजूद थे. नवंबर, 2018 में छपी ‘टाइम’ मैगज़ीन की एक रिपोर्ट का आकलन यह है कि 67 देशों में डॉक्टरों की यह संख्या कोई 50 हज़ार के आस पास है. संख्या कुछ भी हो, इतना तो तय है कि हज़ारों डॉक्टर संसाधनों की कमी और बीमारियों के प्रकोप से जूझ रहे देशों के लिए काम कर रहे हैं.

चीन में कोरोना संक्रमण के उपचार में इस्तेमाल होने के बाद इंटरफ़ेरॉन अल्फ़ा 2बी दवा आज दुनियाभर में मशहूर हो चुका है. इसे क्यूबा में साढ़े तीन दशक पहले विकसित किया गया था. इसका एक रूप 1981 में ही तैयार हुआ था, जिसने डेंगू से लाखों क्यूबाइयों को बचाया था. इस दवा से रोगी की मुश्किलें नहीं बढ़ती हैं और उसे बचाना आसान हो जाता है.

चीन समेत कई देशों से इस दवा की भारी मांग आने के कारण इसे चीन में भी क्यूबा के सहयोग से बनाया जा रहा है. यह दवा एचआइवी, डेंगू, हेपेटाइटिस, कैंसर समेत अनेक रोगों में भी असरदार साबित हुई है. फिलहाल इसी के जरिए कोरोना को नियंत्रित करने का प्रयास चल रहा है. यह कितनी बड़ी बात है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि क्यूबा की आबादी 1.10 करोड़ से कुछ अधिक है और उसकी अर्थव्यवस्था का आकार 94 अरब डॉलर (सीआइए फ़ैक्टबुक के 2017 का अनुमान) से कम है. तुलना के लिए देखें, चीन के साथ हमारे देश का व्यापार घाटा ही 55-60 अरब डॉलर है.

क्यूबा का यह कारनामा नया नहीं है. फ़िदेल कास्त्रो की अगुवाई में हुई एक जनवरी, 1959 की क्रांति के कुछ साल बाद ही क्यूबा ने लातिनी अमेरिका, अफ़्रीका और एशिया के ग़रीब देशों में चिकित्सकीय सेवा पहुंचाने का संगठित प्रयास शुरू कर दिया था. इसके संचालन का काम सेंट्रल यूनिट फ़ॉर मेडिकल कोलेबोरेशन नामक विभाग करता है. यह जगज़ाहिर तथ्य है कि पांच दशकों में क्यूबा ने 160 से अधिक देशों की मदद की है और लाखों ज़िंदगियों को बचाया है. निश्चित रूप से ऐसा कर पाने के पीछे फ़िदेल कास्त्रो, राउल कास्त्रो और चे गेवारा जैसे क्यूबा के क्रांतिकारी नेताओं की दृष्टि व आदर्श था. चे गेवारा स्वयं मॉडर्न मेडिसिन के डॉक्टर थे. इस पहलू पर चर्चा से पहले महामारियों से जूझने और दवाएं बनाने में इस द्वीप के अनुभवों को रेखांकित किया जाना चाहिए.

जो अल्फ़ा 2बी आज कोरोना से जूझने में इस्तेमाल हो रहा है, 1981 में उसे विकसित करने के प्रारंभिक चरण में ही क्यूबा भयानक डेंगू की चपेट में आ गया था. मच्छरों से फैलने वाले इस संक्रामक रोग से लगभग साढ़े तीन लाख लोग पीड़ित हुए थे. तब इस दवा ने रोग को रोकने में बड़ा योगदान दिया था. उसी साल कास्त्रो सरकार ने शोध पर ध्यान केंद्रित किया और 1986 में एक बड़ा अनुसंधान केंद्र ही खोल दिया. छात्रों और वैज्ञानिकों को विदेश भेजा गया और टीकाओं व दवाओं को विकसित करने पर ज़ोर दिया गया.

उसी दौर में क्यूबा एक और बड़ी बीमारी मेनिनजाइटिस-बी से भी पीड़ित था. साल 1976 में मेनिनजाइटिस-बी और सी की महामारी फैली थी. तब दुनिया में इस रोग के ए और सी प्रकारों के लिए टीका तो था, पर बी के लिए नहीं. कुछ सालों में रोग का यही रूप क्यूबा के लिए चिंता का बड़ा कारण बन गया था. पर 1988 में क्यूबा ने इस रोग का पहला टीका तैयार कर लिया, जिसके असरदार होने की दर लगभग सौ फ़ीसदी है. यह इस बीमारी का एकमात्र टीका भी है. इन्हीं प्रयासों का परिणाम है कि आज क्यूबा में जीवन प्रत्याशा अमेरिका से भी अधिक है तथा जैव-तकनीक के उसके उत्पाद पचास देशों को निर्यात किए जाते हैं.

दो दशक पहले दिल्ली में एक आयोजन में क्यूबाई क्रांति के नायक चे गेवारा की बेटी एलीदा गेवारा ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि क्यूबा को हज़ारों वक़ीलों, एकाउंटेट, ब्रोकरों की नहीं, बल्कि हज़ारों डॉक्टरों, शिक्षकों और विशेषज्ञों की ज़रूरत है. एलीदा अपने करिश्माई कमांडर पिता की तरह ख़ुद भी डॉक्टर हैं. क्यूबा के समाजवादी शासन और फ़िदेल कास्त्रो समेत उसके नेताओं के सबसे बड़े आलोचक भी मानते हैं कि शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में उसकी उपलब्धियां असाधारण हैं.

‘टाइम’ मैगज़ीन के एक लेख में सीयरा न्यूजेंट ने लिखा है कि सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा और मुफ़्त शिक्षा ‘कास्त्रो की परियोजना’ के मूलभूत तत्व थे. उसी लेख में ‘द इकोनॉमिस्ट’ समूह से संबद्ध इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट के क्यूबा विशेषज्ञ मार्क केलर ने कहा कि ये क्षेत्र ‘क्रांति के दो बड़े निवेश’ थे, इसलिए क्यूबा की आबादी अच्छी तरह से शिक्षित है और वहां डॉक्टरों की भरमार है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार, दस हज़ार की आबादी में क्यूबा में 81.9 डॉक्टर हैं, वहीं अमेरिका में यह अनुपात 25.9 है. सोचिए, क्रांति के समय 1959 में वहां केवल छह हज़ार डॉक्टर थे.

क्यूबा की स्वास्थ्य सेवा की बेहतरी की वजह रोगों की रोकथाम और प्राथमिक स्वास्थ्य पर मुख्य रूप से ध्यान देना है. इस तंत्र का प्रमुख आधार देशभर में फैले सैकड़ों सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं. एक केंद्र 30 से 60 हज़ार लोगों को सेवाएं प्रदान करता है. इन केंद्रों में शोध व पढ़ाई का काम भी होता है.

क्यूबा क्रांति के तुरंत बाद ही ग्रामीण चिकित्सा सेवा की शुरुआत कर दी गयी थी, जिसके तहत डॉक्टर और मेडिकल छात्र बिना किसी स्वास्थ्य सुविधा वाले दूर-दराज़ के गांवों और पहाड़ी व तटीय क्षेत्रों में एक नियत समय के लिए सेवा देते थे. बाद में इसमें कई आयाम जुड़े और, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, नब्बे का दशक आते-आते 95 फ़ीसदी आबादी को स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ हो चुकी थीं.

आज शिशु मृत्यु दर के मामले में क्यूबा दुनिया के कुछ सबसे धनी देशों के साथ खड़ा है. विश्व बैंक के अनुसार, 2015 में इस मामले में वैश्विक औसत एक हज़ार जन्म में 42.5 का था यानी इतने बच्चे पांच साल की उम्र से पहले ही दम तोड़ देते थे. क्यूबा में यह दर तब सिर्फ़ छह थी. साल 2018 में वैश्विक अनुपात 38.6 का है. भारत में यह दर वैश्विक दर के बराबर है. क्यूबा में अब यह दर चार से भी कम हो चुकी है.

उल्लेखनीय है कि स्वास्थ्य के मद में ख़र्च करने में भी यह द्वीपीय देश अतिविकसित देशों का मुक़ाबला करता है और इसमें भी वह वैश्विक औसत से आगे है. साल 2015 में उसका ख़र्च सकल घरेलू उत्पादन का 10.57 फ़ीसदी रहा था, जबकि, विश्व बैंक के अनुसार, 2014 में यूरोप का औसत खर्च 10 फ़ीसदी था.

किसी देश को ख़ून और ख़ून में मौजूद तत्वों की ज़रूरत पूरी करने के लिए ज़रूरी है कि आबादी का कम-से-कम दो फ़ीसदी हिस्सा नियमित रूप से रक्तदान करे. क्यूबा में 18 से 65 साल तक की उम्र के पांच फ़ीसदी लोग ऐसा करते हैं. वहां से दूसरे देशों में ख़ून व जुड़े तत्वों की आपूर्ति होती है. इसे लेकर कुछ लोग उसकी आलोचना भी करते हैं, लेकिन दुनिया को मदद का हाथ बढ़ाने में क्यूबा का यह भी एक अहम योगदान है. यह कोई कारोबार नहीं है और वहां के आधिकारिक आर्थिक रिपोर्टों में भी इसका उल्लेख निर्यात या किसी कारोबारी गतिविधि के रूप में नहीं किया जाता है.

इस संबंध में यह भी रेखांकित करना चाहिए कि पैन अमेरिकन स्वास्थ्य संगठन और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी प्रतिष्ठित संस्थाएं कह चुकी हैं कि अमेरिका और कनाडा की तरह क्यूबा में भी सौ फ़ीसदी ख़ून स्वैच्छिक दाताओं से जुटाया जाता है. सनद रहे, भारत में सालाना मांग से क़रीब 20 लाख यूनिट कम खून जुट पाता है. हमारे यहां ख़ून बेचने, ख़ून का कारोबार करने और ख़ून उपलब्ध कराने में रिश्वत या रसूख़ के इस्तेमाल की ख़बरें आम हैं.

आज जब क्यूबा कोरोना वायरस से हो रही लड़ाई की अगुवाई कर रहा है, फ़िदेल कास्त्रो का एक वीडियो सोशल मीडिया पर ख़ूब वायरल हो रहा है. उसमें वे कहते हैं- ‘हमारा देश दूसरे लोगों पर बम नहीं गिराता. हमारे पास जैविक या परमाणु हथियार नहीं हैं. हम दूसरे देशों की मदद के लिए डॉक्टर तैयार करते हैं.’

क्यूबा की इस मदद का कुछ इतिहास देखें- भयावह चेर्नोबिल परमाणु त्रासदी के पीड़ित हज़ारों बच्चों का उपचार, पड़ोस के द्वीपीय देशों, लातिनी अमेरिका और अफ़्रीका के लाखों लोगों की आंखें ठीक करने (ऑपरेशन मिरेकल- इसके तहत ग़रीबों की आंखों का मुफ़्त उपचार होता है) के साथ कई बीमारियों का लगातार उपचार, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में बचाव कार्य में गंभीर बीमार हुए दमकल कर्मियों का उपचार (माइकल मूर की फ़िल्म ‘सिक्को’ में बताया गया है कि उनमें से कई अमेरिकी सरकार की मदद बंद होने के कारण इलाज का ख़र्च वहन नहीं कर सकते थे), इबोला जैसी महामारियों से लड़ने के साथ विभिन्न देशों में प्राकृतिक आपदाओं में राहत व बचाव आदि.

क्यूबा की स्वास्थ्य उपलब्धियों को आंकड़ों से और दुनियाभर में मदद करने की प्रवृत्ति को गिनती से नहीं समझा जा सकता है. वह उसकी नेकनीयती का नतीजा है, जिसके पीछे उसके नेताओं की विचारधारा रही है. याद कीजिए, चे गेवारा की मौत के चालीस साल बाद उनके हत्यारे मारियो तेरान की आँखों का ऑपरेशन क्यूबा के डॉक्टरों ने ऑपरेशन मिरेकल के तहत किया था. तब ‘ग्रानमा’ ने लिखा था- ‘एक सपने और एक विचार को तबाह करने की मारियो तेरान की कोशिश के चार दशक बाद चे एक और लड़ाई जीतने के लिए लौटे हैं. अब बूढ़ा हो चुका तेरान एक बार फिर आकाश और जंगल के रंगों को निहार सकेगा, अपने नाती-पोतों की मुस्कुराहट का आनंद ले सकेगा और फ़ुटबाल का खेल देख सकेगा.’

फ़िदेल ने एक दफ़ा कहा था कि उत्तर अमेरिकी यह समझ नहीं पाते कि क्यूबा के अलावा भी हमारा देश है- मानवता. यह सिर्फ़ एक अद्भुत वक्ता का बयान नहीं है. उनके अपने आदर्शों और सिद्धांतों के प्रति संकल्पित रहने की अभिव्यक्ति है. यही वह प्रतिबद्धता है, जिस कारण कई बार कास्त्रो को अपदस्थ करने की अमेरिकी कोशिशें बेकार हुईं.

दशकों के कठोर आर्थिक व कूटनीतिक प्रतिबंधों के बावजूद क्यूबा अपने रास्ते पर कायम रहा और आज अभूतपूर्व संकट में दुनिया के लिए तिनके का सहारा बना हुआ है. बीते दिनों कैरेबियाई समंदर में एक ब्रिटिश जहाज़ भटक रहा था. उसमें सवार कुछ लोग कोरोना से संक्रमित थे. न तो कोई देश अपने यहां उन्हें रूकने की अनुमति दे रहा था और न ही उन्हें कोई मदद पहुंचाने के लिए तैयार था. उस जहाज़ को क्यूबा ने अपने तट पर ठहराया है और अब उन लोगों की देखभाल की जा रही है.

ब्रिटेन उन देशों में है, जो अमेरिका के साथ क्यूबा पर पाबंदियां आयद करने और उस क्षेत्र में क्यूबा समर्थक सरकारों को अस्थिर करने में अमेरिका का बढ़-चढ़कर साथ देता है. चे गेवारा ने कहा था कि एक इंसान के जान की क़ीमत दुनिया के सबसे धनी की सारी संपत्ति के लाख-लाख गुने से भी अधिक है.

कोरोना के संकट से मानवता को सिर्फ इसी सोच के सहारे बचाया जा सकता है.

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