अरुंधति रॉय के साथ लेखक-आलोचक संजीव कुमार और राजकमल प्रकाशन समूह के संपादक सत्यानन्द निरुपम की बातचीत.
अरुंधति रॉय का दूसरा उपन्यास- ‘द मिनिस्टरी ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस-2017 में आया था और 2018 के बीतते-बीतते उसका हिन्दी अनुवाद ‘अपार ख़ुशी का घराना’ प्रकाशित हुआ. उनके पिछले उपन्यास से बहुत अलग इस उपन्यास में पूरा उदारीकृत भारत अपने सबसे गहरे संकटों के साथ मौजूद है. यहां कई कहानियां समानान्तर चलती हैं और दिल्ली से लेकर गुजरात, कश्मीर और छत्तीसगढ़ तक पसरे हुए विकास के भयावह सच को उजागर करती हुई एक विराट कथा-धारा में एकमेक हो जाती हैं, जैसे मुल्क के अलग-अलग कोनों के बाशिन्दों की नियतियां आपस में मिल रही हों. अंजुम नामक एक किन्नर उपन्यास के केन्द्र में है जो ज़िन्दगी से बेज़ार होकर एक क़ब्रगाह में रहने लगती है और धीरे-धीरे वहीं क़ब्रों के इर्द-गिर्द ‘जन्नत गेस्ट हाउस’ नाम का एक अच्छा-ख़ासा आशियाना बन जाता है, जहां व्यवस्था की मार खाए उसी की तरह के और लोग इकट्ठा होते जाते हैं. संयोग को नए सिरे से एक कथा-युक्ति की प्रतिष्ठा दिलाते इस उपन्यास में हरियाणा का दुलीना कांड है, गुजरात के दंगे हैं, कश्मीर की आज़ादी की लड़ाई है (उपन्यास का सबसे बड़ा हिस्सा घेरती हुई), छत्तीसगढ़ का हथियारबन्द माओवादी आन्दोलन है, दिल्ली के फ़सीलबन्द शहर से लेकर जंतर-मंतर और दक्षिणी दिल्ली तक की हलचलें हैं, और इन सबके बीच हैं ऐसे अनेक चरित्र, जिनके लिए ज़िन्दगी के मायने एक औसत मध्यवर्गीय शहरी की अपेक्षाओं से बहुत अलग हैं. यह एक ऐसे यथार्थ से आपका सामना कराता है, जिसके आगे आपको अपना जीवन अयथार्थ जान पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं.
मूलतः मलयाली अरुंधति रॉय हिन्दी बोलने में बहुत सहज नहीं हैं, बावजूद इसके वे लगातार हिन्दी में अपनी बात कहने के लिए प्रयत्नशील रहीं. कई बार अपनी बात को पूरा-पूरा कह पाने के दबाव में उन्हें अंग्रेजी का भी सहारा लेना पड़ा. हमने ज़्यादातर जगहों पर अंग्रेजी के शब्दों/वाक्यों का हिन्दी में तर्जुमा कर दिया है और कहीं-कहीं ज्यों-का-त्यों रहने दिया है. बातचीत का लिप्यंकन करते हुए पूरी कोशिश रही है कि उनकी हिन्दी बोलने की शैली, और इस तरह बातचीत का आस्वाद, भी सुरक्षित रहे. जिन्होंने अरुंधति को हिन्दी बोलते हुए सुना है, वे महसूस करेंगे कि हमने उनकी वाक्य-रचना का मानकीकरण करने से अपने को यथासम्भव बचाया है.
संजीव कुमार
संजीव कुमार : जैसा कि आप जानती हैं, हमारी बातचीत मुख्यतः अपार खुशी का घराना पर केन्द्रित रहेगी. यहां आते हुए मैंने ख़ुद से एक सवाल किया कि भले ही हिन्दी अनुवाद 2018 के आख़िर में आया हो, यह उपन्यास तो दो साल पुराना हो चुका है! दो साल के बाद बात करने का क्या मतलब? इसका जवाब यह था कि एक तो इन दो सालों में कई तरह की प्रतिक्रियाएं आईं-अच्छी, बुरी हर तरह की और बहुत सारी-उन प्रतिक्रियाओं पर और उनकी रौशनी में आपसे बात करना बनता है. दूसरे, इस उपन्यास में उदारीकरण के बाद के हिन्दुस्तान की एक बड़ी तस्वीर उभरती है, एक तरह से हमारा पूरा समकालीन इतिहास, और अगर उपन्यासकार से अपने समय पर भी बात करनी हो तो इस उपन्यास से बेहतर बहाना और क्या होगा! तो सबसे पहले मैं यह जानना चाहता हूं.
अरुंधति रॉय : आपके सवाल से पहले मैं एक बात कहना चाहती हूं कि उपन्यास की कोई तारीख़ नहीं होनी चाहिए. 20 साल के बाद भी उस पर बात कर सकते हैं. वह कोई पीस ऑफ़ न्यूज़, कोई ख़बर, नहीं है. हम अभी भी शेक्सपीयर के बारे में, टॉल्स्टॉय की अन्ना कैरेनिना के बारे में बात करते हैं ना!
संजीव कुमार : बिल्कुल सही. यह मेरे मन में आए सवाल का शायद ज़्यादा ठोस जवाब है. तो सबसे पहले यह बताएं कि इस उपन्यास पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ आई हैं, उनके बारे में आपकी क्या राय है?
अरुंधति रॉय : असल में, मैं तो उतना फॉलो नहीं करती हूं. मुझे जो चीज़ें अच्छी लगती हैं, वो थोड़ी अलग तरह की हैं. मैं एक नमूना दिखाती हूं (मोबाइल ऑन करके कुछ तलाशने लगती हैं). हफ़्ते-भर पहले मैं गाड़ी में थी, रेड लाइट पर. एक आदमी आया और मुझे मेरी ही किताब की पाइरेटेड कॉपी बेचने लगा. मैंने उससे कहा कि आप मुझे मेरी ही किताब बेच रहे हैं. इतना सुनना था कि उसने मोबाइल निकाल लिया और मेरा इंटरव्यू करने लगा कि आप अपनी किताब के बारे में कुछ बताएंगी? (हंसी) और मुझे इतना अच्छा लगा कि जब वो बात कर रहा था, उसी समय फ्रेम में अंजुम भी आ गई और वो हमारी बातें सुनने लगी. (मोबाइल में तस्वीर दिखाती हैं: कार की खिड़की से दिखती किताबों का थाक, उसे थामे पुस्तक-विक्रेता और पीछे एक किन्नर.) सच ए नाइस मोमेंट! अटमोस्ट हैप्पीनेस मोमेंट! जहां तक आप जिन प्रतिक्रियाओं के बारे में पूछ रहे हैं उनका सवाल है, मुझे लगता है कि क्या फ़र्क पड़ता है! मुझे मालूम था कि यह एक मुश्किल नॉवल है और शायद इसको समझने में थोड़ा समय लगेगा. इसके बावजूद इसकी पहुंच और अनुवाद वग़ैरह का पैमाना बहुत बड़ा है. 51 भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है. रोमैनियन, इंडोनेशियन, वियतनामी—सब उसमें शामिल हैं. पोलैंड से किसी ने मुझे इंटरव्यू किया तो कहा कि आप सोचती हैं, यह इंडिया के बारे में है? यह तो पोलैंड के बारे में हैं! अरबी में इसके आने के बाद मुझे पता चला, कोई ईरानियन इस पर एक स्टोरी कर रही थी कि ईरान में हर दूसरा इंसान द मिनिस्टरी ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस क्यों पढ़ रहा है. मैं इस तरह सोचती हूं कि आपने शायद मेरा न्यूयॉर्क वाला पेन लेक्चर पढ़ा होगा, जिसमें मैंने कहा कि लिटरेचर इज़ अ शेल्टर मेड बाय रीडर्स एंड राइटर्स (साहित्य पाठकों और लेखकों की बनाई हुई एक पनाहगाह है). और अभी मैं इटली में थी. ये हमारा दूसरा नॉन फ़िक्शन इटली में आया तो वहां बलूनिया में एक न्यूज़पेपर है, ला रिपब्लिका. वहां पर भी ये मुसोलिनी वाला फ़ासिज्म उभर रहा है. वहां एक बड़े-से प्लाज़ा में, खुले में एक बहुत अच्छी बातचीत हुई. वह एक पब्लिक मीटिंग की तरह था. मैं तो देखकर दंग रह गई कि वह जगह पूरी भर गई थी! हज़ारों लोग! ख़ैर, मैं जो बताने जा रही थी वो ये कि आख़िर में मुझसे बात करनेवाली पत्रकार ने पूछा कि ‘वैसे बहुत लोग खड़े हो रहे हैं दुनिया में, पर हमें तुम्हारे लिए बहुत फ़िक्र है. आर यू ओके?’ तो मैंने कहा कि देखो, मैं एक उपन्यासकार हूं . मेरे उपन्यास में एक जन्नत गेस्ट हाउस है जो क़ब्रिस्तान में बना हुआ है और जहां हर कमरे में एक क़ब्र है. अंजुम उसे चलाती है. यह ऐसी जगह है जो ज़िन्दगी और मौत के बीच, मर्द और औरत के बीच, जातियों और मज़हबों के बीच की सरहदों को ‘पोरस’ (छिद्रदार) बना देती है. कभी-कभी मुझे लगता है कि पूरी दुनिया दो तरह के लोगों में बँटी हुई है-एक वे जिन्हें अंजुम इस जन्नत गेस्ट हाउस में रहने की इजाज़त दे सकती है और दूसरे जिन्हें वह भगा देती है. और मैं पहली तरह के लोगों में शामिल हूं. मैं तुम्हारे बारे में नहीं जानती, पर मैं शामिल हूं . इसलिए मेरी फ़िक्र मत करो, मेरे लिए उस गेस्ट हाउस में जगह है. इस बात पर पूरा प्लाज़ा खड़ा हो गया! तो मेरे लिए जो चीज़ मायने रखती है, वह यह कि आपकी कहानी कहाँ दुनिया में अपने पैरों पर चलने लगती है. ये नहीं कि किसने क्या कहा? मायने यह रखता है कि क्या वह कहानी दुनिया में ज़िन्दा है?
संजीव कुमार : मौत के बीच ज़िन्दगी के बहुत ख़ूबसूरत बिम्ब आपके यहां उभरते हैं. कैसे एक क़ब्रगाह में बहुत सताये हुए, लेकिन ज़िन्दादिल लोगों का जीवन फूल-फल रहा है, कैसे कश्मीर में महीनों पहले की एक लाश मिलती है तो उसकी मुट्ठी में बन्द मिट्टी से उँगलियों के रास्ते सरसों का एक पौधा निकला हुआ है-इन्हें मैं बहुत मानीख़ेज इशारों की तरह पढ़ता हूं . क्या सचमुच कोई ऐसा क़ब्रिस्तान है जहां से आपको इस कहानी की प्रेरणा मिली है?
अरुंधति रॉय : मेरे पर्स में एक फ़ोटो है. आपको दिखाती हूं . वैसे आप उसको पहचानते हैं. (फ़ोटो निकालती हैं. एक पुरानी सफ़ेद-स्याह तस्वीर. इसी तस्वीर का एक हिस्सा किताब के मुखपृष्ठ पर है.) ये देख रहे हैं? क़ब्र? इस क़ब्र के दोनों ओर ये दो औरतें 36 साल से सोती हैं. बाहर बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो इंडिया से कोई कुछ भी लिखे तो उसे कहेंगे, मैजिक रियलिज़्म. क्योंकि उनको यक़ीन नहीं होता है कि कोई क़ब्रिस्तान में रह सकता है. तो मैं उनको समझाती हूं कि अभी तो भारत के क़ब्रिस्तान, चूँकि वे ज़्यादातर मुस्लिम क़ब्रिस्तान हैं, घेटो बन चुके हैं जहां ग़रीब लोग रहते हैं. जब मैं लिख रही थी तो मैं ऐसा नहीं सोच रही थी, मतलब मैं मेटाफॉरिकली नहीं लिख रही थी, लेकिन अभी मैं सोच रही हूं कि अगर आप देखो कि कौन जीता है उस गेस्ट हाउस में, कौन उसको चलाता है, किस-किस को दफ़नाया जाता है, किसके लिए फ़ातिहा पढ़ते हैं, किसके लिए इंटरनेशनल गाया जाता है और शेक्सपीयर का पाठ किया जाता है, तो उसमें आपको एक क्रान्ति नज़र आएगी. यही क्रान्ति है जिसकी हमें ज़रूरत है, भले ही अभी वह धकियाकर क़ब्रिस्तान में पहुंचा दी गई हो. और आज तो यह मेटाफ़ॉरिकल भी नहीं रह गया है, क़ब्रिस्तान पर भी हमले हो रहे हैं. लेकिन लोगों को लड़ना ही पड़ेगा, वही अकेला रास्ता है. जब तक इन लोगों के लिए-जिनकी ऐसी कहानियां हैं, ऐसी जाति है, ऐसे सामाजिक-आर्थिक हालात हैं-इनके लिए जब तक कुछ नहीं होता, तब तक आप जितना भी वर्ल्ड कप जीतो, जितना भी जीडीपी बढ़ाओ...क्या मतलब है?
संजीव कुमार : पर मुझे लगता है कि क्रान्ति के मामले में आप एक हद तक निराशावादी भी हैं. जैसे मूसा एक जगह कहता है कि कश्मीरी लड़ाकों को उतना ही एक-दिमाग़ी और उतना ही बेवकूफ बनना होगा जितनी हिन्दुस्तानी फ़ौज है जिसका वे सामना कर रहे हैं. और आगे बोलता है, मैं उद्धृत कर रहा हूं , ‘ऐसा बेवकूफ़ीकरण...ऐसा अहमक़ीकरण...अगर और जब भी हमें हासिल हो पाएगा, वही हमें आज़ादी दिलाएगा. वही हमारी शिकस्त को नामुमकिन बनाएगा. पहले यह हमारी मुक्ति बनेगा और फिर जब हमारी जीत हो जाएगी तो यही हमारी ख़ामी में बदल जाएगा. पहले आज़ादी. फिर सफ़ाया. यही पैटर्न है.’ यह आम पैटर्न देखना क्या बताता है? और मुझे लगता है कि यह किसी एक पात्र की राय-भर नहीं है.
अरुंधति रॉय : वो निराशावाद नहीं है, वो एक हिस्टॉरिकल पर्सपेक्टिव है. जैसे मुझे लोग पूछते रहते हैं आम चुनाव के बारे में कि क्या आप निराश हैं, क्या आप मानती हैं कि फेलियर हैं.... मैं कहती हूं कि लेखक के पास कहीं ज़्यादा बड़ा टाइमफ्रेम होना चाहिए, इतिहास की गहराइयों से लेकर सुदूर भविष्य तक. जो हो रहा है, वह हमारे लिए एक अध्याय है-एक ख़ौफ़नाक अध्याय है, पर अध्याय ही है. इसीलिए मुझे लगता है कि आशा-निराशा के सवाल में थोड़ा बचपना है. कोई-उम्मीद-है-कि-नहीं–जैसे सवाल के मुक़ाबले चीज़ें ज़्यादा कॉम्प्लीकेटिड हैं. वो मुट्ठी में जब फूल आता है, तो वह एक साथ उम्मीद और नाउम्मीदी दोनों है. यह एक उपन्यास है, कोई पॉलिसी स्टेटमेंट नहीं. और उपन्यास मानवीय दशा और लोगों के आन्तरिक जीवन का सस्टेंड एक्स्प्लोरेशन (अविरत अन्वेषण) है-यह अकेला आर्ट फ़ॉर्म है जो थमकर और जमकर उसका अन्वेषण करता है.
संजीव कुमार : लिसनिंग टु ग्रासहॉपर्स की भूमिका में आपने लिखा है कि ‘एक कथाकार के रूप में मैं सोचती हूं , कहीं ऐसा तो नहीं कि हमेशा सटीक होने की कोशिश करना, तथ्यात्मक रूप से दुरुस्त होने की कोशिश करना और होना, जो कुछ हो रहा है, उसके महाकाव्यात्मक पैमाने को किसी हद तक कमतर करता है! क्या यह चीज़ आख़िरकार एक बड़ी सचाई को ढंकने का काम करती है? मुझे चिन्ता होती है कि मैं ख़ुद को गद्यात्मक और तथ्यात्मक सटीकता के संकरे रास्ते पर जाने की इजाज़त दे रही हूं जबकि ज़रूरत सम्भवतः फीरल हाउल/बनैले विलाप की है, या कहिए, कविता की सटीकता और रूपान्तरकारी शक्ति की है.’ तो नॉन-फ़िक्शन के अनुशासन को बरतते हुए आपको जिस तरह के ‘फीरल हाउल’ की ज़रूरत महसूस होती रही, क्या उसका सन्तोष अन्ततः इस उपन्यास से मिला?
अरुंधति रॉय : ये तो है. काफ़ी लोग सोचते हैं कि जो कुछ नॉन फ़िक्शन में है, उसे ही फ़िक्शनल फ़ॉर्म दिया गया. लेकिन ऐसा नहीं है. जैसे नॉन फ़िक्शन में कश्मीर के बारे में मैंने ज़्यादा नहीं लिखा है, क्योंकि लिखा नहीं जा सकता है. सिर्फ़ फ़िक्शन से आप कश्मीर की असलियत को पकड़ सकते हैं. या फिर जाति की, या हम भाषाओं के जिस महासागर में रहते हैं, उसकी. आपने शायद मेरा वो डब्ल्यू. जी. सेबाल्ड लेक्चर पढ़ा हो, ‘इन विच लैंग्वेज डज़ रेन फॉल ओवर टॉरमेंटेड सिटीज़’. उसमें मैंने कहा था कि हम लोग भाषाओं के एक महासागर में रहते हैं और कैसे उसको एक नॉवल की भाषा में पकड़ सकते हैं, क्योंकि अभी किसी भी भाषा में आप प्योर नहीं हो सकते. मिनिस्टरी में सभी चरित्र एक-दूसरे के लिए अनुवाद कर रहे हैं, एक-दूसरे के लिए व्याख्या कर रहे हैं, वे सभी अलग-अलग जुबानें बोलते हैं और वही इस जगह की वास्तविकता है.
संजीव कुमार : ये पाब्लो नेरूदा की लाइन है ना जो उपन्यास में भी एक जगह आती है?
अरुंधति रॉय : हाँ, वही है. वही मेरे लंदन वाले उस लेक्चर का भी शीर्षक है. वह भाषा और अनुवाद के बारे में है. आपको गूगल करने पर मिल जाएगा. उसको आप ज़रूर पढ़िएगा.
संजीव कुमार : ये सिडिशियस हार्ट में संकलित नहीं है?
अरुंधति रॉय : नहीं, उसमें तो दोनों नॉवल के बीच के बीस साल में लिखे गए लेख हैं. यह लेक्चर अभी सिर्फ़ नेट पर है. उसमें इस नॉवल के बारे में भी काफ़ी चर्चा है कि कैसे अलग-अलग ज़ुबानें बोलनेवाले लोग हैं और वे एक फैमिली की तरह इसमें हैं.
संजीव कुमार : आम तौर पर हिन्दी में यह मानने का चलन है कि कोई अगर भारतीय भाषा में नहीं लिख रहा है तो वह भारत के यथार्थ को नहीं जानता है. आपको एकबारगी ख़ारिज कर देने के लिए यह पर्याप्त आधार है कि आप अंग्रेजी में लिखती हैं.
अरुंधति रॉय : यह बड़ी मुश्किल है. आप हिन्दी बोलकर क्या केरल या तमिलनाडु का यथार्थ समझ पाएँगे? नहीं ना? अब ये दलित बुद्धिजीवी तो कहते हैं कि हमको अंग्रेजी सिखाओ, क्योंकि आपकी भाषा में तो पूरा जातिवादी मायने अन्दर तक घुसा हुआ है. तो वो सब इस उपन्यास में है. उर्दू और हिन्दी की लड़ाई भी है.
संजीव कुमार : अच्छा, मैंने जिस भूमिका की चर्चा की, उसमें जो आपने कहा था कि एक लेखक में यथातथ्यता से छूट पाने की इच्छा होती है, तो नॉवल का फ़ॉर्म कितनी छूट देता है? मैं जब यह कह रहा हूं तो मेरे ध्यान में है कि घराना में बहुत सारी बातें ऐसी हैं जिनको तथ्य की तरह कहने में आपको ख़ासी मुश्किल होती. और चीजें तो छोड़िए, हमारे समय के बड़े राजनीतिज्ञों और दूसरे बड़े नामों की जो तस्वीर इसमें उभरती है, बिना उनका नाम लिए, वह भी नॉन-फ़िक्शन की विधा में कर पाना शायद मुमकिन न होता.
अरुंधति रॉय : असल में, वो तो कोई नई चीज़ नहीं है, टॉल्स्टॉय से लगाकर बहुतों के यहां वह मिलता है. उसमें कुछ नया नहीं है. केरल में जाओ तो वहां सबको लगता है कि द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स में ये ये है, वो वो है, जबकि यहां वो सब काल्पनिक चरित्र लगते हैं. इसी तरह इस उपन्यास में यहां सबको चरित्रों में दिखाई पड़ता है कि ये ये है, वो वो है, जबकि वहां जाओ तो उनको ये काल्पनिक लगते हैं. फ़ॉर्म को लेकर आपका सवाल महत्त्वपूर्ण है. यह उपन्यास नॉवल के फ़ॉर्म को भी तोड़ता है और उपन्यास होने के बजाय एक शहर होने की कोशिश करता है. और कैसा शहर? मैं ये सोचती हूं कि जैसे कोई शहर में चल रहा होता है और वो सोचता है कि अरे ये तो मोची है, ये खोमचेवाला है, ये गार्ड है...हम लेबल देते हैं. लेकिन यहां हम ऐसा नहीं करते. यहां हम देखते हैं कि वो कहीं से आया है, उसकी कोई कहानी है, उसके पास बैठो, बीड़ी पिओ, पूछो कि वह कहां से आया है. मतलब, पाठक भी घबरा जाते हैं, क्योंकि आप शहर में ऐसे नहीं चलना चाहते ना! आप आंख बन्द करके चलना चाहते हैं. आप नहीं समझना चाहते कि इस सड़क पर कौन-कौन-से लोग हैं, कहां-कहां से आए हैं, क्या कहानियां लेकर आए हैं. और यह उपन्यास आपको मजबूर करता है कि आप लोगों के बारे में सिर्फ़ उनके पेशे के हवाले से न सोचें. एक तरह से यह सिर्फ़ नॉन फ़िक्शन से छूट नहीं लेता, नॉवल से भी सवाल उठाकर कोशिश करता है कि उसकी चौहद्दियों को भी थोड़ा धक्का दिया जाए. जैसे मैं कहती हूं द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स के बारे में कि वह एक संरचना और एक भाषा ईज़ाद कर रही थी, लेकिन वहाँ लोगों को पता था कि यह एक फ़ैमिली है. यहां अंकल है, आंट है, ग्रैंड पैरेंट्स हैं, बच्चे हैं, और इन सबके बीच एक टूटा हुआ दिल है. लेकिन इस किताब में शुरू से ही वो दिल ध्वस्त और चूर-चूर है. आपकी हर सामान्य धारणा, वह परिवार से सम्बन्धित हो कि जेंडर से सम्बन्धित हो, हर चीज़ यहां टूटी-फूटी हुई है. और फिर वे इस क़ब्रिस्तान में अपने टूटे हुए दिल के टुकड़े लेकर आते हैं और एक मरम्मत किया हुआ दिल बनाते हैं. और सारे जो चरित्र हैं ना, सबके भीतर एक बॉर्डर है. अंजुम में जेंडर का है, सद्दाम में जाति और धर्म का है, तिलोत्तमा में वो जाति का है, मूसा में वो कश्मीरी और हिन्दुस्तानी का है, और विप्लव दास गुप्ता में. वो आधा स्टेट है जो सब कुछ को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में डालकर बिना किसी अहसास, बिना किसी फीलिंग के, देख सकता है-कोई मर रहा है कोई मार रहा है, सब कुछ और आधा वह एक असफल आशिक और पियक्कड़ है, एक मानवीय व्यक्तित्व. तो सरहदें उन सभी के भीतर से होकर गुज़रती हैं. और उन सरहदों से आप इस समाज को देखते हैं. यों कहें कि ऐसी जगह से समाज को देखते हैं कि उसके भीतर की सरहदें रौशन हो जाती हैं. समाज के अन्दर के बॉर्डर्स का ग्रिड साफ़-साफ़ दिखने लगता है. आजकल ये जो इतनी सारी आइडेंटिटीज़ बनाकर उसके अन्दर रहते हैं लोग, उसका बाप तो हमारा कास्ट सिस्टम है, लेकिन सभी पहचानें झिरझिरी, छेददार हैं, और उन्हें ऐसा ही होना है. एक नॉवल में हम. अभी मैं एयरपोर्ट पर थी तो एक आदमी आया, बोला, ‘अरुंधति, कैन आई आस्क यू अ क्वेश्चन? आय एम अ साइकियाट्रिस्ट, दिस इज़ माई पेशेंट.’ तो मैंने कहा, ‘आर यू श्योर इट इज़ नॉट द अदर वे राउंड?’ (हंसी) ख़ैर, उसने मुझसे पूछा, ‘क्या आप मुझे बता सकती हैं, नॉवल और कविता के बीच क्या अन्तर है?’ मैंने कहा, ‘कविता में रचनाकार स्वयं को समेटती है और अपना आसवन करती है और अपने को निर्मल करती है, और फिर वह कविता लिखती है. उपन्यास में उपन्यासकार अपने को बिखेरती है. वह कई लोग बन जाती है. (इन अ पोयम, द पोएट गैदर्स हरसेल्फ़, एंड डिस्टिल्स हरसेल्फ़, एंड क्लैरिफ़ाइज हरसेल्फ़, एंड राइट द पोयम. इन ए नॉवल, नॉवलिस्ट डिस्पर्सेज़ हरसेल्फ़. शी बिकम्स सो मेनी पीपुल.)
संजीव कुमार : वही जो तिलो ने अपनी डायरी में दर्ज किया है कि ऐसी दास्तान को कई चीज़ें होकर ही लिखा जा सकता है. आपकी बात से मुझे इस उपन्यास को पढ़ने के दौरान शिद्दत से महसूस होनेवाली एक बात याद आ गई. वह यह कि यह उपन्यास मुझे कई ऐसे चरित्रों से मिलवाता है जिन्हें मैं जानता हूं, पर पहचानता नहीं. मेरी जिज्ञासा है, क्या आपके मन में किसी विचारधारात्मक परियोजना की तरह यह बात रही है कि हम जैसे सामान्य मध्यवर्गीय को जो चीज़ें सामने होकर भी दिखती नहीं हैं, वे दिखनी चाहिए, जो आवाज़ें सुनाई नहीं पड़ती हैं, उन्हें सुनने के लिए कान मिलने चाहिए, जो ज़िन्दगियां लगभग बेमानी नज़र आती हैं, उनके मानी पता चलने चाहिए?
अरुंधति रॉय : आप एक तरह से ऐसा सोच सकते हैं, लेकिन मैं कोई यह मध्यवर्गीय व्यक्ति को पेटीशन नहीं कर रही हूं. मैं ये कह रही हूं कि अरे, हम लोग मस्ती कर रहे हैं, तुमको कुछ पता नहीं है. तुम अपना रहो अपने बसाए हुए घर में, और जनेऊ पहन लो, और जो कुछ भी करना है, करो, लेकिन असल में अटमोस्ट हैप्पीनेस/अपार ख़ुशी/बेपनाह शादमानी हमारे पास है. हम हार रहे भी होते हैं, मर रहे भी होते हैं, जंग कर रहे भी होते हैं, तब भी हमारे पास है. उपन्यास में जो लोग हैं, बेशक उनका दिल टूटा हुआ है, चूर हो चुका है, लेकिन बहुत बड़ा दिल है. छप्पन इंच का सीना भी उसको समेट नहीं सकता.
संजीव कुमार : अच्छा, पूरे उपन्यास में एक ही चरित्र है जो प्रथम पुरुष में अपनी कहानी कहता है. वह है विप्लव दासगुप्ता, जिसे उसके संगी-साथी गार्सन होबार्ट भी कहते हैं. यह उन चरित्रों में से है जिनसे आपकी वैचारिक दूरी बहुत ज़्यादा है. वह आईबी का आदमी है-एक तरह से वह आपसे ठीक दूसरे छोर पर खड़ा है, हालाँकि वह बदलता भी है. तो ऐसे चरित्र को ही उपन्यास के अच्छे-ख़ासे हिस्से में फ़ोकलाइज़र बनाने की ज़रूरत आपको क्यों महसूस हुई?
अरुंधति रॉय : क्योंकि आपको अपने दुश्मन को भी ठीक से समझना और वाजिब जगह देना है. अपने दुश्मन की बातों में दख़ल देना या उसे कमतर आँकना ओछापन है. मेरे लिए गार्सन होबार्ट एक प्रतिभाशाली व्यक्ति है. और इसीलिए, जैसा कि मैंने पहले कहा, ग्रीक माइथॉलजी में जो आधा घोड़ा आधा मनुष्य होता है ना, उसकी तरह है. वह बंदा आधा ह्यूमन बीइंग है और आधा स्टेट है. मैंने बहुत कोशिश की उसे थर्ड पर्सन में लाने की, पर वह मान नहीं रहा था. और मैंने सोचा कि एक तरह से यह मेरे ऊपर स्टेट की प्रभुसत्ता की दावेदारी है. वो सब कुछ को कॉम्प्लीकेट करता है. मतलब अभी का वो स्टुपिड वाला स्टेट नहीं है, वो होशियार, धोखेबाज़, नेहरूवियन स्टेट है. अभी का तो बहुत अपरिस्कृत, भोंडा है. अभी डर सकते हैं लेकिन मज़ा नहीं आता है. ये इडियट हैं. मतलब इडियट उस मायने में नहीं, इलेक्शन और दूसरी सब चीज़ में बहुत तेज़ हैं, पर सचमुच का सॉफिस्टिकेटेड स्टेट तो वो था ना! ऑल बॉल्स वेयर इन द एयर. उनके पैरों के निशान आसानी से नहीं दिखते थे, आज वाले तो धम-धम, धम-धम करके चलते हैं.
सत्यानंद निरुपम : हां, ये अपने हर अत्याचार के निशान छोड़ते हैं. और आमने-सामने करते हैं, कोई दुराव-छिपाव नहीं. पर्देदारी ख़त्म हो गई.
अरुंधति रॉय : हां, उसके साथ एक तरह की होशियारी भी ख़त्म है. अब तो ये पूरा आईक्यू ड्रॉप का मामला है. इसीलिए तो ये इतना चिढ़ते हैं लेखकों-कलाकारों से. मेनस्ट्रीम मीडिया को भी ख़रीद कर या डरा-धमका कर इन्होंने उसी काम में झोंक दिया है. अभी मैं एक फ़िल्म देख रही थी, गुड नाइट एंड गुड लक. यह 1950 के दशक के अमेरिका के बारे में है, जहां सीबीएस न्यूज़ में एक एंकर था मॉरो, और वह सीधा टकराया सीनेटर मॅकार्थी से. मैं देखते हुए हँस रही थी कि हमारे देश में तो टीवी एंकर ही मॅकार्थी हैं.
संजीव कुमार : अभी मैंने इंडियन एक्सप्रेस में आपकी नई किताब माइ सिडिशियस हार्ट की भूमिका पढ़ी. उसमें एक बहुत दिलचस्प बात लगी मुझे. आपने लिखा है कि जिस समय बाबरी मस्जिद का ध्वस्त होना और बाज़ार का खोला जाना एक साथ घटित हुआ, और भारत की जनता पर साम्प्रदायिकता तथा उदारीकरण का कहर बरपा होने लगा, वह समय आपके लिए बहुत अजीब-सी बेचैनी का समय था. आपके पहले उपन्यास को एक बड़ा अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया था और आप एक नए, आत्मविश्वासयुक्त, बाज़ारोन्मुख भारत की छवि पेश करनेवाले लोगों की क़तार में गिनी जा रही थीं. आपने लिखा है, ‘इट वाज़ फ़्लैटरिंग इन अ वे, बट डीपली डिस्टर्बिंग, टू’. जहां असंख्य लोग दरिद्रता के मुँह में धकेले जा रहे थे, वहीं आपकी किताब लाखों की संख्या में बिक रही थी और आपका बैंक-खाता फल-फूल रहा था....आपकी यह बात, मुझे लगता है, सीमित अर्थ में हम जैसे नौकरीपेशा लोगों की बात भी है. हमारी भी आमदनी और सुविधाएँ बढ़ी हैं. आमदनी में इतना उछाल आया कि मेरे कॉलेज में अब गाड़ी लगाने की जगह नहीं रहती. पहले सब आते होंगे बस से, अब सबके पास एक से ज़्यादा गाड़ियाँ हैं. बहुत सुनियोजित तरीक़े से मेरे पूरे वर्ग की क्रय-शक्ति को बढ़ाया गया है. तो अपनी, और सीमित अर्थ में हम जैसों की भी, व्यक्तिगत ख़ुशक़िस्मती को आप कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय : अपने लेखों में मैंने यह बात कही है कि उदारीकरण ने एक बहुत बड़ा मध्यवर्ग तैयार किया है, जो बाज़ार है और वह सामान ख़रीद सकता है. और जब एक मध्यवर्ग को तैयार किया जाता है तो उसका मतलब है कि उन्हें ग़रीबी से बाहर निकाला जा चुका है. लेकिन किस क़ीमत पर? एक बहुत बड़े निम्नवर्ग की क़ीमत पर, पर्यावरण की क़ीमत पर, जंगलों और नदियों और. इन तमाम चीज़ों की क़ीमत पर. एक समय तक इस प्रक्रिया को लोग समझ नहीं पा रहे थे. किसी भी भाषा में-हिन्दी में, उर्दू में, मलयालम में-इसे समझ नहीं पा रहे थे. क्योंकि वे जाते नहीं हैं, घर में बैठे रहते हैं. पोखरण विस्फोट के बाद मैं नर्मदा गई और जहां कहीं भी गई, मुझे यह दिखा कि कितनी बड़ी क़ीमत चुकाई जा रही है इसके लिए. अब आप देखिए कि जो आँकड़े ये देते हैं ग़रीबी के बारे में, उसका क्या मतलब होता है. कल के अख़बार में जब ये बताया गया कि 49 मिलियन, लगभग पाँच करोड़ बच्चे कुपोषित हैं तो इसका मतलब यह भी तो है ना कि उनके मां-बाप भी कुपोषित हैं, उनके दादा-दादी, नाना-नानी भी कुपोषित हैं! लेकिन आप सेलिब्रेट कर रहे हैं! क्योंकि आप जैसे चाहो ग़रीबी रेखा को इधर कर दो, उधर कर दो, जहां मर्ज़ी कर दो, ग़रीबी ख़त्म हो गई कि नहीं ख़त्म हुई, यह दावा करने का आधार और अधिकार मिल जाता है ना! तो मैं जो उस समय लिख रही थी, वह सम्पन्न होते मध्यवर्ग और ऊँची जाति के लोगों के लिए किसी हद तक काउंटर इंट्यूटिव (सहज ज्ञान के विपरीत) था. उनको तो यह दिख रहा था कि इतनी प्रगति हो रही है, गाड़ियां आ रही हैं, ये हो रहा है, वो हो रहा है. बाक़ी तो वे नहीं देख रहे थे, तो सोचते थे कि ये क्या कह रही है!
संजीव कुमार : और आपके पाठक उसी तबके से थे.
अरुंधति रॉय : नहीं, उसी तबके से नहीं थे. मैं जो लिखती हूं , वो तुरन्त कई ज़ुबानों में अनुवाद हो जाता है और उसको उड़ीसा में, बस्तर में, सब जगह लोग पढ़ते हैं, लेकिन मैं मुख्यधारा में अपने पैर जमाकर रख रही थी. मैंने सोचा था कि मैं यहीं रहूंगी, यहीं अपनी बात कहूंगी.
संजीव कुमार : ताकि उनको पता चले.
अरुंधति रॉय : हां. और बहुत देर लगी लोगों को पता चलने में. मैं ये कहती हूं कि माइ सिडिशियस हार्ट के लेख बीस साल तक चली मौसम वैज्ञानिक भविष्यवाणियां हैं, और अब वह मौसम आ गया है. अब हमें इसको झेलना है. लोकतंत्र का क्या हुआ, लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं का क्या हुआ, देख लीजिए. गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स के आने के कुछ ही समय बाद सरकार बदली और फिर न्यूक्लियर टेस्ट हुआ जो आरएसएस का पुराना सपना था. तब जब लोग इसकी ख़ुशी मना रहे थे, मैंने अपना पहला लेख लिखा, ‘कल्पना का अन्त’. मुझे यह समझ में आया कि एक नया दौर शुरू हुआ है, एक नई भाषा आ गई है और हमारी ज़िन्दगियां एक नई तरह की राजनीतिक मशीन से मैनेज होनेवाली हैं, जिस मशीन के कल-पुर्ज़ों को हमें गहराई से समझना होगा. एक कल्पनाशील लेखक के दिमाग़ से समझना होगा. चीज़ों की रिपोर्टिंग करना या उनका वर्णन करना काफ़ी नहीं है. जैसे गुजरात कांड हुआ, अब आप इसका वर्णन कर लो कि एहसान जाफ़री के साथ क्या हुआ, इसके साथ क्या हुआ, उसके साथ क्या हुआ, लेकिन इससे आप करुणा या हमदर्दी नहीं जगा सकते. लोगों को फ़र्क़ नहीं पड़ता. वे कहते हैं, ‘तो क्या! सो व्हाट!’ मैं हमेशा से एक बात कहती रही हूं कि 1990 से पहले दो ताले खुले—बाबरी मस्जिद का और बाज़ार का. दो ताले खोलने से दो क़िस्म का फ़ंडामेंटलिज़्म, इकोनॉमिक फ़ंडामेंटलिज़्म और रिलीजियस-हिन्दू फ़ंडामेंटलिज़्म साथ-साथ आगे बढ़े. किसी को लगा कि ये दोनों तो दुश्मन हैं, एक आधुनिक है और दूसरा आधुनिक नहीं है. पर ऐसा नहीं था. ये साथ मिलकर, हमेशा साथ मिलकर चले और दोनों ने अपना-अपना आतंकवाद मेन्युफेक्चर किया. एक ने कहा, मुस्लिम आतंकवाद, दूसरे ने कहा, माओवादी आतंकवाद. दोनों ने इस बहाने से स्टेट को पुलिस स्टेट बनाया, यूएपीए और आतंकवाद निरोधक क़ानून और ऐसे कई कानून लाए और एक तरह से ये पूरा निगरानी वाला/सर्विलिएंस पुलिस स्टेट बना दिया. क्योंकि पुलिस स्टेट के बग़ैर नवउदारवादी क़ानूनों को लागू करना सम्भव ही नहीं है. मैं अभी बलूनिया में थी तो न्यूयॉर्क के एक सज्जन ने मुझसे बात करते हुए कहा कि उनके विचार में लोकतंत्र और मुक्त बाज़ार साथ-साथ ही चलते हैं. मैं तो ज़ोर से हंसने लगी. मैंने पूछा कि आपकी तबीयत तो ठीक हैं ना, क्या आप गंभीरता के साथ यह बात कह रहे हैं? यह एकदम नामुमकिन है कि आप नवउदारवादी नीतियों को पुलिस स्टेट के बग़ैर लागू कर पाएं. बस्तर, झारखंड, उड़ीसा—ये सारी जगहें पुलिस स्टेट हैं. सैकड़ों आदिवासी जेल में हैं. और क्यों हैं? बेहतर निवेश वातावरण तैयार करने के लिए ही ना! उधर पुतिन कह रहा है कि लिबरलिज़्म एक पुराना आइडिया है. अभी चीन में हमारे लोग जाकर इसका बहुत अध्ययन कर रहे हैं कि वे अपने यहां के डिसेंट को, असहमति को कैसे-कैसे दबाते हैं, उनका तरीक़ा क्या है. आपने देखा होगा बीबीसी डॉक्यूमेंटरी में कि वहां किस तरह हज़ारों-हज़ार मुसलमानों को रीएजुकेशन सेंटर में ला रहे हैं, हमारी उमर के लोगों को नर्सरी राइम सिखा रहे हैं, डांस करा रहे हैं...कितना अपमानजनक है!
( यह इंटरव्यू आलोचना पत्रिका के जुलाई-सितंबर 2019 के अंक में प्रकाशित हो चुका है )