पितृ-वध: ‘नितांत समसामयिकता से ग्रस्त’ समय में बदलाव की किताब

आशुतोष भारद्वाज की यह आलोचना समालोचकों के लिये बहस का विषय होनी चाहिये और साहित्य के जानकार इसे भी समर्थ आलोचनाओं की कसौटी पर कसेंगे.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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आशुतोष भारद्वाज की पितृ-वध पढ़ रहा हूं. इस पुस्तक के आमुख में अशोक वाजपेयी इसे भाषा और दृष्टि दोनों के लिये पठनीय और विचारणीय बताते हैं. हिन्दी आलोचना के बड़े हिस्से को वाजपेयी “नितांत समसामयिकता से ग्रस्त” बताते हुये शिकायत करते हैं कि वह अपने से पहले की कृतियों और लेखकों को याद नहीं करते. ऐसा कहते हुये वह पितृ-वध के लेखक आशुतोष भारद्वाज को एक सार्थक अपवाद के रूप में प्रस्तुत करते हैं.

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वाजपेयी की इस बड़ी प्रशंसात्मक टिप्पणी को साथ लिये पाठक जब पितृ-वध पढ़ना शुरू करता है तो इस पुस्तक से उसकी उम्मीदें उठना स्वाभाविक है और संभवत: यह किताब निराश नहीं करती.

समृद्ध भाषा के साथ आशुतोष अपनी आलोचनाओं में विभिन्न स्रोतों (पुस्तकों और लेखकों) को उद्धृत करते चलते हैं. पितृ-वध स्वयं में एक कौतूहल जगाने वाला शीर्षक है जिसके आवरण वह प्रारंभ में ही खोल देते हैं. अपने आदर्श लेखकों के प्रभाव से बाहर निकल कर उनकी आभा से परे नये और कदाचित उससे भी ऊंचे, गहन और रोचक साहित्य सृजन की कोशिश ही पितृ-वध का दर्शन है.

चूंकि वध में एक जायज़ और विधि-पूर्ण कृत्य का भाव है इसलिये यह किसी भी युवा और आकांक्षी लेखक का वैधानिक और किसी हद तक नैसर्गिक कर्म बनता दिखता है. इसके दर्शन को समझने के लिये पुस्तक का पहला अध्याय पढ़ना ज़रूरी हो जाता है.

दोस्तोवयस्की के उपन्यास के कथानक से लेकर आशुतोष भीष्म, शंबूक और जयद्रध के वध के साथ “गांधी-वध” का आह्वान करते हैं. वह यह बताना नहीं भूलते कि आज के आधुनिक संविधान से संचालित होते समाज में वध की कोई जगह नहीं बल्कि उसके लिये क़ानून में सज़ा का प्रावधान है.

उन वैचारिक वीथियों के बीच लेखक पितृ-वध की पृष्ठभूमि तैयार करता है जिसके लिये वह अपनी ही लिखी एक कहानी का अंश उद्धृत करता है जिसमें एक युवा लेखक एक बूढ़े लेखक की श्रद्धांजलि बरसों से लिख रहा है जबकि बूढ़ा मरने का नाम नहीं लेता.

लेखक की कहानी का अंतिम वाक्य –

तुम उस बूढ़े का शोकगीत लिख रहे थे या उसके ज़रिये दरअसल तुम खुद को ही संबोधित कर रहे थे? क्या तुम ही तो वह बूढ़े नहीं थे जो इस युवक के भेष में अपना शोकगीत लिखने आ गये थे.

आशुतोष एक युवा लेखक हैं जो हिन्दी और अंग्रेज़ी में बराबर अधिकार से लिखते हैं. उनकी यह आलोचना चार हिस्सों में बंटी है. स्वर, स्मृति, संवाद और समय.

पुस्तक के पहले हिस्से में वह मुक्तिबोध और अज्ञेय जैसे साहित्यकारों को एक युवा आलोचक की नज़र से देखते हैं तो उत्तरार्ध में कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद से संवाद करते हैं.

अज्ञेय पर उनकी एक टिप्पणी रोचक है. भारद्वाज अज्ञेय के चर्चित उपन्यास शेखर एक जीवनी के नायक को निशाने पर लेते हैं. चूंकि इस रचना में शेखर और कोई नहीं बल्कि खुद अज्ञेय ही हैं इसलिये आलोचनाकार के निशाने पर नायक से अधिक अज्ञेय रहते हैं. उनकी आलोचना केवल शेखर एक जीवनी तक सीमित नहीं रहती. वह अज्ञेय की कविताओं और उनके दूसरी प्रमुख रचनाओं तक जाती है जिसमें एक और आत्मकथात्मक उपन्यास नदी के द्वीप शामिल है.

आशुतोष अज्ञेय के प्रभाव में रहे निर्मल वर्मा को उनसे कहीं अधिक स्वीकार्य और सृजनात्मक आदर्श बताते हैं लेकिन फिर अज्ञेय के साथ एक पितामह का रिश्ता जोड़ते हुये कहते हैं कि उनके कुछ अंश मेरे भीतर भी ज़रूर आये होंगे!

अज्ञेय और निर्मल वर्मा पर कई हिन्दी लेखक और आलोचक लिख चुके हैं. यह बहस भी चलती रही है कि कौन भारतीय यथार्थ का प्रतिनिधि लेखक है और कौन नहीं है. अज्ञेय ने अपने जीवनकाल में समकालीन साहित्यकारों से जितना प्रोत्साहन पाया उससे अधिक आक्रामक तपिश भी झेली. साहित्यकार मानवीय भावनाओं से विलग नहीं होते और उनमें ईर्ष्याभाव और गुटबाज़ी होना कोई अचरज की बात नहीं है.

इधर गीता प्रेस पर एक मूल्यवान और समर्थ किताब लिख चुके अक्षय मुकुल पिछले कुछ सालों से अज्ञेय की जीवनी पर गंभीर काम कर रहे हैं. उनके साथ निरंतर संवाद की वजह से हिन्दी की इस विराट मूर्ति के बारे में थोड़ी बहुत समझ विकसित कर पाया हूं. यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अक्षय के वृहद काम में आशुतोष की नज़र से देखे गये अज्ञेय की झलक मिलेगी.

पितृ-वध के आखिरी हिस्से में डायरी अंश हैं जिनमें लेखक के स्व-निर्माण की झलक दिखती है. मैं आशुतोष को पिछले 7-8 सालों से निजी तौर पर जानता हूं. खासतौर से छत्तीसगढ़ में उनकी रिपोर्टिंग की वजह से उनके साथ संवाद कायम हुआ क्योंकि यह राज्य मेरी भी कर्मभूमि रहा है. यह लेखक के लिये साहित्य खुद को ढूंढने का और अपने भीतर टटोलने का साधन है. इस प्रक्रिया में लेखक या कवि खुद भी तराशा जाता है. उनकी डायरी के पन्नों में यह झलक साफ दिखती है.

आशुतोष की यह आलोचना समालोचकों के लिये बहस का विषय होनी चाहिये और साहित्य के जानकार इसे भी समर्थ आलोचनाओं की कसौटी पर कसेंगे. एक ऐसे वक्त में जब पुस्तक विमोचन के कार्यक्रमों से लेकर साहित्यिक जलसों (लिटरेचर फेस्टिवल) तक लेखकों और कवियों की जगह टीवी एंकर लेते जा रहे हों यह पुस्तक एक गंभीर बहस का रास्ता तैयार कर सकती है.

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