भारत के लोकतंत्र की मजबूती का परिचायक यहां की जनता हैं न की सरकार या संस्थाएं.
नागरिक संसोधन अधिनियम यानी सीएए पास हुए 15 दिन हो गए मगर इस अधिनियम का विरोध बंद नहीं हो रहा है. सीएए से जुड़े सभी सवाल और अफवाहों का जन्म सीएए स्वयं में नहीं है. सीएए एक ऐसा कानून है जिससे सीधे किसी भी समुदाय या वर्ग को कोई हानि नहीं हो रही हैं मगर इस कानून में कुछ समुदाय या वर्ग नहीं आ रहे हैं, उसको लेकर कुछ आपत्तियां वाजिब हो सकती हैं मगर जिस प्रकार से वह आपत्तियां रखी जा रही हैं और जिन माध्यमों से उन आपत्तियों को रखा गया उससे आम जनमानस में भय का वातावरण तैयार हो गया.
सीएए के द्वारा अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यक समूह जो दिसम्बर 2014 से पहले भारत में आ चुके हैं उनको एक बार में नागरिकता देने की बात की जा रही हैं जिससे की वह भारत सरकार के कार्यक्रमों और योजनाओं का लाभ एक नागरिक के रूप में ले सकें.
मगर इस पूरे कानून को एनआरसी से जोड़कर ऐसे प्रस्तुत किया गया और किया जा रहा हैं की जैसे इस कानून के द्वारा अल्पसंख्यक समूह की नागरिकता छीन ली जायेगी. इस पूरे डर का आधार एनआरसी को बनाया जा रहा हैं जिसका अभी अस्तित्व ही नहीं हैं. असम में यह असम अकॉर्ड की बाध्यता के कारण सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में लागू हुआ जिस पर सभी पक्षों ने ऊंगली उठाई और कोई भी इसके परिणाम और क्रियान्वयन से खुश नहीं था.
समाज में अविश्वास और अल्पसंख्यक वर्ग में भय, एक ऐसे अस्तित्वविहीन कानून के आधार पर घोला जा रहा हैं जो अभी आया ही नहीं हैं, जिसका मसौदा किसी ने देखा ही नहीं हैं. भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में जहां हर स्तर पर लोकतंत्र कायम है वहां यह कल्पना करना कि किसी की नागरिकता छीन जायेगी यह समझ से परे है.
भारत के लोकतंत्र की मजबूती का परिचायक यहां की जनता हैं न की सरकार या संस्थाएं. यहां की जनता, सभी पार्टियों का हर स्तर पर पृथक मूल्यांकन करती है. भाजपा जब 2014 की मोदी लहर पर सवार थी तब इसी जनता ने उसे 2015 के दिल्ली चुनाव में जोरदार पटखनी दे दी थी, और इसी आप सरकार ने जब अपने को सबसे केंद्र की भाजपा सरकार का मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानकर बैठी थी तो इसी जनता ने उसे निगम चुनाव में बुरी तरह से हरा दिया था.
मई 2019 में चुनाव जीतकर आने वाली भाजपा का परीक्षण किसी पार्टी या ने संस्था ने नहीं अपितु यहां के जनमत ने पहले हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में फिर झारखण्ड के चुनाव में किया. अतः जो लोग यह समझ रहे हैं की वह लोकतंत्र के एकमात्र रक्षक हैं और उनके कारण भारत का लोकतन्त्र जीवित हैं वह अपने भीतर का यह भ्रम निकाल दे.
इस पूरे आन्दोलन में जो व्यक्ति सबसे ज्यादा याद आए या किए गए वह हैं गांधीजी. गांधीजी की अहिंसा का आन्दोलन विश्व में हर जगह याद किया जाता हैं खासकर संघर्ष और आन्दोलन की पृष्ठभूमि में. कई लोगों को लगता हैं की ऐसी परिस्थिति में अगर गांधी जीवित होते तो वह इस कानून का विरोध करते हैं. इस पूरी धारणा के पीछे का आधार गांधीजी का अहिंसा के प्रति आग्रह को माना जा रहा है. गांधीजी का व्यक्तित्व ऐसा था की वह किसी भी प्रकार की हिंसा और भेदभाव को स्वीकार नहीं करते थे.
मगर सीएए के पूरे आन्दोलन को समझा जाय तो एक बता साफ होती हैं कि सीएए अपने आप में एक कल्याणकारी कार्य हैं जो पीड़ितों को सहायता देने के लिए हैं. गांधी स्वयं पीड़ितों और वंचितों को हर संभव सहायता देने का आश्वासन देते हैं. लेकिन सीएए के विरोध में ज्यादातर आन्दोलन हिंसक हुए या उनमें हिंसा हुई. गांधी स्वयं हिंसा के घोर विरोधी थे चाहे उस हिंसा का हेतु कुछ भी हो.
गांधी ने अपने ऐतिहासिक और काफी सफल असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिए था जब आन्दोलनकारियों ने चौरी चौरा में पुलिस चौकी को जला दिया था, जिसके कारण कुछ पुलिसकर्मियों की मृत्यु हो गई थी.
जबकि सीएए विरोधी आन्दोलन में हुई हिंसा पर इस आन्दोलन में शामिल लोग अफ़सोस करने के बजाय हिंसा को जायज ठहराने की कोशिश कर रहे थे. सीएए विरोधी आन्दोलन में वह समूह भी शामिल है जिस पर हिंसक नक्सली गतिविधियों और कश्मीर की अलगाववादी गतिविधियों के प्रति सहानुभूति रखने और उसका समर्थन करने का आरोप लगता रहा हैं. गांधीजी किसी भी प्रकार के हिंसक गतिविधियों और उसके समर्थकों से पर्याप्त दूरी बनाकर रखते थे जबकि सीएए के विरुद्ध आन्दोलन चलाने वाले अपने से उदहारण पेश करने से बचना चाहते हैं बल्कि अपेक्षा रखते हैं की सामने वाला पक्ष गांधी का अनुसरण करें और वह केवल गांधी को उद्धृत करें. यह गांधी के सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत है, क्योंकि गांधी सदैव स्वयं उदाहरण पेश करने में विश्वास करते थे.
सीएए के विरोध में चलने वाले आन्दोलन और उनके नेतृत्वकर्ता गांधी को याद करना चाहते हैं मगर उनकी गांधी की याद सांकेतिक हैं. अगर वास्तव में गांधी को याद करना है तो उनको सम्पूर्णता में याद करना होगा. सांकेतिक और चयनित रूप से गांधी के विचारों के अनुसरण से इस आन्दोलन को कोई लाभ नहीं होगा.
गांधी के विचार केवल आन्दोलन और संकट के समय प्रासंगिक नहीं है अपितु यह सामान्य समय में भी प्रासंगिक हैं. गांधी का शिक्षा और स्वच्छता से सम्बंधित विचार उतना ही प्रासंगिक है जितना की उनका अहिंसा का विचार. जो वर्ग गांधी से प्रेरित सरकार के स्वच्छता कार्यक्रम का उपहास उड़ा रहा था वही अब गांधी को आन्दोलन में याद कर रहा है. मगर विडंबना यह है की गांधी आन्दोलनों में हिंसा के सख्त खिलाफ थे जो की सीएए विरोधी आंदोलनों का एक प्रमुख आयाम है.
(लेखक सेंटर ऑफ़ पालिसी रिसर्च एंड गवर्नेंस के निदेशक हैं)