हिंदी खबरिया चैनलों की ख़बर लेने का पाक्षिक कोना.
बहुत पहले, आज से लगभग 23 साल पहले देश के प्रतिष्ठित शोध पत्रिका इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्लू) ने वॉल्यूम 32, इश्यू नंबर 3, 18 जनवरी 1997 के अंक में इतिहासकार व अकादमिक रॉबिन जेफरी ने 11 भागों में भारत की पत्रकरिता के बारे में विस्तार से लिखा था (बाद में उन्हीं लेखों के आधार पर उन्होंने ‘इंडियाज़ न्यूजपेपर रिवोल्यूशन’ के नाम से एक किताब भी लिखा). हिन्दी अखबारों के बारे में उन्होंने बहुत ही अलग शीर्षक से एक लेख लिखा. लेख का शीर्षक था- ‘टेकिंग टू द पंजाब केसरी लाइन- पंजाब केसरी के रास्ते हिन्दी अखबार’. यह वह दौर था जब पंजाब केसरी का सर्कुलेशन काफी तेजी से बढ़ रहा था, हिन्दी के दूसरे अखबार बड़ी तेजी से अपनी भाषा में अंग्रेजी भाषा को मिला रहे थे. बड़े-बड़े साहित्यकार हिन्दी अखबारों के गिर रहे स्तर से चिंतित होकर अखबारों के संपादको को पत्र लिख रहे थे.
यह वही दौर था जब देश का सबसे बड़ा मीडिया घराना बैनेट कॉलमैन कंपनी अपने हिन्दी अखबार नवभारत टाइम्स (नभाटा) को अंग्रेजी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया (टीओआई) का अनुवाद संस्करण बनाने की चाहत रखता था. खैर, नभाटा तो टीओआई का हिन्दी संस्करण नहीं बन सका लेकिन उसने बहुत जल्दी ही पंजाब केसरी की लाइन ले लिया. उस अखबार में ठूंस-ठूंस कर अंग्रेजी के शब्द डाले जाने लगे. थोड़े दिनों के बाद हिन्दी के सभी अखबारों ने वही लाइन ले लिया. परिणाम यह हुआ कि हिन्दी अखबारों से अच्छा कंटेट गायब होने लगा और एक तरह की फूहड़ता हर जगह दिखने लगी. मोटा-मोटी हिन्दी अखबारों से गंभीर कटेंट गायब हो गए और सतही खबरें अनुवाद होकर छपने लगीं.
इतनी बड़ी भूमिका के लिए माफी, लेकिन हकीकत यह है कि आज के दिन सभी हिन्दी टीवी चैनलों का भी यही हाल है. कंटेट के नाम पर विविधता गायब हो गई है. सभी टीवी चैनलों पर भर दिन नजर रखना आसान नहीं है इसलिए कुछ टीवी चैनलों की खास बहसों पर ही हम इसे केन्द्रित करके बात करने की कोशिश करेंगे. अगर पिछले 15 दिनों के टीवी चैनलों में हो रही बहस को देखें तो हम पाते हैं कि लगभग सभी चैनलों पर एनआरसी, नागरिकता कानून, उसके चलते प्रदर्शन, लाठीचार्ज जैसे विषयों पर ही बहस हो रही है. पूरे पंद्रह दिनों के कार्यक्रम में लगभग सारी बहसें वैसी हैं जिसमें खतरनाक ध्रुवीकरण की आशंका बनती है.
जैसे आजतक के ‘हल्ला बोल’ कार्यक्रम के कुछ हेडलाइंस देखिएः ‘सावरकर पर नया संग्राम’, ‘नागरिकता एक कानून अनेक’, ‘मेरठ पुलिस की ‘नापाक’ जुबान’, ‘बहकावे में न आओ, अपनी अक्ल लगाओ’, ‘खाता न बही..जो पुलिस कहे वही सही’, ‘संघ को सब हिन्दू दिखता है’, ‘तंत्र, मंत्र षडयंत्र… ऐसे कैसे बचेगा लोकतंत्र?, ‘भगवा- परंपरा या कारोबार?’, ‘सीएए की लड़ाई, फैज के नाम आई’, आदि इत्यादि.
20 दिसंबर को हुए इसी कार्यक्रम का शीर्षक है- ‘नागरिकता कानून बनाम हाथ में कानून’. बहस शुरू होने से पहले बैकग्रांउड में एक ओपनिंग कहानी सुनाई जाती है उसमें कहा जाता है, “प्रदर्शनकारी देखते-देखते उपद्रवी में तब्दील हो गए हैं और पुलिसवालों पर निशाना साध रहे हैं. फिर भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस वालों को आंसू गैस के गोले दागने होते है. भीड़ ज्यादा उग्र होती है तो पुलिस को लाठियां भांजनी पड़ती हैं और बात तब भी नहीं बनती है तो फायरिंग के लिए मजबूर होना पड़ता है.” कुल मिलाकर कहानी इस रूप में तैयार की गई है कि हाय रे बेचारी पुलिस, अब प्रदर्शनकारियों पर गोली नहीं चलाएगी तो आप काम कैसे करेगें?
अब इस कार्यक्रम में एकंर अंजना ओम कश्यप के शब्द सुनिएः ‘डीसीपी रैंक के अधिकारी को चोट लगी है’ इस बात को वह कम से कम चार बार दोहराती हैं. वह पैनल को संबोधित करते हुए कहती हैं- “जुमे की नमाज के बाद पत्थरबाजी हो रही है, पुलिस को घायल किया जा रहा है, मजबूरन पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ रहा है, हिंसा की एक तरफ आप निंदा करते हैं, दूसरी तरफ हिंसा भड़काने मे कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.” और उनके सारे के सारे सवाल पैनल में मौजूद उन्हीं सभी व्यक्तियों से होती है जो सामान्यतया सरकार के पक्ष में बात कर रहे होते हैं. और जब पैनलिस्ट अपनी बात कहने लगते हैं तो आम लोगों में यह संदेश बहुत साफ-साफ जाता है कि देखिए, देश के सभी ‘विद्वतजन’ इस तरह की बातों की आलोचना कर रहे हैं, अर्थात जो सड़क पर हो रहा है वह पूरी तरह गलत है, उन्हें प्रदर्शन करने का कोई अधिकार नहीं है. उसी पैनल में बैठा कोई व्यक्ति अगर इस तरह की हिंसा पर अपनी बात यह कहते हुए शुरू करता है कि मैं हर तरह की हिंसा के खिलाफ हूं, लेकिन… उसका ‘लेकिन’ एंकर महोदया के गले की फांस बन जाता है. लिहाजा उसके सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी जाती है, समान्यतया उन्हें बोलने ही नहीं दिया जाता है. हां, इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पैनल में अक्सर इस तरह का सिर्फ एक व्यक्ति होता है.
उसी कार्यक्रम में बाद में जनता दल- यू के पवन वर्मा शामिल होते हैं. उनसे अंजना ओम कश्यप का किया हुआ यह सवाल देखिए- मुसलमानों को इससे डरने की जरूरत नहीं है. सरकार बता रही है लेकिन विपक्षी पार्टियां उनके मन में डर पैदा कर रही हैं. क्या आप ऐसा कुछ ठोस कह सकते हैं कि इससे मुस्लिमों को डरने की जरूरत है? इस पर पवन वर्मा कहते हैं- “सीएए और एनआरसी हाइफनेटेड है. एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. एनआरसी नुस्खा है देश में अस्थिरता, द्वेष और घृणा पैदा करने के लिए और उसका असर खासकर होगा गरीब व वंचित वर्ग पर अपनी नागरिकता साबित करने के लिए. हम हिंसा के खिलाफ हैं लेकिन इसे हिन्दू-मुस्लिम के रूप में मत देखिए!” यही वो वक्त है उस पूरी बहस के दौरान जब एंकर महोदया ने सरकार के खिलाफ दिए जा रहे तर्क के बीच टोकाटाकी नहीं किया.
एक बहस कोटा में हो रहे बच्चों की मौत पर भी होती है जो बहुत जरूरी बहस है. लेकिन चैनल पर यह बहस इसलिए नहीं हो रही है क्योंकि इतने सारे नवजात बच्चों की मौत हुई है, यहां बहस इसलिए हो रही है क्योंकि राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है.
इस बहस में एक बसपा समर्थक, बीजेपी प्रवक्ता, एक कांग्रेस समर्थक बाबा, एक पूर्व डॉक्टर, और एक कांग्रेस समर्थक पैनलिस्ट चेतन सिंह हैं. इस तरह की बहस में यह अनिवार्य जरूरत होती है कि पिछले कुछ वर्षों से सरकार ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में कितना खर्च किया है साथ ही उस अस्पताल में पहले कुछ सुविधा थी या नहीं और कब से स्वास्थ्य व्यवस्था चरमराने लगी है. शोध व तथ्यपरक रिपोर्ट की इतनी अधिक कमी है हिंदी टीवी पत्रकारिता में कि पूरी बहस में आप समझ ही नहीं पाएंगे कि आखिर इस तरह के बहस के राजनीतिक दलों को लाभ-हानि के अलावा जनता को क्या मिलता है?
कायदे से सौ से अधिक बच्चों के मरने के बाद एक पड़ताल चैनल को इस बात की करनी चाहिए थी कि पिछले पांच वर्षों में राज्य सरकार ने कितना खर्च स्वास्थ्य के किस मद में किया है साथ ही पिछले साल भर में अशोक गहलोत की सरकार इस क्षेत्र में कुछ नया किया है या फिर वो भी ढर्रेवाली राजनीति कर रहे हैं?
26 दिसंबर को सुमित अवस्थी का कार्यक्रम # विथ सुमित अवस्थी का शीर्षक हैः “राहुल गांधी का झूठ पकड़ा गया”. राहुल गांधी के उस झूठ को पकड़ने के लिए अवस्थी बीबीसी के उस वीडियो क्लिप की बात करते हैं जो एनआरसी पर है. सुमित अवस्थी के अनुसार राहुल गांधी ने ढाई मिनट के वीडियो को छोटा करके डेढ़ मिनट का बना दिया है और उसे अपने ट्वीटर एकाउंट से शेयर किया है. अवस्थी के अनुसार उस बचे हुए एक मिनट के वीडियो से उस बाइट को हटा लिया गया है जिसमें एक व्यक्ति ने कहा है कि डिटेंशन सेंटर का 70 फीसदी भाग ही तैयार है.
इसे समझना दिलचस्प है कि सुमित अवस्थी इस बात के लिए राहुल गांधी को झूठा साबित करने की कोशिश करते हैं कि राहुल ने सिर्फ 70 फीसदी तैयार डिटेंशन सेंटर को पूरा बताया. हालांकि सुमित ने चार दिन पहले रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री के उस बयान पर कोई बात नहीं किया जिसमें प्रधानमंत्री सीधे-सीधे कह रहे हैं कि देश में कोई डिटेंशन केन्द्र नहीं बना है. एंकर सुमित के लिए यह सिर्फ इसलिए झूठ हो गया क्योंकि राहुल ने 70 फीसदी बने डिटेंशन सेंटर का प्रमाण दिया. कुछ इसी तरह से हमारे चैनल और एंकर तथ्यों की तोड़मरोड़ कर फैक्ट चेंकिंग कर रहे हैं.
आज तक पर एंकर रोहित सरदाना के कार्यक्रम दंगल का एक शीर्षक है- ‘सियासत की लड़ाई, भगवे पर आई.’ इस कार्यक्रम में निशाने पर प्रियंका गांधी है. इसका कारण यह है कि उत्तर प्रदेश में एनआरसी के खिलाफ चल रहे प्रदर्शन में मारे गए लोगों के खिलाफ प्रियंका गांधी ने मुख्यमंत्री योगी को भगवा का मर्म समझने की हिदायत दी थी.
रामलीला मैदान पर प्रधानमंत्री के भाषण के बाद आज तक ने एक प्रोग्राम किया जिसका शीर्षक है- ‘बहकावे में मत आओ, अपनी अक्ल लगाओ.’ लेकिन इस पूरे कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी के बोले गए किसी तथ्य को फिर से जांचने की कोशिश नहीं की गई. इस पर कोई सवाल भी नहीं पूछा गया कि जब प्रधानमंत्री कहते हैं कि एनसीआर पर कोई चर्चा ही नहीं हुई और गृहमंत्री अमित शाह संसद के दोनों सदनों में कह रहे हैं कि सरकार पूरे देश में एनआरसी जल्द से जल्द लाने जा रही है. एक भी चैनल ने इस पर किसी तरह का सवाल नहीं पूछा.
हिन्दी के सभी चैनलों को खंगालकर देख लीजिए, किसी भी चैनल या एंकर ने एक भी ऐसा कार्यक्रम नहीं किया जिसमें 22 दिसबंर को रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री मोदी के किए गए दावों पर कोई सवाल खड़ा किया गया हो. जबकि अगले दिन का इंडियन एक्सप्रेस और कोलकाता से निकलने वाले द टेलीग्राफ ने उस दिन प्रधानमंत्री मोदी के तमाम सच-झूठ का पोस्टमॉर्टम किया था.
‘सीएए की लड़ाई, फैज के नज्म पर आई’, कार्यक्रम में चित्रा त्रिपाठी दो जनवरी को जावेद अख्तर से सवाल पूछती हैं- ‘जावेद साहब, एक आखिरी सवाल, हिन्दुस्तान का मुसलमान क्यों डरा हुआ है? कौन से ऐसे लोग हैं जो अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं और दरअसल यह बताने की कोशिश की जा रही है अगर यह लागू हो जाता है, मोदी सरकार इसे लागू कर देती है…’ सवाल लंबा खिंचते देख जावेद अख्तर उन्हें बीच में टोकते हैं और कहते हैं- ‘आप साइड ले रही हैं. एक एंकर के रूप में आपको बीच में होना चाहिए. पहले तो यह भाषा गलत इस्तेमाल कर रही हैं आप. आप यही बात सरकार की तरफ से बात करने वालों से नहीं कहेगीं… आपने तय कर लिया है कि आप किस साइड में हैं… जर्नलिस्ट को तय नहीं करना चाहिए कि वह किस साइड में है, उसे न्यूट्रल रहना चाहिए.
यह हस्तक्षेप चिंत्रा को असहज कर देता है, लेकिन उनका जवाब काफी ठसक भरा है, ‘…आप हिन्दी-उर्दू के बडे़ हस्ताक्षर हैं, इसलिए आपका एहतराम करते हुए, आपकी इज्जत करते हुए आपको यह बताते चलें कि पत्रकारिता की जो निष्पक्षता है उसका पूरा ध्यान हम लोग रखते हैं, …उत्तर प्रदेश में सिमी के हिंसा भड़काने की बात सामने आई है… जो दंगा-फसाद के जरिए देश को जलाना चाहते हैं, उन पर भी सवाल खड़ा करना चाहिए जो पुलिस को लगातार निशाना बनाते हैं. उनके ऊपर लगातार गोलीबारी की जाती है और पत्थरबाजी की जाती है.’
इस पर जावेद अख्तर व्यंग्य करते हैं- ‘हां… यह मैंने सुना है कि यूपी में पुलिस पर बहुत जुल्म हो रहा है! यूपी में अक्सर पुलिस पर बहुत जुर्म होता है… जुल्म सहने के लिए मशहूर है यूपी की पुलिस… (फिर मुस्कुराते भी हैं) इस पर चित्रा त्रिपाठी कहती हैं कि वह बीजेपी के राकेश त्रिपाठी से यह सवाल जरूर पूछेंगी कि यूपी पुलिस पर इतना जुल्म क्यों होता है?’ यानि चित्रा को या तो व्यंग्य की समझ नहीं है या फिर जानबूझ कर अपनी छीछालेदर नहीं करवाना चाहती थीं.
ईरान के जनरल क़ासिम सुलेमानी की अमेरिका द्वारा हत्या की ख़बर दिन में दस बजे के करीब आ गई थी. शाम तक उसपर एक कार्यक्रम किया जाना चाहिए था कि किस तरह अमेरिका ने मध्य–पूर्व की पहले से ही बेहद खराब हालत को और बिगाड़ दिया है, क्योंकि बगदाद हवाई अड्डे पर हुई यह हत्या अंतरराष्ट्रीय कानूनों का भी उल्लंघन है और एक तरह से ईरान के खिलाफ युद्ध की घोषणा है, लेकिन हिन्दी चैनलों में एनडीटीवी को छोड़कर किसी ने भी उस पर चर्चा की बात तो छोड़िए, अलग से रिपोर्ट भी नहीं की. इसका कारण शायद यह था कि इससे मोदी सरकार के ऊपर प्रतिकूल असर हो सकता था. अब तेल के दाम भी बढ़ सकते हैं. लेकिन चार जनवरी को लगभग सभी चैनलों ने ‘गुरू नानक का अपमान, गुस्से में हिन्दुस्तान’ सरीखा कार्यक्रम किया और बताया कि कितना बर्बर है पाकिस्तान.
हिन्दी टीवी चैनलों का एक सेट पैटर्न है. पैनल में उपस्थित मेहमानों का जिस रूप में परिचय कराया जाता है उसमें एक संघ समर्थक होता है, एक भाजपा के प्रवक्ता होते हैं, एक संघ विचारघारा का होता है, एक एनसीपी या कांग्रेस का समर्थक है, (प्रवक्ता नहीं). एक बीजेपी की सहयोगी पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी का प्रवक्ता और एक जेडीयू का प्रवक्ता है. कुल मिलाकर जो संघ समर्थक है उन्हें राजनीतिक विश्लेषक के रूप में दिखाया जाता है जबकि किसी राजनीतिक विश्लेषक को कांग्रेसी या ममता, सपा या बसपा का समर्थक बताया जाता है. वही कुछ गिने चुने नाम होते हैं जो हर चैनल पर होते हैं, हर जगह मोदी-शाह का जय जयकार किया जाता है और हमारा हिन्दी मीडिया सरकार के पक्ष में बैठकर विपक्षी नेताओं से ही नहीं जनता से भी सवाल पूछती है.