विचारों के मोर्चे पर लड़खड़ाने का साल रहा हिन्दी अखबारों के लिए

कुल मिलाकर हिन्दी अखबारों का चरित्र पूरी तरह से ठाकुरसुहाती को समर्पित हो गया है.

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हिन्दी अखबारों का साल भर की समीक्षा करना एक रस्मी काम रह गया है हालांकि यही बात किसी अंग्रेजी अखबार के लिए भी कोई कह सकता है. अगर किसी चीज की समीक्षा की जरूरत है तो यह कि जिन घटनाओं को हम बड़ी घटना मानते हैं उसे अंग्रेजी अख़बार ने कैसे देखा और उसी घटना को हिन्दी अखबारों ने किस रूप में देखा? इसलिए हिन्दी अखबारों के ट्रेंड को समझने के लिए कुछ बड़ी घटनाओं को केन्द्र में रखा जाए और फिर देखा जाय कि फलां घटना को किस अखबार ने किस तरह से देखा?

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कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दुबारा सत्ता में आना तो निश्चित रूप से रखा जाना चाहिए साथ ही जम्मु-कश्मीर से धारा 370 को खत्म करना, अयोध्या विवाद में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आना, नवंबर के अंत में राहुल बजाज का अमित शाह के सामने प्यार से खरी-खोटी सुनाना, हैदराबाद में बलात्कार के तथाकथित आरोपियों को ‘मुठभेड़’ में मार देना, नागरिकता संशोधन बिल/अधिनियम (सीएबी/सीएए) के अलावा (नेशनल सिटीजन रजिस्टर) एनआरसी जैसी परिघटनाओं को अखबारों ने किस तरह से कवर किया. इसके साथ ही हम कोशिश करेगें कि अखबारों के संपादकीय पेज पर किस तरह के लेख लिखे गए. साथ ही, हम उस सुत्र को पकड़ने की कोशिश भी करेंगे कि आखिर ऐसा क्यों हुआ.

सबसे पहले नरेंद्र मोदी के दोबारा सत्ता में लौटने पर. निश्चित रूप से नरेन्द्र मोदी का सत्ता में दुबारा लौटना महत्वपूर्ण घटना है. क्योंकि मंडल की राजनीति के बाद दूसरी बार एक ही पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में लौटी थी. इतना ही नहीं, इस बार बीजेपी को बीस से अधिक सीटों का लाभ भी मिला था. यह प्रधानमंत्री मोदी का अपना बहुमत था जिसमें स्पष्ट रूप से पार्टी की विचारधारा के अलावा और किसी की कोई भूमिका नहीं थी. इसलिए कोई भी अखबार उस ख़बर को प्राथमिकता के स्तर पर पहली ख़बर बनाता है तो इसे सही ही माना जाना चाहिए. लेकिन हिन्दी अखबारों ने जिस रूप में इसे प्रदर्शित किया वह अखबारों की निष्पक्षता को खंडित करता था. जब मैं ‘निष्पक्षता’ की बात कर रहा हूं तो यह न समझा जाय कि हिन्दी अखबार कभी निष्पक्ष थे! लेकिन एक सजग पाठक को इस तरह की कवरेज अखबारों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा सकता है. चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के तुरंत बाद अखबारों ने एकतरफा मोदी का पक्ष लेना शुरू किया लेकिन ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे और आंतरिक आकलन में बीजेपी के कमजोर होकर उभरने की बात अनौपचारिक रूप से आने लगी, हिन्दी अखबारों ने अपना रूख बदलना शुरू कर दिया था. ‘रुख बदलने’ का मतलब यह नहीं है कि किसी भी अखबार ने मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया, इसका मतलब यह है कि विपक्षी दलों के नेताओं की कुछ बातें भी छपने लगी. चुनावी कवरेज भाजपामय तो था ही, लेकिन पहले फेज के चुनाव तक किसी दूसरे दल को जगह नहीं मिलती थी लेकिन दूसरे फेज में विपक्षी दलों को भी अखबारों के पन्नों पर थोड़ी सी जगह मिलनी शुरू हुई.

चुनाव परिणाम के बाद लंबे समय तक सरकार का यशोगान चलता रहा. तब तक सरकार के सौ दिन पूरे हो गए और फिर उस उपलब्धि को ‘न भूतो न भविष्यति’ के रूप में पेश किया गया. हिन्दी अखबारों की पेशगी ऐसी थी कि यह मोदी जी के अनवरत पांच साल से आगे की उपलब्धि नहीं हैं बल्कि सिर्फ सौ दिनों में उनके किए गए ऐतिहासिक काम का विवरण है.

जब 8 सितंबर को मोदी सरकार के सौ दिन का रिपोर्ट कार्ड पेश किया जा रहा था उसी में तीन तलाक कानून और जम्मु-कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने का आत्ममुग्ध वर्णन था. हरियाणा के रोहतक में प्रधानमंत्री मोदी ने खुद अपनी सरकार के सौ दिनों की उपलब्धियों को कुछ इन शब्दों में गिनाया, ‘ये विकास के, विश्वास के, निर्णय के, निष्ठा के, नेक नीयत के, जन संकल्प के, जन सिद्धियों के, जनहित में सुधार के और देश में बड़े परिवर्तन के दिन रहे हैं.’

सरकार के सौ दिन के मेगा इवेंट को संबोधित करते हुए दिल्ली में केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने जम्मु-कश्मीर से धारा 370 को खत्म किए जाने को मोदी सरकार का पहला मील का पत्थर कहा. चलिए इसे मान लिया जाय कि जम्मु-कश्मीर से धारा 370 हटाया जाना देश हित में सबसे महत्वपूर्ण फैसला है (जो नहीं है) तो इसे स्वीकार किया जा सकता है कि यह बड़ा फैसला है. लेकिन जावड़ेकर ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन इकॉनोमी बनाने को भी मोदी सरकार का दूसरा बड़ा फैसला बताया!

सरकार के इस दावे को सिर्फ इस रूप में समझा जा सकता है कि यह मोदी सरकार की सदइच्छा है कि 2024 तक देश की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर हो जाए. लेकिन इस ख्याली घोषणा को सरकार की उपलब्धि बताना ही दरअसल मीडिया की वैचारिक दरिद्रता की पोल खोल देता है. यह सही है कि अखबार का काम सरकार के दावे को न छापना नहीं है (वह भी तब, जब प्रधानमंत्री खुद अपने श्रीमुख से ये सब बातें बोल रहे हैं) लेकिन उस दावे में क्या सच्चाई है उस पर किसी भी हिंदी अखबार में एक लेख नहीं है. उल्टे इस बात को लेकर टिप्पणी छापी गई है कि सरकार का यह विचार विकास की दिशा को कितना आगे ले जाएगा!

मोदी सरकार की सौ दिनों की उपलब्धियों में दस सरकारी बैंकों के विलय को भी शामिल किया गया जबकि जिसे सरकार अपनी उपलब्धि बता रही थी उसका विरोध उन तमाम बैंकों की यूनियन कर रहे थे. मोदी सरकार ने तीन तलाक को भी अपनी उपलब्धि में शामिल किया. हिन्दी अखबारों ने तीन तलाक को सचमुच बहुत बड़ी उपलब्धि माना और लगभग सभी अखबारों ने इस ख़बर को इतनी प्राथमिकता से छापा जिससे लगा कि अब भारत में और कोई समस्या नहीं रह जाएगी. तीन तलाक के पक्ष में हिन्दी अखबारों ने अभियान चला दिया जबकि कायदे से तीन तलाक कानून की खामियों के बारे में बात करते हुए एक भी लेख किसी हिन्दी अखबार में नहीं दिखे. या कम से कम तीन तलाक का पक्ष लेने वाले कुछ इस्लामी जानकारों, स्कॉलर्स को ही तटस्थता के नाम पर थोड़ा स्पेस देने की जरूरत भी हिंदी अखबारों ने नहीं समझी.

उसके बाद नवंबर और दिसम्बर तो मानो घटनाओं का महीना होकर रह गया. नवंबर के अंतिम दिनों में बैनेट कोलमैन एंड कंपनी के आर्थिक अखबार ‘द इकॉनोमी टाइम्स’ ने दो दिनों का कॉरपोरेट एक्सिलेंस अवार्ड का आयोजन किया था. मुबंई में आयोजित उस कार्यक्रम में अमित शाह की मौजूदगी में पूर्व राज्यसभा सांसद व बजाज उद्योग समूह के अध्यक्ष राहुल बजाज ने सवाल उठाया, ‘भले ही कोई न बोले, लेकिन मैं कह सकता हूं कि आपकी आलोचना करने में हमें डर लगता है कि पता नहीं आप इसे कैसे समझोगे. हम यूपीए-टू सरकार को गाली दे सकते थे, लेकिन डरते नहीं थे, तब हमें आजादी थी. लेकिन आज सभी उद्योगपति डरते हैं कि कहीं मोदी सरकार की आलोचना महंगी न पड़ जाए.’

राहुल बजाज द्वारा उस शाम को की गई यह टिप्पणी पिछले पांच वर्षों के मोदी सरकार के कामकाज और तौर-तरीके पर सबसे बड़ी टिप्पणी कही जा सकती है. क्योंकि जब राहुल बजाज यह बात बोल रहे थे तब वहां देश के तमाम बड़े उद्योगपति जिसमें मुकेश अंबानी, कुमार मंगलम बिड़ला और सुनील मित्तल, अदि गोदरेज, हर्ष गोयनका, सुनील मुंजाल, वेदांता वाले अनिल अग्रवाल जैसे सभी कॉरपोरेट घराने के मालिकान मौजूद थे. लेकिन हिन्दी के किसी भी अखबार ने उस घटना को छापने योग्य नहीं समझा, जबकि अंग्रेजी के सभी अखबारों ने इस ख़बर को पहले पेज पर जगह दिया. कोलकाता से निकलने वाला द टेलीग्राफ और दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस ने उसे लीड ख़बर बनाया था. इंडियन एक्सप्रेस ने इसे पहले पन्ने पर ‘शाह की मौजूदगी में बजाज ने कहा आपसे कोई नहीं कहेगा… पता नहीं आपको आलोचना पसंद है कि नहीं’ शीर्षक से छापा. खबर का उपशीर्षक कुछ इस तरह है, ‘शाह ने कहा डरने की कोई जरूरत नहीं है, पर अगर मूड ऐसा ही है तो हम बेहतर करने के लिए तैयार हैं.’ कुल मिलाकर हिन्दी अखबारों का हाल बेहद शर्मनाक और दयनीय था. इसी खबर को टाइम्स ऑफ इंडिया ने चार कॉलम में दो पंक्ति के शीर्षक के साथ लीड बनाया था. ‘पहले की गलतियां सुधार ली गई हैं, डर की कोई बात नहीं है: इंडिया इंक से शाह.’ इसके साथ इंट्रो भी हैः ‘भरोसा रखिए, मंदी से हम बाहर निकलेंगे.’

उस घटना के तुरंत बाद हैदराबाद में एक वेटनरी डॉक्टर की बलात्कार के बाद हत्या कर दी जाती है, जिसे सभी अखबारों ने प्राथमिकता देकर छापा है लेकिन जब गिरफ्तार मुजरिमों की रात के अंधेरे में ‘मुठभेड़ में हत्या’ होने की बात कही जाती है तो ऐसा लगता है कि अब अखबारों की यह घोषित पॉलिसी हो गई है कि अखबार और उसके संपादक किसी भी तरह के मुठभेड़ के समर्थन में उतर आए हैं. हां, इस मामले में राजस्थान पत्रिका की सराहना करनी पड़ेगी जिसने पुलिस द्वारा अंजाम दी गई इस घटना के खिलाफ लाइन लिया.

थोड़ा समय और बीता. मोदी सरकार ने दिसबंर के पहले हफ्ते में लोकसभा में नागरिकता संशोधन बिल (सीएबी) बिल पेश किया जो आसानी से पास हो गया. तीन दिनों के बाद जब उस बिल को राज्यसभा में पेश किया गया तो जोरदार बहस हुई, अंततः बिल पास हो गया. इस बिल के पास होने के बाद जिस तरह हिन्दी अखबारों ने रुख अख्तियार किया वह निहायत ही गैर जिम्मेदार कहा जाएगा. सीएए का विरोध जब पूरे देश में व्यापक स्तर पर शुरू हो गया तब भी हिन्दी के किसी भी अखबार ने उसे इस रूप में नहीं छापा जिससे पता चले कि पूरे देश में इसको लेकर विरोध हो रहा है. 17 दिसबंर को अंग्रेजी के दो अखबारों हिन्दुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस ने देश मे चल रहे विरोध प्रदर्शन का नक्शा छापकर बताया कि यह विरोध देश किन-किन हिस्सों में फैल चुका था जबकि उसी मीडिया समूह के हिंदी अखबार दैनिक हिन्दुस्तान और जनसत्ता में इस खबर को एक सामान्य ख़बर के रूप में छापा गया. कहने का मतलब यह कि किसी अखबार ने सीएए के विरोध को वरीयता ही नहीं दिया.

इसका मुख्य कारण यह है कि हिन्दी के लगभग सभी अखबारों ने विचार पेज पर अनुवाद छापना शुरू कर दिया है. जिस मीडिया घराने का हिन्दी अखबार है उसमें अंग्रेजी के स्तंभकार अगर सरकार के खिलाफ कुछ लिखते हैं तो मजबूरी में उनका कॉलम हिन्दी में भी छप जाता है. लेकिन जिन मीडिया समूहों का अंग्रेजी अखबार नहीं है उसने लगभग हर दिन कॉलमिस्ट को लिखने के लिए निर्धारित कर दिया है. इसका बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि नए लेखकों या कोई ऐसे लेखक जो बेहतर लिख सकते थे उनके लिए लिखने की कोई जगह शेष नहीं रह गई है. कम से कम दो एडिट पेज के एडिटरों का कहना है कि ऑपएड या संपादकीय पेज को खुला छोड़ने का सबसे बड़ा खतरा यह है कि कई बार सरकार के खिलाफ कटु लेख भी छापने पड़ सकते हैं. लेकिन कॉलम दे देने का लाभ यह होता है कि हम उन्हें पहले से ही आगाह कर देते हैं कि क्या छपेगा और क्या नहीं.

कुल मिलाकर हिन्दी अखबारों का चरित्र पूरी तरह से ठाकुरसुहाती वाला हो गया है. इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि अखबार के मालिक सत्ता से डरते हैं. शायद इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वर्तमान सरकार पश्चिम बंगाल और असम सहित हिंदीपट्टी के बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड, दिल्ली, यूपी और गुजरात पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहती है जहां से 304 सांसद चुनकर आते हैं. यह भी हो सकता है कि वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान की मीडिया घरानों से यही सहमति बन गई हो कि अंग्रेजी अखबार अलग लाइन ले सकता है लेकिन हिंदी अखबार तो सरकारी लाइन ही लेगा!

हिन्दी अखबारों में एक भी सरकार विरोधी खबरें नहीं छप पाती है तो इसका इसका मुख्य कारण यह है कि अखबार के संपादक चाहते ही नहीं हैं कि कोई खबर छपे. उन्होंने खुद को सरकार का अघोषित समझ लिया है. कहने का मतलब यह कि हिन्दी अखबार के संपादक (मालिक नहीं) यह बिल्कुल नहीं चाहते कि अपने पाठकों को सरकार के खिलाफ कोई सूचना मुहैया कराएं. वे ऐसा इसलिए भी करते हैं क्योंकि इससे पाठकों को अनपढ़ बनाए रखने की साजिश मे भागीदारी बनी रहेगी.

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