‘मैं बड़े-बड़े ब्रांड के लिए बैग सिलता हूं, फिर भी बमुश्किल पेट भर पाता हूं’: अनाज मंडी की खाक हो चुके भवन में 10 साल काम कर चुके एक मजदूर की आपबीती

दिल्ली की एक अवैध फैक्ट्री में आग लगने के बाद पांच बच्चों सहित 43 लोगों की मौत हो गई. अब वहां पर प्रवासी मजदूर जीवन की अनिश्चिताओं के साथ इस सच्चाई से तालमेल बिठाने को संघर्षरत हैं.

WrittenBy:अनुमेहा यादव
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पिछले सोमवार को टेलीविज़न चैनलों की गाड़ियां पुरानी दिल्ली के सबसे बड़े थोक बाज़ार, सदर बाज़ार, से मुश्किल से कुछ सौ मीटर की दूरी पर स्थित अनाज मंडी की ओर जाने वाले रास्ते पर जगह पाने के लिए धक्का मुक्की कर रही थीं.

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संकरे अंधेरे रास्ते के मुहाने पर, जिसके दोनों तरफ लंबी लंबी इमारतें हैं, अब जिला मजिस्ट्रेट ने एक आपदा प्रबंधन डेस्क लगा दिया है जहां पर तीन पुलिसकर्मी तैनात हैं. पुलिस ने लोहे का बैरिकेड और पीला और सफ़ेद बैरियर टेप लगाकर घेर दिया है. ताकि वहां पर आवाजाही रोकी जा सके लेकिन कोई भी उस टेप को उठाकर गली में जा सकता है.

गली में एक कालिख से ढंकी गुलाबी दीवारों वाली इमारत के बाहर भीड़ जमा हो गई थी. यहां पिछले रविवार को सुबह-सुबह आग लग गई थी, जिसकी चपेट में सौ से अधिक मजदूर आ गए थे. एक दशक में दिल्ली की सबसे विनाशकारी आग में बच्चों सहित 43 मजदूरों की मौत हो गई जबकि 60 मजदूर गंभीर रूप से घायल हो गए. इस पांच मंजिला इमारत में एक कारखाना चल रहा था जिसके बारे में सरकारी अधिकारियों का कहना है कि न ही उस इमारत को व्यवसाय का परमिट था और ना ही अग्नि सुरक्षा का प्रमाणपत्र. अगर दूसरे शब्दों में कहें तो यह दिल्ली में चल रहे हज़ारों अवैध कारखानों में से एक था.

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गली के प्रवेश द्वार पर आपदा प्रबंधन डेस्क लगायी गई है

सोमवार को सुबह-सुबह, स्वेटर और जीन्स पहने हुए एक लंबा गंजा आदमी जिसकी आखों में नींद भरी हुई थी एक स्थानीय मदरसे के प्रतिनिधि को उस क्षेत्र के बारे में समझा रहा था. वो कहता है, “बिहारी यहां पर इकठ्ठा होते हैं. जैसे ही किसी को यहां पर थोड़ा सा सहारा मिलता है वो अपना पूरा गांव यहां लाकर बसा देता है.”

‘खाने के लिए पैसे नहीं हैं’

जहां एक तरफ वहां के कुछ निवासी और फैक्टरियों के मालिक इस बात पर सहमति जताते हैं, वहीं से थोड़ी दूर पर कुछ युवक गली में दो-दो, चार-चार के समूह में खड़े दिखाई देते हैं.

प्रकाश दास उन्हीं में से एक थे. वह और बीजू मंडल (28) थकी और चकित आंखों से भीड़ को देख रहे थे. वो दोनों खाक हो चुकी इमारत के बगल वाली इमारत में बैग बनाने वाली फैक्ट्री में काम करते हैं. उन दोनों ने शनिवार रातसे कुछ नहीं खाया है और पिछले 42 घंटों से भूखे हैं. 33 वर्षीय प्रकाश बताते हैं, “हमारा 1,500 रुपये का साप्ताहिक वेतन रविवार को मिलना था लेकिन रविवार को आग लग गई जिसकी वजह से हमारा फैक्ट्री मालिक भी कहीं चला गया है. हमारे पास खाने को पैसे नहीं हैं.”

दास झिझकते हुए और बार-बार यह देखते हुए कि कही कोई मालिक या वहां का निवासी उनकी बातें न सुन ले यह सब बातें बताते हैं. गली के जिस तरफ वो खड़े हुए हैं वहां कूड़े में जली हुई तारें और बड़े-बड़े चूहे जलकर मरे पड़े थे.

अनाज मंडी से दूर जाते हुए दास बताते हैं, “तीन महीने पहले यहां के एक निवासी की एक बिहारी मजदूर से बहस हो गई जिसके बाद उसने उस बिहारी मजदूर को खूब मारा. अब अगर उनमें से कोई मुझे एक थप्पड़ मार देगा तो मैं क्या कर पाऊंगा?”

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अनाज मंडी से बाहर जाते हुए प्रकाश दास

रविवार को सुबह मरने वाले कई मजदूरों की तरह, दास उत्तर बिहार के दरभंगा जिले के वाजिदपुर गांवे के रहने वाले हैं. यह गांव नेपाल की सीमा से लगभग 80 किमी दूर है. दास 14 साल की उम्र में दिल्ली आ गए थे. उन्होंने इस गली में चल रही अंधेरी और दम घोंटू छोटी फैक्टरियों और कारखानों में अपनी पूरी जिंदगी काट दी है.उस आग की चपेट में आकर अपनी जान गंवा चुके मजदूरों की तरह ही उन्होंने खाक हो चुकी फैक्ट्री में 10 साल तक बैग सिला है.

उन्हें एक बैग की सिलाई के एवज में 30 रुपये मिलते थे. वो प्रतिदिन 50 बैग सिलते थे लेकिन वो बताते हैं कि अक्सर पूरे हफ्ते का आर्डर ही 50 बैग होता था. वो औसतन 6,000 रुपये महीना कमाते थे. वो उसी इमारत में रहकर किराया बचाते थे. चूंकि उस इमारत में एक मंजिल पर लगभग 30 मजदूर रहते थे इसलिए वहां पर जरूरत से ज्यादा भीड़ हो गई थी. इसलिए दास और उनके भाई मई में दूसरी इमारत में शिफ्ट हो गए. उन दोनों ने साझेदारी में एक इलेक्ट्रॉनिक सिलाई मशीन खरीदी. वो बताते हैं कि अब 500 रुपये का साप्ताहिक किराया और दिन में दो बार के खाने के 100 रुपये के खर्चे के बाद पैसे बचाने के लिए सुबह का नाश्ता नहीं करते ताकि पैसे बचा सकें लेकिन फिर भी कोई खास बचत नहीं हो पाती है.

जलकर खाक हो चुकी फैक्ट्री में उन्होंने और उनके साथी मजदूरों ने पिछले कुछ वर्षों में कई प्रमुख कारपोरेट ब्रांडों और सरकारी ठेकेदारों के लिए पिटठू बैग या बैगपैक सिले हैं. वो बताते हैं, “हमने एयरटेल और वोडाफोन के लिए बैग सिले हैं, जो वो अपने स्टाफ को देते हैं. जोमैटो के लिए बैग सिले हैं जो वो अपने डिलेवरी बॉय को देते हैं. हमने ऐसे बैग भी सिले हैं जो सरकार या कंपनियां सार्वजानिक कार्यक्रमों के जरिए जनता को बांटती हैं. अभी हम झारखंड सरकार के लेबल वाले बैग के बड़े आर्डर को पूरा करने का काम कर रहे थे. उसके पहले हमने उत्तर प्रदेश सरकार के लेबल वाले और जयललिता के लेबल वाले बैग और खाने के डिब्बे बनाने वाली कंपनी के लिए टिफ़िन बैग भी सिले थे.”

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‘हवा ज़हरीली लगती है’

दास के मुताबिक कितना आर्डर है या कितना काम है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. मजदूरों को हर रोज, रविवार छोड़कर, सुबह 10 बजे से रात एक बजे तक मशीनों पर ही रहना पड़ता है.

पुरुषों के साथ साथ इन फैक्ट्रियों में बच्चे भी काम करते थे. दास बताते हैं, “मालिक आमतौर पर हर दो मशीनों के बाद एक बच्चा बिठाया करता था. मुझे उन बच्चों के बारे में सोच सोच कर बहुत बुरा लगता है.” दास ने खुद 14 साल की उम्र में पहाड़गंज स्थित एक ऐसी ही फैक्ट्री में एक दर्जी के तौर पर काम शुरू किया था.

वो बताते हैं कि न सिर्फ बच्चे बल्कि बाकि मजदूर भी अक्सर काम करते समय खुद को चोट लगा लेते हैं. उन्होंने अपने हाथ का अंगूठा दिखाया जिसमें ऊपर की तरफ सिलाई मशीन की सुई धंस गई थी. वो कहते हैं, “जब सुई घुसती है तो भयानक दर्द होता है इतना कि किसी किसी को तो चक्कर तक आ जाता है और कुछ लोग तो अपनी मशीन तक फेंक देते हैं.”

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बच्चों को प्रशिक्षुओं की तरह सिलाई मशीन पर नौ से 12 महीने तक काम करवा कर बैग सिलना सिखाया जाता है. इस अवधि में फैक्ट्री मालिक रात में इमारत में रुकने के लिए किराये के रूप में प्रत्येक बैग की सिलाई के मेहनताने से 5 रुपये काट लेते हैं. जो पुरुष वहां पर कई सालों से काम कर रहे हैं उन्हें वो किराया नहीं देना पड़ता. आधी रात के बाद, मजदूर अपनी अपनी सिलाई मशीन एक किनारे लगा देते हैं और बैगपैक पर पॉलिस्टर का कपड़ा बिछा कर सोते हैं. चूंकि इमारत में भीड़ बढ़ गयी थी इसलिए उसके मालिक, रेहान- जिसे अब गिरफ्तार किया जा चुका है, ने पांचो मंजिलों पर दो दो शौचालय बनवा दिए थे.

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अनाज मंडी में रहने वाले लोग प्रवासी मजदूरों को शक की नज़र से देखते हैं: प्रकाश दास

एक केयरटेकर सभी मजदूरों को रात में बिल्डिंग में बंद कर देता था और नीचे जाने वाली सीढ़ियों को भी आधी रात से लेकर सुबह 6 बजे तक के लिए अवरुद्ध कर देते थे. इसके पीछे की वजह दास बताते हैं, “ऐसा इसलिए किया जाता था क्योंकि यह एक आवासीय क्षेत्र है और यहां के निवासी बिहार और उत्तर प्रदेश से आये हुए हम जैसे प्रवासियों से सुरक्षित महसूस कर सकें. ऐसे में अगर कोई इमरजेंसी सामने आ जाये या कोई मजदूर बीमार हो जाये तो हम केयरटेकर को फ़ोन करके उसे बुलाते हैं और फिर बाहर जाते हैं.”

दास और बाकि के मजदूरों ने बताया कि रविवार को जब सुबह आग लगी तो मजदूरों के पास वहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं था क्योंकि वो अंदर बंद थे. उसी गली में एक दूसरी फैक्ट्री में बैग सिलने का काम करने वाले बिहार के मधुबनी जिले के मलमल गांव के रहने वाले मजदूर अब्दुल कलाम ने बताया, “केयरटेकर ने सबसे निचली मंजिल और सबसे ऊपर वाली मंजिल का दरवाजा बंद कर दिया था. सबसे ऊपरी मंजिल की एक खिड़की को तोड़कर अंदर फंसे कुछ लोगों को निकाला जा सका.”

दास ने बताया कि शनिवार को देर रात तक काम ख़त्म कर के वो मुश्किल से चार घंटे सो पाए थे कि उनका फ़ोन बजने लगा. उन्होंने बताया, “हमारे केयरटेकर ने भी हमें बंद कर दिया था. आख़िरकार जब किसी ने हमारी बिल्डिंग का दरवाजा खोला तो वहां के स्थानीय निवासी चिल्ला चिल्ला कर हमसे कह रहे थे कि हम पुलिस के आने तक वहां से दूर रहे.”

दास ने बताया कि सुबह उन्होंने अपनी खिड़की से गिना, एम्बुलेंस में 56 मजदूरों को ले जाया गया. जिनमें से कई उनके मित्र थे और कई ने उनके साथ काम किया हुआ था. जब फैक्ट्री का ताला खोला गया तो कुछ लोग सिर्फ जंघिया-बनियान में बाहर आये. दास ने उनमें से कुछ को अपने कपडे और जूते दिए. उन्होंने बताया, “12 लोग ऐसे थे जिनके साथ मैंने कई सालों तक साथ में काम किया वो मर गए. कम से कम दर्जन भर और हैं जिनसे मेरा संपर्क नहीं हो पा रहा है.”

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दास बताते हैं कि अग्निकांड के बाद से उन्हें रह-रह कर घबराहट होती है. जब भी वो इस घटना का जिक्र किसी से करते हैं या किसी कारखाने का मालिक उन्हें बुलाता है तो उनके दिल की धड़कन बढ़ जाती है. वो इस भयानक अग्निकांड की यादों को भुलाने के लिए दरभंगा में अपने परिवार के पास जाना चाहते हैं लेकिन वहां आने जाने में उनके कम से कम 1,000 रुपये खर्च हो जायेंगे जबकि उनके पास तो इस समय खाना खाने तक के पैसे नहीं हैं.

मॉडल बस्ती के बस स्टॉप के पास खड़े वहां आती जाती कारों और बसों को देखते हुए दास कहते हैं, “मैं कहीं और बीमार नहीं पड़ता हूं, लेकिन जब दिल्ली में होता हूं तो बीमार पड़ जाता हूं. यहां एक घुटन सी होती है और हवा ज़हरीली लगती है.”

एक पार्क में बैठे दास यह सोच रहे हैं कि वो पूरा दिन क्या करेंगे. फिर शाम को 4 बजे के आसपास उनके भाई प्रमोद, जिन्होंने उनके साथ काम किया था, ने बताया कि उनके फैक्ट्री मालिक ने पिछले सप्ताह की मजदूरी 1,500 रुपये, का भुगतान कर दिया है. फ़ोन पर बात करते ही दास के चेहरे पर राहत के भाव देखे जा सकते थे. उन्होंने कहा कि मैंने अपना मन बदल लिया है. अब मैं दो हफ्ते और काम करूंगा फिर कुछ पैसे बचा कर ट्रेन से अपने घर जाऊंगा.

उसी रात कारखाने के मालिक ने सभी इलेक्ट्रिक सिलाई मशीनों को मॉडल बस्ती में एक बिल्डिंग में शिफ्ट करने के लिए कहा. अपने सामान को अपने हरे रंग के बैगपैक में रखते हुए दास ने बताया, “रातोरात अनाज मंडी से सिलाई मशीनें हटा दी गई.”

एक पुराने सिनेमाघर, फ़िल्मिस्तान, से होते हुए अनाज मंडी से बायीं ओर जाने वाली सड़क पर मुड़कर दास अनाज मंडी से बाहर निकल आए. सड़क के आखिर में वो एक पतली सी गली में मुड़े और एक बिल्डिंग की चौथी मंजिल पर जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ने लगे. हर मंजिल पर कुछ युवक एवं किशोर इलेक्ट्रिक मशीनों पर बैठे बैगपैक, लैपटॉप बैग या लंचबॉक्स बैग सिल रहे थे.

दास ने चौथी मंजिल के एक कमरे में अपना बैग रख दिया. कुछ स्लेटी बैगपैक और कपड़े पूरे फर्श पर बिखरे हुए थे और पांच युवक सिलाई के काम में लगे हुए थे. दास ने बताया, “अभी के लिए, इस बाजार के मेरे सबसे पुराने मित्र, नूरिया, ने मेरे लिए सिलाई मशीन का जुगाड़ करवा दिया है.”

‘यहां जानवरों की तरह काम होता है’

अनाज मंडी में कुछ कारखानों के मालिक इस बात की पुष्टि करते हैं कि उन्हें बड़े-बड़े कारपोरेट और सरकारी एजेंसियों के लोगो एवं लेबल वाले बैग और बैगपैक बनाने के आर्डर मिलते हैं लेकिन इनमें से किसी के साथ भी औपचारिक अनुबंध नहीं है.

एक युवा मैन्युफैक्चरर, आमिर इक़बाल इस काम के तौर-तरीके के बारे में बताते हैं. वो बताते हैं, “एयरटेल, वोडाफोन, रिलायंस या कर्नाटक सरकार जैसी बड़ी संस्थाएं अपने किसी कार्यक्रम के लिए अपने कर्मचारियों के लिए बैग या गुडगांव या ओखला स्थित अपने ऑफिस आने के लिए बैग का आर्डर देते हैं. वो रैगरपुरा, करोल बाग़ स्थित किसी फर्म को आर्डर देते हैं जो फिर मानकपुरा और पुरानी दिल्ली में शिदिपुरा के किसी व्यापारी को आर्डर देते हैं.”

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वो आगे बताते हैं, “अगर शिदिपुरा के किसी व्यापारी के पास आर्डर आता है तो वे हमारे जैसे 10 अलग-अलग मैन्युफैक्चरर से व्हाट्सएप पर जानकारी लेते हैं कि हम कितना पैसा लेंगे और कितना मार्जिन लेना चाहिए. कभी-कभी हम आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं और कभी-कभी आर्डर को आपस में बांट लेते हैं.”

खाक हो चुकी इमारत के बेसमेंट में पुलिसकर्मी

ऑनलाइन कंपनियों के डिलेवरी एजेंटों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले बड़े बैग पर इक़बाल की फर्म आमतौर पर 50-60 रुपये प्रति बैग का मुनाफा कमाती है. इक़बाल कहते हैं, “अगर ऑर्डर हमारे पास नहीं आता तो वो वज़ीराबाद, सीलमपुर, नबी करीम- जो कि दिल्ली का एक अन्य अनौपचारिक मैन्युफैक्चरिंग हब है- में किसी को आर्डर दे देते हैं.”

अनाज मंडी के एक अन्य व्यापारी फैज़ान कहते हैं, “चेन पे चेन है. यह एक बहुस्तरीय प्रोडक्शन है और हम अभी एकदम निचले स्तर पर हैं. फिर हम काम मजदूरों को दे देते हैं जो यहां पर 1,500 किमी दूर से आते हैं.”

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फैज़ान आगे कहते हैं, “कोल्हू के बैल के बारे में आपने सुना होगा, जिसकी आंखें बंद कर दी जाती हैं? मजदूर भी ऐसे ही होते हैं, उन्हें अक्सर ये नहीं पता होता है कि कौन उनका शोषण कर रहा है.”

( पहचान छिपाने के लिए कुछ नाम बदल दिए गए हैं.  सभी फोटो अनुमेहा यादव द्वारा ली गई हैं )

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