जो बच्चे क्लास में बोलने से डरते थे अब कर रहे हैं अभिनय

शिक्षिका की कोशिश से क्लास में गुमसुम रहने वाले बच्चों में आया ये बदलाव.

WrittenBy:शिरीष खरे
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महाराष्ट्र में समुद्री तट और सह्याद्री की पहाड़ियों के चलते पर्यटकों को लुभाने वाले रत्नागिरी जिले का एक सरकारी स्कूल ऐसा है जो शिक्षिका की विशेष शिक्षण पद्धति और उससे बच्चों में आ रहे बदलाव के कारण इन दिनों अपना ध्यान आकर्षित कर रहा है.

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रत्नागिरी शहर से करीब 50 किलोमीटर दूर जिला परिषद आदर्श शाला वाकेड-2 की शिक्षिका निर्मला राणे उन शिक्षक और शिक्षिकाओं के लिए मिसाल साबित हो सकती हैं, जो तरह-तरह के प्रयास के बावजूद गुमसुम रहने वाले बच्चों की झिझक और घबराहट दूर करने में सफल नहीं हो पाते हैं.

निर्मला ने दो साल की मेहनत के बाद ऐसा बदलाव लाया कि जो बच्चे कभी बात करने में ही डरते थे और सवाल पूछने पर ही स्कूल से भाग जाते थे, आज वहीं शिक्षिका और स्कूल में आने वाले मेहमानों से साक्षात्कार लेते हैं.

यही नहीं, ये बच्चे कई कहानियों पर नाटक भी कर रहे हैं. निर्मला पढ़ाने की परंपरागत तौर-तरीकों से अलग कुछ नए तौर-तरीकों को इसका नतीजा मानती हैं.

इसी स्कूल में कक्षा चौथी के बच्चे एक वृत्ताकार में बैठे हैं. ये बच्चे बारी-बारी से एक पुस्तिका में शामिल एक कहानी ‘ईमानदारी का फल’ पढ़ते हैं. फिर इस कहानी पर नाटक करने के लिए आपस में मिलकर पात्रों का चयन करते हैं. नाटक में ओंकार, अब्दुल सेठ, प्रदीप और सुनील अब्दुल सेठ के बेटे और भक्ति अब्दुल सेठ की बेटी के पात्र निभाते हैं. लगभग पांच मिनट के इस नाटक में बूढ़े हो चुके अब्दुल सेठ अपने बच्चों में से किसी एक को आम के बगीचे की जिम्मेदारी सौंपने के लिए उनकी परीक्षा लेते हैं. इसके लिए वे तीनों बच्चों को एक जैसा काम देते हैं.

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अंत में, अब्दुल सेठ अपनी बेटी रुखसाना की ईमानदारी से खुश होकर उसे आम की जिम्मेदारी सौंपते हैं. नाटक खत्म होने के बाद सभी बच्चे ताली बजाते हैं. इसके बाद वे ईमानदारी के बारे में बात करते हैं. निर्मला बताती हैं, ‘‘कुछ साल पहले यही बच्चे सवाल पूछने पर घबरा जाते थे. नाटक करने के बारे में तो कोई सोच भी नहीं पाता था. इनमें से किसी बच्चे से यदि कुछ बोलने के लिए खड़ा करते थे तो शर्म और डर से सिर झुका लेते थे. लेकिन, अब यही बच्चे कहानियों पर नाटक भी करते हैं और उस विषय में चर्चा भी करते हैं.’’

निर्मला आगे कहती हैं, ‘‘ऐसा नहीं कि मैंने दो साल पहले इन बच्चों को अच्छी तरह पढ़ाने और पढ़ाई में इनकी रुचि जगाने के लिए कोशिश नहीं की थी. मैंने बहुत कोशिशें की थीं, पर कोई बात नहीं बन पा रही थी. मैं बच्चों से जब ज्यादा सवाल पूछने लगी तो देखा कक्षा में बच्चों की उपस्थिति बहुत कम हो गई है. मेरे लिए बच्चों को अच्छी तरह से पढ़ाना और सिखाना बड़ी चुनौती बन गई थी. लेकिन, इसके लिए मैं क्या करुं? इस बारे में मुझे किसी तरह का कोई मार्गदर्शन नहीं मिल पा रहा था. मुझे लगता रहता था कि मुझमें ही कमी है.”

निर्मला के मुताबिक,  वर्ष 2017 में तहसील स्तर पर वाकेड से करीब 12 किलोमीटर दूर लांजा में मूल्यवर्धन की कार्यशाला आयोजित हुई थी. चार दिनों की इस कार्यशाला में हिस्सा लेने के बाद उनके शिक्षण के तौर-तरीके में बदलाव आया. वे बताती हैं, ”पहले मैं बच्चों को पंरपरागत तरीके से पढ़ाती थी, मगर उस तरह पढ़ाने से ज्यादातर बच्चे पढ़ाई में भागीदार नहीं बन पाते थे. फिर, जब मैंने मूल्यवर्धन का प्रशिक्षण लिया तो समझ आया कि किसी एक पाठ को अलग-अलग और अच्छी तरह से कैसे समझाया जा सकता है.”

निर्मला का कहना है कि पढ़ाने के लिए पहले वह ब्लेक-बोर्ड, चाक और किताबों तक सीमित थीं, मगर मूल्यवर्धन की गतिविधियों कराने के बाद उन्होंने जाना कि पढ़ाई के दौरान और भी चीजों को शामिल किया जा सकता है. इसके अलावा, बच्चों को सिखाने के लिए तरह-तरह के खेल भी कराए जा सकते हैं. वर्ष 1971 में स्थापित यह एक मराठी माध्यम का स्कूल है. इसमें पहली से चौथी तक कुल 44 बच्चे पढ़ते हैं. इनमें 27 लड़के और 17 लड़कियां हैं. मंगला परुलेकर इस स्कूल की एक अन्य शिक्षिका हैं और प्रकाश भोवडे यहां के प्रधानाध्यापक हैं.

प्रकाश भोवडे बताते हैं कि कई बार वे खुद मूल्यवर्धन की गतिविधियों में शामिल हुए हैं. इस दौरान उन्होंने देखा कि बच्चे खुद का काम खुद करना सीख रहे हैं. वे हर दिन किए जाने वाले जरुरी कामों के बारे में भी समझ रहे हैं. बच्चे स्कूल परिसर को स्वच्छ रखने का प्रयास भी कर रहे हैं.

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मंगला बताती हैं कि बच्चों का मूल्यांकन करने के लिए हमारे पास परीक्षा के अलावा कोई तरीका नहीं था. लेकिन, मूल्यवर्धन में बच्चों का कई तरह से मूल्यांकन होता रहता है. इस मूल्यांकन की विशेषता यह है कि इसमें कोई भी बच्चा निराश नहीं होता है. यही वजह है कि कक्षा में अधिक बच्चे उपस्थित रहने लगे हैं.

मंगला निर्मला के पढ़ाने में आए अंतर के बारे में बताती हैं. वे कहती हैं, ”पहले वे (निर्मला) पूरी तरह पाठ्यक्रम तक केंद्रित थीं. ऐसा इसलिए कि हमारे पास शैक्षणिक साहित्य था ही नहीं,  इसलिए निर्मला चाहकर भी कुछ अलग नहीं सोच पाती थीं. लेकिन, मूल्यवर्धन के प्रशिक्षण के बाद उन्होंने जो गतिविधियां कराईं,  उससे उन्हें खुद भी मजा आने लगा. निर्मला मुझसे अक्सर कहती रहती है कि बच्चे उससे बहुत सवाल पूछने लगे हैं, इसलिए उसे अच्छा भी लगता है, और कक्षा में आने से पहले उसे खूब तैयारी भी करनी पड़ती है. अब वह पहले से अधिक जिम्मेदार हो गई है.”

निर्मला कक्षा में बच्चों की उपस्थिति बढ़ने के बारे में बताती हैं. वे कहती हैं, मैंने पढ़ाने के लिए नई तकनीक अपनाई है. यह शिक्षण की पांपरागत तकनीक से बिल्कुल अलग और बच्चों के लिए ज्यादा दिलचस्प है. इसमें जोड़ी, समूह और वृत्त में चर्चा करने पर जोर देता है. इसके अलावा, इसमें सभी बच्चे आपस में अपनी बातें साझा करते हैं. इस तरह, सभी को प्रतिनिधित्व मिलता है. वे मिलकर निर्णय लेते हैं. जब मैंने देखा कि मेरी इस तरह की कोशिशों के कारण बच्चों को मजा आ रहा है, इसलिए शिक्षण के लिए मैंने ऐसे तौर-तरीकों को बढ़ावा दिया.”

चौथी क्लास में पढ़ने वाली पायल भितड़े बताती है कि इस तरह की कक्षा में उसने अधूरी कहानियों को पूरा करना सीखा. चौथी की ही पद्मनी कहती है कि पहले वह स्कूल न आने के लिए बहुत सारे बहाने बनाती और झूठ बोलती थी, मगर जब से इस तरह की गतिविधियों में शामिल कविता और कहानियों को खेल-खेल में जाना और उन पर आपस में चर्चा की तो उसके जीवन पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा. उसने झूठ बोलना कम कर दिया है. अब वह समय पर स्कूल आती हैं.

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निर्मला बच्चों द्वारा किए गए नाटक के बारे में बात करती हैं. वे बताती हैं कि जब हमारे आसपास ईमानदारी खत्म होती जा रही है, तब बच्चों का इस विषय में नाटक करना बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है.

इस नाटक में अभिनय करने वाले ओंकार भितड़े कहते हैं,”इसे करने पर हमने जाना कि ईमानदारी क्या होती है, और हम ईमानदारी कैसे बन सकते हैं.”आखिर में निर्मला कहती हैं,”यदि छोटी उम्र में ही हमने इन बच्चों में मूल्यों के बीज डाल दिए, तो उन मूल्यों का असर पूरी जिंदगी उन पर रहेगा.”

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