सरकारी फिल्म फेस्टिवल का 50वां आयोजन

सन 2004 में गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोहन पर्रिकर के प्रयास व लॉबिंग और केंद्र सरकार की सहमति से इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का स्थाई ठिकाना गोवा तय कर दिया गया.

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धन्यवाद पंडित जी!

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पंडित जी यानी देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू… इस लेख की शुरुआत में उनको धन्यवाद देने के साथ उन्हें याद करना जरूरी है. सभी जानते हैं कि 20 नवंबर से गोवा में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ़ इंडिया(इफ्फी) आरंभ हो चुका है. यह इसका 50 वां आयोजन है. जाहिर सी बात है कि 50 आयोजनों के इस सफर को रेखांकित करते हुए भव्य तैयारियां हुई थीं. खबरें आ रही थीं कि फिल्म फेस्टिवल का प्रतीक चिह्न मयूर गोवा की गलियों और चौराहों,दीवारों और होर्डिंग पर सज गए हैं. उद्घाटन समारोह की तैयारियां हो चुकी हैं. मुंबई से करण जौहर मेजबानी के लिए पहुंचे. सूचना एवं प्रसारण मंत्री को तो होना ही चाहिए था. आश्चर्य हुआ कि इस 50 में आयोजन में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की आकस्मिक मौजूदगी क्यों नहीं हुई?

पंडित जवाहरलाल नेहरू को धन्यवाद देने के साथ याद करने की बड़ी वजह है कि उनकी पहलकदमी से ही 1952 में पहली बार मुंबई में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन हुआ था. मेरी आशंका सही निकली कि वर्तमान भाजपा सरकार के प्रतिनिधि पंडित नेहरू के आरंभिक योगदान को नजरअंदाज करेंगे. उन्हें तो नेहरू नाम से ही एलर्जी है. नेहरु ने देश में विभिन्न संस्थाओं की नीँव डाली.आज उन संस्थाओं के कामों का हासिल अपने हिस्से में लेने के साथ वर्तमान सरकार नेहरु के योगदान को मिटाने में लगी ही. आश्चर्य नहीं हुआ कि फेस्टिवल के उद्घाटन भाषण में पंडित जवाहर लाल नेहरु का उल्लेख तक न हुआ. नेहरु का नाम लेने के नाम पर उनकी सांसे जो अटकने लगती हैं. मज़ेदार तो यह है कि करन जौहर,अमिताभ बच्चन और रजनीकांत को भी पंडित नेहरु याद नहीं आये. यह भी हो सकता है कि उन्हें ऐसी कोई हिदायत दे दी गयी हो.

बहरहाल, रिकॉर्ड के लिए याद कर लें कि पंडित जवाहरलाल नेहरु की पहल पर 29 अगस्त 1949 को फिल्म इंक्वायरी कमेटी का गठन हुआ था. एस के पाटिल इसके अध्यक्ष थे और कमेटी के प्रमुख सदस्यों में मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री से वी. शांताराम और बंगाल की फिल्म इंडस्ट्री से बी एन सरकार शामिल थे. इंक्वायरी कमेटी ने देश की जरूरतों और हालत के मद्देनजर 1951 में रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट में भारत में फिल्म के विकास के लिए जरूरी संस्थानों के गठन की रूपरेखा तय की गई. इसी के तहत पंडित नेहरू के सानिध्य में देश के पहले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन मुंबई में हुआ था. इस फेस्टिवल में 23 देशों की फिल्में आई थीं. अमेरिका ने 40 फीचर फिल्में और 100 शार्ट फिल्में भेजी थीं. 24 जनवरी से 1 फरवरी के बीच आयोजित इस फिल्म फेस्टिवल में देश के अनेक युवा फिल्मकारों ने शिरकत की थी. मुंबई के आयोजन के बाद चेन्नई, कोलकाता और त्रिवेंद्रम में सारी फ़िल्में दिखाई गई थीं. पहले आयोजन के बाद किंचित कारणों से 9 सालों का अंतराल रहा. फिर 1961 में दूसरी बार के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन दिल्ली में हुआ. उसके बाद से एक साल दिल्ली और एक साल किसी और शहर में फिल्म फेस्टिवल के आयोजन का सिलसिला चलता रहा.

सन 2004 में गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोहन पर्रिकर के प्रयास व लॉबिंग और केंद्र सरकार की सहमति से इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का स्थाई ठिकाना गोवा तय कर दिया गया. कोशिश और चाहत थी कि दुनिया के दूसरे लोकप्रिय फिल्म फेस्टिवल की तरह भारत के फेस्टिवल का भी एक स्थाई ठिकाना हो, जो पर्यटन के लिहाज से भी आकर्षण का केंद्र हो. कान,बर्लिन और वेनिस की तरह भारत का भी कोई शहर फेस्टिवल के नाम से जाना जाए. मौसम, परिवेश और माहौल के लिहाज से गोवा फिल्म फेस्टिवल के आयोजन के लिए उपयुक्त शहर माना गया. धूप, रेत और समुद्र के साथ गोवा का पुराना खुलापन इस फेस्टिवल के माहौल के लिए माकूल रहा. अगर तभी इसका नाम गोवा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल रख दिया जाता तो शायद कुछ और बात होती. यों इस बार श्री मोहन पर्रीकर को याद किया गया और यह अच्छी बात रही.

आरंभिक सालों में इंफ्रास्ट्रक्चर और थिएटर की कमी से फिल्मप्रेमियों और विदेशों से आए प्रतिनिधियों को परेशानियां उठानी पड़ीं. 14 सालों के निरंतर आयोजन के बाद गोवा में फिल्म प्रदर्शन व् फेस्टिवल की एक पद्धति विकसित हो चुकी है. अभी तक की सूचना के मुताबिक इस साल 10,000 से अधिक डेलीगेट फिल्म फेस्टिवल में हिस्सा ले रहे हैं. इन्टरनेट और ऑनलाइन की वजह से रियल टाइम लाइन रिपोर्टिंग की सुविधा और डिजिटल तकनीक के उभार के कारण फेस्टिवल कवरेज में पत्र-पत्रिकाओं की रुचि कम हो चुकी है. कुछ सालों पहले तक छोटे-बड़े अखबारों के संवाददाता और संपादक फिल्म फेस्टिवल के दिनों में गोवा में डेरा जमाए रहते थे. यह मौका होता था कि दुनिया में बन रही बेहतरीन फिल्मों की जानकारी अपने पाठकों और दर्शकों को दी जा सके. सोशल मीडिया, ओटीटी प्लेटफॉर्म, इंटरनेट स्ट्रीमिंग के इस दौर में बेहतरीन फिल्मों की जानकारी और उपलब्धता आसान हो गई है. फिर भी फिल्म फेस्टिवल की उपयोगिता और प्रासंगिकता बनी हुई है. फेस्टिवल संस्कृति फैल रही है और अनेक नामों से छोटे-बड़े स्तर पर पूरे देश में विभिन्न संस्थाओं और संस्थानों की मदद से फिल्म फेस्टिवल आयोजित हो रहे हैं. यह विडंबना ही है कि फिल्म संस्कृति और समझदारी के प्रचार और प्रसार के बावजूद ‘टोटल धमाल’, ‘हाउसफुल 4’, ‘मरजावां’ और ‘पागलपंती’ जैसी फिल्मों के दर्शक बढ़ते ही जा रहे हैं. आम दर्शकों के लिए आज भी फिल्में मनोरंजन का सस्ता माध्यम बनी हुई हैं. फिल्मों की कलात्मक समझ और समझदारी धीमी गति से पसर रही है.

आज पेइचिंग,फिंगयाओ,टोक्यो,सिंगापुर,हांगकांग और बुशान इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की धूम है, लेकिन हमें यह मालूम होना चाहिए कि इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया एशिया का पहला फिल्म फेस्टिवल है. इसने इस साल 50 आयोजनों का सफर पूरा किया. पहले आयोजन में सिर्फ 23 देशों की फिल्में शामिल हुई थीं. इस साल 65 से अधिक देशों की फिल्में गोवा में देखी जा सकती हैं. 50वां फिल्म फेस्टिवल कई मायने में विशेष और महत्वपूर्ण है. इस साल वर्ल्ड पैनोरमा, इंडियन पैनोरमा, इंटरनेशनल कंपटीशन, डेब्यू फिल्म कंपटीशन,आईसीएफ़टी यूनेस्को गांधी मेडल, फेस्टिवल क्लाइडोस्कोप, मास्टर फ्रेम्स, रेट्रोस्पेक्टिव केन लोच, ऑस्कर रेट्रोस्पेक्टिव, गोल्डन पीकॉक रेट्रोस्पेक्टिव, सोल ऑफ एशिया, रीस्टोर्ड इंडियन क्लासिक, कंट्री फोकस(रूस). साइलेंट फिल्म विद लाइव् म्यूजिक, होमेज, फिल्ममेकर इन फोकस, स्पेशल स्क्रीनिंग, एक्सेसिबल इंडिया-एक्सेसिबल फिल्म्स, दादा साहब फाल्के अवार्ड रेट्रोस्पेक्टिव. द गोल्डन लाईनिंग, इंडियन न्यू वेव सिनेमा, बेस्ट ऑफ मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल और द गोवन स्टोरी: ए कोंकणी फिल्म पैकेज के तहत सैकड़ों फिल्में दिखाई जा रही हैं..

स्वरूप में विस्तृत और विशाल होने के बावजूद भारत के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की अनेक अंदरूनी और अंतर्निहित समस्याएं हैं. सरकारी देखरेख में आयोजित यह फिल्म फेस्टिवल हर साल नौकरशाही और वीआईपी सिंड्रोम का शिकार होता है. गोवा में पर्याप्त थिएटर नहीं है. जो हैं, उनमें सीटों की संख्या कम है. देश के दूसरे फेस्टिवल में 4 से 6 रो सुरक्षित सीटों के लिए रखे जाते हैं, जबकि गोवा में 4 से 6 रो ही आम दर्शकों के लिए रखे जाते हैं. बाकी 60-70% सीटें विशेष अतिथियों के लिए सुरक्षित कर दी जाती हैं. नतीजा यह होता है कि फिल्मप्रेमी और सामान्य डेलीगेट अपनी पसंद की फिल्में नहीं देख पाते हैं. इसके अलावा फिल्म फेस्टिवल की संपर्क भाषा केवल अंग्रेजी हो चुकी है. देश के किसी भी इलाके या भाषाई क्षेत्र में फेस्टिवल हो रहा हो. वहां बातचीत, संपर्क और विमर्श की भाषा अंग्रेजी ही रहती है. यहाँ तक कि हिंदी अख़बार दैनिक जागरण का फिल्म फेस्टिवल को भी अंग्रेजी का ग्रहण लग गया है. हम सभी जानते हैं कि देश में अंग्रेजी में बमुश्किल फिल्में बनती हैं. भारत की ज्यादातर फिल्में भारतीय भाषाओं में निर्मित और प्रदर्शित होती हैं. अंग्रेजी के इस चक्रव्यूह से फिल्म फेस्टिवल का निकलना और उसे निकालना बहुत जरूरी है ताकि देश की विभिन्न भाषाओं की मौलिक प्रतिभाओं को अपनी भाषा में पहला मौका मिल सके. गोवा में फिल्म फेस्टिवल के साथ आयोजित फिल्म बाजार में निर्माण के विभिन्न अवस्थाओं के लिए मंगाए गए प्रविष्टियों की भाषा भी अंग्रेजी रखी जाती है. जाहिर सी बात है की असमी, उड़िया, बंगाली, कन्नड़, हरियाणवी और हिमाचली जैसी भाषाओं के महत्वाकांक्षी लेखक और निर्देशक अपनी फिल्में वहां नहीं भेज पाते.

फिल्मों के चुनाव,भारतीय फ़िल्मी हस्तियों के आमंत्रण,विचार-विमर्श के विषय,आमंत्रित मेहमान अदि विषयों पर अलग-अलग बातें की जा सकती हैं. सरकारी दखलंदाजी और सत्ताधारी पार्टी की अभिरुचि की वजह से इस फेस्टिवल की महत्ता कम हुई है. कुच्छ चेहरे ही बार-बार दीखते हैं और कुछ चेहरे कभी नज़र नहीं आते. गौर करें तो राहुल रवैल और मधुर भंडारकर सरकार की हर फ़िल्मी गतिविधि में नज़र आते हैं.

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