भ्रमित तो नहीं हैं आतिश तासीर!

आतिश 2014 में ऐसी आशंकाओं से परिचित थे, तो फिर नए भारत के आकार लेने से अब उन्हें असंतोष क्यों है?

WrittenBy:प्रकाश के रे
Date:
Article image

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पूर्व सलाहकार और धनकुबेर निवेशक कार्ल आइकान का कहना है कि अगर आप किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं, तो निवेश की एक रणनीति के रूप में प्रतिशोध किसी भी अन्य रणनीति की तरह ही वैधानिक है. अगर प्रतिशोध वित्तीय और व्यापारिक मामलों में कारगर हो सकता है, तो राजनीतिक हथियार के तौर पर भी उसका उपयोग हो सकता है. भारत सरकार इसी रास्ते पर चलती हुई दिखती है. लेखक-पत्रकार आतिश तासीर की प्रवासी नागरिकता को निरस्त करना इसका सबसे हालिया उदाहरण है. तासीर ने भी लिखा है कि इस कार्रवाई का कारण इस साल मई में ‘टाइम’ में छपा उनका लेख है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना की गयी थी, उनके कार्यकाल और हिंदू राष्ट्रवाद के माहौल का विश्लेषण था.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

उस समय इस लेख का तार्किक और वैचारिक उत्तर न देकर तासीर के विकीपीडिया पन्ने में झूठी बातें जोड़ी गयीं, उन्हें ट्रोल किया गया, नफ़रत और अफ़वाह फैलानेवाली धुर-दक्षिणपंथी वेबसाइटों पर अनाप-शनाप लिखा गया तथा उन्हें मारने तक की धमकियां दी गयीं. स्वयं प्रधानमंत्री ने ‘टाइम’ को विदेशी और लेखक को पाकिस्तानी राजनीतिक परिवार का बताकर इस लेख की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाया. भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने भी उन्हें पाकिस्तानी बताया. इससे स्पष्ट है कि सरकार, भाजपा और इनसे संबद्ध संगठनों, समूहों व मीडिया को वह आलोचना बेहद नागवार गुज़री थी. निश्चित रूप से तासीर ने वर्तमान भारत के ख़तरों को चिन्हित किया था, लेकिन उनके विश्लेषण में अनेक विसंगतियां भी थीं, जिन्हें मैंने अपने लेख में चिन्हित किया था.

स्वाभाविक रूप से कई लेखकों ने आतिश तासीर की प्रवासी नागरिकता समाप्त करने की कार्रवाई की आलोचना की है. अरुंधति रॉय ने इसे अपमानजनक और ख़तरनाक बताते हुए कहा है कि मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए सरकार इस धमकी और विदेशी संवाददाताओं, स्वतंत्र पत्रकारों व बौद्धिकों को वीज़ा नहीं देने का रवैया अपना रही है.

तासीर ने भी ‘टाइम’ में लिखा है कि उनका मामला व्यक्तिगत या अनूठा नहीं है, बल्कि व्यापक माहौल को इंगित करता है. उन्होंने जम्मू-कश्मीर राज्य के स्वरूप, उसकी स्वायत्तता और मौलिक मानवीय स्वतंत्रताओं के हनन का हवाला दिया है, असम में 19 लाख लोगों की नागरिकता छीने जाने की आशंका का उल्लेख किया है तथा लेखकों, फ़िल्मकारों व बौद्धिकों पर ‘राजद्रोह’ के आरोप लगाने के बारे में लिखा है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत के विचार को देखने वाले तासीर अब स्वयं को ‘बहिष्कृत’ के रूप में देखते हैं. तासीर के इस दुख और चिंता से असहमत होने का कोई कारण नहीं है. वर्तमान की वास्तविकताएं भविष्य के भयावह परिदृश्य का संकेत करती हैं.

परंतु, आठ साल पहले आतिश तासीर ने अरुंधति रॉय के बारे में जो कहा था और जिन आधारों पर कहा था, दुर्भाग्य से आज के धुर-दक्षिणपंथी हमलों का आधार भी वही है. जो बातें तब तासीर ने अरुंधति के बारे में कही थीं, वही बातें आज भाजपा और ट्रोल गिरोह तासीर के बारे में कह रहा है. नवंबर, 2011 में तासीर ने आउटलुक को दिए साक्षात्कार में कहा था कि अरुंधति रॉय को ‘भारत के शत्रुओं से वासनाभिभूत आकर्षण’ है और उन्हें ‘पाकिस्तान में तथा यूरोपीय व अमेरिकी विश्वविद्यालयों में’ पसंद किया जाता है. अरुंधति के मित्र ‘भारत के शत्रुओं’ की गिनती आतिश कराते हैं- ‘जिहादी, माओवादी, कश्मीर आंदोलन, विकास-विरोधी लोग.’ वे कहते हैं कि वह ग़रीबों की दोस्त नहीं हैं और उन्हें ग़रीब बनाए रखना चाहती हैं. नए मध्य वर्ग को नापसंद करती हैं, उनकी आकांक्षाओं से उन्हें चिढ़ है, क्रिकेट में भारत की जीत पर ख़ुशी मनाने पर भी उनकी त्वचा में झुरझुरी होने लगती है. आतिश तासीर कहते जाते हैं- ‘जो भी भारत के भविष्य के लिए ठोस ख़तरा है, वह इस महिला का मित्र है.’ क्या संयोग है, आज पाकिस्तानी पिता के बारे में जानकारी नहीं देने और सरकार को गुमराह करने के कारण आतिश तासीर से प्रवासी नागरिकता छीन कर उन्हें ‘बहिष्कृत’ किया जा रहा है, तो अरुंधति रॉय उनके साथ खड़ी हैं भारतीय पासपोर्ट के साथ!

तब युवा आतिश के निशाने से विलियम डेलरिंपल भी नहीं बच सके थे. आतिश का कहना था कि ‘यह व्हेल सरीखा आदमी… 19वीं सदी के रूस या आज के चीन से धक्के मार कर भगा दिया जाता. उसका मज़ाक़ बनाया जाता और तिरस्कार से देखा जाता… यह तो भारत है, जहां ऐसे औसत दर्जे के लोग भी महान बना दिए जाते हैं.

आतिश तासीर के आदर्श वीएस नायपॉल हैं, जिन्हें वे 18 साल की उम्र से जानते थे और अपना दोस्त कहते हैं. नायपॉल को श्रद्धांजलि देते हुए वे उनकी ‘ईमानदारी’ की दाद देते हैं और कहते हैं- ‘जिस समय उत्तर-औपनिवेशिक अध्ययन हमें बहुत सारी सांत्वना देने वाली बकवास परोस रहा था, नायपॉल के लेखन ने हमें हमारे अतीत का स्वामित्व लेने में मदद की.’ वे यह भी कहते हैं कि नायपॉल को अपनी ईमानदारी की क़ीमत चुकानी पड़ी. उन्हें वामपंथ ने तिरस्कृत किया और दक्षिणपंथ ने अपने खांचे में ले लिया. तासीर कहते हैं कि बौद्धिकों ने इसलिए नायपॉल को नकार दिया क्योंकि उन्हें ऐसा लगता था कि नायपॉल की राजनीति प्रतिक्रियावादी है और उन्होंने हिंदू दक्षिणपंथ का बचाव किया.

आश्चर्य की बात है कि तासीर बौद्धिकों पर यह आरोप मढ़ देते हैं कि उन्होंने नायपॉल की जटिलता को ठीक से नहीं समझा. क्या नायपॉल ने भारत की हिंदू विरासत की दावेदारी के लिए हिंदू राष्ट्रवादियों की सराहना नहीं की थी? क्या उन्होंने बाबरी मस्जिद के ध्वंस को ऐतिहासिक संतुलन बनाने की कार्रवाई नहीं कहा था? राम जन्मभूमि को हासिल करने के प्रयास को यह कह कर उन्होंने प्रशंसा नहीं की थी कि इससे हिंदू गौरव के उभार का स्वागतयोग्य संकेत मिलता है? ‘बियोंड बिलीफ़: इस्लामिक एक्सकर्सन अमॉन्ग द कन्वर्टेड पीपुल्स’ और ‘इंडिया: ए मिलियन म्यूटिनीज़ नाऊ’ समेत अनेक साक्षात्कारों व भाषणों में नायपॉल के ऐसे विचारों को देखा जा सकता है.

‘टाइम’ में मीना कांडसामी ने नायपॉल की प्रभावी आलोचना की है. उस लेख में वे मनोचिकित्सक व क्रांतिकारी सिद्धांतकार फ़्रांज़ फ़ैनों को उद्धृत करती हैं- ‘औपनिवेशित की पहली आकांक्षा इस हद तक उपनिवेशक के जैसा हो जाने की होती है कि वह उसमें खो ही जाए.’ ऐसा ही हाल नायपॉल का था. इस वजह से कई बार ऐसी बातें कहीं, जो नस्लभेदी विचारों के आसपास थीं. उन्होंने उपनिवेशवाद के स्वरूप में शामिल घृणा और अमानवीयता के पहलू को आत्मसात कर लिया था.

मॉरीन आइज़ाकसन ने अपने लेख में कहा है कि नस्लभेद और धर्मांधता नायपॉल की विरासत के अभिन्न अंग है.

इस संदर्भ में प्रो. मुशीरूल हसन का एक लेख भी महत्वपूर्ण है. उस लेख में एडवर्ड सईद व गिरीश कर्नाड की टिप्पणियां नायपॉल का सही वर्णन करती हैं. नायपॉल को भारत के बारे में उथली समझ थी, जैसा कि पश्चिम से बाहर की दुनिया के बारे में ‘क्लैश ऑफ़ सिविलाइज़ेशंस’ वाले सैमुएल हटिंगटन की समझ थी. सईद ने नायपॉल के भटकाव को ‘गंभीर बौद्धिक दुर्घटना’ और ‘पहले दर्जे की बौद्धिक आपदा’ कहा था.

उपनिवेशक जैसा पूरी तरह हो जाने की आकांक्षा आतिश तासीर में भी है. कुछ महीने पहले एक साक्षात्कार में भारत को सलाह देते हुए तासीर कहते हैं कि ‘धनी बनें, अपनी संस्कृति को खो दें, अपने को आधुनिकता में झोंक दें, क्या पता क्या हो सकता है!’

यह बौद्धिक विडंबना ही है कि नायपॉल से अपने अतीत का स्वामित्व पाने का सूत्र पानेवाले तासीर आधुनिकता में समाहित हो जाने का गुर दे रहे हैं. एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं कि अतीत की धुंधली तस्वीर के साथ आधुनिकता को हिचक से अपनाने की समस्या भारत के साथ है तथा इस विसंगति को दूर करने की आवश्यकता है. जब नायपॉल ने अतीत का सूत्र दे ही दिया था, उत्तर-औपनिवेशिक अध्ययन की बकवास को रेखांकित कर ही लिया गया था, तासीर की आकांक्षाओं का मोदी-समर्थक नया भारत निर्माणाधीन है ही और कांग्रेस से अलग होने की सांस्कृतिक चेतना आ ही गयी है, तो फिर अतीत से ऐसा भी भागने की विवशता या आवश्यकता क्योंकर? और, यह भी कि भारत स्वयं को जान ले, तो क्या अतीत से पिंड छुड़ाकर वह आधुनिकता में स्वयं को झोंक सकेगा, और झोंकने के बाद जो बनेगा, वह अतीत क्या वही अतीत रहेगा, जैसा देश, नायपॉल, तासीर या उनके आलोचक समझते हैं?

तासीर की लेखन प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए भी यह कहा जाना चाहिए कि वे स्वयं उत्तर-औनिवेशिक अध्ययन की कथित बकवास से प्रभावित हैं, जैसा कि अनेक दक्षिणपंथी तबके प्रभावित हैं. उनके लेखन में (उत्तर) भारतीय समाज की बहुत उथली व्याख्या है. वे जटिलताओं और सांस्कृतिक हानि की बात तो करते हैं, पर देश व समाज के हालिया इतिहास, राजनीति और आर्थिकी का परीक्षण नहीं करते. वे दरारों व उथल-पुथल को चिन्हित नहीं करते हैं, कोशिश भी नहीं करते. यदि उत्तर-औपनिवेशिक भारत, आधुनिकता, अतीत, परंपरा, संस्कृति, टूटन आदि को वे समझना चाहते हैं, तो उन्हें आशीष नंदी, अभिजीत पाठक, सुधीर कक्कड़, पुरुषोत्तम अग्रवाल, आनंद तेलतुम्बड़े, सूरज येंगड़े आदि को पढ़ना चाहिए. उन्हें नव-उदारवादी तबाही और आर्थिक विषमताओं का भी संज्ञान लेना चाहिए.

उदारवादी लोकतंत्र का एक मूल्य यह भी है कि हमें अपनी स्थापनाओं व वैचारिकी की निरंतर समीक्षा करनी चाहिए और उसमें जोड़-घटाव करने के लिए तैयार रहना चाहिए. पंडित रतननाथ धर ‘सरशार सैलानी’ ने क्या ख़ूब कहा है:

चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है,
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो.

आतिश तासीर प्रवासी नागरिकता निरस्त किए जाने के बाद ‘टाइम’ में लिखते हैं कि वे हमेशा से उदारवादी लोकतंत्र को भारत के विचार के रूप में देखते रहे हैं, लेकिन मई, 2014 में लोकसभा चुनाव के समय वे लिखते हैं कि ‘यदि मुझे मोदी से सहानुभूति है, यदि मैं उन्हें सफल होते हुए देखना चाहता हूं, तो इसका कारण यह है कि मेरी सहानुभूति उन लोगों से है, जो मोदी का समर्थन कर रहे हैं.’

उनके समर्थकों का हवाला देते हुए तासीर लिखते हैं, “इस भारत- स्पष्ट विचारवाला, बेचैन और परेशान- ने इस चुनाव में ऊर्जा का संचार किया है. यह वह भारत है, जिसके आकार लेने की प्रतीक्षा हममें से कुछ लोग कर रहे थे.” इसी लेख में वे आशंका भी जताते हैं कि मोदी कहीं किसी एरदोआं या राजपक्षे की राह पर न चल पड़ें क्योंकि ऐसे नेता के उभार के लिए आवश्यक स्थितियां भारत में मौजूद हैं. वे यह भी चेताते हैं कि अगर मोदी ने विकास के मुद्दे पर अच्छा काम किया, तो उनकी अन्य ग़लतियों को माफ़ कर दिया जाएगा. यह भी लिखा है कि ऐसा ताक़तवर नेता ऐसे किसी भी आदमी को निकाल बाहर कर देगा, जो उसके ख़िलाफ़ एक शब्द भी बोले. तासीर चेताते हैं कि वैसी स्थिति में पहला और दूसरा कार्यकाल ख़तरनाक नहीं होगा, लेकिन तीसरा कार्यकाल भयानक हो सकता है, जब केवल इंफ्रास्ट्रक्चर तक सीमित विकास थम जाएगा.

जब आतिश ऐसी आशंकाओं से और देश के माहौल से परिचित थे, तो फिर नए भारत के आकार लेने से उन्हें असंतोष क्यों है? क्या वे भी नायपॉल (‘इंडिया: ए मिलियन म्यूटिनीज़ नाऊ’) की तरह यह नहीं कह रहे हैं कि अब भारत में एक केंद्रीय इच्छा है, एक केंद्रीय बौद्धिकता है और एक राष्ट्रीय विचार है! अब पांच साल बाद वे किस उदारवादी लोकतंत्र की इच्छा प्रकट कर रहे हैं? इन पांच सालों में जो हुआ है, उसकी राजनीति और वैचारिकी क्या बस पांच साल में तैयार हुई है? क्या तब भी और अब भी मोदी एक ताक़तवर राजनेता के बतौर कोई स्वायत्त या स्वतंत्र उपस्थिति हैं तथा उसकी कोई विचारधारात्मक, सांगठनिक और प्रचार-प्रसार के ढंग की कोई ऐतिहासिकता भी है? उस चुनाव की ऊर्जा को वे सांस्कृतिक उभार कह रहे थे, तो उन्हें यह भी सोचना चाहिए था कि उदारवादी लोकतंत्र के साथ उस उभार और उसके आधार का क्या समीकरण है.

यह भी काम दिलचस्प नहीं है कि स्वतंत्रता के मामले में भारत को स्पष्टता के साथ अगुआ रहने की बात करने वाले तासीर इसी जुलाई में प्रधानमंत्री मोदी के मई के बयान को दुहराते हुए ‘खान मार्केट इंटेलेक्चुअल’ पर व्यंग्य करते हुए कह रहे थे कि उसे लगता है कि वे उसके हाथ से मार्गरिटा छीन रहे हैं.

पिछले वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लिखे लेख में आतिश तासीर देश को अपनी बेहतरी की सोचने की सलाह देते हुए ‘आत्मानं विद्धि’ (स्वयं को जानें और स्वतंत्र हो) का उल्लेख किया है. मुझे लगता है कि स्वयं तासीर को इस पर अमल करना चाहिए.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like