राज ठाकरे : जवान होने से पहले ही ढल गई मनसे

13 साल के सफर में सिफर के मुहाने पर क्यों पहुंच गई महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना.

WrittenBy:प्रतीक गोयल
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2019 लोकसभा चुनावों की दौड़ जारी थी, तब महाराष्ट्र में एक दिलचस्प स्थिति देखने को मिली. महाराष्ट्र की सियासी अखाड़े के एक भरोसेमंद खिलाड़ी राज ठाकरे की पार्टी एक भी सीट पर चुनाव नहीं लड़ रही थी, लेकिन राज ठाकरे महाराष्ट्र की सभी सीटों पर जनसभाएं कर रहे थे. इन सभाओं में राज भाजपा की सरकार और नरेंद्र मोदी के वादों, उनकी योजनाओं और नीतियों की बखिया उधेड़ रहे थे. यह चुनावी हाराकिरी जैसा था कि राजनीति में होने का दावा करने वाला, एक राजनीतिक संगठन का मुखिया चुनाव से दूर था, उसकी पार्टी चुनाव से दूर थी.

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एक बढ़िया कार्टूनिस्ट, एक कुशल वक्ता और एक ऐसा नेता जिसके प्रति उसके कार्यकर्ताओं का समर्थन निर्विवाद है. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे की ये खूबियां हर नेता को नसीब नहीं होती. इसके बावजूद भी मौजूदा दौर में राज ठाकरे राजनीति के हाशिये पर हैं. वो महाराष्ट्र की राजनीति में अलग-थलग से नज़र आ रहे हैं. अपनी स्थापना के महज़ तीन साल बाद जिस पार्टी ने 13 विधायकों से अपनी मौजूदगी महाराष्ट्र विधानसभा में दर्ज कराई थी, उसका हाल ये है कि ताजा-ताजा निपटे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मनसे के 101 में से सिर्फ एक उम्मीदवार जीत कर आया है. आखिर ऐसा क्या है कि अपने चाचा बाल ठाकरे का अक्स नज़र आने वाले राज ठाकरे की राजनीतिक ज़मीन बुरी तरह दरक चुकी है. क्या क्षेत्रवाद के नाम पर दादागिरी और हिंसा की राजनीति के दिन अब महाराष्ट्र में खत्म हो चुके हैं?

अपने चाचा बाल ठाकरे की उंगली पकड़कर राजनीति में आगे बढ़े राज ठाकरे किसी दौर में वॉल्ट डिज़्नी में काम करने की हसरत रखते थे. मुंबई के प्रसिद्ध जेजे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से स्नातक राज ठाकरे को शुरुआती दौर में बाल ठाकरे की राजनैतिक विरासत का वारिस समझा जाता था. आज भी ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है.

शिवसेना में अपनी लोकप्रियता के उन दिनों में बहुत से नेताओं को वो रास नहीं आते थे. पार्टी में उनका बढ़ता रसूख इसकी वजह था. इसका एक कारण खुद राज भी थे जो अपने बढ़ते रसूख के चलते उस वक़्त पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी ताक पर रखते थे. कई वरिष्ठ नेताओं को लगता था कि राज की निगाह में उनका कोई मान नहीं था.

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सियासी जानकारों की माने तो शिवसेना में राज ठाकरे के चढ़ते सूरज पर लगाम लगने की दो वजहें रही. पहला कारण रहा 1996 में हुआ रमेश किनी हत्याकांड. इसमें राज का नाम जुड़ा, और दूसरा कारण पॉप स्टार माइकल जैक्सन का मुंबई में आयोजित स्टेज शो रहा. इन दोनों ही वजहों से राज ठाकरे की तीखी आलोचना हुई थी.

गौरतलब है कि मुंबई के माटुंगा इलाके की एक इमारत में रहने वाले रमेश किनी की लाश जुलाई 1996 में पुणे के अलका टॉकीज़ में मिली थी. किनी अपनी पत्नी शीला के साथ लक्ष्मी निवास नाम की इमारत में किराए पर रहते थे. इमारत के मालिक लक्ष्मीचंद शाह इमारत को बनवाना चाहते थे, जिसके चलते रमेश किनी को उन्होंने घर खाली करने के लिए कहा था. जब किनी दम्पति ने उनकी बात नहीं मानी तो शाह के बेटे सुमन शाह जो कि राज ठाकरे के दोस्त थे उनको इस मामले में हस्तक्षेप करने को कहा था. इसके बाद किनी की लाश संदेहास्पद स्थिति में पुणे के एक सिनेमाहाल में मिली थी. इस मामले की जांच सीबीआई ने की थी, उसने राज ठाकरे को इस मामले में बरी कर दिया था. लेकिन आज भी राजनैतिक हलकों में किनी मर्डर केस से राज ठाकरे का नाम जोड़ा जाता है.

वरिष्ठ पत्रकार सुजाता आनंदन ने दिसंबर 2013 में अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा था कि किनी हत्याकाण्ड में राज ठाकरे को बचाने के लिए फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन ने अहम भूमिका निभाई थी. ठाकरे परिवार ने उनके करीबी अमिताभ बच्चन से राज ठाकरे को सीबीआई जांच में बरी करवाने की गुजारिश की थी जिसके तहत मुंबई स्थित बच्चन के निवास स्थान पर तत्कालीन (1996 में) प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा और बाल ठाकरे के बीच मुलाकात हुई थी. इस मुलाकात के दौरान देवगौड़ा ने विश्वास दिलाया था कि वह बेवजह इस मामले को तूल नहीं देंगे.

1996 में राज ठाकरे ने पॉप गायक माइकल जैक्सन का कार्यक्रम मुंबई में आयोजित किया था. इसके जरिए राज ठाकरे द्वारा संचालित शिव उद्योग सेना के लिए उन्होंने माइकल जैक्सन से कथित तौर पर चार करोड़ रुपये भी लिए थे. इसका ज़िक्र उस दौर के कई समाचार रिपोर्टों में आया था. ठाकरे परिवार पर इस कार्यक्रम के ज़रिये इसलिए उंगलियां उठने लगी थी, क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति का अपने भाषणों में विरोध करने वाले ठाकरे परिवार ने खुद एक पाश्चात्य गायक का कार्यक्रम आयोजित किया था.

राजनैतिक जानकार और सामजसेवी प्रशांत कोठाड़िआ जिन्होंने राज ठाकरे के राजनैतिक जीवन को करीब से देखा है, कहते हैं, “राज ठाकरे जब शिवसेना में थे तब वह बाला साहेब ठाकरे के बहुत ही करीबी थे. उस दौर में उद्धव ठाकरे राजनैतिक परिदृश्य में कहीं नहीं थे. राज ठाकरे की भाषण शैली, उनका बोलने का तरीका, उनका व्यक्तित्व बाला साहेब ठाकरे से बहुत मिलता-जुलता था. राज ठाकरे युवा शिवसैनिकों के चहेते थे और सबको लगता था कि बाला साहेब ठाकरे की राजनैतिक विरासत को वही संभालेंगे. लेकिन 1996 में हुए रमेश किनी हत्याकाण्ड से उनका नाम जोड़े जाने की वजह से और माइकल जैक्सन का शो का आयोजित करने की वजह से पार्टी के भीतर राज के विरोधियों को उनके खिलाफ बोलने का मौका मिल गया. इसके चलते धीरे-धीरे पार्टी में बड़े नेता उनसे किनारा करने लगे और राज का रसूख कम होता गया. तमाम पुराने शिवसैनिक राज को घमंडी मानते थे.”

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कोठाड़िआ आगे कहते हैं, “इसी दौरान पार्टी में उद्धव ठाकरे को आगे बढ़ाया जाने लगा था. बाला साहेब राज ठाकरे को बहुत पसंद करते थे लेकिन उद्धव को उन्होंने ही बढ़ावा दिया. राज ठाकरे का उग्र, तेज तर्रार रवैया पार्टी के अन्य नेताओं को पसंद नहीं आ रहा था. वह पार्टी के फैसले एकतरफा लेने लग गए थे. 1996 से 2006 यानि मनसे के गठन तक का साल राज के शिवसेना में साइडलाइन होने का दौर था. चुनाव में भी उनके समर्थकों के टिकट काटे जाने लगे थे. एक समय में जिस व्यक्ति को बाला साहेब ठाकरे का उत्तराधिकारी माना जाता था उसे पार्टी में किनारे कर दिया गया. अंतत: साल 2006 उन्होंने शिवसेना छोड़ दी और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया. संभव है कि यह सब उद्धव को पार्टी की मशाल थमाने के लिए जानबूझ कर किया गया हो.

1995 के विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान जहां व्यस्तता के चलते बाल ठाकरे भाषण नहीं दे पाते थे वहां राज ठाकरे सभाएं करते थे. लेकिन 1999 के चुनाव तक पार्टी में राज के बढ़ते हुए क़द को छोटा करने की कवायद तेज़ हो चुकी थी. जुलाई 1999 की बात है राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के बीच सियासी मनमुटाव पार्टी के भीतर खुल कर दिखने लगा था. राज ठाकरे को पार्टी से जुड़ी चुनावी गतिविधियों से भी दूर रखा जाने लगा. इसका नतीजा यह हुआ कि एक दिन उन्होंने अपने समर्थकों से शिवसेना भवन जाकर उन लोगों की पिटाई करने के लिए कह दिया जो पार्टी के भीतर उनके लिए अड़चनें पैदा कर रहे थे. उनके इस आदेश का खामियाज़ा शिवसेना नेता सुभाष देसाई को भुगतना पड़ा था जिनके साथ राज ठाकरे के समर्थकों ने हाथापाई कर दी थी.

9 मार्च 2006 में राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का गठन किया. राज ठाकरे के साथ उनके बहुत से समर्थक भी शिवसेना छोड़ मनसे में आ गए थे. मनसे ने शुरुआती दौर से भूमिपुत्रों के मुद्दों की राजनीति शुरू कर दी थी. वही राजनीति जो शिवसेना ने अपने गठन के साथ 1966 में शुरू की थी. 90 के दशक में शिवसेना ने मराठी अस्मिता के मुद्दे को दरकिनार करके साम्प्रदायिकता की राजनीति को अपना लिया था और अपने आपको हिन्दुओं की रहनुमा की तरह पेश करने लगी थी. गौरतलब है कि अक्टूबर 2006 में मनसे कार्यकर्ता और शिवसैनिकों को बीच बाल ठाकरे के पोस्टर्स फाड़ने के विवाद के चलते झड़पें भी हुई थीं.

मनसे ने अपने राजनैतिक वजूद को बढ़ाने के लिए क्षेत्रवाद और मराठी अस्मिता की राजनीति का सहारा लिया. उसी अंदाज़ में जिस तरह शिवसेना 70 के दशक में करती थी. 2008 में राज ठाकरे की पार्टी के कार्यकर्ताओं ने लगभग 10 महीने तक उत्तर भारतीयों के खिलाफ मुहिम चलाई. इसकी शुरुआत 3 फरवरी 2008 को दादर स्थित शिवाजी पार्क में हो रही समाजवादी पार्टी की सभा से हुई थी. इस सभा में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ मुंबई से समाजवादी पार्टी नेता अबू आसिम आज़मी भी थे. इस सभा का मनसे ने विरोध किया था और सभास्थल के पास समाजवादी पार्टी कार्यकर्ता और मनसे कार्यकर्ताओं में झड़पें हुई. 

फरवरी के ही महीने में राज ठाकरे की पार्टी के कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र के मुंबई, पुणे, नाशिक और अन्य शहरों में काम करने वाले उत्तर भारतीय मजदूरों, दुकानदारों आदि पर हमले कर दिए थे. इन हमलों के चलते बहुत से उत्तर भारतीय मजदूर महाराष्ट्र से पलायन कर गए थे. बात यहां तक पहुंच गयी थी कि इन्फ़ोसिस टेक्नोलॉजी के वरिष्ठ अधिकारी टीवी मोहनदास पाई ने पुणे में एक पत्रकार वार्ता के दौरान कहा कि मनसे द्वारा उत्तर भारतीय मजदूरों के ऊपर हमलों के चलते इन्फ़ोसिस के दफ्तरों की इमारतों का निर्माण कार्य रुक चुका है जिसके चलते पुणे ऑफिस के लिए भर्ती किये गए 3000 लोगों को चेन्नई भेजा जा रहा है. साल 2008 में ही ठाकरे परिवार के पारिवारिक मित्र अमिताभ बच्चन का भी राज ठाकरे ने उत्तर प्रदेश सरकार से उनकी निकटता के चलते विरोध किया था और उनकी पत्नी जया बच्चन से भी राज ठाकरे की मराठी अस्मिता को लेकर ज़ुबानी जंग हो गयी थी, जिसके चलते मनसे कार्यकर्ताओं ने अमिताभ बच्चन की फिल्मों के पोस्टरों पर कालिख पोत दी थी.

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अक्टूबर 2008 में मनसे कार्यकर्ताओं ने मुंबई में रेलवे की परीक्षा देने आये उत्तर भारतीय छात्रों पर हमला कर दिया था. गौरतलब है कि यह परीक्षा पश्चिम क्षेत्र के लिए थी. राज ठाकरे के लगातार उत्तर भारतीयों पर हमलों के चलते उत्तर भारत के कई शहरों में राज ठाकरे के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए थे. उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में रहने वाले या काम करने वाले मराठी मूल के लोगों ने भी राज ठाकरे के प्रति नाराज़गी जताई थी. गौरतलब है इसी वजह से रांची में एक मराठी मूल के परिवार को लोक जनशक्ति पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा धमकाया भी गया था.

महाराष्ट्र में हो रही उत्तर भारतीयों के खिलाफ हिंसा का मुद्दा लोकसभा में भी गरमा गया था. तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की महाराष्ट्र सरकार के ऊपर भी उंगलियां उठने लगी थी और उत्तर भारतीयों के खिलाफ हो रही हिंसा को नहीं रोकने के लिए आलोचना भी हुई. इस पूरे हंगामे के बाद अक्टूबर 21 को राज ठाकरे की एक दिन के लिए गिरफ्तारी हुयी थी, जिसके विरोध में मनसे कार्यकर्ताओं ने मुंबई, ठाणे, पुणे और नासिक जैसे शहरों में तोड़-फोड़ की थी.

साल 2008 में ही मनसे ने बहुत से दुकानदारों और व्यापरियों में यह कहकर दहशत फैला दी थी कि उनकी दुकान पर लगने वाली नामों की पट्टियां (साइनबोर्ड) मराठी में भी होना चाहिए ना की अंग्रेजी या हिंदी में. मनसे कार्यकर्ताओं ने ऐसी बहुत से दुकानों में तोड़-फोड़ की थी जहां अंग्रेजी में पट्टियां थी. 

गौरतलब है कि राज ठाकरे के दादा प्रबोधनकर ठाकरे हिन्दुस्तान में पैदा हुए ब्रिटिश मूल के लेखक विलियम मेकपीस ठाकरे से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपने उपनाम ठाकरे को अंग्रेजी में उसी तरह लिखना शुरु कर दिया था जैसा कि विलियम मेकपीस लिखते थे. प्रबोधनकर ठाकरे जैसे सामज सुधारक और खुली सोच के व्यक्ति ने शायद कभी यह सोचा नहीं होगा कि आने वाले समय में उनके बेटे बाल ठाकरे और पोते राज ठाकरे अपनी राजनीति को पैना करने के लिए अंग्रेजी में लिखे साइनबोर्ड वाली दुकानों तक में अपने समर्थकों के ज़रिये तोड़फोड़ करवाएंगे. 

जहां राज ठाकरे और उनकी पार्टी के लोगों ने साल 2008 में उत्तर भारतियों के खिलाफ हिंसा को अंजाम दिया था वही जेट एयरवेज से निकाले गए लगभग 1900 कर्मचारियों को वापस नौकरी दिलाने में उन्होंने मदद की थी. उन्होंने एक प्रेस वार्ता करके यह कहा था कि अगर जेट एयरवेज नौकरी से निकले गए कर्मचारियों को वापस नौकरी नहीं देगी तो वह मुंबई में जेट की एक भी उड़ान संचालित नहीं होने देंगे. गौरतलब है की इन कर्मचारियों में देश के विभिन्न प्रदेशों के लोग थे. 

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2008 में उत्तर भारतीयों के खिलाफ हिंसा करने वाली मनसे ने 2009 के अपने पहले विधानसभा चुनाव में 13 सीटों पर जीत दर्ज की. चुनाव के बाद विधानसभा पहुंचे नवनिर्वाचित मनसे विधायकों ने सदन में हंगामा खड़ा कर दिया. मनसे के चार विधायकों राम कदम, वसंत गीते, शिशिर शिंदे और रमेश वांजले (जिन्हे गोल्डमैन भी कहा जाता था) ने समाजवादी नेता अबू आसिम आज़मी के साथ शपथ ग्रहण के दौरान हाथपाई की क्योंकि वह अपनी शपथ हिंदी में ले रहे थे. इन चारों की हरकत के बाद उन्हें विधानसभा से लगभग एक साल के लिए निष्कासित कर दिया गया था. गौरतलब है कि कदम और गीते ने बाद में मनसे छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया और शिंदे वापस से शिवसेना में चले गए. वांजले का देहांत हो गया. 2011 में वांजले की पत्नी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गईं.

गौरतलब है कि 2012 में मनसे ने महाराष्ट्र में हुए महानगर पालिका और नगरपालिका चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था. मुंबई, ठाणे, पुणे, नासिक, पिम्परी-चिंचवाड़, जलगांव यहां तक की नागपुर और अमरावती जैसे विदर्भ के शहरों की महानगर पालिका में भी उसने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. यही समय था जब राज ठाकरे और उनकी मनसे अपने सबसे सफलतम दौर में थी. लेकिन क्षेत्रवाद और हिंसा से प्रेरित मनसे की राजनीति 2012 के बाद ढलती चली गयी.

राजनीतिक जानकार कोठाड़िआ कहते हैं, “आज के दौर में हिंसा की राजनीति नहीं लंबे समय तक फल नहीं दे सकती. इससे पार्टी की एक गलत छवि लोगों के मन में बनती है. सोशल मीडिया का दौर है और ऐसे हरकतें की आलोचना लोग खुलकर करते हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि राज ठाकरे एक बेहतरीन वक्ता हैं, लोग उन्हें सुनने आते हैं, उनका एक आकर्षण है. लेकिन वो इन लोगों को वोटों में तब्दील नहीं कर पाते हैं. 2019 लोकसभा चुनाव के पहले अपनी अनोखी भाषण शैली के चलते वह पूरे विपक्ष की आवाज़ बन गए थे. उन्होंने नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ जबर्दस्त प्रचार किया था लेकिन उन्हें लोगों ने वोट नहीं दिया.”

राज ठाकरे उन चुनिंदा लोगों में से थे जिन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले ही मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खुलेआम प्रशंसा करना शुरू किया था. वह गुजरात में किए गए मोदी के कामकाज का जिक्र अपने भाषणों में करते थे, लेकिन 2015 बीतते-बीतते वो मोदी के विरोधी बन चुके थे और मोदी सरकार के कामकाज पर उन्होंने तंज कसना शुरू कर दिया था.

कोठाड़िआ आगे कहते हैं, “मनसे की मौजूदा स्थिति का दूसरा कारण यह है कि ज़मीनी स्तर पर उनका संगठन बेहद कमज़ोर है. राज ठाकरे का ज़मीनी स्तर पर उनके लोगों से कोई संवाद नहीं है और उन्होंने अपने संगठन को मजबूत करने या विस्तार देने के लिए कुछ भी नहीं किया. इसके अलावा उन्हें महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों और उसके मुद्दों की बारीक जानकारी नहीं है. वह सिर्फ शहरी मुद्दों की बात करते हैं, मध्यवर्गीय नौकरीपेशा लोगों से जुड़ाव वाले मुद्दों पर ही उनकी राय दिखती है. लेकिन वहां पर भी वे भाजपा और शिवसेना से पिछड़ जाते हैं. 2009 में उनकी 13 सीटें उन्हीं इलाकों से आयीं थी जहां मराठी बहुलता थी और लोग उस वक़्त वहां शिवसेना से नाराज़ थे, लेकिन कुछ ही समय में वो लोग समझ गए की मनसे का समर्थन करके उनका कोई भला नहीं होने वाला है.”

2014 के लोकसभा चुनाव में मनसे ने 9 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पायी. इसी तरह साल 2014 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मनसे ने 232 सीटों (महाराष्ट्र विधानसभा में 288 सीटें हैं) पर चुनाव लड़ा था और सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल की थी. 2014 में जुन्नर विधानसभा क्षेत्र से जीते हुए मनसे उम्मीदवार शरद सोनावणे ने भी आगे जाकर फिर से शिवसेना में प्रवेश कर लिया था.

2018 में हुए महानगरपालिका चुनाव में भी मनसे को हार का सामना करना पड़ा  था. 2012 में जहां मुंबई, पुणे, नासिक की  महानगरपालिकाओं में राज ठाकरे की पार्टी  26, 21 और 40 सीटों पर जीती थी वहीं  2017 के चुनाव में इन्ही महानगरपालिकाओं में उन्हें 1,2 और 5 सीटें मिली थीं.

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2019 के लोकसभा चुनाव में राज ठाकरे ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ जबर्दस्त अभियान चलाया, हालांकि उनकी पार्टी ने उस चुनाव में एक भी उम्मीदवार नहीं उतारा था. उनका “लावा रे तो वीडियो” वाक्य मशहूर हो गया था. दूसरे प्रदेशों में पार्टियों ने उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया था. हालांकि उनके इन भाषणों का चुनवी परिणामों में कोई असर नहीं दिखा.

2019 के विधानसभा चुनाव में मनसे ने 101 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था जिसमें सिर्फ एक सीट (कल्याण ग्रामीण) पर जीत दर्ज कर पाई. इस सीट पर मनसे उम्मीदवार प्रमोद पाटिल ने शिवसेना के उम्मीदवार रमेश म्हात्रे को 6000 वोटों से शिकस्त दी है.

मनसे के महासचिव अनिल शिडोरे कहते हैं, “राज साहेब एक बहुत ही कुशल नेता हैं और वह हर वक्त महाराष्ट्र की बेहतरी की बात करते हैं. वह हमेशा हर प्रदेश को मजबूत बनाने की बात करते हैं क्योंकि वह मानते हैं कि मजबूत प्रदेश ही मजबूत राष्ट्र बनाते हैं. उन्होंने ही सबसे पहले मोदीजी को प्रधानमंत्री बनाने की बात कही थी और वह अब उनका विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि मोदीजी का प्रदर्शन ठीक नहीं रहा. वह एक सुलझे हुए राजनेता हैं और उन्होंने हमेशा यही कहा था कि मोदी सरकार को समय देना चाहिए. लेकिन जब नोटबंदी जैसे निर्णय सरकार ने लिए जो की देशहित के लिए अच्छे नहीं थे तब राज साहब ने अपना विरोध दर्ज कराया था. तब भी उन्होंने यही कहा था कि ऐसे निर्णय देश के हित में नहीं हैं, क्योंकि तब भी उनकी सोच थी की नयी सरकार को थोड़ा और समय देना चाहिए. लेकिन जब पांच साल तक हालात में कोई बदलाव नहीं दिखा तब 2019 के चुनाव में उन्होंने मोदी जी की नीतियों का पर्दाफाश करने वाले भाषण दिए. उन भाषणों के दौरान भी उन्होंने कभी कांग्रेस को वोट देने के लिए नहीं कहा.

शिडोरे आगे कहते हैं कि शिवसेना और मनसे के भूमिपुत्रों के मुद्दे में गहरा फ़र्क हैं, मनसे सदा से यह चाहती है कि जिस तरह से महाराष्ट्र देश की प्रगति में योगदान करता है उसी तरह से महाराष्ट्र के लोगों का केंद्र सरकार भी ध्यान रखे. महाराष्ट्र में रहने वाले किसी भी जाति-धर्म के आदमी से मनसे कोई भेदभाव नहीं करती है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने जब शिडोरे से मनसे कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी हिंसा के बारे उनसे पुछा  तो वह कहते हैं, “पिछले 13 सालों में मनसे के कार्यकर्ताओं द्वारा की गई मार-पीट के सिर्फ 12 वाकये हैं. इससे कहीं ज़्यादा हिंसा भाजपा और अन्य पार्टियों के कार्यकर्ता करते हैं. मीडिया भी मनसे द्वारा की गयी हिंसा बढ़ा-चढ़ा कर बताता है.

शिडोरे ने बताया कि मनसे की शाखाएं भी शिवसेना की शाखाओं की तरह लोगो की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के मसले सुलझाने के लिए काम करती हैं. वह कहते हैं, “राज साहब भी अपने कार्यकर्ताओं से समय-समय पर मिलते रहते हैं और उनका मार्गदर्शन करते हैं.

एक कलाकार का मिज़ाज़ रखने वाले राज ठाकरे को फिल्मों और संगीत में गहरी रुचि है. उनके करीबियों के मुताबिक वह हर रोज़ एक फिल्म देखते हैं और फिल्मों के बारे उनका गहरा अध्ययन हैं. हिंदी और मराठी फिल्म जगत की कई मशहूर हस्तियों से राज ठाकरे के अच्छे संबंध हैं. चाहे राजनैतिक हलके हों या पत्रकारिता हो राज ठाकरे के बारे में यह ज़रूर कहा जाता है कि वह एक बहुत ही दिलचस्प किरदार हैं. 

अच्छी राजनीतिक विरासत होने के बावजूद भी राज ठाकरे को सबसे ज़्यादा जिस चीज़ से नुकसान पहुंचा हैं वह उनकी पार्टी की मारधाड़ वाली छवि है. गौरतलब है कि ठाणे के बदलापुर इलाके के रहने वाले एक युवक पर मनसे कार्यकर्ताओं ने उनके घर पर जाकर हमला सिर्फ इसलिए कर दिया था क्योंकि उस युवक ने प्रधानमंत्री मोदी के ऊपर राज ठाकरे द्वारा बनाये गए व्यंग्यचित्र का सोशल मीडिया पर विरोध किया था. इसी तरह 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के कद्दावर नेता चंद्रकांत पाटिल के खिलाफ पुणे के कोथरुड विधानसभा क्षेत्र से लड़ने वाले मनसे उम्मीदवार किशोर शिंदे और उनके समर्थकों ने पुणे के एक मल्टीप्लेक्स में हमला बोल दिया था क्योंकि सिनेमा हॉल में महंगे दामों पर खाने-पीने की चीज़ें बिकती थी.

अपनी हिंसक गतिविधियों का मनसे कार्यकर्ताओं को खामियाज़ा भी भुगतना पड़ा है. 2017 में मुंबई के विक्रोली में जब मनसे कार्यकर्ताओं ने मराठी में दुकानों के नाम की पट्टियां ना लिखने पर हुड़दंग किया तो वहां के फेरीवालों ने उनकी जमकर पिटाई कर दी.

सामाजिक कार्यकर्ता विशम्बर चौधरी कहते हैं, “राज ठाकरे को खुद यह महसूस हुआ है कि हिंसा करके राजनीति में लंबा नहीं टिका जा सकता. ग्रामीण भागों में रहने वाले मनसे कार्यकर्ता भी इस हिंसा को पसंद नहीं करते हैं. यह हिंसा सिर्फ मुंबई, ठाणे के इलाकों में रहने वाले मनसे कार्यकर्ता अंजाम दे रहे है. मराठी मूल के लोग जो शिवसेना के ज़माने में सामाजिक मुद्दों को लेकर की गयी हिंसा को गलत नहीं मानते थे वही लोग मनसे की हिंसा का शिकार हो रहे हैं. आज का युवा वर्ग पढ़ा लिखा है और वह इस हिंसा का समर्थन नहीं करता है. इससे मनसे की छवि और धूमिल हो गई है.

राज ठाकरे राजनीति में एक उदाहरण है कि विरासत और प्रतिभा के बावजूद राजनीति में अगर कार्यक्रम और विज़न का अभाव हो तो यह लंबे समय तक टिकी नहीं रह सकती. छवि और चमत्कार तात्कालिक असर पैदा करते हैं, इसका इस्तेमाल लंबे समय तक कायम रहने वाली राजनीति के हथियार के रूप में करना होता है मनसे ने राज की छवि को ही असली राजनीति मान लिया.

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