इस सरकारी स्कूल में 12 किलोमीटर दूर से पढ़ने आते हैं बच्चे

दूसरे गांव के प्राइवेट स्कूल में सालाना 15-20 हजार रुपए देने पर भी बच्चों को उतनी अच्छी शिक्षा नहीं मिलती, जितनी अच्छी यहां मिलती है.

WrittenBy:शिरीष खरे
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महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर से करीब 200 किलोमीटर दूर के दुर्गम क्षेत्र में एक ऐसा सरकारी स्कूल है, जो बच्चों को संवैधानिक मूल्य और गुणवत्ता के अंतरराष्ट्रीय मानकों पर आधारित शिक्षा का नया तरीका ईजाद करने के कारण चर्चा में है. यह तरीका बच्चों को इतना अधिक रास आ रहा है कि वे 12 किलोमीटर दूर से इस स्कूल में पढ़ने के लिए आ रहे हैं. यह स्कूल है- औरंगाबाद जिले के सोयगांव तहसील के अंतर्गत जिला परिषद डाभा का प्राथमिक स्कूल.

कुछ वर्ष पहले तक इस स्कूल की हकीकत यह थी कि डाभा गांव के ही बच्चे अच्छी शिक्षा पाने के लिए दूसरे गांव के प्राइवेट स्कूल जाते थे. तब यहां पढ़ने वाले बच्चों की संख्या सौ से भी कम थी. पर, आज यहां 171 बच्चे पढ़ने आ रहे हैं. इनमें 96 लड़के और 75 लड़कियां हैं.

मराठी माध्यम के इस स्कूल परिसर में जहां कभी सन्नाटा पसरा रहता था, आज पढ़ने वाले बच्चों की आवाजों से गूंजा करता है. इस स्कूल की लोकप्रियता का आलम यह है कि आसपास के कई गांवों के करीब सौ बच्चे यहां पढ़ने आते हैं. वहीं, बुनियादी शिक्षा को लेकर बच्चे तो बच्चे पूरे क्षेत्र के लोगों में जागृति आई है. अहम बात है कि इस स्कूल ने यह दर्जा महज डेढ़ वर्ष की अवधि में हासिल किया है.

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बता दें कि सम्पन्न किसान बहुल डाभा करीब एक हजार की आबादी का गांव है. इस स्कूल की स्थापना वर्ष 1960 में हुई थी.

दूसरी तरफ, ग्रामीण बताते हैं कि कुछ वर्ष पहले डाभा गांव के बच्चे यहीं के ही स्कूल में पढ़ने नहीं जाते थे. वजह, स्कूल के पास भवन के नाम पर एक खंडहर रह गया था. यहां न बिजली की व्यवस्था थी, न पानी का इंतजाम था. न शौचालय था, न सुंदर बगीचा. पढ़ाने के लिए पर्याप्त शिक्षकों की कमी हमेशा खलती रहती थी. हालांकि, स्कूल की इस स्थिति को सुधारने के लिए यहां के शिक्षक कई वर्षों से सरपंच के साथ मिलकर कुछ प्रयास भी कर रहे थे. पर, परिणाम अपेक्षा के अनुकूल नहीं आ रहे थे.

शिक्षक ज्ञानेश्वर मख के मुताबिक, ”फिर बीते दो वर्षों में स्थिति तेजी से बदलनी शुरु हुईं. वजह, हमने बच्चों को सिखाने के नए तरीके ईजाद किए. इसके तहत हमने बच्चों को एक-दूसरे से सीखने की पद्धति अपनाई. इसे हम ‘आपस में सीखो’ तरीका कहते. इसमें बच्चों की जोड़ी और समूह बनाए जाते हैं और फिर आपस में चर्चा के माध्यम से सीखने का मौका दिया जाता है. कुछ महीने बाद जब दूसरी और तीसरी के बच्चे भी मराठी की कई कहानियां धाराप्रवाह पढ़ने लगे और हजार तक गिनती सीख गए तो उनमें कमाल का आत्मविश्वास आया.”

कक्षा चौथी की श्रद्धा दांडगे बताती है कि पहले जब हम शिक्षक से कुछ पूछते थे तो डर लगता था. वह कहती है, ”फिर हम किताबों में लिखे के प्रश्न दोस्तों से पूछने लगे तो डर की कोई बात नहीं रहीं. हम जब किसी को कुछ सही बताते हैं और वह सही सीखता है, या हम उससे कुछ सीखते हैं, तो खुद को अच्छा लगता है.”

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ज्ञानेश्वर इन्हीं बातों को विस्तार से बताते हुए कहते हैं, ”इस तरीके में बच्चे एक-दूसरे से सीखने के कारण अपनी कमजोरियों को आपस में साझा करने लगे. कमजोर बच्चे जब उम्मीद से अच्छा करने लगे तो उनके परिजन उन्हें शाबाशी देने लगे. होशियार बच्चे भी उनका सम्मान करने लगे. इस तरह, पढ़ाई का एक नया माहौल तैयार हुआ. इससे बच्चों की उपस्थिति और परीक्षा परिणाम में सुधरा.”

इस तरह, जब बच्चों के साथ शिक्षक और पालकों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध बनने लगे तो स्कूल ने ‘आपस में सीखो’ को मुहिम का रूप देते हुए इसे पूरे गांव से जोड़ने का निर्णय लिया.

इस बारे में प्रधानाध्यापक जर्नादन साबले अपना अनुभव साझा करते हैं, ”हम स्कूल के सार्वजनकि कार्यक्रमों में स्थानीय लोगों को इस मुहिम के बारे में बताने लगे. उनसे इस बारे में लगातार चर्चा करने लगे. उनसे कहते कि हम आपके सहयोग इस स्कूल को बेहतरीन स्कूल बनाना चाहते हैं. हमने छुट्टी के दिनों में भी अतिरिक्त कक्षाएं लीं तो लोगों को लगा कि बच्चों की भलाई के लिए हम कुछ गंभीर प्रयास कर रहे हैं.”

इसके बाद ग्रामीणों ने चंदा जमा करके स्कूल के लिए धन और कई जरुरी सामान जुटाएं. कुछ लोग श्रमदान के लिए भी आगे आए. इस तरह, इस स्कूल को सुंदर, सुविधा सम्पन्न और डिजीटल बनाने में लोगों ने स्कूल के शिक्षकों की मदद की.

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यह सच है कि आज यह बेहतरीन स्कूलों में गिना जाता है. पर, सवाल है कि सफलता के पीछे संघर्ष की इस कहानी में वे कौन-सी बाते थीं, जिसके कारण यह एक स्कूल बेहतरीन बना.

इस बारे में शिक्षक संजय कुमार चव्हान बताते हैं, ”जब शिक्षकों की अगुवाई में ग्रामीणों ने सामूहिक पहल की तो जिला परिषद के सहयोग से स्कूल का नया भवन तैयार हुआ. इसके लिए पंचायत की ओर से जिला प्रशासन को प्रस्ताव दिया. इसके बाद, नए स्कूल भवन के लिए 25 लाख रुपए मंजूर हुए. लिहाजा, सरकारी खर्च पर बड़े कमरों वाला एक बड़ा भवन बनकर तैयार हुआ. साथ ही ग्रामीणों ने इन कमरों की साज-सज्जा के लिए दो लाख रुपए का चंदा जुटाया. ये कमरे अब मूल्यवर्धन की गतिविधियों के अनुकूल है. इसके अलावा लोगों ने मदद की तो पानी की एक बड़ी टंकी बनी और बिजली की व्यवस्था भी बहाल हुई. पहले स्कूल परिसर में एक भी पेड़ नहीं था. पर, ग्रामीणों की मेहनत से यहां गुलाब से लेकर नारियल और अशोक के सौ से ज्यादा पेड़-पौधे हैं.”

पर, शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए इस स्कूल के लिए सबसे बड़ी जरुरत थी पर्याप्त शिक्षकों कीं, ताकि हर एक शिक्षक सभी बच्चों पर पूरा ध्यान दे सके. इस बारे में शिक्षकों ने बताया कि इसके लिए सरंपच ने ग्रामीणों के साथ एक बैठक आयोजित की. चर्चा में यह बात सामने आई कि अच्छी पढ़ाई के लिए योग्य शिक्षक ढूंढ़ने ही होंगे. इसके बाद, आसपास के गांवों से तीन अच्छे शिक्षक मिले, जो कि बगैर एक रुपए लिए बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयार थे.

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बच्चों से बात करने पर उन्होंने बताया कि उनमें से कई बच्चे यहां 12 किलोमीटर दूर के गांवों से पढ़ने के लिए आते हैं. इनमें सावलदबारा, नांदागाव, घाणेगांव ताडा बस्ती, मालाखेडा, पलासखेडा और हिवरी जैसे कई गांव हैं. अपने बच्चों को स्कूल से लाने और ले जाने के लिए बच्चों के अभिभावकों ने किराए की दो जीपों की व्यवस्था की है.

यहां पढ़ने आने वाले एक बच्चे के अभिभावक  विलास जाधव बताते हैं कि दूसरे गांव के प्राइवेट स्कूल में सालाना 15-20 हजार रुपए देने पर भी बच्चों को उतनी अच्छी शिक्षा नहीं मिलती, जितनी अच्छी यहां मिलती है. उनके शब्दों में, ”ग्रामीण क्षेत्र में इतना अच्छा स्कूल होना और वह भी मुफ्त में उपलब्ध होना हमारे लिए एक उपलब्धि है.”

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सरपंच भारती लोखंडे कहती हैं, ”हम आसपास के गांव वालों के साथ मिलकर यह तय किया है कि इस स्कूल की हर मांग को हम पूरा करने की कोशिश करेंगे. हमारे लिए गर्व की बात यह है कि दूसरे गांव के बच्चे हमारे स्कूल में पढ़ने के लिए आते हैं.”

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