हरियाणा: भाजपा की दुर्गति और कांग्रेस की वापसी

नतीजों से पहले दहाई में नहीं पहुंचती दिख रही कांग्रेस ने कैसे किया हरियाणा में चमत्कार.

WrittenBy:मनदीप पुनिया
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हरियाणा विधानसभा चुनाव 2019 की मतगणना पूरी होने के बाद यह विश्वास से कहा जा सकता है कि राजनीति के ‘घोड़ा व्यापारी’ सक्रिय हो चुके हैं. चुनाव जीते निर्दलीय विधायकों को नीलामी के अड्डे तक पहुंचने में देरी न हो जाए या वो ट्रैफिक जाम में न फंस जाएं, इस तरह की तमाम दुविधाओं को ध्यान में रखते हुए हरियाणा से दिल्ली तक निजी हवाई जहाजों के इंतज़ाम हो गए हैं. खैर मंडी में मोल-भाव होते रहेंगे. इससे पहले ये समझना जरूरी है कि हरियाणा में ‘अबकी बार, 75 पार’ का नारा देने वाली बीजेपी की बस का टायर कैसे फट गया और क्यों उसे फिलहाल कुछ दूसरे पहियों की जरूरत आन पड़ी है.

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मतगणना के शुरुआती रुझानों के बाद से ही मीडिया चैनलों के एक हिस्से ने मनोहर लाल खट्टर के लचर प्रदर्शन के पीछे जाटों की टैक्टिकल वोटिंग को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया. जाटों को बीजेपी के खराब प्रदर्शन का ‘अपराधी’ बताया जाने लगा. दरअसल यह बहुत संकीर्ण व्याख्या है जो बीजेपी के फायदे के लिए कही जा रही है.

आंकड़े कुछ औऱ कहनी बताते हैं. सच्चाई ये है कि हरियाणा के देहात ने बीजेपी को नकार दिया है और बीजेपी की बस को बहुमत के निशान तक पहुंचाने के लिए सारा जोर शहरातियों ने लगाया है. चुनाव परिणाम को जाति से जोड़ने वाले लोग इसे न तो किसान से जोड़कर देख रहे हैं और न ही बेरोजगारी से. पत्रकारिता के अध्यापक सुनीत मुखर्जी का मानना है, “हरियाणा में ग्रामीण अर्थव्यवस्था बड़ी मुश्किल परिस्थितियों से गुज़र रही है. देहाती युवा के पास रोजगार नहीं है और किसान के हिस्से कर्ज के अलावा कुछ आता नहीं. इसी वजह से ग्रामीण हरियाणा ने बीजेपी को रिजेक्ट कर दिया है.”

क्यों हुई भाजपा की दुर्गति

24 अक्टूबर को आए नतीजों की स्क्रिप्ट साल 2016 के शुरुआत से ही तैयार होने लगी थी. 2016 के फरवरी महीने में मनोहरलाल खट्टर ने जाटों को ‘कंधे के ऊपर कमजोर’ यानी मानसिक रूप से कमजोर बताया था. सूबे के मुख्यमंत्री द्वारा ‘किसान जाति’ को दिए गए इस तगमे का अपमान जाट चुपचाप सह गए और चुनाव का इंतजार करते रहे. उस वक्त कोई बड़ा विरोध नहीं हुआ था.

खट्टर जो खुद पंजाबी समुदाय से आते हैं, के उस बयान से स्पष्ट हो गया था कि बीजेपी अपनी राजनीति के लिए जाट बनाम नान जाट के बंटवारे की रणनीति का इस्तेमाल कर रही है. हरियाणा की राजनीति को लंबे समय से आकलन करने वाले अनिल आर्य बताते हैं, “कैप्टन अभिमन्यु, ओमप्रकाश धनखड़, सुभाष बराला से लेकर प्रेमलता तक बीजेपी के सभी बड़े जाट नेताओं को जनता ने हरा दिया है क्योंकि ये सभी लोग खट्टर के उस जाट विरोधी बयान का  बचाव करने में लग गए थे और बीजेपी की ‘जाट-नॉन जाट’ राजनीति का हिस्सा बन गए थे.”

इस चुनाव में बीजेपी ने हार के डर से 2 मंत्रियों को टिकट भी नहीं दिया था और बचे हुए जिन 8 मंत्रियों को पार्टी ने टिकट दिया उनमें से 7 मंत्री चुनाव हार गए हैं. यह बीजेपी की नैतिक हार भी है. हारने वालों में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला भी शामिल हैं. चुनाव से पहले एकतरफा ‘लहर’ बताने वाली बीजेपी जिन खिलाड़ियों को चुनावी मैदान में लायी थी, उनमें कुश्ती स्टार योगेश्वर दत्त और बबिता फोगाट चुनाव हार गए हैं. टिक टॉक स्टार सोनाली फोगाट भी खेत रहीं.

हरियाणा के एक बुजुर्ग ताऊ ने हुक्का पीते हुए दत्त और फोगाट की हार पर मज़ेदार प्रतिक्रिया दी. कश खींचकर वो बोले, “खेल में मेडल लेकर आए थे तो हुड्डा ने इन्हें डीएसपी बना दिया था. खट्टर ने इन्हें राष्ट्रवाद की चासनी में डुबाकर फायदा भी लिया और आखिर में चुनाव हरवाकर बेरोज़गार भी कर दिया.”

हरियाणा के देहातों की हुक्का बैठक में चुनाव नतीजे आने के बाद एक ही बात सबसे ज्यादा निकल रही है ‘काढ़ दी नै मरोड़’ (निकाल दी न अकड़!). इस चुनाव का मूल तत्व ‘मरोड़’ निकालना रहा है. देहातियों ने बीजेपी की मरोड़ निकाली है, तो शहरातियों ने कांग्रेस की! सुनीत मुखर्जी कहते हैं, “हरियाणा में बड़बोलापन महंगा पड़ता है. यहां के सीधे-साधे देहाती लोग उस बड़बोलेपन का हिसाब बड़े मज़ेदार ढंग से करते हैं. बीजेपी के बड़े नेता इस बड़बोलेपन का भी शिकार हुए हैं. लोगों ने उनको चित्त कर दिया है.”

जेजेपी का उदय

खैर कई कारणों से बीजेपी बहुमत का आंकड़ा नहीं पार कर पाई है. ऐसे में नेशनल मीडिया जेजेपी को ‘स्टार पार्टी’ या ‘सत्ता के ताले की चाबी’ बता रही है. जेजेपी ओमप्रकाश चौटाला के पोते दुष्यंत चौटाला की पार्टी है, जिसे दुष्यंत ने पारिवारिक कलह के चलते 11 महीने पहले मूल इनेलो को तोड़कर बनाया था. नतीजों से साफ जाहिर है कि दुष्यंत इनेलो का काडर और वोट बैंक अपने साथ ले उड़े हैं. ऐसे में जेजेपी को करिश्मा करने वाली पार्टी कहना थोड़ी कम जानकारी वाली बात लगती है.

साल 2014 के चुनाव में अकेले इनेलो (दुष्यंत+अभय चौटाला) के पास 20 विधायक थे और पारिवारिक कलह से पार्टी तोड़ने वाले दोनों चाचा भतीजे के पास इस बार सिर्फ 10+1= 11 विधायक हैं. यानी कुल मिलाकर 9 विधायकों का नुकसान. दुष्यंत चौटाला की आईटी सेल ने सबसे ज्यादा मेहनत की है. बीजेपी की तर्ज पर ही दुष्यंत चौटाला की आईटी सेल टीम ने चुनाव से पहले बोरे भर भरके फ़ेक न्यूज़, प्रोपेगेंडा और कई तरह का घटिया कंटेंट सोशल मीडिया पर फैलाया. हालांकि चौटाला परिवार ने इस चुनाव में एक रिकॉर्ड यह भी बनाया है कि अकेले उनके परिवार से विधानसभा में 5 विधायक होंगे. दुष्यंत उचाना से और उनकी मां नैना चौटाला बाढड़ा से, इनेलो के अभय चौटाला ऐलनाबाद से, रणजीत सिंह रानिया से निर्दलीय और अमित सिहाग कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने हैं.

कांग्रेस का रिवाइवल

अगर कांग्रेस की बात करें तो भुपेंदर हुड्डा ने अपने गढ़ को मज़बूत कर लिया है. लोकसभा चुनाव में शून्य पर पहुंच गई कांग्रेस ने महज पांच महीने के भीतर जिस तरह की चुनौती बीजेपी को दी है वह निश्चित ही नतीजों से पहले अकल्पनीय लग रही थी.

भुपेंदर हुड्डा चुनाव से कई महीने पहले से ही प्रदेश कांग्रेस की कमान मांग रहे थे, लेकिन उन्हें फ्री हैंड आखरी के एक महीने ही मिल पाया. अगर तीन या चार महीने पहले उन्हें कमान मिल जाती तो कुछ और सीटें कांग्रेस खाते में जुड़ जातीं. इस चुनाव में हुड्डा रोहतक, झज्जर और सोनीपत जिले की राजनीति के एकतरफा जिताऊ पहलवान बनकर उभरे हैं.

मेवात ने भी कांग्रेस को तीन सीटें दी हैं. हालांकि हुड्डा को टिकड बंटवारे में गलती करने की वजह से कई सीटों का नुकसान झेलना पड़ा है. हुड्डा ने टोहाना से देवेंद्र बबली, शाहाबाद से रामकरण काला, अम्बाला में सरदार निर्मल सिंह और दादरी में सतपाल सांगवान की अनदेखी करने का नुकसान हुआ है. चुनाव के हिसाब से हुड्डा की आईटी सेल भी बहुत कमजोर रही है. सोशल मीडिया पर हुड्डा और उनके बेटे के पक्ष में बहुत कम माहौल देखने को मिलता था.

इस चुनाव में अशोक तंवर सबसे रोचक किरदार बनकर उभरे. प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाए जाने के बाद ही उन्होंने अपने आपको फ्रीलांस राजनेता घोषित कर दिया और अलग-अलग सीटों पर गैर कांग्रेसी प्रत्याशियों के लिए वोट मांगने लगे. जब उनका मज़ाक उड़ने लगा तो वे दुष्यंत चौटाला का समर्थन करने पहुंचे. कांग्रेस की स्थिति पर सुनीत मुखर्जी कहते हैं, “कांग्रेस को जैसी पिच वैसे गेंदबाज़ और बल्लेबाज़ उतारने पड़ेंगे. राज्यों और वहां के मुद्दों के हिसाब से कांग्रेस को क्षेत्रीय नेताओं को आगे करना पड़ेगा और राहुल गांधी को भी युवा नेतृत्व के साथ-साथ पुराने नेताओं के साथ भी तालमेल बैठाना पड़ेगा.”

मतगणना पूरी होने के बाद से ही सभी यह जानना चाहते हैं कि कौन सरकार बना रहा है? इसके जवाब में अनिल आर्य बताते हैं, “सरकार बनने के दो ही रास्ते नज़र आते हैं. एक तो बीजेपी के 40+ 9 निर्दलीय या जेजेपी के 10 विधायक. दूसरा कांग्रेस के 31+ जेजेपी  10 + 9 निर्दलीय विधायक. पहले वाला रास्ता ज्यादा संभावित है, यानी बीजेपी सरकार बनाती नज़र आ रही है. जादुई आंकडा 46 का है.

बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है, केन्द्र में बीजेपी की सरकार है और राज्यपाल भी उन्हीं का है. नियम कायदे से भी सबसे बड़े दल को पहले आमंत्रित करने की परंपरा है. लिहाजा मनोहर लाल खट्टर दोबारा से हरियाणा के मुख्यमंत्री की शपथ लें तो कोई अचरज नहीं है. अभय सिंह स्पष्ट कह चुके हैं कि मैं कांग्रेस के साथ नहीं जाऊंगा… दो-तीन और भी बीजेपी की पृष्ठभूमि के ही विधायक जीत कर आए हैं. तो दूसरे रास्ते में दम नहीं है.”

जेजेपी और निर्दलीयों के बारे अनिल आर्य का आकलन हैं, “निर्दलीयों की मरोड भी कुछ समय रहने वाली है और जेजेपी का टूटना भी संभव है. दुष्यंत की हालत कुलदीप बिश्नोई वाली बन सकती है. जैसे 2009 में भूपेंदर हुड्डा कुलदीप बिश्नोई के विधायक ले उड़े थे. इस बार बीजेपी, जेजेपी के साथ वही कर सकती है. ऐसी सूरत में बीजेपी पूर्ण बहुमत में हो जाएगी.”

अगर बीजेपी और अमित शाह धनतेरस के दिन निर्दलीय विधायकों को बीजेपी के साथ जोड़ पाने में सफल हो जाते हैं, तो जेजेपी की चाबी किसी भी तरह की सत्ता का ताला नहीं खोल पाएगी. सिरसा से विधायक बने निर्दलीय गोपाल कांडा दिल्ली में जमे हुए हैं और बीजेपी के लिए बाकी निर्दलीय विधायकों का जुगाड़ कर रहे हैं. यह वही गोपाल कांडा हैं जिनका नाम गीतिका शर्मा आत्महत्या कांट में मशहूर हुआ था. इस आरोप में वे 18 महीने तक जेल में भी रहे थे. बाद में दिल्ली हाइकोर्ट ने उनको रेप के आरोप से मुक्त कर जमानत दे दी थी. ज्यादातर निर्दलीय विधायक इस समय बीजेपी के पाले में बैठे हैं. निर्दलीय विधायक यूं भी कोई कोई बड़ी सामाजिक या राजनीतिक क्रांति करने नहीं आए हैं. वे सत्ता में हिस्सेदार चाहते हैं और बीजेपी इसका सबसे सुगम जरिया है.

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