पार्ट 4: स्व-नियमन की कब्र पर फल-फूल रही है प्रोपगैंडा टीवी पत्रकारिता

बेकाबू चैनलों की जिम्मेदारी और जवाबदेही कौन तय करेगा?

WrittenBy:आनंद प्रधान
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न्यूज़ चैनलों की आक्रामक, सांप्रदायिक जहरीली प्रोपेगंडा ‘पत्रकारिता’ बिना किसी रोकटोक के जारी है. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने और उसे भुनाने में वे सभी सीमाएं तोड़ रहे हैं. इस प्रक्रिया में स्व-नियमन की धज्जियां वही न्यूज़ चैनल उड़ा रहे हैं जो चाहते हैं कि इस व्यवस्था को ही कानूनी दर्जा दे दिया जाए.

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आज रिपब्लिक टीवी जो कर रहा है, उसमें कोई नई बात नहीं है. ज़ी न्यूज़ और इंडिया टीवी यह पहले ही कर चुके हैं. खासकर स्व-घोषित “राष्ट्रवादी” चैनल ज़ी न्यूज़ ने एनबीए और न्यूज़ ब्राडकास्टिंग स्टैण्डर्ड अथॉरिटी (एनबीएसए) के एक महत्वपूर्ण आदेश को डेढ़ साल पहले जिस तरह खुलेआम अंगूठा दिखा दिया था, उसके बाद से न्यूज़ चैनलों की स्व-नियमन की व्यवस्था को लेकर फिर से सवाल उठने लगे थे.

उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज आरवी रवींद्रन की अध्यक्षता में गठित आठ सदस्यी एनबीएसए ने ज़ी न्यूज़ को अपने एक प्राइम टाइम कार्यक्रम में वरिष्ठ वैज्ञानिक और शायर डा. गौहर रज़ा को “अफज़ल प्रेमी गैंग का सदस्य” और “राष्ट्रविरोधी” (एंटी-नेशनल) आदि घोषित करने के मामले में न्यूज़ चैनलों की खुद की बनाई गाइडलाइंस के उल्लंघन का दोषी माना था.

एनबीएसए ने इस मामले में महीनों तक चली सुनवाई की प्रक्रिया और दोनों पक्षों की ओर से रखे गए तथ्यों और तर्कों को सुनने के बाद 31 अगस्त 2017 को आदेश दिया था कि इस मामले में ज़ी न्यूज़ अपनी गलती के लिए 8 सितम्बर को चैनल पर प्राइम टाइम पर सार्वजनिक माफ़ी मांगे और साथ में, एक लाख रुपये का जुर्माना भरे.

लेकिन ज़ी न्यूज़ ने यह आदेश नहीं माना. ज़ी न्यूज़ ने इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए एनबीएसए के सामने एक नहीं, दो बार अपील की. दोनों बार उसकी अपील ख़ारिज करके अथारिटी ने ज़ी न्यूज़ को इस फैसले को लागू करने के निर्देश दिए थे. यही नहीं, इस मामले में न्यूज़ चैनलों की संस्था- एनबीए ने भी कोशिश की लेकिन ज़ी न्यूज़ नहीं माना. उसके बाद से एनबीए भी चुप है जिसपर इस आदेश को लागू कराने की जिम्मेदारी है. वह कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया देने को भी तैयार नहीं है. किसी को पता नहीं है कि एनबीएसए का यह आदेश लागू होगा कि नहीं या आदेश नहीं लागू करने पर ज़ी न्यूज़ के खिलाफ क्या कार्रवाई होगी या फिर डा. गौहर रज़ा अपनी शिकायत लेकर कहां जाएं?

उसके बाद से यह सवाल उठ रहे हैं कि जब एनबीए अपने एक सदस्य न्यूज़ चैनल को एनबीएसए का आदेश मानने के लिए तैयार करने में नाकाम है या उसे लागू कराने की स्थिति में नहीं है तो यह कैसा स्व-नियमन है और इसका क्या औचित्य है? क्या स्व-नियमन मज़ाक बनकर नहीं रह गया है? ये सवाल कई कारणों से महत्वपूर्ण हो गए हैं.

सवाल यह है कि सबकी जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करनेवाले और उसके लिए उनसे सार्वजनिक जवाब मांगने वाले न्यूज़ चैनलों की भी किसी के प्रति कोई जवाबदेही है या नहीं? क्या उनके दर्शकों को यह जानने का अधिकार है कि उनका न्यूज़ चैनल पत्रकारिता के उसूलों और आचार संहिता का पालन कर रहा है या नहीं? आखिर चैनलों की यह जवाबदेही कौन तय करेगा? ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो गए हैं क्योंकि इस जवाबदेही को तय करने के लिए न्यूज़ चैनलों ने स्व-नियमन की जो व्यवस्था खुद बनाई है और जिसके पालन की जिम्मेदारी भी उनकी है, उसे वे खुद अंगूठा दिखा रहे हैं और उसका मजाक बना रहे हैं.

इससे यह सन्देश जा रहा है कि न्यूज़ चैनलों को कुछ भी दिखाने खासकर पत्रकारिता के उसूलों और आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए झूठ को सच बताकर पेश करने, तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने, आरोपों को तथ्य बताने, एकतरफा जहरीला सांप्रदायिक प्रोपगैंडा करने और डा. गौहर रज़ा जैसे लेखक को अपमानित करने और उनकी जान को खतरे में डालने का लाइसेंस मिल गया है. यह गहरी चिंता की बात इसलिए है क्योंकि यह सिर्फ ज़ी न्यूज़ और डा. गौहर रज़ा तक सीमित मामला नहीं है और न ही यह कोई अकेला अपवाद है. सच यह है कि यह न सिर्फ नियम सा बन गया है बल्कि आज यह टीवी न्यूज़ का एक प्रमुख ट्रेंड बन चुका है.

दरअसल, इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर ज़ी न्यूज़ से लेकर रिपब्लिक टीवी तक हिंदी और अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनलों का बड़ा हिस्सा “राष्ट्रवादी” या “नेशन फर्स्ट” पत्रकारिता के नाम पर तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़, झूठ को सच बनाने और सच पर पर्दा डालने, जहरीले सांप्रदायिक प्रोपगैंडा, सरकार पर सवाल उठाने वाले विपक्षी दलों और नेताओं से लेकर मानवाधिकार, विस्थापन और विस्थापन जैसे मुद्दों पर काम करने वाले एनजीओ एक्टिविस्टों और स्वतंत्र और विरोधी विचारों वाले उदार, वाम, लोकतान्त्रिक बुद्धिजीवियों-लेखकों को निशाना बनाने और उनकी छवि बिगाड़ने के सुनियोजित और संगठित अभियान का भोंपू बन गया है.

देश में एक गैर बुद्धिवादी और तर्क विरोधी उन्माद (हिस्टीरिया) पैदा करने की कोशिश की जा रही है जिसके तहत स्वतंत्र, उदार और आलोचनात्मक आवाजों के खलनायकीकरण किया जा रहा है. इस अभियान के तहत देश भर में ऐसा जहरीला माहौल बनाया गया है जहां धुर दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी राजनीति से असहमत उदार, लोकतान्त्रिक, वाम और तर्कशील आवाजें खतरे में हैं. बीते साल प्रगतिशील पत्रकार-संपादक, बुद्धिज़ीवी और एक्टिविस्ट गौरी लंकेश की हत्या जिन परिस्थितियों में हुई है, उसके लिए काफी हद तक मौजूदा बुद्धिविरोधी-तर्कविरोधी जहरीला माहौल जिम्मेदार है. गौरी ऐसी अकेली बुद्धिज़ीवी नहीं हैं जिनकी हत्या हुई है. पिछले चार साल में डा. नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसारे और प्रो. कलबुर्गी की हत्या ऐसे ही माहौल में हुई है.

स्वातंत्रयोत्तर भारत के न्यूज़ मीडिया इतिहास में ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं देखी गई. यहां तक कि आपातकाल के काले दौर में भी स्थिति शायद इतनी ख़राब नहीं थी. मौजूदा स्थिति की तुलना बहुत हद तक अमेरिका में 50-60 के दशक में मैकार्थीवाद के उभार से की जा सकती है जब रिपब्लिकन सीनेटर जो (जोसफ) मैकार्थी की अगुवाई में प्रगतिशील और वाम विचारों और बुद्धिज़ीवियों के खिलाफ एक उग्र और जहरीला दक्षिणपंथी और अंध-राष्ट्रवादी प्रोपगैंडा अभियान चला था जिसके निशाने पर वामपंथी ट्रेड यूनियन नेता, बुद्धिज़ीवी, लेखक, पत्रकार, फिल्म कलाकार और युद्ध विरोधी एक्टिविस्ट थे और जिन्हें चुन-चुनकर निशाना बनाया गया था.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारत भी एक नए तरह के मैकार्थीवाद की चपेट में है. लगभग उसी तर्ज पर देश में एक उग्र और जहरीला दक्षिणपंथी-फासीवादी प्रोपगैंडा अभियान चल रहा है जिसके अग्रगामी दस्ते में कई प्रमुख न्यूज़ चैनल शामिल हैं. इस दस्ते में फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया और व्हाट्सएप जैसे मेसेंजर प्लेटफार्म भी शामिल हैं जो हर दिन फ़ेक न्यूज़ और जहरीले सांप्रदायिक प्रचार को करोड़ों लोगों तक पहुंचा रहे हैं और उनके दिमाग में जहर भर रहे हैं. स्वतंत्र, उदार, वाम और असहमत/क्रिटिकल बुद्धिज़ीवियों/पत्रकारों/सामाजिक कार्यकर्ताओं को “लिब्टार्ड, आपटार्ड, सिकुलर, कॉमि, खान्ग्रेसी, प्रेस्टीच्यूट, न्यूज़ ट्रेडर्स, लुटियन मीडिया” आदि संज्ञाओं से नवाज़ा जा रहा है और उन्हें “विदेशी/ईसाई मिशनरियों से फंडेड, पश्चिमपरस्त, हिन्दू विरोधी, भारत विरोधी, विकास विरोधी” आदि घोषित कर दिया गया है.

इस प्रोपगैंडा अभियान ने न सिर्फ पूरा राष्ट्रीय विमर्श को हाईजैक कर लिया है बल्कि पूरे पब्लिक स्फीयर को प्रदूषित और जहरीला बना दिया है. इस जहरीले अभियान का ही एक उदाहरण ज़ी न्यूज़ का वह प्राइम टाइम कार्यक्रम था जिसमें न सिर्फ वरिष्ठ वैज्ञानिक और शायर डा. गौहर रज़ा को निशाना बनाया गया बल्कि उस मुशायरे को ही “अफ़ज़ल प्रेमी गैंग का मुशायरा” घोषित कर दिया गया. असल में, दिल्ली में वर्ष 1954 से यह शंकर शाद (भारत-पाकिस्तान) मुशायरा हर साल आयोजित होता है. यह मुशायरा दिल्ली के सालाना सांस्कृतिक कैलेण्डर के प्रमुख कार्यक्रमों में से एक है जिसमें भारत और पाकिस्तान के नामी-गिरामी शायर शिरकत करते हैं और हजारों लोग उसे सुनने के लिए जमा होते हैं.

पिछले साल 5 मार्च को 51वें शंकर शाद मुशायरे में डा. गौहर रज़ा ने भी तीन कवितायें सुनाईं थीं जिसमें एक सफ़दर हाशमी की हत्या के बाद 1989 में लिखी गई थी जबकि दूसरी ईराक में दो पत्रकारों की हत्या पर 2010 में और तीसरी 2016 में लिखी थी. इस कार्यक्रम के तीन दिन बाद 9 मार्च को ज़ी न्यूज़ ने प्राइम टाइम पर “अफज़ल प्रेमी गैंग का मुशायरा” शीर्षक से एक कार्यक्रम दिखाया जिसका अगले तीन-चार दिनों तक अलग-अलग समय पर रीपीट टेलीकास्ट भी किया गया.

इस न्यूज़ कार्यक्रम में बार-बार भड़काऊ वायसओवर के साथ टैगलाइन में “अफज़ल गुरु गैंग”, “अफज़ल प्रेमी गैंग”, “देशविरोधी शायर” का इस्तेमाल किया गया और डा. गौहर रज़ा को उस गैंग का सदस्य बताते कहा गया कि, “ये ऐसा गैंग है जो भारत के टुकड़े करनेवाली सोच के साथ खड़ा दिख रहा है.” न्यूज़ कार्यक्रम में मुशायरे और डा गौहर रज़ा के विजुअल्स के बीच ज़ी न्यूज़ ने जेएनयू के 9 फ़रवरी के वे विवादित विजुअल्स भी बिना किसी “फ़ाइल फुटेज” टैग के जोड़ दिए गए थे.

 कहने की जरूरत नहीं है कि पूरे न्यूज़ कार्यक्रम की भाषा, उसका सुर और तेवर आक्रामक, भड़काऊ और डरानेवाला था. डा. गौहर रज़ा का “कसूर” यह था कि उन्होंने अपनी शायरी पढ़ने के दौरान जेएनयू के कन्हैया कुमार और हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला का नाम लिया था. सिर्फ इस बिना पर ज़ी न्यूज़ ने डा. गौहर रज़ा को अफ़ज़ल गुरु गैंग का समर्थक और दर्शकों समेत पूरे मुशायरे को अफ़ज़ल प्रेमी गैंग का मुशायरा घोषित कर दिया. वैसे ही जैसे जेएनयू में 9 फ़रवरी के एक कार्यक्रम की विवादित वीडियो फुटेज के आधार पर पूरे विश्वविद्यालय को “राष्ट्रविरोधी” और छात्रसंघ के चुने हुए प्रतिनिधियों और छात्र नेताओं, शिक्षकों और उनका समर्थन करने वाले लेखकों-बुद्धिज़ीवियों तक को “देशद्रोही” घोषित कर दिया गया था.

याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि किस तरह न्यूज़ चैनलों के बड़े हिस्से, सोशल मीडिया और दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक संगठनों ने जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के खलनायकीकरण का अभियान छेड़ दिया था. जेएनयू को “राष्ट्रविरोध” से लेकर “फ्री सेक्स” का अड्डा बताया गया. सोशल मीडिया पर जेएनयू को बंद करने के लिए #ShutdownJNU जैसे अभियान चलाये गए. सवाल उठाए गए कि जेएनयू जैसे “राष्ट्रविरोधी” विश्वविद्यालय पर करदाताओं के टैक्स का पैसा क्यों खर्च किया जाए? यह अभियान आज कई वर्षों के बाद भी वैसे ही जारी है. रिपब्लिक और टाइम्स नाउ जैसे न्यूज़ चैनलों पर एंकर और दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक संगठनों से जुड़े प्रवक्ता या उनके समर्थक विश्लेषक अक्सर जेएनयू का मजाक उड़ाते, उलाहने देते और आलोचना करते दिख जाएंगे.

असल में, ज़ी न्यूज़ के लिए डा. गौहर रज़ा और शंकर शाद मुशायरा एक साफ्ट लेकिन राजनीतिक-वैचारिक रूप से उपयुक्त टार्गेट थे. पहली बात तो यह है कि डा. रज़ा मुस्लिम हैं और शंकर-शाद मुशायरा उर्दू भाषा की शायरी का कार्यक्रम था जिसे मौजूदा मुस्लिम विरोधी उन्माद के माहौल में आसानी से भुनाया जा सकता था. दूसरे, वे प्रगतिशील-वाम रुझानों के लेखक हैं और धर्मनिरपेक्षता की वकालत करते हैं, इसलिए वे ज़ी न्यूज़ जैसे “राष्ट्रवादी” चैनलों के स्वाभाविक निशाने पर हैं. तीसरे, भले ही जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर राजद्रोह का मामले में न्यायायिक प्रक्रिया शुरू न हुई हो और कोर्ट का फैसला न आया हो लेकिन “राष्ट्रवादी” और “नेशन फर्स्ट” चैनलों के लिए वे घोषित “देशद्रोही” हैं और उनका नाम लेना देशद्रोह और ईशनिंदा से कम नहीं है.

आश्चर्य नहीं कि ज़ी न्यूज़ ने अपने बचाव में यही “तर्क” दिया है कि डा. गौहर रज़ा ने शायरी के दौरान जेएनयू, कन्हैया और वेमुला का उल्लेख क्यों किया? ज़ी न्यूज़ से यह सवाल पूछना बेमानी है कि किस कानून के तहत जेएनयू, कन्हैया कुमार या रोहित वेमुला का नाम लेना अपराध है? क्या ज़ी न्यूज़ कंगारू कोर्ट है जिसे आरोप लगाने, मुकदमा चलाने से लेकर फ़ैसला सुनाने तक का अधिकार हासिल है? मानें या न मानें लेकिन यह सच है कि इन दिनों “राष्ट्रवादी” और “नेशन फर्स्ट” का झंडा उठाये न्यूज़ चैनल और उनके एंकर-संपादक कंगारू कोर्ट ही बन गए हैं जहां वही आरोप लगाते हैं, खुद छानबीन करते हैं, फिर चार्जशीट पेश करते हैं और प्राइम टाइम में खुद ही जज और जूरी बनकर फैसला सुनाते हैं. इस अदालत में फैसला पहले से तय रहता है और उसके मुताबिक ही आरोप, गवाह और सबूत गढ़ लिए जाते हैं.

डा. गौहर रज़ा का मामला भी इस नियम का अपवाद नहीं है. उनका दोष और फैसला पहले से तय था. हैरानी की बात नहीं है कि ज़ी न्यूज़ ने डा. रज़ा को अपना पक्ष रखने का मौका भी नहीं दिया. आमतौर पर माना जाता है कि न्यूज़ मीडिया जब कोई ऐसी रिपोर्ट कर रहा हो जिसमें बहुत अकाट्य सबूत न हों और जिसका नकारात्मक असर उस व्यक्ति या संगठन की छवि पर पड़ सकता है तो उसे भी अपना पक्ष रखने या सफाई का मौका दिया जाए. लेकिन ज़ी न्यूज़ ने इसकी कोई जरूरत नहीं समझी. चैनलों की खुद की बनाई स्व-नियमन संस्था- एनबीएसए ने भी ज़ी न्यूज़ की इस चूक पर उंगली उठाई है. लेकिन ज़ी न्यूज़ को यह चूक नहीं लगती है.

यही नहीं, एनबीएसए ने दोनों पक्षों के वकीलों और उनके लिखित बयानों की जांच और खुद कार्यक्रम की सीडी देखने के बाद 31 अगस्त 2017 के अपने फैसले में माना है कि ज़ी न्यूज़ ने टीवी न्यूज़ चैनलों की खुद की बनाई गाइडलाइंस के मुताबिक तथ्यता (एक्यूरेसी), निष्पक्षता आदि मानदंडों का पालन नहीं किया. एनबीएसए के अनुसार, इस गाइडलाइंस में साफ़ तौर पर कहा गया है कि “चैनल किसी भी विवाद या टकराव से प्रभावित होनेवाले सभी पक्षों को अपना पक्ष रखने का मौका दें” और “चैनलों को यह सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए कि आरोपों को तथ्यों की तरह और आरोपपत्र को किसी के दोषी होने की तरह न पेश किया जाए.”

लेकिन ज़ी न्यूज़ ने न सिर्फ इसका पालन नहीं किया बल्कि गाइडलाइंस में निर्देशित और कई प्रावधानों जैसे, वस्तुनिष्ठता, निजता के अधिकार, न्यायसंगतता आदि का भी उल्लंघन किया है. यही नहीं, ज़ी न्यूज़ के कार्यक्रम का शीर्षक “अफ़ज़ल प्रेमी गैंग का मुशायरा” अत्यधिक आपत्तिजनक और अपमानजनक था. एनबीएसए के सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से माना कि पूरा कार्यक्रम पक्षपातपूर्ण तरीके से पूरे मुद्दे को सनसनीखेज बनाने के लिए तैयार किया गया है और तथ्यों को इस तरह से तोड़ा-मरोड़ा गया है कि वह समाचार दिखाई पड़े. इस निष्कर्ष के आधार पर ही एनबीएसए ने ज़ी न्यूज़ के खिलाफ एनबीए के प्रावधानों के मुताबिक सख्त फैसला दिया जिसे उसने मानने से इनकार कर दिया.

सच यह है कि पिछले आठ साल में इस स्व-नियमन व्यवस्था की सीमाएं और कमियां खुलकर सामने आ गई हैं. एक तो न्यूज़ चैनलों खासकर क्षेत्रीय न्यूज़ चैनलों का बड़ा हिस्सा इस स्व-नियमन के दायरे से बाहर है. दूसरे, बहुतेरे खासकर बड़े और ताकतवर न्यूज़ चैनलों के लिए स्व-नियमन का अर्थ मनमानी हो गया है. वे अपनी ही बनाई गाइडलाइंस का शब्दों और भावना के साथ पालन करने के लिए तैयार नहीं हैं. वे हर दिन उसे अंगूठा दिखाते हैं. लेकिन डा. गौहर रज़ा जैसे कम दर्शक या प्रभावित पक्ष हैं जो न्यूज़ चैनलों से शिकायत करने और उसे एनबीएसए तक ले जाने और वहां अपनी बात रखने की तैयारी, साहस और धैर्य दिखा पाते हैं. न्यूज़ चैनल दर्शकों की इस कमजोरी का फायदा उठा रहे हैं.

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले तीन सालों में अधिकांश न्यूज़ चैनल जिस तरह से अपनी ही गाइडलाइन और पत्रकारिता के मूल्यों और उसूलों को ताखे पर रखकर एक पूर्वाग्रह और पक्षपातपूर्ण और जहरीले प्रोपगैंडा में जुटे हैं, उसने स्व-नियमन की व्यवस्था को पूरी तरह से मजाक (फार्स) बना दिया है. ज़ी न्यूज़ समेत कई न्यूज़ चैनल रोज स्व-नियमन की धज्जियां उड़ा रहे हैं और एनबीए और उसके तहत एनबीएसए आंखों पर पट्टी बांधे बैठे हैं. इसलिए यह देखकर हैरानी नहीं होती है कि ज़ी न्यूज़ ने एनबीएसए के आदेश को अंगूठा दिखा दिया है. इसमें ज़ी न्यूज़ अकेला नहीं है. आखिर इस मामले में एनबीए की चुप्पी क्या बताती है.

सच यह है कि अधिकांश न्यूज़ चैनल हर दिन स्व-नियमन को अंगूठा दिखा रहे हैं. इन प्रोपगैंडा न्यूज़ चैनलों को पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों, नैतिकता और परम्पराओं की कोई परवाह नहीं है. वे जिस तरह की पक्षपातपूर्ण और जहरीली प्रोपगैंडा “पत्रकारिता” कर रहे हैं, वह स्व-नियमन की कब्र पर ही पनपी और फली-फूली है. वह स्व-नियमन के अन्दर मौजूद छिद्रों का इस्तेमाल कर रही है. इसलिए स्व-नियमन उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है और न ही उन्हें बदल सकता है. उल्टे स्व-नियमन उनका कवच और बचाव का माध्यम बन गया है. उसकी आड़ में उन्हें कुछ भी दिखाने और बोलने की छूट मिल गई है.

साफ़ है कि स्व-नियमन की मौजूदा व्यवस्था विफल हो गई है. मुश्किल यह है कि उसके विकल्पों को लेकर कई आशंकाएं और डर हैं, देश और नागरिक समाज में आम सहमति नहीं है. सबसे बड़ा डर यह है कि स्व-नियमन की जगह सरकारी नियमन न आ जाए जिसे लेकर लगभग आम सहमति है कि वह पहले से भी बदतर व्यवस्था होगी. एक और विकल्प सरकार और न्यूज़ मीडिया उद्योग दोनों से स्वतंत्र लेकिन वैधानिक अधिकारों से लैस जनतांत्रिक नियमन प्राधिकरण के गठन का है जिसके आदेशों को मानने की बाध्यता सरकार और न्यूज़ चैनलों दोनों पर हो और जिसके पास अपने आदेशों को लागू करने के कानूनी अधिकार भी हों.

लेकिन लगता नहीं है कि मौजूदा माहौल में ऐसे स्वतंत्र और जनतांत्रिक मीडिया नियामक का गठन संभव है. यह एक मृग मरीचिका है जो अभी बहुत दूर और भ्रामक उम्मीद है. लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि नव मैकार्थीवाद एक राजनीतिक प्रोजेक्ट है और न्यूज़ चैनल और मीडिया उसके सिर्फ भोंपू भर हैं. इस राजनीतिक प्रोजेक्ट और उसके प्रोपगैंडा का नियमन या नियंत्रण कोई भी नियामक नहीं कर सकता है, चाहे वह कितना भी स्वतंत्र क्यों न हो. यह दुनिया भर के उदाहरणों से भी जाहिर है.

लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कोई भी सार्वजनिक संस्था जिसमें न्यूज़ मीडिया भी शामिल है, लोकतान्त्रिक जवाबदेही से इनकार नहीं कर सकती है. न्यूज़ चैनल भी अपने कामकाज, कंटेंट यानी समाचारों और विचारों के कवरेज और कार्यक्रमों की प्रस्तुति के लिए आम लोगों के प्रति जवाबदेह हैं. सवाल यह है कि न्यूज़ चैनलों को उनके कंटेंट के लिए कैसे जवाबदेह बनाया जाए? यह भी कि उनके पक्षपातपूर्ण और जहरीले सांप्रदायिक प्रोपगैंडा का मुकाबला कैसे किया जाए? जाहिर है कि इसका कोई आसान जवाब नहीं है. लेकिन एक बात साफ़ है कि इसका मुकम्मल जवाब आमलोगों को जागरूक और सतर्क बनाने, मीडिया साक्षरता बढाने  और नव मैकार्थीवाद को राजनीतिक-वैचारिक चुनौती देकर ही हो सकती है.

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