कांशीराम की 13 पुण्यतिथि के मौके पर उनकी जीवनी से एक अंश
उत्तर भारत के राजनीतिक परिदृश्य में रामविलास पासवान का आगमन, आपातकाल के थोड़ा ही पहले हुआ था. वो राजनारायण और जयप्रकाश नारायण के अनुयायी थे. पासवान 1974 में लोकदल के महासचिव बने. जब आपातकाल की घोषणा हुई तो रामविलास पासवान गिरफ्तार हुए थे और उन्होंने 2 वर्ष जेल में बिताए. 1977 में जेल से छूटने के बाद, वो जनता पार्टी के सदस्य बन गए और इसके टिकट पर पहली बार संसद के सदस्य बने. सबसे अधिक मतों से संसद का चुनाव जीतने का विश्व रिकार्ड बनाया. 1983 में दलितों के सशक्तिकरण और कल्याण के लिए दलित सेना बनाकर उन्होंने खुद को दलित नेता के तौर पर साबित करने का प्रयास किया, लेकिन पासवान दलितों की समस्याओं को सामने लाने में असफल रहे क्योंकि उन्होंने दलितों को जमीनी स्तर पर संगठित करने की कोशिश नहीं की. यह वह समय था, जब दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ रही थीं, खास कर ग्रामीण इलाकों में. दलितों को सुरक्षा प्रदान करने में भारतीय राज्य की असफलता ने भी उनके मोहभंग की भावना को बढ़ाया. बेलची जैसे नरसंहारों की घटनाओं ने मुख्यधारा के नेताओं से उनके अलगाव को तेज किया.
केन्द्र में जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने के तुरन्त बाद 27 मई 1977 को पटना जिले के बेलची गांव में 11 भूमिहीन दलित मजदूरों को कुर्मी जमींदारों द्वारा जिन्दा जला दिया गया. 1980 में बिहार के गया जिले में पारसबिघा गांव के एक दलित टोले को घेर कर जला दिया गया था. बहुत सारे दलित मारे गए थे. इसमें 14 दलित मारे गए. इस घटना के 19 दिनों बाद पटना के नजदीक पुनपुन थाना के गांव पिपरा में बहुत सारे दलितों का कुर्मी जमींदारों ने जनसंहार किया था. उन्होंने दलित बस्ती में आग लगा दी और 13 दलितों को मार डाला. यहां तक कि 1986 के अन्त में बिहार के अरवल गांव के 22 भूमिहीन दलित मजदूर पुलिस की गोली से मारे गए थे.
इस तरह की घटनाओं से दलित असुरक्षित महसूस करने लगे, क्योंकि उनके हितों की रक्षा के लिए कोई दलित नेता नहीं था. यह सब कुछ कांशीराम के लिए छोड़ दिया गया, जो लगभग इसी समय परिदृश्य पर उभरे. उन्होंने प्रभावी तरीके से इस राजनीतिक शून्यता को भरा.
बहुत सारे उदाहरण हैं जिसमें कांशीराम ने जगजीवन राम और अन्य ‘कठपुतलियों’ की आलोचना की है जिसका उल्लेख के.सी. दास ने अपनी पुस्तक में किया है. ‘कांशीराम के अनुसार, लोकप्रिय दलित शख्सियत जगजीवन राम एक नेता नहीं बल्कि कठपुतली थे, जो जनता दल में शामिल होने से पहले कांग्रेस पार्टी में थे.’
दिसम्बर 1989 में कांशीराम ने कहा, ‘बाद में कठपुतली प्रधानमंत्री बनना चाहता था, लेकिन कोई एक कठपुतली को प्रधानमंत्री नहीं बनाएगा. कुछ वर्षों बाद अप्रैल 1992 में उन्होंने कहा कि ‘बाबू जगजीवन राम यथास्थितिवादी शक्तियों द्वारा तैयार किए गए थे और वे यथास्थितिवादी शक्तियों द्वारा ऊपर से उतारे गए थे. 1992 में बोलते हुए कांशीराम रामविलास पासवान के प्रति भी आलोचनात्मक थे : ‘पासवान अपने ही समुदाय के लोगों में ‘ठाकुर का ठप्पा’ के रूप में जाने जाते हैं. जब ठाकुर चाहते हैं तो वे जीतते हैं, वे अनुसूचित जाति के लोगों को वोट नहीं डालने देते, वे जाते हैं और पासवान के पक्ष में पांच या छ: लाख वोट डाल देते हैं.’ इस प्रकार और अन्य तरीके से चमचा युग ने अम्बेडकर के बाद के दलित नेतृत्व की सभी कमियों को उजागर किया और इस बात पर जोर दिया कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी भारत में दलितों की इतनी दयनीय स्थिति का मुख्य कारण दलित नेतृत्व स्वयं है, जो केवल कांग्रेस की हाथ की कठपुतली था.
‘चमचा युग’ में कांशीराम सबसे पहले ‘चमचा’ शब्द की व्याख्या करते हैं. वे इसकी उत्पत्ति को ‘हिन्दुओं की कठपुतलियां’, ‘हिन्दुओं के एजेंट’ और अन्य शब्दों में इसकी पहचान की, जिन शब्दों का इस्तेमाल अम्बेडकर अनुसूचित जाति के अधिकारियों के सन्दर्भ में करते थे. वे लिखते हैं, “आजादी के बाद के राजनीतिक परिदृश्य ने इन एजेंटों और हथकंडों को बहुतायत में जन्म दिया. 1956 में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की मृत्यु के बाद, एजेंटों की पीढ़ियां इस हद तक बढ़ गईं कि ऐसे लोग न केवल राजनीतिक दायरे में पाए जाने लगे बल्कि मानवीय जीवन के सभी क्षेत्रों और विभिन्न रिश्ते में भी इनकी उपस्थिति दिखाई देने लगी. शुरुआती समय में ये कठपुतलियां केवल डॉ. अम्बेडकर की कुशाग्र दृष्टि द्वारा पहचाने गए और उनके बाद दलित बुद्धिजीवियों ने इन्हें पहचाना. लेकिन आज ये एजेंट रोजमर्रा के जीवन में इस प्रकार छा गए हैं कि कोई भी सामान्य आदमी इन्हें भीड़ में चिह्नित कर सकता है. सामान्य आदमी का अपना शब्दकोश होता है और उनकी शब्दसूची में कठपुतली, एजेंट तथा इस प्रकार के अन्य लोग ‘चमचा’ के रूप में जाने जाते हैं. मैंने तय किया है कि इस किताब में मैं सामान्य आदमी की बोलचाल की शब्दावली का इस्तेमाल करूंगा और मैं विश्वास करता हूं कि जब हम सामान्य आदमी के कल्याण के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो यह यथोचित होगा कि उनके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली अनौपचारिक शब्दावली का प्रयोग करें. परजीवी एक ऐसा आदमी होता है जो स्वंय क्रियाशील नहीं होता अपितु क्रियाशील होने के लिए उसको दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता होती है.”
परजीवी व्यक्ति हमेशा अपने फायदे या अपने समुदाय के फायदे के लिए ‘चमचा’ या कठपुतली का इस्तेमाल करता है. यह चीज उस कठपुतली के समुदाय के हितों के लिए हमेशा नुकसानदायक होती है. इस किताब में मैं ‘एजेंट और ‘कठपुतली’ से अधिक ‘चमचा’ शब्द का प्रयोग करूंगा. यह शब्द भारतीय सन्दर्भ में और सामान्य आदमी के लिए ज्यादा उचित है. अर्थ के साथ उच्चारण की दृष्टि से भी संप्रेषणीय है. ‘चमचा’, ‘कठपुतली’, ‘एजेंट’ और ‘दलाल’ ये सभी शब्द कमोबेश एक दूसरे के पर्यावाची हैं लेकिन उच्चारण में थोड़ी भिन्नता है.
कांशीराम आगे स्पष्ट करते हैं कि कठपुतलियों को तैयार करना क्यों जरूरी होता है. वो कहते है, कोई भी दलाल,एजेंट या कठपुतली इसलिए तैयार किया जाता है ताकि इनका इस्तेमाल सच्चे और वास्तविक संघर्षों के खिलाफ किया जा सके. कठपुतलियां केवल तभी सामने आती हैं जब वास्तविक संघर्ष मौजूद होते हैं. जब कोई संघर्ष या क्रान्ति नहीं मौजूद होती और न तो क्रान्ति का कोई भय होता है, उस समय कठपुतलियों की कोई मांग नहीं होती है. जैसा कि हम देखते हैं कि दलित समुदाय बीसवीं सदी की शुरुआत से लगभग पूरे देश में अस्पृश्यता और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करने लगा था. शुरुआती समय में उन्हें अनदेखा किया गया, लेकिन जब दलितों का मजबूत और स्वतंत्र नेतृत्व ताकतवर हो गया, तो उसे लम्बे समय तक अनदेखा नहीं किया जा सकता था. इसी बिन्दु पर ऊँची जाति के हिन्दुओं ने दलित समुदाय के खिलाफ कठपुतलियों को खड़ा करने की जरूरत को महसूस किया. गोलमेज सम्मेलन के दौरान डॉ. अम्बेडकर ने सबसे विश्वसनीय ढंग से दलितों के लिए संघर्ष किया. इस समय तक गांधी और कांग्रेस यह विश्वास करते थे कि दलितों का कोई सच्चा नेता नहीं है जो उनके लिए संघर्ष कर सकता है. गोलमेज सम्मेलन के दौरान 1930-31 तक गांधी और कांग्रेसी नेताओं द्वारा विरोध के बावजूद वायसराय नें 17 अगस्त 1932 को दलितों के लिए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र का निर्माण करने का ऐतिहासिक फैसला लिया. 1930 से 1932 के बीच, पहली बार गांधी और कांग्रेस ने कठपुतलियों की जरूरत महसूस की.
भारत में दलितों के इतिहास का वर्णन करते हुए कांशीराम लिखते हैं कि दुनिया के किसी समुदाय ने ऐसे उत्पीड़न का सामना नहीं किया जैसा भारत के अछूतों ने किया है. यहां तक कि गुलामों, नीग्रो और यहूदियों की कोई भी तुलना भारत के अछूतों से नहीं की जा सकती. जब हम एक मानव की दूसरे मानव के साथ अमानवीय व्यवहार के बारे में सोचते हैं तो अछूतों के खिलाफ़ हिन्दुओं की कट्टरपन्थियों जैसा कोई उदाहरण नहीं मिलता है. भारत के अछूत शताब्दियों से सर्वाधिक दयनीय गुलाम रहे हैं. ब्राह्मणवाद के भीतर इस प्रकार का एक ज़हरीला तत्त्व है जिसने सबसे बदतर तरीके के अन्याय का विरोध करने की जो कुछ भी इच्छा थी, उसे मार डाला. शताब्दियों तक भारत के अछूतों की दयनीय दशा का जो समय रहा है, उसे उनके लिए अन्धकार का युग कह सकते हैं. बरतानवी शासन के दौरान अछूतों का पश्चिमी शिक्षा और साक्षरता से गहरा रिश्ता कायम हुआ, जिसने उनके भीतर विद्रोह की भावना को सुलगाया. जिसके चलते हम बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ़ दलितों के खड़े होने के सबूत पा सकते हैं. 1920 के बाद डॉ. अम्बेडकर उनके नेता और मसीहा के रूप में उभरे और दस वर्षों के भीतर ही उन्होंने लंदन में हुए दो गोलमेज सम्मेलनों में दलित मुद्दों को उठाया. दोनों सम्मेलनों में उन्होंने दलितों के लिए सफलतापूर्वक संघर्ष किया और उनके लिए बहुत सारे अधिकार प्राप्त किए, विशेष तौर पर पृथक निर्वाचन का अधिकार. इस समय के बारे में अवलोकन करते हुए हम निरापद रूप से कह सकते हैं कि डॉ. अम्बेडकर दलितों को अंधकार के युग से ज्ञानोदय के युग में ले गए थे. लेकिन दुर्भाग्य से यह हो नहीं पाया, क्योंकि ज्ञानोदय के युग में पहुँचने से पहले दलित सो गए और असफल हो गए तथा चमचा युग में अपना रास्ता भूल गए.
किताब : कांशीराम – बहुजनों के नायक
लेखक : बद्री नारायण
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन