आर्य समाजी हरियाणा के खेत-खलिहानों में भाजपा की जड़ें जमने की कहानी.
श्वेत और हरी क्रांति का अगुवा रहे हरियाणा में फिलहाल भगवा क्रांति का जोर है. किसानों की पगड़ियों का रंग हरे से भगवा हो चुका है. विधानसभा चुनाव के मौके पर इसे सबसे बेहतर तरीके से समझा और महसूस किया जा सकता है. हरियाणा की किसान जातियों ने भारतीय जनता पार्टी में पिछले चुनाव में अपना विश्वास जताया था दिखाया है. हालांकि हमेशा से ऐसा नहीं था. भगवा में विश्वास की विकास यात्रा को जानने के लिए हरियाणा की भगवा जड़ों की ओर लौटते हैं.
1951 का साल था, अक्टूबर का महीना. नई दिल्ली के 15, हनुमान रोड पर स्थित आर्य समाज के दफ्तर पर संघ के तत्कालीन प्रमुख गोलवलकर समेत आरएसएस के कई बड़े नेताओं का आना जाना लगा रहता था. अभी तक भारतीय जनसंघ का ऐलान नहीं हुआ था, लेकिन आर्य समाज का यह दफ्तर भारतीय जनसंघ के बनने की आखरी तैयारियों का गवाह था. आर्य समाज में पैठ रखने वाले और खुद को आर्य समाजी कहने वाले बलराज मधोक उत्तर भारत के प्रमुख आर्य समाजियों के साथ यहां लगातार बैठकें कर रहे थे. जनसंघ और आरएसएस के एजेंडे पर आर्य समाजियों के साथ मधोक की बातचीत सफल नहीं हो सकी, लेकिन इन बैठकों से मधोक को शहरी तबके के बनिया, ब्राह्मण और अरोड़ा-खत्री जातियों में मौजूद बड़ी संख्या वाले आर्य समाजियों के बीच एंट्री मिल चुकी थी.
अपनी होंद (जन्म) के कुछ सालों बाद ही देश के अनेकों हिस्सों में आरएसएस फैल चुकी थी, लेकिन आजादी से पहले संयुक्त पंजाब (हरियाणा, हिमाचल और पाकिस्तानी पंजाब समेत) में आरएसएस के लिए पैर जमाना बड़ा मुश्किल रहा. उस समय आरएसएस ने पंजाब में अपने आपको खड़ा करने के लिए आर्य समाज का सहारा लिया और पंजाब के शहरी आर्य समाजियों ने आरएसएस को खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई. पंजाब में पहली बार आरएसएस की शाखा साल 1937 में बटाला शहर के आर्य समाजी देवदत्त खुल्लर ने बटाला के आर्य समाज मंदिर में ही लगाई थी. लेकिन संयुक्त पंजाब के इस इलाके में आरएसएस की मजबूत जड़ें आजादी के समय हुए भारत-पाक विभाजन के बाद ही जमनी शुरू हुईं.
महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में आरएसएस पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया गया था. आरएसएस पर लगे इस बैन को हटवाने की पहल आजादी से पहले के कांग्रेसी और आज़ादी के बाद के जनसंघी पंडित मौलीचंद्र शर्मा ने की जो कि हरियाणा के रहने वाले थे. शर्मा ने ही सरदार पटेल और गोलवलकर के बीच बातचीत की भूमिका तय की. हरियाणा के वरिष्ठ पत्रकार सतीश त्यागी बताते हैं, “मौलीचंद्र शर्मा आज़ादी से पहले कुछ साल कांग्रेसी जरूर थे लेकिन आज़ादी मिलने तक पूरी तरह आरएसएस की गिरफ्त में आ चुके थे. पटेल और गोलवलकर के बीच बातचीत करवाने का इनाम ये था कि जनसंघ में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बाद वे नम्बर दो की हैसियत रखते थे और मुखर्जी की मृत्यु की बाद वे जनसंघ के अध्यक्ष भी बने. मौलीचंद्र शर्मा के अलावा हरियाणा के श्रीचंद गोयल का नाम भी जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में दर्ज है. हालांकि दो साल जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहने के बाद मौलीचंद्र शर्मा ने जनसंघ से ये कहकर नाता तोड़ लिया था कि आरएसएस जनसंघ के राजनीतिक मामलों में दखल देता है और वे पुन: कांग्रेस में शामिल हो गए.”
शुरुआती लोकसभा चुनावों में जनसंघ दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू पाया था. साल 1962 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ को पूरे देश से मिली 14 सीटों में से 3 सीटें हरियाणा से मिली थीं. तब रोहतक से सांसद चुने गए चौधरी लहरी सिंह पर जनसंघ की नीतियों के मुताबिक काम करने का दबाव डाला जाने लगा, लेकिन उन्होंने जनसंघ की कार्यकारिणी पर कोई ध्यान नहीं दिया. उनके रवैये से परेशान जनसंघ की कार्यकारिणी ने जब उन्हें बाहर निकालने की धमकी दी तो उन्होंने एक टूक जवाब दिया, “यो दिवा ही थारा है, इसमें तेल तो लहरी सिंह का है. ले जाओ अपने डिबले नै बेशक!” (ये दीपक (जनसंघ का चुनाव चिन्ह) ही तुम्हारा है इसमें तेल तो लहरी सिंह का है). चौधरी लहरी सिंह के निकलने के बाद से ही जनसंघ हरियाणा के गांवों का रास्ता भूल चुका था. इक्का दुक्का लीडरों को छोड़कर जनसंघ की पूरी की पूरी फौज शहरी-कस्बाई थी. ये हरियाणा की खेती-किसानी वाले गंवई समाज से मेल नहीं खाती थी.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि साल 2014 से पहले बीजेपी (पूर्ववर्ती जनसंघ) पर हरियाणा में शहरी पंजाबी बनियों की पार्टी होने का ठप्पा लगा हुआ था. 1990 के मंदिर आंदोलन के बाद इस ठप्पे को मिटाने के लिए बीजेपी ने कई तिकड़मे भिड़ाई थी. 1990 के बाद की रणनीतियों पर बात करने से पहले एक महत्वपूर्ण सिपाही के बारे में बात करना जरूरी है. ये जनसंघ के असली सिपाही डॉ मंगल सेन हैं जिन्होंने साल 1957 में पहली बार रोहतक से विधायकी जीती थी. त्यागी डॉ मंगलसेन को हरियाणा में हिंदुत्ववादी राजनीति का बरगद करार देते हैं. वो बताते हैं, “मंगलसेन, सदन हो या सड़क, भिड़ना भी जानते थे और लड़ना भी. हरियाणा में कांग्रेस की विपक्षी राजनीति के दो ही खलीफा हुए. एक थे देवीलाल और दूसरे मंगलसेन. जब जब इन्होंने गठजोड़ किया और चुनाव में उतरे तो तख्तापलट कर दिया. 1977 और 1987 के विधानसभा चुनाव में इन दोनों नेताओं ने कांग्रेस को एक बार 3 और दूसरी बार 5 सीटों पर समेट दिया था.”
साल 1990 में डॉ मंगलसेन की मृत्यु के बाद हरियाणा में भाजपा का रंग पूरी तरह से उतर गया. मंदिर आंदोलन के दौरान कारसेवा करने अयोध्या पहुंची भीड़ में बहुत कम संख्या हरियाणा के लोगों की रही. इसकी मुख्य वजह हरियाणा भाजपा में किसी प्रभावशाली नेतृत्व का अभाव और हरियाणा के देहात में आर्य समाज की मजबूत जड़ों का पसरा होना था. आर्य समाज, जाट और उनके सामाजिक इतिहास पर कई किताबें लिख चुकीं प्रोफेसर नोनिका दत्ता बताती हैं, “हरियाणा के जाटों और अन्य किसान जातियों ने 19वीं सदी की शुरुआत से ही आर्य समाज के साथ जुड़ना शुरू कर दिया था. शुरुआत से ही ग्रामीण क्षेत्रों के जाटों-गूजरों और अन्य किसान जातियों की शिक्षा गुरुकुलों में हुई है. आर्य समाज मूर्ति पूजा का विरोध करता है, इसी वजह से वहां के ग्रामीण परिवेश के लोगों ने मंदिर आंदोलन में कोई रुचि नहीं दिखाई थी.”
1990 के दशक में बंसीलाल कांग्रेस से अलग हो चुके थे. उन्होंने साल 1991 में “हरियाणा विकास पार्टी” नाम से नई पार्टी का गठन किया था, जो उस साल हुए विधानसभा चुनाव में खेत रही. उस साल बीजेपी के हाथ भी कुछ न लगा. मंगलसेन की मृत्यु के बाद उनके शिष्य रहे रामविलास शर्मा बीजेपी का चेहरा बन गए. साल 1995 आते-आते तत्कालीन भजनलाल सरकार (कांग्रेस) ने लोगों का बहुत निराश कर दिया था, जिसकी वजह से विपक्षी दल मजबूती से चुनावी तैयारियों में लग गए थे.
1996 में होने वाले चुनाव में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने अपने काबिल संगठनकर्ता नरेन्द्र मोदी को हरियाणा का प्रभारी बनाकर भेजा. इसी मौके पर नरेन्द्र मोदी की मुलाकात हरियाणा के संगठन मंत्री मनोहरलाल खट्टर से हुई जो आगे चलकर दोस्ती में बदल गई. दोनों ने कई महीने पंचकूला में एक साथ बिताए और गहन चिंतन के बाद नरेन्द्र मोदी ने हरियाणा बीजेपी को अकेले चुनाव लड़ने की बजाय किसी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की सलाह दी. नरेन्द्र मोदी ने हरियाणा बीजेपी का गठजोड़ तेजी से उभरती बंसीलाल की नई पार्टी के साथ तय कर दिया.
इस गठजोड़ ने 1996 के चुनाव में जबरदस्त परिणाम दिया और बीजेपी की सहायता से बंसीलाल मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन बीजेपी के नेता रामबिलास शर्मा और संगठन मंत्री मनोहरलाल खट्टर ने मिलकर तीन साल में ही बंसीलाल के पांव उखाड़ दिए. उसके बाद बीजेपी ने ओमप्रकाश चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल से भी समझौता किया, लेकिन चौटाला ने उन्हें घास नहीं डाली.
बंसीलाल को धोखा देने के बाद हरियाणा से बीजेपी का ही पत्ता साफ हो गया. उन्हें हरियाणा का कोई भी गैर कांग्रेसी दल घास डालने को राजी नहीं था, जिसकी वजह से अगले तीन विधानसभा चुनाव में बीजेपी दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू सकी.
बीजेपी के इस शून्यकाल के दौरान कांग्रेस की हुड्डा सरकार दस साल तक कायम रही. इसके बाद, 2014 के विधानसभा चुनाव में एक ऐसी घटना होने जा रही थी जिसकी हरियाणा की जनता को कतई उम्मीद नहीं थी. मुख्यतः शहरी और बनियों-पंजाबियों (अरोडा-खत्री) की पार्टी माने जाने वाली बीजेपी ने बहुमत हासिल कर लिया, जिसकी उम्मीद शायद खुद बीजेपी को भी नहीं रही थी. हालांकि कांग्रेस और लोकदल से बगावत करके आए बड़े नेताओं के कारण भी बीजेपी का वोट बैंक बढ़ा था.
2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 90 सीटों में से 47 जीतकर बहुमत हासिल किया और नरेंद्र मोदी के दोस्त रहे मनोहरलाल खट्टर को मुख्यमंत्री चुना गया. खट्टर ने 2014 से पहले सरपंच का भी चुनाव नहीं लड़ा था. आलम ये था कि जब वे मुख्यमंत्री बने तो पत्रकारों तक को उनके बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी. हरियाणा के लोगों ने तो उनका नाम भी पहली बार सुना था. बेशक खट्टर को जनता नहीं जानती हो, लेकिन संगठन में वे काफी नामचीन व्यक्ति रहे थे और नेता नरेन्द्र मोदी से उनकी नजदीकियों से वाकिफ थे.
खैर मनोहरलाल खट्टर अपने पांच साल पूरे कर चुके हैं. अपने कार्यकाल में उन्होंने अपने आपको मजबूत नॉन जाट नेता के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है. कुछ महीने पहले हुए मेयर के चुनाव में अखबारों में बीजेपी के उम्मीदवारों द्वारा दिए गए विज्ञापनों में भी मनोहरलाल की जाति बताई गई.
खट्टर द्वारा अपनी गैर जाट नेता की छवि निर्मित करने के मसले पर हरियाणा के राजनैतिक विश्लेषक अनिल आर्य कहते हैं, “मैं खट्टर को पहला ऐसा मुख्यमंत्री मानता हूं जिसने पार्टी लाईन से हटकर काम करने की बजाय अपनी पार्टी को पूरी तव्वजो दी है. खट्टर ने शुरू से अपने आपको गैर जाटों का नेता बनाने के लिए काम किया है. साल 2016 में लोगों ने जाट आरक्षण के नाम पर यह सब देखा भी. उन्होंने खुलेआम ‘जाटों को कंधो से ऊपर कमजोर’ यानी दिमागी तौर पर कमजोर होने जैसे बयान भी दिए हैं. उन्हें उत्सव मंत्री भी कहा जा सकता है. उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में खूब उत्सव मनाए हैं, जैसे गीता महौत्सव, गऊ जयंती. खट्टर ने पार्टी लाइन से हटकर कभी अपने आपको बीजेपी से बड़ा बनाने की कोशिश नहीं की, यही कारण है कि बीजेपी दूसरी बार चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ रही है.”
यह भी बड़ा दिलचस्प है कि 2016 के बाद से ही बीजेपी ने जाटों को राजनैतिक रूप से कमजोर करने की कोशिश की है, लेकिन फिर भी लोकदल और कांग्रेस के सबसे ज्यादा बागी जाट नेता बीजेपी में ही शामिल हुए हैं. अनिल आर्य कहते हैं, “मनोहरलाल खट्टर ने खुद को शहरियों के लिए ज्यादा समर्पित रखा है और ग्रामीण हरियाणा की राजनीति में कम दिलचस्पी दिखाई है. आरएसएस भी अपनी नियमित शाखाएं शहरों में ही चला रही है. कुछ-कुछ बड़ी आबादी वाले गांव में शाखाएं शुरू जरूर की हैं, लेकिन वे नियमित और सुचारु ढंग से नहीं चलाई जा रहीं. हालांकि उन्होंने गोरक्षा के नाम पर गांव देहात के किसानों के लड़कों के हाथ में लाठी-बल्लम जरूर पकड़ा दिया है.”
लंबी यात्रा करते आज भाजपा हरियाणा में खुद के पैरों पर खड़ी है, लेकिन उन्होंने अपनी शुरुआत कई छोटे-छोटे सहारे लेकर की थी. इस दिशा में उन्होंने धार्मिक संगठनों के साथ गठजोड़ किया, फिर राजनीतिक संगठनों के साथ संबंध जोड़ा, और फिर उनके कार्यकर्ताओं को तोड़कर अपने साथ ले उड़े हैं.
भाजपा ने अपने संघर्ष के दिनों में हरियाणा के तीनों लालों देवीलाल, भजनलाल और बंसीलाल का सहारा लिया है और तीनों के कार्यकर्ताओं को तोड़कर अपने साथ जोड़ा है. कुछ ऐसा ही आरएसएस ने आर्यसमाज के साथ भी किया है. हरियाणा में एक कहावत है, “आंगली पकड़कै पूंचा पकड़ना” यानी पहले मज़बूरी दिखाकर उंगली पकड़ना और धोखे से कलाई मरोड़ देना. पहले बीजेपी ने जिस संगठन की उंगली पकड़ी, आगे चलकर उसकी कलाई मरोड़ दी है.