मध्य प्रदेश : दलित और थोड़ा कम दलितों का टकराव है भावखेड़ी की हत्या

दो दलित बच्चों की हत्या करने वाले मध्य प्रदेश के भावखेड़ी गांव में जातिवाद की परतें बिछी हैं, इसीलिए इस पर दलित-पिछड़ा सामाजिक न्याय वर्ग में चुप्पी है.

WrittenBy:दीपक गोस्वामी
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शिवपुरी जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूर स्थित भावखेड़ी गांव 25 सितंबर से पहले तक देश के उन लाखों गांवों की तरह ही था जिसकी मिट्टी के नीचे जाति का ज़हर भरा हुआ था लेकिन उसकी फसल अपने वीभत्स रूप में लहलहाना अभी बाकी था. 25 सितंबर की घटना के लगभग चार दिन जब हम इस गांव में पहुंचे तब भी उसकी चोट और निर्ममता के निशान गांव में फैले हुए थे. गांव किसी पुलिस छावनी का अंदेशा दे रहा था, वहां धारा 144 लागू है लेकिन नजारा किसी कर्फ्यू के जैसा. सड़कों पर आम लोग कम और पुलिस के जवान ज्यादा दिखे.

जो ग्रामीण दिखे भी वो इतनी दहशत में कि कुछ भी बोलने से कतराते रहे. इस दहशत और हालात की जड़ में दो मासूमों की निर्मम हत्या है जिन्हें 25 सितंबर को लाठियों से पीटकर गांव के ही दो लोगों ने अंजाम दिया था.

शिवपुरी जिले के भावखेड़ी गांव में रहने वाले 12 वर्षीय रोशनी और 10 वर्षीय अविनाश सुबह शौच के लिए सड़क के किनारे बैठे थे. तभी कुछ दूरी पर रहने वाले हाकिम सिंह यादव और उसके भाई रामेश्वर यादव ने उनके सिर में लाठियां मारकर उनकी हत्या कर दी.

मारे गए दोनों बच्चे दलित समुदाय के वाल्मीकि समाज से आते थे जो इस गांव में लोगों के शौचालय की साफ-सफाई और मजदूरी का काम करते हैं. इन्हें गांव के लोग अक्सर मेहतर और भंगी संबोधित करते हैं.

मृत बच्चे अविनाश के पिता मनोज वाल्मीकि हमसे बातचीत में कहते हैं, “रोशनी मेरी छोटी बहन थी और अविनाश मेरा इकलौता लड़का. रिश्ते में दोनों वैसे तो बुआ-भतीजे थे लेकिन करीब साढ़े पांच साल पहले मेरी मां की मौत के बाद से रोशनी मेरे साथ ही रह रही थी. मेरी दो बेटियों और बेटे अविनाश की उम्र रोशनी जितनी ही थी तो वे उसे बुआ से अधिक बहन मानते थे.”

बता दें कि मनोज भावखेड़ी गांव में खाली पड़ी सरकारी जमीन पर एक झोपड़ी बनाकर रहते हैं. उनके झोपड़े के आस-पास कोई और घर नहीं है. एक कच्ची पगडंडी से होकर उनके झोपड़े तक पहुंचा जा सकता है. करीब 100 वर्गफुट के इसी झोपड़े में छह लोग मनोज, उनकी पत्नी, बेटा अविनाश, रोशनी और दो बेटियां एक साथ रहते थे.

यहां से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर मनोज के पिता कल्ला बाकी परिवार के साथ रहते हैं. उनके मकान के सामने वाली पट्टी पर कुछ ही दूरी पर हाकिम सिंह यादव और रामेश्वर यादव के खेत और मकान हैं. घटना कल्ला के इसी मकान पर सुबह छह-साढ़े छह बजे के बीच हुई.

घटना से एक दिन पहले कल्ला के घर में अपनी स्वर्गवासी पत्नी का श्राद्ध था जिसमें शामिल होने के लिए मनोज का पूरा परिवार आया था और रात को वहीं रुक गया था.

शुरुआत में मौत को लेकर यही बात सामने आई कि हाकिम और रामेश्वर ने दोनों बच्चों को शौच करते देख आपा खो दिया और उनके सिर पर लाठी से प्रहार किया जिसमें उनकी मौत हो गई. लेकिन अब मनोज का बयान पुलिस की एफआईआर से मेल नहीं खाता. इससे मौत के कारणों को लेकर भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है.

अविनाश के पिता मनोज न्यूजलॉन्ड्री को बताते हैं, “मामला खुले में शौच करने के चलते हत्या का नहीं है. जहां बच्चों के शौच करने के दावे किए जा रहे हैं, वह जगह आरोपियों के खेतों से करीब 100-200 फीट की दूरी पर है. उन्हें फिर क्यों आपत्ति होगी? सच तो यह है कि जब मेरी बहन शौच के लिए घर से निकलकर सड़क किनारे आई तो दोनों आरोपी भाईयों ने उसके साथ छेड़खानी की. सामने ही मेरा बेटा खेल रहा था, उसने देखा तो अपना विरोध दर्ज कराया. अपनी करतूत को छिपाने के लिए आरोपियों ने दोनों को मार डाला.”

वे आगे कहते हैं, “घटनास्थल से कुछ ही दूरी पर मैं घर पर था. मैंने दोनों को लाठियां लेकर भागते देखा तो माजरा समझने के लिए बाहर आया. बाहर देखा तो दोनों बच्चों के सिर से खून बह रहा था. खून से लथपथ सड़क पर वे बेसुध पड़े थे. गौर से देखा तो बहन के कपड़े फटे और नाड़ा टूटा हुआ था.”

हालांकि, 25 सितंबर को दर्ज एफआईआर में पुलिस के हवाले से मनोज का जो बयान दर्ज है वो कुछ इस प्रकार है- “सुबह करीब साढ़े छह बजे मैं, मेरे पिता और भाई बंटी घर के बाहर बैठकर बातचीत कर रहे थे. मेरी छोटी बहन रोशनी और बेटा अविनाश दोनों घर के पास सड़क के पास लैट्रिन कर रहे थे. तभी पड़ोसी हाकिम यादव और रामेश्वर यादव लाठियां लेकर उनके पास पहुंचे और बोले कि सड़क पर लैट्रिन करके गंदगी क्यों कर रहे हो, बदबू आती है. इसी बात पर उन्होंने दोनों के सिर और आंख पर लाठियों से प्रहार कर दिए. हम दौड़कर मौके पर पहुंचे तो हमें देखकर वे भाग गये.”

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पुलिस मनोज के रोशनी के साथ छेड़छाड़ वाले दावों को सिरे से खारिज करती है. घटनास्थल पर सुरक्षा व्यवस्था की कमान संभाल रहे पुलिस उप निरीक्षक आरएस धाकड़ कहते हैं, “एफआईआर में दर्ज मनोज के बयान की वीडियोग्राफी भी हुई है. उस वक्त मनोज के पिता, भाई, समाज के लोग और प्रशासन के अन्य लोग भी वहां मौजूद थे. बलात्कार की बात गलत है. हमारे पास फोटो-रिकॉर्डिंग सारी चीजें हैं. ऐसा नहीं है कि लड़की के कपड़े फटे थे.”

मनोज भी यह बात स्वीकारते हैं कि एफआईआर में दर्ज बयान उन्हीं का है. लेकिन वे कहते हैं, “उस वक्त मैं अकेला था. बच्चों की लाश सामने थी. मुझे याद नहीं कि एफआईआर में क्या लिखवाया, मैंने क्या बोला? मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा था, सही ढंग से बोल नहीं पाया. कल से मैं थोड़ा होश में हूं.”

मनोज अपनी बात को साबित करने के लिए कहते हैं, ‘‘हाकिम और उसके भाई की रोशनी पर बहुत पहले से गलत नजर थी. करीब महीने भर पहले वे रोशनी के साथ छेड़छाड़ कर चुके थे. यह बात रोशनी ने मेरी पत्नी यानी अपनी भाभी को बताई थी. लेकिन मुझे नहीं बताया गया क्योंकि पत्नी और बहन रोशनी को डर था कि कहीं आवेश में आकर मैं कोई गलत कदम न उठा लूं.”

मनोज कहते हैं, “पूरे गांव में हमारे समाज का कोई नहीं है. जबकि आरोपियों का परिवार 60-65 लोगों का है. गांव भी यादव बहुल है. करीब 90 फीसदी आबादी यादवों की है. गांव में उनकी चलती है. सरपंच भी उनका है. इसी डर से मेरी पत्नी और रोशनी ने मुझसे यह बात छिपाई कि कहीं मैं उनसे उलझ न जाऊं. यह बात मुझे रोशनी की मौत के बाद पता चली.”

इस संबंध में न्यूजलॉन्ड्री ने शिवपुरी के पुलिस अधीक्षक राजेश चंदेल से बात की तो उन्होंने बताया कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई है. वे कहते हैं, “फरियादी ने हमें जैसा बताया, वैसी ही एफआईआर हुई है. वीडियो स्टेटमेंट्स दर्ज हुए हैं. कुछ बातें उनके मन में, उनके साथ वालों के मन में बाद में भी आईं तो हम उन पर जांच करेंगे.”

बहरहाल, हत्या जिन भी वजहों से हुई उसका एक पक्ष साफ है कि यह जातीय घृणा से हुआ है और दो मासूम बच्चों की असमय मौत हुई है. हत्यारों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. उन पर धारा 302 के अलावा अनुसूचित जाति / जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम (एससी/एसटी एक्ट) के तहत मामला दर्ज किया गया है. पीड़ित परिवार को मुआवजे के तौर पर प्रशासन की ओर से 8,50,000 रुपये की राशि दे दी गई है.

आरोपियों का बचाव

इस बीच आरोपियों के परिजनों की ओर से नए-नए दावे सामने आने लगे हैं मसलन आरोपी हाकिम सिंह की मानसिक हालात सही नहीं थी. उसके दिमाग का इलाज चल रहा था और उसने पागलपन की स्थिति में घटना को अंजाम दिया है.

इस पर मनोज गुस्से से कहते हैं, “वो पागल होता तो अपने घर में किसी को मारता, तब मानते. घर में बीवी, बच्चे और अन्य परिजन भी हैं, उसने किसी और पर हमला क्यों नहीं किया? गांव में किसी और आदमी के ऊपर भी उसने आज तक हमला नहीं किया है. कहीं कोई रिपोर्ट आदि नहीं है, इलाज की कोई डॉक्टरी रसीद आदि भी नहीं है. पागल है तो उसका इलाज भी कराना था. पागलखाने में भर्ती करवाना था.”

मनोज के सवाल एक हद तक वाजिब लगते हैं. हाकिम के किसी तरह की मानसिक समस्या को लेकर इससे पहले कोई भी पुलिस रिकॉर्ड दर्ज नहीं है. लेकिन उसके पागलपन के दावों को लेकर पुलिस में मतभेद जरूर दिखाई देते हैं. चिंता की बात है कि पुलिस का ही एक हिस्सा पागलपन की कहानियां फैलाने में लगा हुआ है.

जब हम भावखेड़ी स्थित पीड़ित मनोज के घर पहुंचे तब वहां कुछ नेता भी मौजूद थे. साथ ही मौके पर पुलिस उप निरीक्षक आरएस धाकड़ और पुलिस एसडीओपी मौजूद थे. जब उनमें से एक नेता ने आरोपी के पागल होने के दावों के संबंध में धाकड़ से जानना चाहा तो उन्होंने छूटते ही कहा, “आरोपी ने हवालात में सिपाही के साथ मारपीट कर ली. जेल में भी ऐसी ही घटना हुई. वह गाली बक रहा है. वहां उसने थप्पड़ मार दिया.”

जब न्यूजलॉन्ड्री ने उनसे पूछा कि किसे थप्पड़ मारा गया है तो पुलिस उप निरीक्षक धाकड़ ने सकपकाते हुए पूरी बात को दूसरी दिशा में मोड़ दिया कि ‘कुछ नहीं हुआ था.’

वहीं, पुलिस की अपराध शाखा के एक अन्य अधिकारी गोपनीयता की शर्त पर ‘न्यूजलांड्री’ से कहते हैं, “लोगों का कहना है कि हाकिम की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है. कुछ ही दिन पहले उसने अपने भाई पर भी हमला कर दिया था. हम ऐसा लिख नहीं सकते, वरना केस ही बिल्कुल खत्म हो जाएगा. लेकिन सोचना बनता है कि आखिर एक सामान्य व्यक्ति इतनी सी बात पर मासूम बच्चों के सिर में लाठी कैसे मार सकता है? थप्पड़ वगैरह तो मान लेते हैं. ऐसा जघन्य अपराध तो कोई पागल ही कर सकता है.”

पुलिस वालों की इस सोच और बयान से यह सुगबुगाहट होने लगी है कि शायद पुलिस इस केस को खराब करना चाहती है. चूंकि आरोपी सक्षम वर्ग से आते हैं और इलाके में प्रभुत्व रखते हैं लिहाजा पुलिस उनके प्रभाव में  आ गई है. पीड़ित मनोज आशंका व्यक्त करते हैं कि आरोपियों के साथ पुलिस की मिलीभगत है और वह उसे पागल साबित करने में मदद कर रही है.

हालांकि, पुलिस अधीक्षक चंदेल इस संबंध में अलग राय रखते हैं. जब उनसे स्वयं पुलिस के ऐसे दावों के बारे में पूछा गया तो वे कहते हैं, “कोई भी अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र है. गांव वाले कह सकते हैं कि वो पागल है. लेकिन हम नहीं मान रहे. हमने उन्हें गिरफ्तार किया है, कोर्ट में पेश किया है. अब मेडिकल में साबित होता है तो अलग बात है. वरना इस तरह तो कोई कुछ भी कह सकता है. कभी कोई अपना अपराधी अपना अपराध स्वीकार नहीं करता. कौन कहता है कि मैंने जानबूझकर हत्या की? हम इन पागलपन के दावों को नहीं मान रहे.”

जब हमने भावखेड़ी के ग्रामीणों से घटना के संबंध में जानने की कोशिश की तो ज्यादातर लोग कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हुए. दहशत और पुलिस की मौजूदगी के चलते आलम ये था कि मुख्य मार्ग से चार किलोमीटर अंदर मौजूद भावखेड़ी गांव, जाने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं था. वहां जा वाहन सवारों से लिफ्ट मांगने पर लोगों ने गांव का नाम सुनकर ही इनकार कर दिया.

पुलिस की कार्यप्रणाली और हाकिम यादव के पागलपन के दावों पर स्थानीय पत्रकार आदिल बताते हैं, “आरोपी के पागल होने के दावे बिल्कुल झूठे हैं. अगर वह पागल है तो एकाध एफआईआर बताई जाए. इलाज की पर्ची दिखाई जाय. सब बनाई हुई बाते हैं. कहीं न कहीं पुलिस खुद इस पर्देदारी की कोशिश में है कि समाज में जो जातिगत असमानता का तिलिस्म खड़ा है उसे हाकिम के पागलपन तले दबा दिया जाए.”

वे आगे कहते हैं, “पुलिस की कार्यप्रणाली ऐसे समझिए कि पुलिस के बकायदे कैमरे चल रहे हैं. मीडिया का काम है कैमरा चलाना लेकिन वो मीडिया को कवर कर रहे हैं. ये काम पुलिस का कब से है? अगर धारा 144 लगी है तो इसमें जनसमूह पर रोक की बात समझ आती है. लेकिन अकेला व्यक्ति, वो भी मीडिया का नुमाइंदा अगर पीड़ित से बात करना चाहे तो पुलिस का एक जवान उनके साथ खड़ा हो जाता है. इसका क्या मतलब है? ये तो वह दहशत का माहौल लाना है कि आप अपनी बात भी न कह सकें.”

आदिल का कहना सही है. जब हम पीड़ित के घर पहुंचे तो कुर्सी पर बैठते ही एक व्यक्ति ने परिचय पूछकर हमारा फोटो खींच लिया. जब उससे इस बारे में पूछा तो बताया गया कि वह सीआईडी से है और यह पुलिस की कार्रवाई का हिस्सा है. कुछ इसी तरह मनोज से बातचीत के दौरान एक पुलिस का जवान साथ बैठा रहा.

आदिल पुलिस द्वारा जिस जातिगत असमानता और छुआछूत को छिपाने की बात कर रहे हैं, उसके बारे में मनोज बताते हैं, “ऐसी छुआछूत मानी जाती है कि हमें दूर बैठाया जाता है. यादव यहां से गुजरें तो हम यदि खाट या कुर्सी पर हैं, तो खड़े हो जाएं. हैंडपंप से पानी भरने के लिए दो-दो घंटे इंतजार करना होता है. दुकानों पर सामान लेने जाएं तो दूर से देते हैं. हमें पैसा फेंककर देना पड़ता है, वो सामान फेंक कर देते है. दुकान के ऊपर चबूतरे पर चढ़ने नहीं देते.”

गांव का कोई आदमी रोशनी और अविनाश के अंतिम संस्कार में नहीं

मनोज के मुताबिक, रोशनी सातवीं कक्षा तो अविनाश पहली कक्षा में थे. उनका स्कूल छुआछूत के चलते ही उन्होंने बीच में बंद करा दिया. क्योंकि स्कूल में बाकी बच्चों को उनसे दूर बैठाया जाता था. बिछाने के लिए घर से बोरी ले जाना पड़ता था. स्कूल में मिलने वाले मध्यान्ह भोजन के लिए बर्तन घर से ले जाने होते थे. यहां तक कि उनसे स्कूल की साफ-सफाई और टायलेट तक साफ करवाए जाते थे.

मनोज कहते हैं, “इसकी शिकायत करता भी तो मेरा अकेला परिवार पूरे गांव का क्या बिगाड़ लेता. इसलिए रोज-रोज की जिल्लत से तंग आकर बच्चों का स्कूल जाना ही बंद करा दिया.”

मनोज की बात की पुष्टि भावखेड़ी पंचायत के जनपद सदस्य रामकिशन जाटव भी करते हैं. वे कहते हैं, “मैं भी एससी हूं. यादव और जाटव यहां पास-पास ही रहते हैं. कभी किसी से लड़ाई नहीं हुई है. थोड़ी-बहुत खटपट तो चलती रहती है. इसके बावजूद भाईचारा बनकर रहता है. लेकिन जातिवाद बहुत है.”

एक अन्य ग्रामीण हजारी जाटव बताते हैं, “खुल्ला जातिवाद है यहां. हमारे लोगों को वो दबा देते हैं. यहां तक कि हमारी बहू-बेटियों को ले जाकर पुलिस में अपने विरोधियों को दबाने के लिए झूठी रिपोर्ट लिखाते हैं. अपने विरोधियों के खिलाफ हमें हथियार बनाते हैं. कभी-कभी हमारे लोगों से ही हमारे खिलाफ झूठी शिकायतें कराते हैं. हमारे यहां कोई मरता है तो ये लोग जलाने तक नहीं आते. पर हम लोग चले जाते हैं क्योंकि डरते हैं. वाल्मिकियों के साथ तो हर जगह चलता ही है ऐसा, लेकिन यहां जाटवों के साथ भी इतना बुरा व्यवहार हो रहा है.”

वे आगे बताते हैं, “जाटवों की बस्ती का रास्ता तक नहीं बनने दे रहे. बरसात में कीचड़ में घुसकर आना पड़ता है. कोई बीमार-दुखी हो जाए तो हम गाड़ी-घोड़ा लेकर निकल भी नहीं सकते. तीन किलोमीटर पैदल ही आना पड़ता है.”

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हजारी के कथन को इस बात से भी बल मिलता है कि रोशनी और अविनाश के अंतिम संस्कार में गांव का कोई भी व्यक्ति शामिल नहीं हुआ था. दोनों बच्चों की अंतयेष्टि मनोज ने पुलिस की सहायता से की थी.

हालांकि, पुलिस गांव में जातिगत भेदभाव की बात को खारिज करती है. घटनास्थल पर मौजूद पुलिस के अधिकारियों का कहना था कि गांव में इतनी बड़ी घटना पहले कभी नहीं हुई इसलिए दहशत के चलते लोग शामिल नहीं हुए थे. धाकड़ कहते हैं, “लोगों को डर भी था कि यदि हम गये और कुछ उल्टा-सीधा हो गया तो कहा जाएगा कि यादवों ने फिर घटना को अंजाम दे दिया.”

भावखेड़ी खुले में शौच से मुक्त गांव

सरकारी कागजों में भावखेड़ी गांव ‘खुले में शौच मुक्त’ यानी ओडीएफ घोषित है, फिर भी बच्चे खुले में शौच जाने के लिए क्यों मजबूर थे? क्यों उनके घर में शौचालय नहीं था?

मनोज कहते हैं, “दो साल पहले मेरे घर में शौचालय स्वीकृत हुआ था. सरपंच की ओर से मुझे कागज लाने कहा गया. मैं दूसरे दिन ही लेकर पहुंचा तो बताया कि तेरे घर का आदेश ऊपर से निरस्त हो गया है. आज आदेश आना और कल निरस्त भी हो जाना, क्या इतनी जल्दी सरकारी फाइलें घूम जाती हैं?”

वे आगे बताते हैं, “इसके बाद भी मैं दो साल से लगातार शौचालय निर्माण के लिए सरपंच को कह रहा था लेकिन वे बस टालते रहे.”

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हालांकि, यह घटना मनोज के घर पर नहीं हुई थी. यह घटना उनके पिता कल्ला के घर पर घटित हुई. कल्ला के घर पर कागजों में शौचालय स्वीकृत है और बना हुआ भी है. फिर भी बच्चों के बाहर शौच जाने पर मनोज कहते हैं, “शौचालय तो बना है लेकिन वह चालू नहीं है. बरसात में वो ढह गया था. हमारे पास इतनी आमदनी नहीं कि उसे ठीक करा सकें.”

शौचालयों को लेकर भावखेड़ी गांव की यही कहानी है. कागजों पर जिनके घर में शौचालय हैं, वे भी खुले में जाते हैं. हजारी जाटव कहते हैं, “शौचालय निर्माण के लिए छह हजार रुपये दे दिए, गड्ढा खुदवा दिया. फिर कह दिया कि बना लो और पैसा ले लो. लेकिन तुम और पैसा दे नहीं रहे तो बने कैसे? इसलिए आज भी गांव में लोग खुले में शौच जा रहे हैं. ओडीएफ तो केवल कागजों में है. हमारे पास पैसा नहीं है. मैं खुद खुले में जाता हूं.”

बहरहाल, भले ही कागजों पर भावखेड़ी गांव ओडीएफ घोषित हो लेकिन जमीन पर वहां लोग आज भी खुले में शौच करते हैं. रोशनी और अविनाश की मौत इस बात की गवाह है.

घटना, छुआछूत और गांव के ओडीएफ दर्जे के संबंध में न्यूजलॉन्ड्री ने शिवपुरी कलेक्टर अनुग्रह पी से भी बात करने की कोशिश की, लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका. उनको सवालों की सूची भेज दी गई है. 

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