पिछले वित्तीय वर्ष में टेल्यूरियन का राजस्व मात्र एक करोड़ डॉलर था, कुल सम्पत्ति 40 करोड़ डॉलर थी जबकि 11 करोड़ डॉलर की देनदारी थी और जमीन पर उसकी एक भी परियोजना नहीं है.
नरेंद्र मोदी के अमेरिका पहुंचने के साथ ही 7.5 अरब डॉलर के एलएनजी डील की खबर आने लगी. टेल्यूरियन इंक ने कहा कि लुइसियाना में प्रस्तावित उसके तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) टर्मिनल में हिस्सेदारी खरीदने के लिए भारत के पेट्रोनेट एलएनजी लिमिटेड से 7.5 अरब डॉलर (53 हज़ार करोड़ रुपए) के समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, जो संभवतः अमेरिका में शेल गैस के निर्यात के लिए किया गया सबसे बड़ा विदेशी निवेश हो सकता है.
The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.
Contributeटेल्यूरियन की मुख्य कार्यकारी अधिकारी मेग जेंट्ल ने इस मौके पर कहा, “पेट्रोनेट 28 अरब डॉलर के ड्रिफ्ट्वूड एलएनजी टर्मिनल में 18% इक्विटी हिस्सेदारी के लिए 2.5 अरब डॉलर देगा जो इस परियोजना में अब तक की सबसे बड़ी विदेशी होल्डिंग होगी और प्रति वर्ष 5 मिलियन टन गैस की खरीद के लिए बातचीत करेगा.”
इस करार के क्या मायने हैं यह समझे बगैर इसे एक उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है. किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते के दर्जनों पहलू होते हैं जिनके वास्तविक असर को समझने में वर्षों का समय लग सकता है.
महज दो साल पहले वर्ष 2017 में टेल्यूरियन इंवेस्ट्मेंट्स और मेगगेलन पेट्रोलियम के विलय से टेल्यूरियन इंक का जन्म हुआ था. टेल्यूरियन इंवेस्ट्मेंट्स और मेगगेलन पेट्रोलियम, दोनों ही विलय से पहले भारी नुकसान से लगभग बर्बाद के कगार पर थीं और उनका मूल्य शून्य के करीब था.
कंपनी के ड्रिफ्ट्वूड एलएनजी निर्यात सुविधा, जिसमें भारत निवेश कर रहा है, और संबद्ध पाइपलाइनों का निर्माण शुरू भी नहीं हुआ है. अगर वे समय से निर्माण कार्य शुरू भी कर लें तो 2023 से पहले कोई नकदी प्रवाह उत्पन्न नहीं होगा. टेल्यूरियन के पास केवल एक प्लान और नामचीन लोगों की प्रबंधक टीम है और वह “व्यापार योजना” से ज्यादा कुछ भी नहीं है. भारत के निवेश को छोड़ दें तो इसे थोड़ी नकदी, भागीदार और “संभावित एलएनजी ग्राहकों के साथ संभावित सौदों” की एक मुट्ठी भर कहा जा सकता है.
पिछले वित्तीय वर्ष में टेल्यूरियन का राजस्व मात्र 1 करोड़ डॉलर का था, कुल सम्पत्ति 40 करोड़ डॉलर की थी और 11 करोड़ डॉलर देनदारी का दायित्व था. अब तक टेल्यूरियन का कारोबार केवल मार्केटिंग तथा तेल और गैस की बिक्री तक सीमित है और जमीन पर उसकी एक भी परियोजना नहीं है.
ज़ाहिर है की 2,800 करोड़ रुपए की कुल सम्पत्ति वाली कम्पनी को किसी हालत में 53,000 करोड़ की पूंजी नहीं सौंपी जानी चाहिए थी, वह भी ऐसी कम्पनी को जो केवल 2 साल पहले अस्तित्व में आई हो और जिसकी एक भी परियोजना जमीन पर न हो.
ड्रिफ्ट्वूड एलएनजी परियोजना टेल्यूरियन इंक के स्वामित्व वाली “प्रस्तावित” परियोजना है जिसमें एक तरलीकृत प्राकृतिक गैस का उत्पादन और निर्यात टर्मिनल है. बन जाने पर, टर्मिनल दुनिया भर के ग्राहकों को प्रति वर्ष 27.6 मिलियन टन एलएनजी का निर्यात करने में सक्षम होगा. एफईआरसी से ड्रिफ्ट्वूड परियोजना के लिए अंतिम अनुमोदन इसी वर्ष अप्रैल के महीने में प्राप्त हुआ है.
टेल्यूरियन इंक ने अप्रैल 2017 में जापान को अपने ड्रिफ्ट्वूड प्राकृतिक गैस संयंत्र से 8 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू के निर्धारित मूल्य पर प्रति वर्ष 7 मिलियन टन एलएनजी बेचने की पेशकश की. यह करार शिपिंग लागत सहित 5 साल के अनुबंध पर प्रस्तावित था पर जापानी निवेशकों ने इसमें अपना पैसा नहीं लगाया.
अक्टूबर 2017 में रणनीति में बदलाव करके उसे और सम्मोहक बनाते हुए कम्पनी ने फिर से जापान को ही 1.5 बिलियन डॉलर में ड्रिफ्ट्वूड परियोजना का हिस्सा बेचने की पेशकश की. डील की रकम चार वर्ष की अवधि में दी जा सकती थी साथ ही एलएनजी का निर्धारित मूल्य 2 डॉलर कम करके 6 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू कर दिया गया पर तब भी कोई निवेशन नहीं मिला.
रेटिंग एजेंसी स्टाइफेल ने जुलाई 2019 में टेल्यूरियन के शेयर का लक्ष्य 16 डॉलर से गिरा कर 9 डॉलर कर दिया (लगभग आधा) और नैस्डैग पर टेल्यूरियन के शेयर 13% गिर गए. एनलिस्ट बेंजामिन नोलन के शब्दों में “टेल्यूरियन का रिस्क प्रोफाइल हमेशा अधिक जोखिम की तरफ रहा है; वास्तविकता यह है की एक व्यवसाय के तौर पर टेल्यूरियन एक व्यापार की योजना से बस थोड़ा ही अधिक है.”
2018 में टेल्यूरियन ने 1222% का घाटा दर्ज किया था और इस वर्ष की पहली तिमाही में भी उसे 45 मिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है. जुलाई 2019 तक कम्पनी के पास केवल 50 करोड़ डॉलर का निवेश था और आज की तारीख में भी ज़मीन पर एक भी परियोजना नहीं है.
एक जोखिम से भरी हुई कम्पनी जिसने आज तक घाटे के अलावा कुछ भी नहीं दिया उसके साथ इतने बड़े करार को जायज़ कैसे माना जा सकता है? भारत द्वारा निवेश किये जाने के पहले टेल्यूरियन 100 से ज़्यादा कम्पनियों को प्रस्ताव दे चुका था और इनमें से किसी से भी निवेश प्राप्त करने में नाकाम रहा था. ऐसी कागज़ी कम्पनी के अस्तित्वविहीन परियोजना पर नरेंद्र मोदी ने अपने दौरे में 750 करोड़ डॉलर लगाने का एमओयू कर लिया. एसईसी को प्रस्तुत की गई रिपोर्ट के मुताबिक ड्रिफ्ट्वूड परियोजना की 25% क्षमता अब भी बिकाऊ है.
औबरीमॅक-क्लेंडन को शेल गैस उद्योग का किंग कहा जाता है. 2008 में जब अमेरिका भारी मंदी के चपेट में था तब फ्रैकिंग तकनीक में आए सुधारों की बदौलत वह तेल और गैस उद्योग में आए उछाल को साधने में सफल रहे और अमेरिका में सबसे अधिक भुगतान पाने वाले फॉर्च्यून 500 सीईओ बने. “फ्रैकिंग” प्राकृतिक गैस निकालने का एक विवादास्पद तरीका है. इस प्रक्रिया में तेल के कुंओं की तली वाले पत्थरों को उच्च दबाव वाले पानी से भेद दिया जाता है जिससे अचानक ही वह चटक जाता है और अंदर मौजूद गैस झटके में बाहर आ जाती है. इस तरह बहुत छोटे भंड़ारों से भी गैस निकालना सम्भव हो जाता है जो पारस्परिक तकनीक से सम्भव नहीं था. ड्रिफ्ट्वूड परियोजना में फ्रैकिंग का प्रयोग ही होना है. इस प्रक्रिया से निकली प्राकृतिक गैस को शेल गैस भी कहा जाता है.
फ्रैकिंग के साथ कई समस्याएं जुड़ी हुई हैं. पहला तो यह की इस तकनीक के लिए बनाए जाने वाले कुंए पारस्परिक विधि के कुंओं के मुकाबले दुगुनी लागत पर बनते हैं साथ ही इसमें बहुत सारा पानी इस्तेमाल होता है जो इस्तेमाल के बाद प्रदूषित हो जाता है. तीसरी और सबसे खतरनाक बात है की फ्रैकिंग से भूकम्प के समान झटके उत्पन्न होते है. अभी हाल ही में चीन के गाओशान की एक परियोजना से उत्पन्न भारी कंपन से कई घर ढह गए और दो लोगों की मृत्यु हो गई थी. जिसके बाद हुए के विरोध के कारण परियोजना को बंद करना पड़ा.
अब हमारे पास यह जानने के लिए पर्याप्त डेटा है जो अमेरिका के फ्रैकिंग उद्योग का हाल बता रहा है. दरअसल शेल को हाइप किया गया है जिसकी वजह से निवेशकों ने शेल क्षेत्र में अरबों डॉलर डाल दिए हैं. अत्यधिक निवेश से अचानक ही बहुत सारे कुंओं का निर्माण हुआ जिससे फ्रैकिंग उद्योग का “प्रारंभिक उत्पादन” बहुत ज़्यादा हुआ पर शेल गैस के कुंओं के साथ एक बहुत बड़ी समस्या है, शुरू किए जाने के बाद उनका उत्पादन बहुत तेज़ी से कम हो जाता है. उत्पादन की गिरावट का सामना करने का एक ही तरीका है– नए कुंओं की ड्रिलिंग! एक बार निवेशकों को इस बात का पता चल जाता है तो वे पीछे हट जाते हैं.
अमेरिकी शेल उद्योग से शुद्ध नकदी प्रवाह वर्ष दर वर्ष नकारात्मक रहा है, और उद्योग की नामचीन हस्तियां पहले ही किनारा कर चुकी हैं. अमेरिका बेकार कुंओं से पटा पड़ा है और अकसर साइट को बिना साफ किए छोड़ दिया जाता है. इस बीच शेल भंडारों का अनुमान भी घटा है. पोलैंड में अब तक खोदे गए 30-40 कुंओं से कोई उत्पादन नहीं हुआ है. भविष्य में आशंका है कि इसे भी “डॉटकॉम बबल” के एक संस्करण के रूप में इसे याद किया जाय.
बिज़नेस मीडिया अभी भी फ्रैकिंग उद्योग को एक आर्थिक और तकनीकी क्रांति के रूप में बताता है जबकि यह उद्योग अपनी पहली मंदी भी देख चुका है. 2014 में तेल की कीमत आधी हो जाने से अचानक भय का माहौल बना और उत्पादन 68% कम हो गया. कम्पनियों ने निवेश बंद कर दिया और 100 से ज़्यादा कम्पनियां दिवालिया हो गईं जिनके साथ 70 बिलियन डॉलर की राशि भी डूब गई.
ये कंपनियां अपनी आय के मुकाबले कहीं अधिक पैसे खो रहीं हैं. ऐसे में इस परिदृश्य को बनाए रखने के लिए ऋणदाताओं की आवश्यकता है जिससे उद्योग और अधिक कुंओं को ड्रिल कर उत्पादन बढ़ा सके क्योंकि अब पैमाना लाभ के बजाय उत्पादन है.
वॉल स्ट्रीट के वित्त पोषण से अस्तित्व में आया यह शेल बूम 2008 से अब तक 280 बिलियन डॉलर की पूंजी डुबा चुका है. तेल की गिरती कीमतों के बीच निवेश में आई कमी की वजह से जहां 2018 में कुल 28 कम्पनियां दिवालिया हुईं वहीं 2019 में अब तक 26 अमेरिकी कम्पनियां दिवालिया हो चुकी हैं और बाकी कंपनियों को अभी भी भारी पूंजी की आवश्यकता है. खुद टेल्यूरियन के संस्थापक चैरिफ सोयुकी का कहना है की उद्योग को 150 बिलियन डॉलर का निवेश चाहिए.
भारी कर्ज़, विवादास्पद तकनीक, दिवालिया कम्पनियों और कीमतों की उठा-पटक पर खड़ा यह उद्योग साफ तौर पर “काफी अस्थिर” है और निवेश के लिहाज़ से पूरी तरह असुरक्षित. जहां एक ओर यह सवाल बनता है कि “क्या मंदी के बीचों-बीच खड़े भारत को फिलहाल इस डील की ज़रूरत भी थी?” वहीं दूसरी ओर “प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान” डील होने से लोग यही निष्कर्ष निकाल रहे है की “यह भारत की पहल पर किया गया करार है”, दूसरे शब्दों में “भारत ही लाभार्थी है.” पर खेल इसके ठीक उलट है.
असल बात यह है की अमेरिकी सरकार 2018 से ही भारत को एक खरीददार के रूप में लक्षित कर चुकी थी. ईआईए अमेरिकी सरकार के ऊर्जा विभाग का एक अंग है जिसके वार्षिक दस्तावेज इंटरनेशनल एनर्जी आउटलुक- 2018 में भारत पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी जहां भारत को एक सम्भावित ग्राहक के रूप में दिखाया गया था. ब्लूमबर्ग के साथ बात करते हुए टेल्यूरियन की सीईओ ने साफ कहा की “भारत को एलएनजी चाहिये और वे उत्पादन क्षमता विकसित कर रहे हैं,” इसलिये “उन्होंने भारत को आमंत्रित किया है.” इन तथ्यों को जानने के बाद असल लाभार्थी कौन है यह समझना काफी आसान है.
चेनियर एनर्जी एक अमेरिकी एलएनजी कम्पनी है और टेल्यूरियन के संस्थापक सोयुकी ने ही चेनियर की भी स्थापना की थी. एक तथाकथित विवाद के बाद वे चेनियर से अलग हो गए और कुछ दिनों बाद टेल्यूरियन बना ली, पर चेनियर और टेल्यूरियन का सम्बंध इतने तक ही सीमित नहीं है.
टेल्यूरियन ने अमेरिकी सरकार में लॉबिंग के लिए 7 लाख 20 हज़ार डॉलर खर्च किए हैं. ये पैसे लॉबिस्ट मजीदा मुराद और अंकित देसाई के माध्यम से खर्च किए गए और दोनों ही टेल्यूरियन के पहले चेनियर के लिए काम कर चुके हैं. टेल्यूरियन की सीईओ मेग जेंटल भी पहले चेनियर में सीएफओ थी.
इसी तरह चेनियर ने भी लॉबिंग के लिए 7 लाख 10 हज़ार डॉलर खर्च किए हैं जो टेल्यूरियन द्वारा खर्च की गई राशि के लगभग बराबर है.
टेल्यूरियन के ड्रिफ्ट्वूड परियोजना का डिज़ाइन और निर्माण “बेकटेल” कर रही है जो की चेनियर की परियोजनाओं पर भी काम कर रही है.
ये रोचक किस्सा यहां भी खत्म नहीं होता. टेल्यूरियन और पेट्रोनेट के डील से पहले, 2018 में चेनियर ने “गेल” के साथ एक बड़े एलएनजी डील को अंतिम रूप दिया था. इस डील के तहत जो एलएनजी आयात हो रही है वह परियोजना भी लुइसियाना में ही है. एलएनजी के मौजूदा निदेशक प्रभात कुमार सिंह पहले “गेल” के निदेशक थे.
कुछ प्रभुत्वशाली कारोबारी एक अदूरदर्शी राजनेता के साथ व्यापार करते हैं जिससे उन व्यापारियों को बहुत लाभ होता है. राजनेता को कोई निजी नुकसान नहीं होता साथ ही खूब वाहवाही मिलती है. उन व्यापारियों को लगता है की वे उसे बार-बार ठग सकते हैं तो वे उस नेता पर वही तरीका फिर से आज़माते हैं.
राजनेता सस्ते प्रचार से ही पूर्णतया संतुष्ट हो जाता है और इस तरह दोबारा ठगा जाता है जिसकी असल कीमत उस राजनेता को चुनने वाली जनता चुकाती है.
General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.
Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?