रवीश कुमार के सम्मान से चिढ़ क्यों!

जिन पत्रकारों की क़लम से बात-बात पर उदारता, अभिव्यक्ति और लोकतंत्र टपकता है उनके हृदय में ये तत्व इसके ठीक व्युत्क्रमानुपात में क्यों होते हैं?

WrittenBy:प्रकाश के रे
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पिछले महीने जब रवीश कुमार को पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए प्रतिष्ठित रेमन मैगसेसे सम्मान देने की घोषणा हुई, तो देश में बड़ी संख्या में लोगों को प्रसन्नता हुई. कई मामलों में उनसे असहमति रखनेवाले लोगों ने भी इसे उचित सम्मान बताया. यह स्वाभाविक ही था कि उनकी निंदा और उनसे अभद्रता करते रहने वाले समूह ने इस समाचार पर भद्दी टिप्पणियां की, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से कुछ ऐसे लोगों ने भी रवीश कुमार को प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर भला-बुरा कहना शुरू कर दिया, जो स्वयं को उदारवादी, लोकतांत्रिक और सामाजिक न्यायवादी कहते हैं. इनमें लेखक और पत्रकार भी शामिल थे.

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यह सिलसिला अभी थमा नहीं है. ऐसी टिप्पणियों में रवीश कुमार की पत्रकारिता को ‘सवर्णवादी सत्ता के लिए सेफ़्टी वॉल्व’ की संज्ञा दी गयी. मैगसेसे सम्मान के प्रशस्ति पत्र में रवीश कुमार की पत्रकारिता के लिए उल्लिखित ‘वॉयस ऑफ़ वॉयसलेस’ पर खीझ निकाली गयी और व्यंग्यवाण छोड़े गए. इन सबसे भी मन नहीं भरा, तो तसल्ली के लिए मैगसेसे फ़ाउंडेशन और सम्मान में रॉकफ़ेलर फ़ाउंडेशन और फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन के अनुदानों पर प्रश्न उठाते हुए कहा गया कि ऐसे अनुदानों और सम्मानों के पीछे ‘एजेंडा’ होता है. यह भी कहा गया कि भारत की पत्रकारिता की चिंता छोड़कर फ़िलीपींस अपने यहां पत्रकारिता और पत्रकारों पर संकट की परवाह करे.

फ़ाउंडेशनों, सम्मानों और सम्मान पाने वाले की आलोचना कोई नयी बात भी नहीं है और ऐसा करना अनुचित भी नहीं है. लेकिन, यह सब आलोचना के दायरे में होना चाहिए, न कि कुंठा निकालने या विषवमन करने के लिए. और, ऐसा करते हुए मानदंडों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. हालांकि वर्षों से उनके कार्यक्रमों को देखनेवाले, उनके लेखों को पढ़ने वाले और उनके भाषणों को सुनने वाले अनगिनत लोग इससे भली-भांति परिचित हैं. पर ऐसी टिप्पणियों का विश्लेषण करने से पहले रवीश कुमार की पत्रकारिता और हमारे समय और इस पेशे के लिए उसके महत्व को यहां रेखांकित करना आवश्यक है.

‘द न्यू रिपब्लिक’ के 08 जून, 1992 के अंक में अमेरिकी पत्रकार कार्ल बर्नस्टीन ने वाटरगेट प्रकरण के बाद की पत्रकारिता पर एक लेख लिखा था. उसका शीर्षक था- ‘द इडियट कल्चर.’ बॉब वुडवार्ड के साथ बर्नस्टीन ने 1972 में ‘द वाशिंग्टन पोस्ट’ के लिए वाटरगेट प्रकरण पर रिपोर्टिंग की थी, जिसके कारण तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के प्रशासन के अधिकारियों के विरुद्ध जांच-पड़ताल का सिलसिला चला और निक्सन को पद छोड़ना पड़ा था. इस मामले के दो दशक बाद की पत्रकारिता पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने उक्त लेख में लिखा था कि इतिहास में पहली बार भयावहता, मूढ़ता और अश्लीलता हमारी सांस्कृतिक मानक, यहां तक कि हमारा सांस्कृतिक आदर्श बनती जा रही हैं. व्यापक रूप से पसरी हुई इस संस्कृति की प्रवृत्ति हर तरह के संदेश को मानसिक क्षमता के निम्नतम स्तर तक लाना है.

वर्ष 2008 में राजनीति शास्त्र के विद्वान प्रोफ़ेसर रणधीर सिंह ने अपने एक व्याख्यान में बर्नस्टीन के इस लेख और उनकी टिप्पणी का उल्लेख किया था. यह व्याख्यान उसी वर्ष ‘इंडियन पॉलिटिक्स टूडे’ के नाम से पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुआ था. जब 1992 के अमेरिका में बर्नस्टीन और 2008 के भारत में प्रोफ़ेसर सिंह ‘द इडियट कल्चर’ की अवधारणा का प्रयोग कर रहे थे, तब मीडिया का हाल आज की तरह नहीं था और ‘गोदी मीडिया’ नहीं हुआ था, और न ही सोशल मीडिया का क़हर टूटा था. ‘फ़ेक न्यूज़’, ‘ट्रोलिंग’, ‘ऑल्ट फ़ैक्ट’, ‘आइटी सेल’ जैसी अवधारणाओं का जन्म नहीं हुआ था. वे तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोकतंत्र में बढ़ते महत्व तथा सोशल मीडिया की असीम संभावनाओं पर विमर्श के दिन थे.

पिछले साल प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द फ़्री वॉयस’ में रवीश कुमार ने लिखा है कि आइटी सेल किसी दल विशेष की एक इकाई भर नहीं है, बल्कि वह एक मानसिकता है, जो समाज के बड़े हिस्से में घर कर कर गयी है. उन्होंने इस समूची मानसिकता को ही ‘आइटी सेल’ की संज्ञा दी है, जिसने बड़ी संख्या में नागरिकों को ‘ट्रोल’ में बदल दिया है. रवीश कुमार का कहना है कि कई समाचार चैनल भी इस ‘आइटी सेल’ का विस्तार हैं.

बहरहाल, यह ध्यान देने की बात है कि एक भारतीय राजनीतिशास्त्री अपने समय के बारे में बताने के लिए एक अमेरीकी पत्रकार की बात का संदर्भ दे रहा है. आज वैश्वीकृत युग में हमारी उपलब्धियां और चिंताएं एक जैसी हैं. बड़बोले, बाहुबली और अहंकारी नेता कई देशों पर राज कर रहे हैं. अधिकतर समाज घृणा, कुंठा, हिंसा और हताशा से ग्रस्त हैं. विषमता और विभाजन से मनुष्यता त्रस्त है. इस कारण कार्ल बर्नस्टीन, प्रोफ़ेसर रणधीर सिंह और रवीश कुमार जैसे लोगों के विश्लेषण एक जैसे हैं.

इस चर्चा में 2017 में दिए गए बर्नस्टीन के दो वक्तव्यों का उल्लेख प्रासंगिक होगा. उस वर्ष जनवरी में उन्होंने कहा था कि राष्ट्रपति का झूठ बोलना हमेशा लोगों का सबसे ख़तरनाक दुश्मन होता है तथा प्रेस पर डोनाल्ड ट्रंप का हमला निक्सन के हमलों से भी अधिक विश्वासघाती है. ट्रंप अपने प्रचार अभियान के समय से ही उनकी आलोचना करने वाली मीडिया को ‘एनेमी ऑफ़ द पीपुल’ कहते रहे हैं. दिसंबर में बर्नस्टीन ने कहा कि समाज में ‘कोल्ड सिविल वार’ को बढ़ावा देने के लिए ट्रंप प्रेस पर हमालावर हैं और ऐसा कर अपने समर्थकों को तुष्ट कर रहे हैं.

क्या यह घृणा, हिंसा और विभाजन पसारता ‘कोल्ड सिविल वार’ हमारे देश में भी जारी नहीं है? क्या यह फ़िलीपींस में नहीं हो रहा है, जहां रोड्रिगो दुतेरते बतौर राष्ट्रपति शासन कर रहे हैं? वर्ष 1926 में ही एक लेख में इतिहासकार कार्ल्टन हेज़ ने राष्ट्रवाद को एक धर्म कहा था. अपने इस विचार को उन्होंने 1960 में पुस्तक के रूप में विस्तार भी दिया था. इसका अर्थ यह हुआ कि जो हमारे दौर में घटित हो रहा है, वह कोई नयी परिघटना नहीं है. परंतु, यह भी सच है कि यह नव-राष्ट्रवाद युक्तियों और संसाधनों के मामले में पहले से कहीं अधिक सक्षम और सशक्त है.

ऐसे परिवेश में रवीश कुमार सत्ता से सवाल कर तथा देश और समाज की विभिन्न समस्याओं को उठाकर अपने पेशेवर दायित्व को निभाने का प्रयास कर रहे हैं. उनके कार्यक्रमों में हमारे देश, समाज और समुदायों से जुड़े हर तरह के मसलों को जगह मिली है. ऐसा करते हुए वे कभी यह दावा भी नहीं करते कि वे ऐसा करने वाले अकेले हैं. उनके कार्यक्रमों की यह भी विशेषता रही है कि वे अनेक पत्रकारों और लेखकों के लेखों, उनकी रिपोर्टों और पुस्तकों का हवाला देते रहते हैं.

उनका यह भी दावा नहीं रहा है कि वे क्रांतिकारी हैं. वे तो बस यही कहते हैं कि यह उनका काम है और वे यह कर रहे हैं. वैसे भी क्रांति करना पत्रकार का काम नहीं है, यह राजनीति और समाज का विषय है तथा इसका भार राजनीतिक कार्यकर्ताओं और सामाजिक आंदोलनों पर है. होना तो यह चाहिए था कि इस सम्मान के अवसर पर रवीश कुमार के कार्यक्रमों पर बतकही होती, उनके बोलने, इंटरव्यू करने, रिपोर्ट बनाने पर लिखा जाता, इन सबके अच्छे-कमज़ोर पहलुओं पर बात होती. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ‘आइटी सेल’ मानसिकता का विषाणु उदारवाद, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की पक्षधरता का दावा करने वाले के मस्तिष्क को भी संक्रमित कर रहा है. ‘इडियट कल्चर’ और उसके ‘सांस्कृतिक आदर्श’ बनते जाने की प्रक्रिया पर चिंता करते हुए इस संक्रमण का संज्ञान भी लिया जाना चाहिए.

लेख के प्रारंभ में जिन निंदात्मक सोशल मीडिया टिप्पणियों का हवाला दिया गया, उनमें एक कमाल यह भी है कि मैगसेसे, रॉकफ़ेलर और फ़ोर्ड फ़ाउंडेशनों पर ‘एजेंडा’ चलाने का आरोप लगाते हुए यह भी कहा गया कि रवीश कुमार से अधिक योग्य तो अलाने जी और फ़लाने जी हैं, उन्हें मिलना चाहिए. यानि उनके हिसाब से मिल जाता, तो क्या इन फ़ाउंडेशनों का ‘एजेंडा’ सही हो जाता? रही बात ‘एजेंडा’ की, तो अच्छा ही है कि विनोबा, जयप्रकाश नारायण, आम्टे परिवार, मदर टेरेसा, महाश्वेता देवी, सत्यजीत रे, बीजी वर्गीज़, एमएस सुब्बालक्ष्मी, चण्डी प्रसाद भट्ट, अरुणा रॉय, पी साईनाथ, शांता सिन्हा, बेज़वाड़ा विल्सन, टीएम कृष्णा और इस सम्मान से सम्मानित अन्य कई भारतीयों की तरह रवीश कुमार भी बेहतर भारत बनाने का ‘एजेंडा’ जारी रखें.

रेमन मैगसेसे का शासन दूध का धुला नहीं था, पर दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास में अक्सर ऐसे शासन गुज़रे हैं. अपना देश भी अपवाद नहीं है. रॉकफ़ेलर परिवार भी कारोबार को लेकर सवालों के घेरे में रहा है, पर उसकी दानशीलता भी अतुलनीय है. उसने फ़िलीपींस में केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित किया, जहां से लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की बड़ी संख्या निकली. दशकों से जारी मार्कोस की तानाशाही के विरुद्ध आंदोलन के बड़े केंद्रों में यह संस्थान था. रॉकफ़ेलर परिवार ने अमेरिका में विश्वविद्यालय बनाये और विश्वविद्यालयों को अनुदान दिया. इनमें से एक कोलंबिया विश्वविद्यालय भी है, जहां बाबा साहेब आंबेडकर ने पढ़ाई की थी. बाबा साहेब ने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में भी अध्ययन किया था. इस संस्थान को भी रॉकफ़ेलर फ़ाउंडेशन से अनुदान मिलता है.

ऐसे संस्थानों में और ऐसे फ़ाउंडेशनों के फ़ेलोशिप से देश और दुनिया के अनगिनत भले और बड़े लोगों ने पढ़ाई और शोध किया है. अमेरिका समेत दुनिया भर में इस फ़ाउंडेशन ने वैज्ञानिक अनुसंधान करने और सामाजिक विज्ञान व मानविकी की शिक्षा के विस्तार के लिए धन दिया है. अनेक रोगों की दवा खोजने के शोध के लिए भी इसने मदद की. ऐसा ही फ़ोर्ड और कारनेगी फ़ाउंडेशनों के साथ है.

पुराने धनिकों की चैरिटी का मामला अलग था. बीते तीन दशकों में आये नये दानदाता धनकुबेरों की तरह वे मसीहाई ग्रंथि से पीड़ित नहीं थे. नये ढंग की चैरिटी को ‘फ़िलांथ्रोकैपिटलिज़्म’ कहा गया. यह शब्द सकारात्मकता के साथ गढ़ा गया था, पर अब उचित ही यह आलोचना के लिए इस्तेमाल होता है. अगर हम धनकुबेरों की चैरिटी और उनके एजेंडे को लेकर ईमानदारी से सवाल खड़ा करना चाहते हैं, तो हमें उनसे अधिक कर वसूलने तथा पारदर्शिता बढ़ाने पर बल देना होगा. इस मामले में एक पुस्तक आपकी मदद कर सकती है- आनंद गिरिधरदास द्वारा लिखी गयी ‘विनर्स टेक ऑल: द एलीट शराड ऑफ़ चेंज़िंग द वर्ल्ड.’ 

इस या उस फुटकर बहाने से रवीश कुमार को घेरने का प्रयास और अपने सुथरे होने के दावे से क्या सधेगा! पुरस्कार का महत्व उसके पाने वालों की सूची से बनता जाता है. ऊपर उल्लिखित कुछ नामों से मैगसेसे सम्मान और उसे निर्धारित करने वाली समिति के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. ऐसी चर्चाओं में हमें उदारवादी लोकतांत्रिक परिवेश की अच्छाइयों, कमियों और सीमाओं का भी ध्यान रखना चाहिए. शुद्धतावादी आग्रह, ग्रंथि पालना, द्वेष रखना और हमेशा क्रोधित या कुंठित रहना कल्याणकारी नहीं है.

निश्चित रूप से फ़िलीपींस में पत्रकारिता के सामने बड़ी चुनौतियां रही हैं. वर्तमान राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेरते के तीन वर्षों के शासनकाल में सम्मानित मीडिया संस्था रैपलर और उसकी प्रमुख मारिया रेसा के विरुद्ध 11 मामले दायर किये गये हैं. ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ द्वारा जारी इस वर्ष के ‘वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स’ में 180 देशों में फ़िलीपींस को 134वां स्थान मिला है. पिछली सूची की तुलना में वह एक स्थान नीचे आया है. जो लोग उसे अपनी स्थिति की चिंता करने की सलाह दे रहे हैं, उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि इसी सूचकांक में भारत 140वें स्थान पर है, यानी फ़िलीपींस से छह स्थान नीचे. पिछली सूची से भारत दो स्थान नीचे आया है. 

‘कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार, 1992 से 2018 के बीच फ़िलीपींस में 82 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. फ़िलीपींस की राजनीति लंबे समय से उथल-पुथल से गुज़रती रही है तथा उसे हिंसक विद्रोहों और गिरोहों का सामना करना पड़ा है. वहां तानाशाही भी रही, एक राष्ट्रपति को महाभियोग के द्वारा हटाया गया. एक राष्ट्रपति को भ्रष्टाचार के आरोपों में त्यागपत्र देना पड़ा. तानाशाही के विरुद्ध सफल संघर्ष भी हुआ. क्या इन सब में पत्रकारों और मीडिया की बड़ी भूमिका नहीं रही होगी! वहां की पत्रकारिता के बारे में कुछ समझना हो, तो ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ की वेबसाइट पर पिछले वर्ष दिसंबर में छपा वरिष्ठ फ़िलीपीनो पत्रकार कार्लोस एच कोंडे का लेख देखा जा सकता है. उन्होंने लिखा है कि फ़िलीपीनो पत्रकार आज के ख़तरे का सामना उसी दृढ़ निश्चय और साहस से करते रहेंगे, जैसा उन्होंने मार्कोस की तानाशाही के विरुद्ध लड़ते हुए दिखाया था.

सम्मान समारोह से पहले अपने संबोधन के बाद रवीश कुमार जिन लेखक-टिप्पणीकार रिचर्ड हैदरियन से बातचीत कर रहे थे, उन्होंने अपनी बात ही यहां से शुरू की कि आपके व्याख्यान से पता चलता है कि आपके यहां और फ़िलीपींस में एक जैसी स्थिति है. इतना ही नहीं, वे विश्व के अन्य हिस्सों में पत्रकारिता की समस्याओं को भी वैसा ही पाने की बात कहते हैं. रवीश कुमार के साथ म्यांमार के एक जूझारू पत्रकार को भी सम्मानित किया गया है. आज आवश्यकता स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक-दूसरे का हाथ थामने की है, बड़ी लामबंदी बनाने की है, एक-दूसरे से जानने-समझने और प्रेरित-उत्साहित होने की है. जैसा कि हम जलवायु की आपातस्थिति में वैश्विक एकजुटता के आकांक्षी और आग्रही हैं, वैसे ही हमें मनुष्यता और लोकतंत्र को बचाने-बढ़ाने के लिए एकजुट होना चाहिए. मित्रों, एक संवेदनशील और साहसी पत्रकार या ऐसे और भले लोगों के प्रति हमारा सिनिसिज़्म हमें ही खोखला कर रहा है.

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