कुली बाज़ार 9: हमारे समाज में हमारी कहानी 

यह हिंदी साहित्य के इतिहास में संभवतः पहली दफ़ा हो रहा है कि कहानी और आलोचना दोनों पर ही एक साथ विश्वसनीयता और पठनीयता का संकट है.

WrittenBy:अविनाश मिश्र
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भयंकर पतनशीलता और अंधकार की नित नई सूचनाएं सौंपते हमारे समाज में इन दिनों कहानी और आलोचना दोनों की ही स्थिति कुछ नासाज़ है. यह हिंदी साहित्य के इतिहास में संभवतः पहली दफ़ा हो रहा है कि कहानी और आलोचना दोनों पर ही एक साथ विश्वसनीयता और पठनीयता का संकट है. आलोचना के लिए और उसमें भी कहानी-आलोचना के लिए विश्वसनीयता और पठनीयता का संकट कोई नई बात नहीं है, क्योंकि इस संकट से मुक्त होना उसका मक़सद नहीं है. वह ‘गूढ़ सिद्धांतों’ से संचालित है और उसके सरोकार सर्वथा भौतिक और मूर्त हैं. ये सरोकार प्रकाशन-पूर्ति, जन-संपर्क, अकादमिक लाभ, सांगठनिक गठजोड़, पुरस्कारादि से संबंधित हैं. लेकिन यहाँ फ़िक्र इस बात की है कि अब कहानी के भी यही सरोकार हो चले हैं, लिहाज़ा उसमें आलोचना के अवगुण आ गए हैं—विश्वसनीयता और पठनीयता का संकट.

हिंदी कहानी के मौजूदा परिदृश्य को देखें तब देख सकते हैं कि एक समय की हिंदी कहानी के सबसे बेहतर स्वर अब शांत हैं, या शिथिल या इंतिहाई अनियतकालिक या वे ख़ुद को दुहरा रहे हैं. इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में रवींद्र कालिया के सौजन्य से उत्पन्न हुए सचमुच के क़ाबिल कहानीकार—चंदेक अपवादों को छोड़ दें—बतौर कहानीकार ख़त्म हो चुके हैं. वे ख़त्म हो चुके हैं, इस तथ्य के भी कई वर्ष हो चुके हैं.

इस दुर्घटनाक्रम से हुआ यह कि पत्रिकाओं को इस प्रकार की कहानियां प्राप्त होना बंद हो गईं, जिन्हें बेहतर और महत्वपूर्ण कहा जा सके. इस दरमियान इस परती ज़मीन पर कुछ अजीब-से कहानीकारों का क़ब्ज़ा हो गया. उनका एक अनुच्छेद ठीक से पढ़ पाना मुहाल है. यहां यह पूरे यक़ीन से कहा जा सकता है कि पत्रिकाओं के संपादक भी इन कहानियों को नहीं पढ़ते हैं. यह कठिन काम उन्होंने अपने मातहतों—जिनमें उप या सहायक संपादकों की आभागी क़ौम जिसे चूक से भरपूर प्रूफ़ देखने के सिवा दूसरा कोई काम नहीं आता—को सौंप रखा है.

हिंदी की कुछ साहित्यिक मासिक पत्रिकाओं को देखें तो उन्हें क़रीब प्रतिमाह पच्चीस कहानियों की दरकार है. इनमें त्रैमासिक, द्वैमासिक और अनियतकालीन लघु पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं को भी जोड़ लें तो औसतन हिंदी में पचास कहानियों का भी अगर प्रतिमाह उत्पादन संभव हो सके, तब भी इन पत्रिकाओं का पेट भरना मुश्किल है. ये पत्रिकाएं कहानी के पीछे किसी सिरफिरे आशिक़ की तरह पागल हैं. लंबी कहानी का दौर बीतने से इनका पागलपन और बढ़ गया है.

कहानी और कहानी-आलोचना के इस दुर्भिक्ष में हिंदी गद्य की अप्रतिम क़लम अनिल यादव की कहानी ‘गौसेवक’ बचती हुई नज़र आ रही है. यह बेहद दुखद है कि इस कहानी पर चर्चा का प्रसंग हिंदी में पूर्णतः अविश्वसनीय और अप्रासंगिक सिद्ध हो चुके पुरस्कारों के बीच एक पुरस्कार की वजह से ही बन पा रहा है. बहुत संभव है कि यों न हुआ होता तब यह कहानी भी हिंदी कहानी के उस मौजूदा परिदृश्य में, जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया, खो गई होती.  

28 अगस्त 2019 की शाम नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (एनेक्सी) में अनिल यादव को उनकी कहानी ‘गौसेवक’ के लिए ‘हंस कथा सम्मान’ प्राप्त हुआ. ‘गौसेवक’ अपने विन्यास में कुछ जटिल और कहन में पर्याप्त लंबी कहानी है. इस कथा-व्यवहार को इन दिनों पाठ में बाधा की तरह लेने का चलन है. हिंदी की नई और बीमार दुनिया का ज़ोर संक्षिप्तता और सरलता पर है. वह इस वक़्त शब्दों से रचे गए दृश्यों को छोड़िए, शब्दों तक से बच रही है. ऐसे में भयंकर पतनशीलता और अंधकार से ग्रस्त हमारे यथार्थ के आशावाद से संचालित आदर्शोन्मुख चित्रण की मांग करने वाले महानुभाव भी मंच और मंच से इतर से मौजूद हैं. इस लंबे वाक्य के लिए माफ़ करें, लेकिन जैसा सामने का समय है, उसमें पुरानी आंखें काम नहीं आ रही हैं. इस समय की कहानी को, अगर वह कहानी है तो, उसकी शर्तों पर ही समझना होगा. ‘गौसेवक’ इस समय की कहानी है—इस तथ्य के बावजूद कि हमारा समय लंबे समय से ‘कहानी का समय और समय की कहानी’ विषयवाले भ्रष्ट सेमिमारों-संगोष्ठियों से चटा हुआ समय है… ‘गौसेवक’ इस ज़िद के साथ इस समय की कहानी है कि अगर वह इस समय की कहानी नहीं हो पाई, तब वह किसी भी समय की कहानी नहीं हो पाएगी. 

अनिल यादव का कहानीकार वर्जित के स्पर्श में यक़ीन रखता है. इस यक़ीन के बग़ैर आस-पास की अंधेरी दुनिया के सारे संभव पक्ष देख सकना संभव नहीं है. ‘गौसेवक’ भी इस यक़ीन से बुनी हुई है. अनिल के कहानी-संसार के कुछ बुनियादी तत्त्व इस कहानी में भी उपस्थित हैं : जैसे साक्ष्यबहुलता, जैसे भय और यातना का माध्यम बनता अस्तित्व, जैसे भयभीत करती हुई करुणा, जैसे आस्थाएं गंवाते व्यक्तित्वों का सामूहिक रुदन, जैसे अभिभूत करने की क्षमता. 

इस सिलसिले में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अनिल यादव के पत्रकार और यात्रावृत्तांतकार की छाया/प्रभाव उनके कहानीकार पर देख लेने वाले समीक्षकों की ठूंठ और नई पौध दोनों ही इस दृश्य में मौजूद हैं. ये ही वे अभागे लोग हैं जो रचना को उसकी शर्तों और उसके परिवेश से पढ़ना और समझना नहीं चाहते. वे बस सामने के सब कुछ को किसी तरह पचा जाना चाहते हैं. उन्हें देखकर इस चलते हुए हिंदी पखवाड़े में वह आदमी याद आता है जो बहुत खाता था और एक रोज़ बीमार होकर डॉक्टर के पास गया. डॉक्टर ने उसे रोगमुक्त करने के लिए कुछ दवाइयां लिखीं और बताया कि उसे अब से क्या-क्या नहीं खाना है. आदमी ने बहुत चिंतित होते हुए पूछा कि मैं क्या-क्या खा सकता हूं? इस पर डॉक्टर ने कहा कि खा-खाकर ही तो तुमने अपना यह हाल कर लिया है. 

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