#आर्टिकल 370: सुख का सावन नहीं, पीड़ा का नया पहाड़ खड़ा हो गया है

जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन का अर्थ हिस्सेदारी वाले लोकतंत्र का खात्मा, नई सामाजिक समस्याओं और तमाम आर्थिक जटिलताओं का उदय है.

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जम्मू और कश्मीर फिलहाल आधिकारिक रूप से अपना विशेष राज्य का दर्ज़ा खो चुका है. इसके साथ ही, वह अपना पूर्ण राज्य का दर्जा भी खो चुका है. कुछ दिनों पहले तक जम्मू-कश्मीर जो भौगोलिक और राजनीतिक इकाई हुआ करती थी वह अब बीते दिनों की बात हो चुकी है (अगस्त 1947 के पहले वाला जम्मू और कश्मीर नहीं). पिछला बंटवारा देश के विभाजन की उथल-पुथल भरी ऐतिहासिक परिस्थितियों में हुआ था, इस बार का विभाजन संवैधानिक और लोकतांत्रिक आवरण में छिपे छल-प्रपंच के साथ सामने आया है.

संसद में भारतीय जनता पार्टी ने संख्याबल और गुमराह करने वाले तरीके से जम्मू कश्मीर संविधान सभा की ताकत को देश की संसद में स्थांतरित किया और इसके जरिए राज्य के विशेष दर्जे को खत्म करने का काम दो दिनों के छोटे से अंतराल में कर दिया. राष्ट्रपति ने भी तत्काल ही इस पर अपनी मुहर लगाकर इस काम को आगे बढ़ाया. यह एक बेहद हैरानजनक सच्चाई है.

भारत ने अपना एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य खो दिया है, यह नए भारत की कल्पना का एक बदसूरत पन्ना है. इसी वजह से पूरे देश में जश्न का माहौल है, पर कभी इसी देश को अपनी उदारता, लोकतांत्रिकता और धर्मनिरपेक्षता पर गर्व होता था.

जम्मू-कश्मीर का नया स्वरूप वहां के लोगों के लिए क्या मायने रखता है? यह बदलाव उनके जीवन पर कई तरीकों से असर डालेगा.

एक बड़े हिस्से लद्दाख को काटकर उसे सीधे केंद्रीय शासन के अधीन केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया गया है. जम्मू और कश्मीर इलाके को फिलहाल एक इकाई के रूप में छोड़ दिया गया है लेकिन भविष्य में इसके भी दो या फिर कई हिस्सों में बांटकर कई केंद्र शासित या सीमित विधानसभा वाले क्षेत्रों में बांटा जा सकता है.

हड़बड़ी में किया गया यह बंटवारा उन दिनों की याद दिलाता है जब 1947 में भारत से बाहर निकलने की जल्दबाजी में ब्रिटिशों ने 1947 में भारत-पाकिस्तान के बीच एक अस्पष्ट रेखा खींच दी थी. लेकिन 1947 में औपनिवेशिक सत्ता ने दक्षिण एशिया की किस्मत का फैसला करने के लिए इसके जनप्रतिनिधियों को हिस्सेदार बनाया था जबकि इस दफा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने जम्मू-कश्मीर की जनता से यह अधिकार छीन लिया. अब यह राज्य दो अलग-अलग भौगोलिक और राजनीतिक इकाईयों में बंट गया है और दोनों का दर्जा घटाकर केंद्र शासित प्रदेश का कर दिया गया है.

इस निर्णय का जम्मू और कश्मीर के सामाजिक ताने-बाने पर बहुत बड़ा असर होगा. इस मुद्दे पर जनता दो-फाड़ हो जाएगी, इसमें तमाम अन्य तत्वों के साथ उनकी धार्मिकता की भूमिका अहम होगी. कुछ लोग इस अति-राष्ट्रवादी हिंदुत्व के जश्न में इसके दूरगामी नतीजों और घातक प्रभाव की अनदेखी कर देंगे वहीं दूसरे पक्ष के लिए यह निर्दयता और तानाशाही का एक नया अध्याय बनकर सामने आएगा.

आने वालों सालों में कश्मीर में क्या होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि फिलहाल भुता दिख रहे कश्मीर में सरकार किस तरह के उपाय करती है. अभी तो वहां सिर्फ कर्फ्यू, बैरिकेड्स और सैनिक बलों की असाधारण मौजूदगी दिख रही है. कुछ सालों की दुष्चिंता के बाद क्या यहां मारकाट का मंजर होगा? क्या रोजाना की गिरफ्तारियां, बुलेट और पेलेट मिलकर जहरीले और हिंसक विद्रोह को जन्म देंगे जो कि आईएसआईएस की विचारधारा से प्रेरित है? जो भी हो, लेकिन जो लोग यहां रह जाएंगे उनके लिए यहां आगामी दिनों के नजारे फलस्तीन के गाजा पट्टी सरीखे हो सकते हैं.

इसके राजनीतिक और आर्थिक मक़सद को पूरा करने के लिए नई बसावट और निवेशकों की आमद बढ़ेगी. कुछ लोग विकास के वादों से प्रेरित होकर यहां पहुंचेंगे. इस सबसे शायद यहां बड़े पैमाने पर मौजूद बेरोजगारी जूझ रहे युवाओं को कुछ नौकरियां मिल जाएं, पर शायद ऐसा न भी हो. राज्य के मूलनिवासियों को तमाम पदों के लिए अब उनसे ज्यादा पढ़े-लिखे और अनुभवी बाहरी प्रतिभागियों का सामना करना पड़ेगा. इस तरह के नए सामाजिक संघर्षों से राज्य के विकसित, अविकसित और अति-पिछड़े क्षेत्रों के बीच असमानता की खाई और चौड़ी होगी.

इन्वेस्टमेंट और उद्योगों को जमीन की जरूरत होती है. पहाड़ी, ऊबड़-खाबड़ जमीन वाले राज्य में पहले से ही उपलब्ध जमीनें मिलिट्री कैम्प और उनके शिविरों के कब्ज़े में है, समतल जमीन का पहले से ही टोटा है. ऐसे में उद्योगों के विकास के लिए खेतीबाड़ी वाली जमीनों और जंगलों को साफ कर रास्ता निकाला जाएगा.

मोटी जेब वाले कॉरपोरेट और उद्योगपति जब जम्मू-कश्मीर  में घुसना शुरू करेंगे तो इसका स्वाभाविक असर आर्थिक उठा-पटक के रूप में देखने को मिल सकती है. बहुत ताक़तवर और एकाधिकार वाली आर्थिक शक्तियों के निर्माण से संतुलित विकास के सिद्धांतों को धक्का लगेगा और आबादी का बड़ा हिस्सा इससे बाहर पहुंच जाएगा. संभव है कि इससे वहां का मौजूदा प्रभावशाली तबका भी पीछे छूट जाए. और आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए इसमें कोई भी लाभ नहीं होगा सिवाय सरकारों द्वारा दिए जाने वाले गैस कनेक्शन, इलेक्ट्रिक बल्ब और शौचालय जैसी योजनाओं के.

राजनीतिक तौर पर केंद्र शासित राज्य बनने के बाद नागरिकों को मतदान करने या लोकतांत्रिक भागीदारी के रास्ते बंद हो गए हैं. हालांकि जम्मू और कश्मीर के केंद्र शासित हिस्से में सीमित अधिकारों के साथ विधानसभा होगी, लेकिन इससे ज्यादा भरोसा पैदा नहीं होता. पूर्ववर्ती राज्यों का इतिहास बताता है कि किस तरह से वहां कठपुतली सरकारें थोपी गई हैं. केवल दिखावे का स्तर बढ़ जाएगा. स्थानीय निकाय और पंचायतें बेकार हो जाएंगी और केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख अपनी पहाड़ी विकास परिषद को भी खो देगा. दूसरे केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी, लक्षदीप आदि इसी तरह की व्यवस्था में बने रहेंगे. लेकिन एक मरे हुए राज्य के मलबे पर बने ये केंद्र शासित राज्य विशेषकर जम्मू और कश्मीर में शासन व्यवस्था को अप्रभावी कर देंगे, इनकी भारी भरकम आबादी के चलते जिसके आने वाले दिनों में और भी बढ़ने की संभावना है.

धारा 370 को कब्रगाह में पहुंचाने से बहुत पहले ही काफी हद तक इसे खोखला कर दिया गया था. अपने मूलरूप में केंद्र का जम्मू-कश्मीर में केवल तीन मामलों – रक्षा, संचार और विदेशी- में दखल था. अब यहां के हर मामले में केंद्र का पूर्ण अधिकार है लिहाजा यहां बनने वाली किसी भी सरकार को अब एक साधारण नगरपालिका में बदल दिया जाएगा. कठपुतली सरकारो के जरिए यहां के निवासियों से बंधक प्रजा की तरह व्यवहार किया जाएगा.

हैरानी करने वाली बात सिर्फ इतनी नहीं है कि इस तरह की कार्यवाही की गई बल्कि कपटपूर्ण तरीका भी हैरान करता है. लोकतंत्र के आखिरी पड़ाव पर खड़े जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को (अब इसे चाहे जो कहा जाए) कर्फ्यू और अपमान के तले पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया है. कुछ लोगों के लिए इस अपमान में भी जश्न है.

यह अंत नही है, यह अंत की शुरुआत है.

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