किन रास्तों से चलकर विवादों की गंगोत्री बना कश्मीर

डेढ़ करोड़ रुपए में जिसे अंग्रेजों ने नहीं खरीदा था वह कश्मीर कैसे समय की चाल में फंसकर राजनीति का बेशकीमती गहना बन गया.

Article image

173 साल अस्तित्व में रहने के बाद ‘जम्मू कश्मीर’ की मौजूदा पहचान 5 अगस्त, 2019 को खत्म हो गई. 1846 में गठित हुए इस राज्य का इतिहास बहुत दिलचस्प है. आइये, अनुच्छेद 370 और 35ए के ख़ात्मे पर इसके इतिहास पर एक सरसरी नज़र डाली जाए. 14वीं शताब्दी तक कश्मीर पर बौद्ध और हिंदू राजाओं का अधिपत्य था. इसका जिक्र संस्कृत के ग्रंथ राजतरंगिणी में विस्तार से मिलता है. अनंतनाग, बारामुला आदि जिलों में आज भी बौद्ध स्तूप और शिलालेख उस दौर के सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन की गवाही देते हैं.

इसके बाद, 1586 तक कश्मीर में मुस्लिम शासक शाह मीर का राज रहा और बाद में अकबर ने इसे जीतकर मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बनाया. मुग़लों के निशान यहां बनाये गए बाग़- शालीमार, निशात, अचबल और हरी पर्बत महल पर देखे जा सकते हैं. लगभग दो सौ सालों तक कश्मीर मुग़लों के कब्ज़े में रहा और 1752 में इसकी बागडोर मुग़लों से निकल कर अफ़गान शासक अहमद शाह अब्दाली के हाथों में आ गया. पठानों से 1819 में महान सिख महाराजा रणजीत सिंह ने इसे जीता और 1846 तक कश्मीर पर उनका राज रहा.

वहीं, इससे सटे हुए जम्मू राज्य पर डोगरा राजपूतों का शासन था. 1780 में डोगरा राजा रणजीत सिंह देव के मरने के बाद वहां सत्ता का संघर्ष शुरू हुआ जिसका लाभ सिखों ने उठाया. रणजीत सिंह देव के तीन भतीजे- गुलाब सिंह, ध्यान सिंह और सुचेत सिंह की सेवा से सिख राजा रणजीत सिंह इतने ख़ुश हुए कि गुलाब सिंह को जम्मू की गद्दी दी. वहीं, ध्यान सिंह को भिम्बर, छिबल और पुंछ की तथा रामनगर की गद्दी सुचेत सिंह को दे दी. कुछ समय बाद ध्यान सिंह और सुचेत सिंह की मौत हो गई और पूरे जम्मू पर गुलाब सिंह का अधिपत्य हो गया.

1839 में सिख राजा रणजीत सिंह की मौत के बाद सिख साम्राज्य का पतन शुरू हुआ और पहले अंग्रेज़ों और सिखों की लड़ाई में सिखों के हारने के बाद गुलाब सिंह ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई. इस बात की तस्दीक करते हुए मशहूर लेखक खुशवंत सिंह अपनी किताब ‘सिखों का इतिहास’ में लिखते हैं- “10 फ़रवरी, 1846 में सिखों के हारने के दो दिन बाद अंग्रेज़ी फ़ौज ने सतलज पार कर कसूर (लाहौर का एक शहर) को अपने कब्ज़े में ले लिया. दरबार (सिख रानी जिंदान) ने गुलाब सिंह डोगरा को दोनों पक्षों में बातचीत करने की ज़िम्मेदारी दी.”

समझौते की शर्तों के मुताबिक़ अंग्रेज़ों ने सिखों से मुआवज़े के तौर पर डेढ़ करोड़ रूपये और पंजाब के एक बड़े हिस्से की मांग रखी. दरबार इतनी बड़ी रकम दे पाने में असमर्थ था. लिहाज़ा, रक़म के बदले दरबार ने ब्यास और सिन्धु नदी के बीच के पहाड़ी इलाकों जिसमें कश्मीर और हज़ारा भी शामिल था उसे देने की पेशकश की.

उधर, अंग्रेज़ों की तरफ़ से बातचीत का ज़िम्मा गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग का था. वो इतना बड़ा इलाका नहीं लेना चाहता था क्यूंकि उसे लगता था कि इससे अंग्रेज़ी शासन की सीमाएं काफ़ी आगे तक बढ़ जायेंगी और रूस से जा लगेंगी. अंग्रेजों को दूसरी दिक्कत इस इलाके की ज़मीन को लेकर थी. उनकी नजर में इस पहाड़ी इलाके से पैदावार लगभग न के बराबर थी. जमीन ज्यादातर पहाड़ी थी. लिहाज़ा उसने इस पेशकश में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं दिखाई.

जब गुलाब सिंह ने देखा कि अंग्रेज़ इसे लेने में इच्छुक नहीं हैं, तो उसने डेढ़ करोड़ की रकम देकर इस इलाक़े को ख़रीदने की पेशकश कर डाली. उसने अंग्रेज़ों के सामने शर्त रखी कि वो रकम के बदले उसे कश्मीर की रियासत सौंप दें और उन्हें जम्मू और कश्मीर, दोनों क्षेत्रों का राजा नियुक्त किया जाए.

इस प्रस्ताव पर बात आगे बढ़ी. 16 मार्च, 1846 को गुलाब सिंह और अंग्रेज़ों के बीच अमृतसर में संधि हुई जिसमें गुलाब सिंह ने अंग्रेज़ों के अधिपत्य स्वीकार कर लिया. खुशवंत सिंह लिखते हैं कि गुलाब सिंह को उनकी सेवा का मूल्य कुछ ज़्यादा ही मिला और उसने भी इसे ज़रखरीद (ग़ुलाम द्वारा ख़रीदा गया सोना) मानकर कुबूल किया. अधिपत्य की शर्त के तहत गुलाब सिंह ने सालाना अंग्रेज़ सरकार को एक घोड़ा, बकरी के बालों से बने 12 शाल, और 3 कश्मीरी शालों के जोड़े देना तय किया गया. इस क़रार को बदलकर बाद में महज़ 2 कश्मीरी शाल और 3 रुमाल देना मंज़ूर हुआ.

अमृतसर संधि के बाद से ही वर्तमान का ‘जम्मू कश्मीर’ राज्य अस्तित्व में आया था और यहीं से डोगरा शासन की शुरुआत उस इलाके पर भी होती है जिसे आज हम कश्मीर घाटी के नाम से जानते हैं. गुलाब सिंह के पास सिन्धु और रावी का पूरा इलाक़ा आया था, जिसमें कश्मीर, जम्मू, लद्दाख और गिलगित भी शामिल थे. पर अंग्रेज़ों ने रणनीतिक लिहाज़ से महत्वपूर्ण लाहौल और कुलु घाटी गुलाब सिंह की नहीं दी थी. इसके बदले में उन्होंने डेढ़ करोड़ में से 25 लाख रुपये कम लिए. गुलाब सिंह की मृत्यु 1857 में हुई. जम्मू कश्मीर के आख़िरी राजा हरी सिंह उनके ही वंशज थे.

ब्रिटिश अफ़सर मेजर ब्राउन और पाक अधिकृत कश्मीर

आपको जानकर हैरत होगी कि पाक अधिकृत कश्मीर को हिंदुस्तान से छीनकर पाकिस्तान में मिलाने वाला कोई पाकिस्तानी सैनिक नहीं बल्कि एक ब्रिटिश फ़ौजी अफ़सर था! जी हां, ये सत्य है और उसका नाम मेजर विलियम ब्राउन था. 1943 में उसकी नियुक्ति ‘गिलगित एजेंसी’ में हुई. ‘गिलगित एजेंसी’ वो व्यवस्था थी जिसके तहत हिंदुस्तान के सीमान्त पहाड़ी इलाकों में ब्रिटिश शासन करते थे और वहां से रूस से संभावित किसी भी ख़तरे से अपनी सीमाओं की रखवाली करते थे.

3 जून, 1947 को गिलगित का शासन जम्मू कश्मीर के राजा के तहत अंग्रेज़ों ने सुपुर्द कर दिया था. तत्कालीन राजा हरी सिंह ने घनसार सिंह को गिलगित का प्रधानमंत्री नियुक्त किया. हरी सिंह को कतई उम्मीद नहीं थी कि उनकी सेना में मौजूद मुसलमान सिपाही उनके ख़िलाफ़ बग़ावत कर देंगे. जब हरी सिंह ने भारत के साथ विलय मंज़ूर किया, तब मुसलमान सैनिक बिफर गए. 31 अक्टूबर, 1947 को मेजर ब्राउन की सरपरस्ती में गिलगित स्काउट्स (सेना की टुकड़ी जिसमें ज़्यादतर मुसलमान सैनिक थे) ने घनसार सिंह को गिलगित में नज़रबंद कर लिया. ब्राउन ने घनसार सिंह की समझाने की कोशिश की कि वो गिलगित समेत पुरे इलाक़े को पाकिस्तान के साथ मिला दे. घनसार सिंह ने मना किया तो उसे मेजर ब्राउन ने गिरफ़्तार कर लिया और गिलगित में पाकिस्तानी झंडा लहरा दिया गया. गौरतलब है कि तब तक राजा हरी सिंह ने भारत में विलय को अपनी मंजूरी नहीं दी थी.

भारत में राज्यों के विलय में अहम् भूमिका निभाने वाले वीपी मेनन ने अपनी किताब ‘इंटीग्रेशन ऑफ़ इंडियन स्टेट्स’ में लिखा है कि अगर ब्रिटिश गिलगित को राजा हरी सिंह को नहीं देते तो शायद गिलगित पाकिस्तान के हाथ में न होता.

आज़ाद भारत के पहले ‘केसरी’ ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह 

जी हां, ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह को आज कम ही लोग जानते हैं. पर वीपी मेनन ने अपनी किताब में उनकी तुलना यूनान के लियोनाडस से की है जिसकी 300 सिपाहियों की टुकड़ी ने थर्मोपाइल की जंग में पर्शियन फ़ौज को रोक लिया था. क़िस्सा यूं है कि जब कश्मीर पर कबाइलियों और पाक सेना के जवानों ने हमला बोला तब ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह को जम्मू कश्मीर की सेना का कमांडर इन चीफ नियुक्त किया गया. राजा हरी सिंह के आदेश के तहत उन्हें आख़िरी सिपाही के बचे रहने तक उरी की पोस्ट को संभालने का आदेश दिया गया था.

राजिंदर सिंह बड़े बेख़ौफ़ और चतुर रणनीतिकार अफ़सर थे. वो 150 सैनिकों की एक टुकड़ी लेकर उरी पंहुचे, मौके का जायज़ा लिया. वहां उन्होंने कबाइलियों और पाक सेना से दो दिन तक डटकर मुकाबला किया और जब उन्हें लगा कि पीछे से फ़ौज की आमद में समय लग सकता है और ऐसी हालत में पाकिस्तानी उरी में घुस जायेंगे, तो उन्होंने उरी के पुल को ध्वस्त कर दिया. वो अपनी बची खुची टुकड़ी लेकर पाकिस्तानी लड़ाकों पर टूट पड़े और शहीद हो गए. कोई भी भारतीय सैनिक जिंदा नहीं बचा. पर उन्होंने पाकिस्तानी सेना को दो दिन तक रोके रखा था और इतना समय काफी था भारतीय सेना के उरी पंहुचने के लिए. उसके बाद से युद्ध का नज़ारा ही बदल गया. ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह पुरी को मरणोपरांत महावीर चक्र (तब ये सबसे बड़ा शौर्य सम्मान था) से नवाज़ा गया.

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like