हमारा समय कुछ इस तरह की अतियों से ग्रस्त हो चला है कि उनमें उपस्थित निराशा में कोई सामर्थ्य या विवेक नज़र नहीं आ रहा.
गए बुधवार (31 जुलाई 2019) को साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘हंस’ के 34वें प्रेमचंद जयंती समारोह में जाना हुआ. इस मौक़े पर नई दिल्ली के ऐवान-ए-ग़ालिब सभागार में ‘राष्ट्र की पहेली और पहचान का सवाल’ विषय पर अपने विचार रखने के लिए मकरंद परांजपे, पुरुषोत्तम अग्रवाल, फ़ैज़ान मुस्तफ़ा, हरतोष सिंह बल और अनन्या वाजपेयी (यह क्रम आमंत्रण-पत्र में वक्ताओं की तस्वीर के साथ दिए गए क्रम के अनुसार) मौजूद थे.
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Contributeवक्ताओं और उनके बोलने का क्रम जो कि आमंत्रण-पत्र में दर्ज क्रम से भिन्न है को देखें, तब हिंदी में अच्छे विचारकों की कमी के संकट को समझा जा सकता है. दक्षिण दिशा में तो यह उम्मीद ही बेमानी है, लेकिन वाम दिशा में भी यह संकट बहुत गहन हो चुका है. हालांकि, यह सुखद रहा कि अंग्रेजी में ही मूलतः अपने काम को अंजाम देने वाले हरतोष सिंह बल, अनन्या वाजपेयी और मकरंद परांजपे ने इस आयोजन में हिंदी में अपने विचार रखे. मकरंद ने तो हिंदी के ऐसे-ऐसे शब्दों और वाक्यों का प्रयोग किया जिन्हें हिंदी ने भी बरतना छोड़ दिया है. उन्होंने कहा कि हिंदी उन्होंने बहुत जतन और संघर्ष से सीखी है. इसके लिए उन्होंने अपने गुरुओं का अपने कान छूकर आभार व्यक्त किया. उन्होंने माना कि हिंदी राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ने वाली भाषा है. उनसे पहले हरतोष सिंह बल, अनन्या वाजपेयी और फ़ैज़ान मुस्तफ़ा बोल चुके थे और प्रियदर्शन भी; जो संचालक की भूमिका में भी किसी वक्ता से कम नहीं थे. मकरंद ने इस पैनल को एकतरफ़ा बताते हुए कहा कि देखिए लोग जा रहे हैं, मुझे सुनना नहीं चाहते. पुरुषोत्तम अग्रवाल इससे कुछ चिंतित हुए तो मकरंद ने कहा कि जब आप बोलेंगे तब वे आ जाएंगे. यह सच है कि सभागार में उपस्थित युवा श्रोता ही नहीं, इस मुश्किल दौर में अपना विवेक खो चुके वृद्ध/अकाल वृद्ध बुद्धिजीवी-लेखक टाइप धवलकेशी महानुभाव तो छोड़िए मक्खियां तक मकरंद को सुनना नहीं चाहती थीं. कई श्रोताओं ने बार-बार और एक मक्खी ने एक बार उनका ध्यान भंग किया.
मकरंद की बातें सुनकर लगा कि जिस अंग्रेज़ी का वह सेवन (उनके ही शब्दों में) करते हैं, उसकी वजह से ही शायद भारत की साझा संस्कृति लुटियंस की साज़िश नजर आने लगती है. उनकी बातों में तथ्यों की वैसी ही चूक और निर्णय देने की वैसी ही जल्दबाज़ी थी, जैसी अमूमन भक्तों में पाई जाती है. यह यूं ही नहीं था कि एक वक़्त के बाद उनके वक्तव्य पर मंच और मंच से इतर हंसते हुए चेहरे नज़र आए.
इस अवसर पर हरतोष सिंह बल ने नेशनहुड के सवाल को बेवक़ूफ़ी से भरा हुआ बताया. उन्होंने सीधे नरेंद्र मोदी और अमित शाह का नाम लेकर कहा कि गणतंत्र सिद्धांतों पर आधारित है और ये दोनों उसे कमज़ोर कर रहे हैं. उन्होंने आगे कहा कि मैं पंजाबी हूं और हिंदुस्तानी कहलाना नहीं चाहूंगा. सिर्फ़ गणतंत्र का सिद्धांत ही है जो हम सबको एक सूत्र में जोड़े हुए है. आज की सरकार के रूप में जो क़हर हमारे सामने है, यह फ़ेल होगा ही क्योंकि यह हमारी पहचान से अलग है.
मॉब लिंचिंग की घटनाओं का ज़िक्र और उन पर विचार इस पूरी गोष्ठी में छाया रहा और इस अर्थ में यह गोष्ठी हवा में मौजूद बेचैनियों को एक ठोस स्वर और शक्ल देने में कामयाब रही. ‘हंस’ की संगोष्ठियों की परंपरा के अनुरूप इसने सुनने वालों समृद्ध किया.
इस दरमियान अनन्या वाजपेयी ने एक महत्वपूर्ण बात कही कि मॉब लिंचिंग के लिए हिंदी में कोई शब्द नहीं है, यह इस बात का संकेत है कि हमारी भाषा में इस प्रकार की घटनाएं पहले नहीं थीं. उन्होंने एक जातीय गुट को राष्ट्र में तब्दील कर देने की हिंसक प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए बताया कि कैसे बहुसंख्यकवाद इस मुल्क में हावी होता जा रहा है.
इसके बाद फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने इस सरकार को इस बात के लिए हंसते हुए सलाम किया कि उसने बहुसंख्यकों के दिल में अल्पसंख्यकों का डर डाल दिया, जबकि हमेशा से होता इसके विपरीत रहा है. उन्होंने नए क़ानूनों और संसोधनों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि बहुमत और बहुसंख्या के ज़ोर पर आप चाहें जो कर लें, लेकिन अल्पसंख्यकों से छुटकारा मुश्किल है. उन्होंने अल्पसंख्यक होने की जटिलताएं समझाते हुए स्पष्ट किया कि कैसे लोग सिर्फ़ धर्म के आधार पर ही नहीं, भाषा और जाति के आधार पर कहीं भी अल्पसंख्यक हो सकते हैं. 70 सालों में 10,000 हज़ार भाषाओं की मृत्यु का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि मॉब लिंचिंग क़ानून से वैसे ही नहीं रुकेगी, जैसे तीन तलाक़ के क़ानून से तीन तलाक़ नहीं रुकेंगे. जब सुप्रीम कोर्ट ने ही कह दिया कि मॉब लिंचिंग संविधान की लिचिंग है, तब कहने को और क्या रह जाता है.
अंत में पुरुषोतम अग्रवाल ने कहा कि हमें समस्या को तुच्छ नहीं बनाना चाहिए. आज घृणा की ऐसी व्यापक सामाजिक स्वीकृति समाज की गहरी बीमारी की सूचक है, और बीमारी को दबाना नहीं उसका उपचार खोजना ज़िम्मेदार समाज होने की पहचान है. उन्होंने ख़ुद को बार-बार वामपंथ से अलगाते हुए कहा कि तथ्यों की परवाह न करना और अतिवाद दोनों तरफ़ है और अतिवादी मौसेरे भाई होते हैं. कोई भी राजनीति स्वयं को सांप्रदायिक नहीं कहती है, वह इसे राष्ट्रवाद की राजनीति कहती है. उन्होंने मकरंद की तरफ़ देखते हुए कहा कि लुटियंस को देश समझने वालों को भारतीय समाज और संस्कृति की कोई समझ नहीं है. दुख इतने स्थूल नहीं होते. इतने स्थूल दुख जानवरों के होते हैं. उन्होंने हाल ही में हिंदी के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल की हिंदी भाषा और संस्कृति को लेकर फ़ेसबुक पर की गई टिप्पणी पर भी खेद प्रकट किया. उन्होंने इसे सांस्कृतिक आत्मघृणा का रूपक बताते हुए कहा कि आज हिंदी को लेकर यह स्थिति है कि इसमें कुछ लोग हिंदी के लिए गर्व से फूले हुए हैं, तो कुछ शर्म में डूबे हुए हैं. ये दोनों ही वर्ग विचित्र हैं.
यहां यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि पुरुषोत्तम अग्रवाल जिस टिप्पणी का उल्लेख कर रहे थे, मंगलेश डबराल ने उस टिप्पणी में से पहले अंत की वे दो पंक्तियां हटाईं, जिनमें हिंदी में जन्म लेने और लिखने की ग्लानि का ज़िक्र था. इसके बाद उन्होंने पूरी की पूरी पोस्ट ही हटा/छुपा ली. यह अलग बात है कि इसके हज़ारों स्क्रीन-शॉट अब भी नज़र में हैं. बहरहाल, मंगलेश डबराल के मार्फ़त इस ग़ैर-ज़िम्मेदार बयान को हटा/छुपा लेना ही इस बात का सूचक है कि यह टिप्पणी उन्होंने किस मनोदशा में की थी. उनकी ही एक कविता-पंक्ति ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ के आश्रय से अगर इस पूरे प्रकरण को समझा जाए, तब यह स्पष्ट है कि हम और हमारा समय कुछ इस तरह की अतियों से ग्रस्त हो चला कि उनमें उपस्थित निराशा में कोई सामर्थ्य या विवेक नज़र नहीं आ रहा. इन अतियों से उत्पन्न अवसाद में स्थितियों से जूझने या उनका विश्लेषण करने की बौद्धिक शक्ति का अभाव आ गया है. यह अवसाद भयावह सरलीकरणों से ग्रस्त है और एक अतिवाद का सामना दूसरे अतिवाद से कर रहा है. इस प्रक्रिया में वह ख़ुद को वेध्य भी बना ले रहा है. ऐसे में इस प्रकार की टिप्पणी एक कवि और पूरे कवि-समाज के लिए न केवल लज्जा का प्रसंग है, बल्कि इस भयावह सामाजिक-राजनीतिक दुश्चक्र में प्रतिरोध की नई तमीज़ सीख लेने की ज़रूरत को भी दर्शाता है और यह तसल्ली की बात है कि यह तमीज़ एक हिंदी पत्रिका ‘हंस’ के इस आयोजन में नज़र आई.
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