कांग्रेस का नया अध्यक्ष क्या-क्या करेगा?

राहुल गांधी के हाथ खींच लेने के बाद असमंजस के भंवर में फंसी कांग्रेस के नए अध्यक्ष के लिए तात्कालिक और दीर्घकालिक योजनाएं क्या होनी चाहिए.

WrittenBy:अनिल यादव
Date:
Article image

कांग्रेस एक जम्बो आकार का पुराना जहाज है जो पगलाए समुद्र के थपेड़ों से चरमरा रहा है. जहाज पर शोधार्थियों की दिलचस्पी वाले कबाड़ में छिपा हुआ भारतीय राजनीति के 133 सालों का इतिहास है. इंजन बंद है, कुछ पुरानी गति और कुछ अनियंत्रित लहरों की मनमानी से जहाज मुसाफिरों को भयभीत करने वाले अज्ञात की ओर ले जा रहा है क्योंकि अचानक जहाज का कप्तान अड़ गया है कि अब इसे कोई और चलाएगा. नया कप्तान ढूंढ़ कर लाओ.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

मुश्किल यह है कि मालिकाने के एतबार से खानदानी हो चुके इस जहाज के सवारों में से एक ने भी सफर के पहले दिन से यह सोचा नहीं था कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब उनके बीच से कप्तान खोजा जाएगा. उन्हें लोकतंत्र से ज्यादा अपने नेता की प्रजनन क्षमता में आस्था थी. उनके लिए यह अकल्पनीय है. कप्तानों की तीन पीढ़ियां गुजर गईं, इस बीच उन्हें (मुसाफिरों को) एक दूसरे की शिकायत करते हुए कप्तान की अदाओं की तारीफ करने और मिजाज देखकर जहाज के रखरखाव के बारे में सुझाव देने की आदत पड़ चुकी है. कांग्रेसियों के लिए विकट संकट की सुन्न कर देने वाली घड़ी है.

राहुल गांधी की अंधेरी रात में कहीं से भी असली चांद लाकर देने की जिद अबोध, अव्यावहारिक है लेकिन कांग्रेस और लोकतंत्र के लिए अच्छी है. अनुकूल हवा में लक्ष्य तय करना और नतीजा आने पर उसे संकल्प और दूरदर्शिता बता देना राजनीति में नई बात नहीं है. मजा तब है जब कोई बंजर में फूल खिलाकर दिखाए.

राहुल गांधी को वंशवाद से कोई दिक्कत नहीं है, ऐसा होता तो वह अपनी मां के बाद पार्टी के अध्यक्ष बनते ही नहीं. उन्हें दिक्कत वंशवाद के उस अंजाम से है जहां पूरी पार्टी लकीर की फकीर हो जाती है और नेता को चुनौतियों के सामने अकेला छोड़कर, जीत की प्रतीक्षा में दूर खड़े होकर सिर्फ गुणगान किया जाता है. बीते लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी आरएसएस और मोदी के सामने निपट अकेले खड़े थे, तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिली जीत से बने आत्मविश्वास के बावजूद पार्टी में कोई नहीं था जो, एक नया विचार, एक कारगर रणनीति, एक नारा या एक बड़ा सपना ही दे सके. यह अकेलापन असहनीय साबित हुआ.

पुलवामा हमले के बाद आरएसएस ने जो राष्ट्रवाद का क्रुद्ध तूफान संगठित किया और उसे मोदी ने जिस आक्रामक ढंग से अपने भाषणों से संप्रेषित किया, उसके आगे राहुल गांधी राफेल घोटाला, न्याय योजना और आदर्श घोषणापत्र समेत सारी चीजें निहायत नाकाफी साबित हुए.

लोकसभा चुनाव में लगातार दूसरी हार, हिंदुत्व के अनियंत्रित उभार और साम-दाम-दंड-भेद से सबल होकर गरजती सत्ताधारी पार्टी के सामने यदि कोई गांधी-नेहरु परिवार से बाहर का कांग्रेसी अध्यक्ष बनने का बीड़ा उठा ही लेता है तो उसे पहले दिन से अपने दिमाग से सोचने और अपनी आवाज में बोलने का पराक्रम करना होगा. रिमोट कंट्रोल से चलता प्रधानमंत्री देखने की आदी पार्टी में उसकी पहली चुनौती हाईकमान को छोड़ किसी भी और पर कान न देने वाले नेताओं को अपनी आवाज सुनाने और मनवाने की होगी. इतना होने के बाद उसे कई असंभव लगते काम करने पड़ेंगे जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-

उग्र हिंदुत्व के उभार के साथ अप्रत्याशित तेजी से भाजपा के बढ़े जनसमर्थन से घबराई कांग्रेस ने नतीजा निकाला है कि बहुसंख्यक वोटरों का चरित्र निर्णायक रुप से बदल चुका है और वह हिंदू तुष्टीकरण की राह पर चल पड़ी है. राहुल गांधी का मंदिर में जनेऊ पहन कर खुद को कौल ब्राह्मण बताना, पूजा करती प्रियंका वाड्रा गांधी की छवियों का प्रचार और लोकसभा चुनाव में प्रज्ञा सिंह ठाकुर के मुकाबले के लिए दिग्विजय सिंह द्वारा बाबाओं से हवन करवाना इसके कुछ स्पष्ट नमूने हैं. राहुल गांधी ने तीन महीने लंबे चुनाव अभियान में एक बार भी मुसलमानों की मॉब लिंचिंग का नाम नहीं लिया और विजय के बाद अपने सबसे पहले भाषण में मोदी ने कहा कि हमने पांच साल में ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब कोई सेकुलरिज्म का नामलेवा नहीं बचा है. कांग्रेस को पहले खुद मानना और फिर खुलकर कहना पड़ेगा कि धर्म व्यक्तिगत विश्वास का मामला है उसका राजनीतिक इस्तेमाल नहीं किया जाएगा और न करने दिया जाएगा वरना देश को टूटने से नहीं बचाया जा सकता.

जब पार्टी में नयी सोच आएगी तो उसे अभियान चलाना पड़ेगा कि भारतीय राष्ट्रवाद की मूल आत्मा कुछ धार्मिक अल्पसंख्कों से नफरत करने में नहीं वरन वैचारिक विविधता और सांस्कृतिक लेन देन में है. ठीक वैसे ही जैसे कि सनातन परंपरा में विभिन्न धार्मिक पंथ एक दूसरे से निडर संवाद करते और सार्वभौमिक समझे जाने वाले तत्वों को ग्रहण करते आए हैं. यहां उसकी आरएसएस से वास्तविक टक्कर होगी जो प्रकृति पूजक आदिवासियों तक को अपने खास ढंग के संकीर्ण हिंदुत्व की पहचान में लपेट रहा है लेकिन कारपोरेट द्वारा उनकी आजीविका संसाधनों की लूट पर चुप रहता है.

प्रबंधन और तिकड़म से चुनाव जीतना ही सर्वोच्च राजनीति हो गई है. जो चुनाव में बहुमत हासिल कर लेता है वह संविधान को धता बताकर व्यक्तिगत और पार्टी का एजेंडा लागू करने का लाइसेंस पा जाता है. राजनीति संविधान को ज़मीन पर उतारने के लिए हो इसके लिए कांग्रेस को लड़ना पड़ेगा. यही वह जगह है जहां वह दलितों और पिछड़ों के भीतर अपने लिए कोई उम्मीद पैदा कर सकती है.

चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने कहा था कि नई आर्थिक नीति का मॉडल काम नहीं कर रहा. कांग्रेस केंद्र से बाएं झुक रही है. ऐसा लगता है कि न्याय योजना की रुपरेखा हताशा और विकल्पहीनता की स्थिति में तैयार की गई थी. अगर ऐसा नहीं होता तो बीते पांच सालों में किसानों की बदहाली, बेरोजगारी, नोटबंदी-जीएसटी से छोटे व्यापारियों की बर्बादी के मुद्दे पर कांग्रेस सड़क पर उतरी होती. उसे मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों का वास्तविक प्रतिपक्ष बनना पड़ेगा जो सार्वजनिक उपक्रमों की ज़मीनों को बेचने की राह पर चल पड़ी है.

मीडिया, प्रोफेशनल होने का ढोंग छोड़कर अब पूरी बेशर्मी से सरकार के हाथों में चला गया है और हिंदुत्व के एजेंडे को आरएसएस के पुराने तरीकों से आगे बढ़कर उग्र ढंग से जनमत बनाने के लिए इस्तेमाल कर रहा है. कांग्रेस के नए अध्यक्ष को जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए वैकल्पिक संचार तंत्र विकसित करना पड़ेगा. जब तक वह सत्ताधारी पार्टी को वास्तविक चुनौती देने की स्थिति में नहीं आती मीडिया उसे घास नहीं डालेगा.

कांग्रेस के नए अध्यक्ष को पार्टी में चापलूसी की पुरानी संस्कृति को खत्म करना पड़ेगा. यह संस्कृति भाजपा में भी जड़े जमा रही है लेकिन अभी नियंत्रण में है क्योंकि पार्टी को पिछड़ों और दलितों को समेट कर अम्ब्रेला पार्टी बनना है लेकिन इस बदहाली में भी कांग्रेस के बड़े नेताओं से कार्यकर्ताओं का मिल पाना आकाश के तारे तोड़ने जैसा है. इसके अलावा उसे कांग्रेस के सत्ताधारी वर्षों के कर्मों के लिए इन्हीं मुददों पर जवाब भी देना पड़ेगा, कई बार तो हो सकता है कि माफी भी मांगनी पड़े.

दरअसल मसला सिर्फ नया अध्यक्ष खोजने का नहीं पुरानी को मिटाकर नई कांग्रेस बनाने का है जिसके बारे में सोचते हुए “न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी” की कहावत याद आती है. अगर अब भी कांग्रेस निर्णायक नहीं होती है तो राहुल गांधी की गणेश परिक्रमा करने वाले पालतू अध्यक्ष आते रहेंगे और पार्टी सिमटती जाएगी.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like