आर्टिकल 15 के बहाने कुछ संस्मरण

फिल्म आर्टिकल 15 ने यह बहस भी शुरू कर दी है कि दलित होने का दर्द और उसे समझने का दावा, दोनों के बीच मिर्च और मिठाई भर की साम्यता है.

WrittenBy:सचिन बघेल
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पृष्ठभूमि : मुझे इस लेख को लिखने से पहले अपनी पृष्ठभूमि बतानी होगी, और आपको इस लेख को पढ़ने से पहले मेरी पृष्ठभूमि समझनी होगी. यह इसलिए ज़रूरी है ताकि मैं जो लिख रहा हूं आप उसे किसी धर्म या जाति के परिप्रेक्ष्य में न देखने लगें. मैं एक सवर्ण हूं. ऐसा मुझे बचपन से बताया गया है कि मेरी जाति ऊंची है, क्यों है? यह नहीं बताया गया. मुझे यह भी नहीं समझाया गया कि ऐसे कौन से गुण हैं जो डीएनए में आते हैं और जिन गुणों की कमी के कारण कहीं और पैदा हुआ कोई बच्चा दलित हो जाता है, यानी मुझसे नीची जात का.

आपके लिए यह जानना भी बहुत ज़रूरी है कि मैं एक मेट्रोपॉलिटन शहर में रहता हूं, यहां आये मुझे तीन चार महीने ही हुए हैं. अगर मेरी पढ़ाई के समय को छोड़ दिया जाये तो मैंने अपनी जिंदगी का सारा समय एक बहुत ही छोटे शहर या कहिये कस्बे में बिताया है. इस शहर का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मेरे शहर में कुछ साल पहले तक नैरोगेज ट्रेन चलती थी और अब तो वह भी नहीं चलती, पर पान की दुकान में सुना है कि ब्रॉडगेज जल्दी आने वाली है. मैं एक छोटे शहर से आता हूं, आपके लिए यह जानना ज़रूरी है, क्योंकि आप जिसे भारत कहते हैं, वह इन्हीं छोटे शहरों में बसता है. एक बात और, मैं लेखक नहीं हूं, इसीलिए आपसे उम्मीद करूंगा कि आप मुझे लेखनी की गलतियों के लिए माफ कर देंगे.

आर्टिकल 15: आज अनुभव सिन्हा की आर्टिकल 15 देखी. जब मैं एक बड़े शहर के, बड़े मॉल के, बेहतरीन मल्टीप्लेक्स में बैठकर यह फिल्म देख रहा था तो मैंने ध्यान दिया कि जब भी फिल्म में बड़े शहर से आया एडिशनल कमिश्नर का किरदार “फक (FUCK)” शब्द मुंह से निकालता तो सभी हंस पड़ते. पर मैं पूरी फिल्म देखते हुए एक सेकेंड के लिए भी अपने आप को हंसने के लिए तैयार नहीं कर पाया. शायद मैं अज्ञानी था, जो “फक (FUCK)” शब्द में छुपे हास्य को नहीं समझ पाया. यह भी हो सकता है कि शायद मैं इसलिए नहीं हंस पाया क्योंकि शायद सच्चाई मेरे कुछ ज़्यादा ही करीब थी, इसलिए दूसरों से ज़्यादा चुभ रही थी. खैर छोड़िये, शायद मैं अपने आप को दूसरों से बेहतर साबित करने की कोशिश कर रहा हूं. उस पंक्ति पर वापस चलते हैं जिससे यह लेख शुरू किया था.

जाति पांति पूछे ना कोई. हरि को भजे सो हरि को होई.

यह पंक्ति कबीर ने लगभग 500 साल पहले लिखी थी. कभी-कभी मुझे लगता है कि यह दुनिया में लिखी गयी आज तक की सबसे बकवास लाइन है, इसका सच्चाई से कोई संबंध नहीं है. कभी मुझे लगता है कि जब कबीर ने ये पंक्तियां लिखी होंगी तो शायद उन्हें ज़मीनी सच्चाई का आभास ही नहीं होगा और शायद वे सभी को अपनी तरह आदर्श इंसान समझते होंगे. यह भी तो हो सकता है कि कबीर शायद किसी भविष्य के भारत की कल्पना कर रहे थे जहां जाति की अदृश्य दीवारें न हों. अगर ऐसा था तो, यह तो त्रासदी ही है कि उनके भविष्य का भारत, वर्तमान के भारत के लिए भी भविष्य ही है. मैं निराशावादी नहीं हूं बल्कि मुझ पर तो कई बार इल्ज़ाम लगाया गया है कि मैं बहुत ही ज़्यादा आशावादी हूं, परंतु जब जातिवाद की बात आती है तो मैं बहुत कम परिवर्तन देखता हूं. चलिये मैं आपको आज से लगभग 25 साल पहले लेकर चलता हूं.

25 साल पहले: शायद 1994-95 की बात होगी, तब मैं तीसरी या चौथी कक्षा में था. मैं हमेशा की तरह अपनी गर्मी की छुट्टियों के लिए अपने गांव चला जाता था, मेरा गांव मेरे शहर से 5 किलोमीटर की दूरी पर ही है. मुझे याद है, जब मैं खेत में काम करने वाले नौकर को पानी देने गया, तो उसने बोला- “भैया नीचे रख दीजिये”, मैंने वैसा ही किया. उसने वह पानी का गिलास उठाया और पानी पी लिया. फिर उसने गिलास को अच्छे से धुला और फिर वापस नीचे लाकर रख दिया. मैंने वह गिलास उठाया और वापस उसी जगह पर रख दिया जहां से लेकर आया था. इस घटना ने मुझे इस बात का एहसास कराया कि कहीं न कहीं मैं इस इंसान से बेहतर हूं.

भारत में हर जगह मेरे जैसे लोगों को इसी बात का एहसास दिलाया जाता है. यह बात अलग है कि मेरे पिता ने कुछ दिनों में ही मेरा खुमार उतार दिया, खैर उस बारे में फिर कभी बात करेंगे. एक सेकेंड के लिए सोच कर देखिये कि अगर आपको कोई पानी नीचे रख कर दे तो कैसा अहसास होता है. मुझे पता है कि आप जातिवादी नहीं हैं. मुझे यह भी पता है कि इस लेख को पढ़ने वाले ज़्यादातर लोग काफी मॉडर्न सोच रखते होंगे. आप जातिवादी नहीं हैं और आप मॉडर्न है, इन दोनों बातों से बिल्कुल फर्क नहीं पड़ता. आप एक दलित का दर्द कभी समझ ही नहीं सकते, क्योंकि आपके सामने नीचे रखा पानी उठाकर पीने और फिर गिलास धुलकर रखने की स्थिति कभी नहीं आयी. पर आप और हम ये बात तो समझ सकते हैं कि आपके और मेरे पूर्वजों ने यह काम तो किया है.

हम कितना भी चाहें, पर हम सिर्फ संवेदना का प्रदर्शन कर सकते हैं, दर्द का अहसास नहीं कर सकते क्योंकि हम दलित नहीं हैं. पर क्या हमें किसी भी तरह के अपराध भाव का अहसास भी नहीं हो सकता? जब हम अपने पूर्वजों की संपत्तियों पर अपना हक़ जताते हैं तो क्या हम उनके पापों के हकदार नहीं हैं? मैं फिर आदर्शवादी बातें करने लगा. चलिये, आपको  2019 में मई के महीने में लेकर चलता हूं.

मई 2019 : 30-35 दिन पुरानी ही बात है. मैं किसी जान-पहचान वाले के घर खाना खाने गया था. अपने मोटापे को छुपाने के लिए मैं सांस रोक कर खड़ा था. तभी मैंने देखा कि एक व्यक्ति ने प्लेट उठायी, परंतु दूसरे ने उसे  तुरंत टोक दिया- “रुक जाओ भैया, मैं आपकी प्लेट लगा देता हूं, आप थोड़ा उधर खड़े होकर खा लें, आपको जो लगे मुझसे बोल दीजियेगा मैं ला दूंगा.”  मैं समझ गया कि भाषा बदल गयी है, पर 25 साल में दलित की स्थिति और उनके प्रति व्यवहार नहीं बदला. मैंने उस व्यक्ति की आंखों में अपराधबोध देखा, जैसे कि उसने कोई अनकहा कानून तोड़ दिया हो. शायद उसे भी बचपन से यह बताया गया होगा कि वह किसी से नीचे है. मैं एक बार फिर कहूंगा कि कोशिश करियेगा अपने आप को उस व्यक्ति की जगह रखने की जिसे सबके सामने, साथ में खाना खाने से रोक दिया गया हो.

2019, 2020, 2021… 3019 : आपने यह तो पढ़ लिया कि 25 साल पहले क्या हुआ था, आपने यह भी पढ़ लिया कि पिछले महीने क्या हुआ था. अब मैं आपसे भविष्य की बात करता हूं, हालांकि मैं कोई भविष्यवक्ता नहीं हूं, फिर भी अटकले लगाता हूं. कभी अपने फेसबुक, ट्विटर से बाहर निकलकर किसी छोटे शहर की यात्रा कीजिये, जहां आप पहले कभी नहीं गये थे. मैं इस बात की गारंटी देता हूं कि आपका स्वागत लोग दिल खोलकर करेंगे. परंतु आप जिस घर में जायेंगे, आपसे पहले पूछा जायेगा, “आपका नाम क्या है?” अगर आपने गलती से पूरा नाम नहीं बताया तो फिर पूछा जायेगा, “क्या लिखते हैं?” आप अगर ऊंची जाति के होंगे तो इस सवाल का जवाब देते समय गर्व महसूस करेंगे, निचली जाति का होने पर एक अदृश्य-सी शर्म का अहसास करेंगे. दोनों ही स्थितियों में आपका कोई योगदान नहीं है. न आपने कोई गर्व कर सकने लायक काम किया है, न ही आपने शर्म आने वाला कोई काम किया है. आपके नाम के बाद वाले नाम में एक ताकत है, जिस पर आपको शर्म आनी चाहिए पर आपको गर्व है.

इतनी सारी बकवास के बाद एक बार फिर से आर्टिकल 15 पर वापस चलते हैं. इस फिल्म के उत्तरार्ध में एक सीन है, एक दलित लड़की से एक कायस्थ लड़का कहता है, “हम तुमसे माफी मांगेंगे, बार-बार माफी मांगेंगे, पर तुम हमें माफ नहीं करना.” लड़का बात तो सही कर रहा है, अगर आपकी समझ में आती है तो.

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