‘छपाक’ से आती घिन

‘जल थल मल’ पुस्तक की निर्माण प्रक्रिया पर 'समास' पत्रिका में प्रकाशित एक विस्तृत लेख का यह अंश मल और स्वच्छता की हमारी वर्तमान अवधारणाओं को पुनर्परिभाषित करता है.

WrittenBy:सोपान जोशी
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तीन व्यंजनों को मिला कर बना एक शब्द है ‘छपाक्’. एक बार इसे सस्वर बोलिए, अपने ही कानों में इसे सुनिये. इसकी गूंज में गहरायी से निकलता एक देसी विचार सुनायी देगा. मिट्टी, पानी और सफ़ाई के संबंध का विचार. छ-पा-क…दनी से.

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‘छ’ की पहली ध्वनि तालू और जिह्ना से ऐसे छन्न-छन्न करती हुई निकलती है, जैसे गरम तेल में पकौड़ा तलने के लिए बेसन का गोला डाला गया हो. फिर सांस मुंह के अगले हिस्से की तरफ़ आती है, दोनों होंठ मिल कर ‘प’ बनाते हैं ‘आ’ के स्वर के साथ, जैसे पानी का एक बुलबुला फूटा हो. फिर यह शब्द कंठ के भीतर जाकर ‘क्’ की ध्वनि में समा जाता है, जैसे भोजन का एक निवाला निगल लिया हो. ‘छपाक्’ में तीन ध्वनियां हैं, एक तालव्य, एक ओष्ठ्य, एक कण्ठ्य.

पद्मा वांग्याल ने यह शब्द जब दो बार कहाः ‘छपाक् छपाक्’, तब वह किसी खाद्य पदार्थ की बात नहीं कर रहा था. वह शरीर के एक दैनिक कर्म से होने वाली ध्वनि की नकल कर रहा था. वही आवाज़ जो आधुनिक शौचालय यानी ‘वेस्टर्न कमोड’ पर बैठ कर टट्टी करते समय आती है. जब पिछले दिन खाया हुआ भोजन मल के टुकड़ों के रूप में हमारे शरीर से निकलता है और नीचे पड़े पानी पर गिरता है.

पद्मा को इस ध्वनि से घिन आती थी. उसके किसान कानों के लिए यह बर्बादी की आवाज़ थी. कैसी बर्बादी? सिंचाई के लायक ताज़ा पानी और खाद के लायक मल-मूत्र, दोनों मिला कर किसी अंधे कुंए में डाले जाने की. वह भी लद्दाख के ठंडे रेगिस्तान में, जहां सिंचाई की कमी किसानों को हमेशा से सताती आयी है! जहां की रेतीली मिट्टी में अगर कुदरती चीज़ों को सड़ा कर बनायी हुई खाद न डाली जाये तो कोई भी फ़सल उगाना मुश्किल हो जाये. बिना खाद की रेतीली मिट्टी में रेत के कण पानी रोक नहीं पाते हैं. यानी खाद नहीं हो तो पानी की कमी दुगुनी हो जाती है. पर ठंडे रेगिस्तान में तो पेड़-पौधे गरम रेगिस्तान से भी कम होते हैं. कहां से इतना चारा पैदा हो और इतने जानवर पाले जायें जिनसे गोबर की खाद मिल सके?

इस समस्या का काट लद्दाखी समाज की मेधा ने न जाने कितना पहले निकाल लिया था. उसका एक तीन व्यंजनों वाला सुंदर नाम भी रख दिया था, ‘छागरा’, यानी एक कमरे का दो तल वाला पारंपरिक शौचालय. लद्दाख के गांवों और शहरों में ऐसे ही शौचालय न जाने कब से बनते आये हैं. ऊपरी तल पर फ़र्श के बीच में एक छेद होता है, जिस पर उकड़ूं बैठ के मलत्याग किया जाता है. निचले तल पर मल-मूत्र का ढेर लगता जाता है. इस तल के पिछले हिस्से की दीवार में एक किवाड़ होता है, जिसे खोल के इकट्ठे हुए मल-मूत्र को निकाला जा सकता है. लद्दाख के जाड़े में तापमान शून्य से 20 डिग्री नीचे तक चला जाता है. मल में मौजूद रोगाणु ज़्यादा समय बच नहीं पाते, और समय के साथ मल-मूत्र गल के मिट्टी जैसा होने लगता है, उसकी दुर्गंध जाती रहती है. जब गर्मी में लद्दाख के खेतों में पैदा होने वाली एकमात्र फ़सल का मौसम आता है, तब यह मल-मूत्र खाद के रूप में खेत में डाला जाता है. मिट्टी में उगने वाली पैदावार से जो खाद्य पदार्थ लद्दाखी लोग पाते हैं उसे खाद के रूप में मिट्टी में लौटा देते हैं.

ऐसा ही एक ‘छागरा’ पद्मा वांग्याल के यहां था, उसके पुश्तैनी गांव खरू में. हमारी मुलाकात सन् 2003 के अक्टूबर के महीने में हुई थी. मैं लद्दाख के पर्यावरण पर एक लेख लिखने लेह पहुंचा था. लेख का मुख्य हिस्सा खेती पर था, किन्तु ऐसे लोग नहीं मिल रहे थे जो खेती कर रहे हों. सरकारी नीतियों की वजह से वहां खेती बहुत बुरे हाल में थी और युवकों की सेना में भर्ती की वजह से गांवों में जवान लोग कम होते जा रहे थे. पद्मा की आंख ज़रा कमज़ोर थी, इसलिए फ़ौज में उसकी भर्ती नहीं हो सकी थी. कई साल पहले, उसके दादा ने लद्दाख में सहकारिता आन्दोलन की नींव रखी थी. परिवार की लगभग 50 एकड़ की खेती लायक ज़मीन थी. पद्मा उद्यमी था, वहां खेती करने लगा था. मेरा परिचय 29 साल के पद्मा से यह कह कर करवाया गया कि वह एक युवा, ऊर्जावान किसान है.

उसी दिन पद्मा और मैं लेह नगर से निकल के उसके गांव खरू आ गये. उसका घर खेत के बीच ही था. उजाला रहते-रहते हम खेत घूमते रहे, बतियाते रहे. कब दिन ढला पता ही नहीं चला. बगल में बहती सिन्धू नदी का निनाद कान में गूंज रहा था, ऊपर आकाशगंगा साफ़ दिखायी दे रही थी. ठंड बढ़ने पर हम भीतर जा के सो गये. सुबह उठ कर मैंने पद्मा से पूछा कि पाखाना किधर है तो उसने घर से बाहर बने हुए ‘छागरे’ की ओर इशारा किया. यात्राओं के दौरान मैं तरह-तरह की जगहों पर मलत्याग करने गया हूं. पाखाने के नीचे गहरा कुंआ कई बार देखा था. उसकी गहराई से मल के गिरने की आवाज़ आती थी. ऐसे ही एक बार हिमनद के किनारे भी सुबह उकड़ूं बैठा हूं और जंगलों में निवृत्त होने के तो अनेकानेक रोचक किस्से हैं. पर ऐसा शौचालय कभी नहीं देखा था, जिसमें मल-मूत्र ऐसे सहेजा जाता हो. यही नहीं, इसका इस्तेमाल खेत में खाद से खाद्य बनाने में होता था. निपटने के बाद मैंने पद्मा से पूछा, ‘तुम्हें मल-मूत्र को छागरे से निकालते हुए घिन नहीं आती?’

पद्मा को मेरा सवाल समझ में ही नहीं आया, जैसे किसी ने बहुत ही सहज बात को असहज बना दिया हो, सरल क्रिया को ऊल-जलूल जामा पहना दिया हो. जब मैंने उसे अपने शहरी अंदाज़ में समझाया कि मल से घृणा की वजह से सफ़ाई करने वाली पूरी-की-पूरी जातियां ही अछूत बना दी गयी हैं, तब उसे समझ में आया कि मैं किस घिन की बात कर रहा हूं. लद्दाख में छागरे से मल-मूत्र निकाल कर खेत में डालना सहज क्रिया रही है, लोग इसे मिल-जुल के ऐसे ही करते रहे हैं जैसे एक-दूसरे के खेत में बुआई और कटाई का काम होता है. उत्सव और शामिलाती भाव के साथ.

मेरे सवाल पर पद्मा थोड़ी देर चुप रहा. उसके चेहरे पर उलझन का भाव आ गया, जैसे किसी मिस्त्री के सामने कोई नया यन्त्र रख दिया गया हो, जिसे उसने कभी खोल के देखा ही नहीं है. फिर वह गुन्ताड़े का भाव एक झटके में हटा उसने कहा कि उसे शहर में ‘वेस्टर्न कमोड’ पर बैठ कर टट्टी करने से घिन आती है. जब खाद-रूपी मल-मूत्र और सिंचाई-रूपी निर्मल जल बरबाद होता है, ‘जब नीचे से छपाक्-छपाक् की आवाज़ आती है.’

पत्रकारों को सवाल पूछना सिखाया जाता है. यह नहीं सिखाया जाता कि जब कोई बड़ा सत्य सामने आ जाए और आपके शोध तो क्या आपकी कल्पना तक का दायरा बहुत छोटा लगने लगे, तब क्या करना चाहिए, क्या कहना चाहिए. पहले पद्मा मेरे सवाल से निरुत्तर था, फिर मैं उसके ‘छपाक् छपाक्’ के आगे निरप्रश्न हो गया. एक पल में बोध हुआ कि यह ‘छपाक् छपाक्’ सहजता के विनाश का नाद है. इसके बारे में मैंने अपने लेख में लिखा. लेकिन यह साफ़ था कि इसका सटीक वर्णन करना मेरी पर्यावरण की पत्रकारिता के बूते की बात नहीं थी.

हर पत्रकार के भीतर अनकही बातों का एक भंडार होता है. ऐसी बातें जो किसी-न-किसी वजह से कभी लिखी नहीं जा सकी हों. आप चाहें तो इसे पत्रकारिता का अपशिष्ट भी कह सकते हैं, कचरा भी. ‘जल थल मल’ पुस्तक का बनना ऐसे ही ‘कचरे’ को संजोने की एक कहानी है.

दीन-दुनिया को टटोलने-परखने में पत्रकार तरह-तरह के लोगों से मिलते हैं. समय के साथ विविध जानकारी और विश्लेषण इकट्ठे होते जाते हैं. जो बातें पता चलती हैं, उन्हें कई छलनियों से छानना होता है. कौन-सी बात कहने लायक है? क्यों कहने लायक है? उस बात को अभी कहने का औचित्य क्या है? इकट्ठी हुई ज़्यादातर सामग्री इन छलनियों में छन के अलग हो जाती है, अनकही बातों के भंडार में चली जाती हैं. थोड़ी-सी सामग्री ही ऐसी बचती है जिसके आधार पर कोई रपट या आलेख लिखा जा सकता है. अगर लिखने लायक बात मिल जाये तो एक दूसरी खोज शुरू होती है. फिर यह ढूंढ़ना होता है कि उसे लिखने का वाजिब तरीका क्या होगा. हर बार ऐसा हो नहीं पाता कि ठीक सामग्री भी मिल जाये और उसे लिखने का ठीक तरीका भी सूझ जाये. कभी यह हो जाता है और कभी नहीं भी होता. कभी तो कहने लायक बात अपने आप सामग्री में से प्रकट हो जाती है और कभी अथक प्रयास करने पर भी सधी हुई बात हो नहीं पाती. कभी संपादक को बात जम जाती है और कभी नहीं भी जमती. कभी लेख छप जाता है और कभी खुद को तसल्ली देनी पड़ती है.

सभी अनकही बातें बेकार नहीं होतीं. कुछ बातें काम की होती हैं, सत्य के किसी अहम पहलू को उजागर करती हैं, लेकिन फिर भी वे छप नहीं पाती. या तो पर्याप्त प्रमाण नहीं मिल पाते, या संपादक यह कह के मुकर जाते हैं कि लेख को छापने का कोई सामयिक कारण नहीं है, ‘इसे अभी क्यों छापें? दूसरी खबरें तो एकदम अभी छापने लायक हैं.’ बहुत से पत्रकारों का जीवन ‘तत्काल कोटे’ में ही खप जाता है. पत्रकारों आदतन पूछते हैं, ‘और नया-ताज़ा क्या है?’ रोज़ पानी पीने के लिए कुंआ भी रोज़ ही खोदना पड़ता है. जब किसी जाने-माने व्यक्ति ने हाल ही में कुछ नया और नाटकीय कर्म किया हो, तब ख़बर बन जाती है, लेख छप जाता है. कुछ गलत हो या सनसनीखेज़ हो, किसी साजि़श का पर्दाफ़ाश हो जाये, तब तो वारे न्यारे हो जाते हैं! पत्रकारिता का ज़्यादातर समय छिद्रान्वेशन में और मूर्ति-भंजन में ही जाता है. कोई मूरत गढ़ने की तो गुंजाइश ही नहीं होती है.

ऐसा बतलाया जाता है कि पत्रकारिता तो वही है कि आप कुछ ऐसा लिखें जिसे कोई-न-कोई छपने से रोकना चाहता है, जिससे किसी ताकतवर पक्ष को नुकसान पहुंचता हो. ऐसा भी कि अगर आपके लिखे को कोई भी छपने से रोकना नहीं चाहता या अगर उससे किसी को आपत्ति नहीं है तो फिर वह पत्रकारिता नहीं है, बल्कि जन-सम्पर्क या विज्ञापन है. पत्रकारिता ऐसी विधा बतलाई जाती है जो सत्ता प्रतिष्ठान से लोहा लेती है. जो ढेर खोज-बीन और ऊर्जा से हमारे ज्ञान और जानकारी की सीमा को लगातार आगे सरकाती है. जो तरह-तरह का जोखिम उठा कर लोकहित में काम करती है, जो ताकत के अहंकार में रहने वालों का पर्दाफ़ाश करती है. अगर किसी पत्रकार ने युद्ध ‘कवर’ किया हो तो यह सबसे विशेष तमगा बन जाता है. पत्रकारिता की दुनिया के महारथी तो युद्ध संवाददाता ही माने जाते हैं.

पत्रकारिता की नज़र सत्ता और अभिजात्य लोगों पर ही लगी रहती है. पत्रकारों की बातचीत में प्रसिद्ध और जाने-माने लोग अमूमन आते रहते हैं. जिन साधारण लोगों के गणतन्त्र के लिए पत्रकारिता काम करने का दावा करती है, उनके बारे में आपको सरलता से कुछ पता चलना मुश्किल होता है. जब राजनीतिक चुनाव हों या कोई प्राकृतिक आपदा जैसा असाधारण मौका आ जाये, तब साधारण लोगों की नब्ज़ टटोलने का काम होता है. लेकिन साधारणतया पत्रकार असाधारण लोगों और असाधारण परिस्थितियों को ही खोजते रहते हैं. पत्रकारों की अनकही बातों के भंडार में प्रसिद्ध लोगों के बारे में बहुत से षड्यंत्र मिलते हैं, तरह-तरह की गप्पबाजी भी. किन्तु सहज-साधारण बातों के लिए, सहज-साधारण भाषा के लिए जगह नहीं होती है. साधारण लोग पत्रकारिता के उपभोक्ता तो बन सकते हैं, लेकिन पत्रकारिता के पात्र वे तभी हो सकते हैं जब उनके साथ कुछ असाधारण घटना घटे.

कई साल पहले पानी के व्यापार पर निदेशक देव बेनेगल ने एक फ़िल्म बनायी थी, शीर्षक था ‘स्प्लिट वाइड ओपन’ (1999). उसका मुख्य पात्र ‘कटप्राइस’ उर्फ़ ‘के.पी.’ एक जगह कहता है कि जब जीवन अच्छा होता है, तब टी.वी. पत्रकारिता खराब होती है और जब टी.वी. पत्रकारिता अच्छी होती है, तब जीवन खराब हो जाता है.

लद्दाख पर मेरी रपट आयी-गयी हो चुकी थी. मैं नयी यात्राएं कर रहा था, नये लेख लिख रहा था, नये विषय टटोल रहा था. कुछ महीने बाद ही मेरा काम भी बदल गया था. ‘डाउन टू अर्थ’ नाम की जिस विज्ञान और पर्यावरण की अंग्रेज़ी पत्रिका में मैं काम करता था, उसमें अब मुझे दूसरों के लिखे का संपादक करना था. कई संवाददाता और अनुसंधानकर्ता पत्रिका के लिए लिखते थे. उनके जुटाए शोध और सामग्री में जलस्रोतों के प्रदूषण पर आये दिन तरह-तरह की जानकारी मिलती रहती थी. साफ़ था कि इसका सबसे बड़ा कारण शहरों के सीवर का मैला पानी है. इसमें नहाने-धोने और सफ़ाई का मैल तो बहता ही है, शौचालयों से होता हुआ नगरवासियों का मल-मूत्र भी होता है. हमारी नदियों और तालाबों में जो दुर्गंध आती है, उसमें हमारे शरीर से निकला अपशिष्ट मुख्य है.

इसके ठीक विपरीत जनमानस में यह धारणा बैठी हुई है कि जल प्रदूषण का स्रोत कारखानों से निकलने वाले कचरे में है. उद्योग दिखने में बड़े होते हैं और कुछ स्थानों पर तो सही में कारखानों का मैला पानी नदियों में प्रवाहित होता है. इन जगहों पर लिखा भी खूब गया है और इनके चित्र भी छपते रहे हैं. किन्तु लोगों के लिए यह कल्पना करना कठिन है कि उन्हीं के शौचालय से निकलने वाला मैला हमारी नदियों और तालाबों को सड़ा रहा है. क्योंकि उन्हें तो बस वही थोड़ा-सा मैला दिखता है जो उनके शरीर से निकलता है. यह इकाई कब दहाई बनती है, कब सैकड़ा और कब गिनती के पार चली जाती है, पता ही नहीं चलता. जिन लाखों-करोड़ों लोगों की वजह से यह प्रदूषण हो रहा है, वे अपने इस प्रभाव से सर्वदा अनभिज्ञ हैं. उन्हें सिफऱ् अपनी सफ़ाई दिखती है, यह नहीं दिखता कि उनकी सफ़ाई से नदी और तालाब गन्दे हो रहे हैं. वे अपना कसूर न जानते हैं, न मानते हैं.

इस अज्ञान का एक और कारण है. हमारे नगरों का पानी दूर-दूर से लाया जाता है. किसी सुदूरवर्ती जलाशय से, किसी बांध से, किसी नदी-तालाब से. पाइपलाइन आने के पहले ज़्यादातर घरों में पानी लाने के लिए कुंए-तालाब तक लोग जाते ही थे. उस समय उनका मोल था. जब पानी पाइप के रास्ते घर आने लगा, तब जल स्रोतों का मोल कम होने लगा.

यह बात आप बिना आलोचना के डर के साफ़-साफ़ नहीं कह सकते हैं क्योंकि आज घर-घर में पानी पहुंचाना हर सरकार का लक्ष्य बन चुका है. पाइप से घर में पानी पाना हर व्यक्ति का ‘बुनियादी अधिकार’ मान लिया गया है. राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों में हर व्यक्ति को घर तक पाइप से पानी पहुंचाना ‘विकास’ की ज़रूरत कही जाती है. यह कहना बहुत बड़ा खतरा मोल लेना है कि पाइप के घर पहुंचने के साथ ही लोगों का जल-स्रोतों से संबंध टूट गया है. शरीर और नदी में एक बहुत बड़ी दूरी आ गयी. अब नदी-तालाब से पानी निकाल के लोगों तक, घर तक पहुंचाना और उनके मैले पानी का निस्तार करना भी सरकार की जि़म्मेदारी बन चुकी थी.

जल स्रोतों की सफ़ाई का काम भी सरकार के अपने जिम्मे ले लिया था. सन् 1986 में केन्द्र सरकार ने गंगा नदी की सफ़ाई के लिए एक योजना खोली थी. उसके अंग्रेजी नाम में ही कर्मठता का जोश भरा हुआ था, ‘गंगा एक्शन प्लाॅन’. लेकिन कई साल और चरणों के बाद भी इस योजना से गंगा की सफ़ाई हो नहीं पा रही थी, अलबत्ता नदी की हालत लगातार खराब ही हो रही थी. लेकिन सरकार ने अपनी विफलताओं से प्रेरणा ले के इसे एक बड़ी परियोजना में बदल दिया था. गंगा का पानी तो और प्रदूषित ही हो रहा था, लेकिन सरकारी योजना फल-फूल के विशाल हो गयी थी.

अब इसमें सभी बड़ी नदियों की सफ़ाई का काम शामिल हो गया था. जिस तर्ज पर प्रदूषण से गंगा की मुक्ति नहीं हो सकी थी, उसी तर्ज पर अब दूसरी नदियों पर भी काम होने लगा था. सरकारी खातों में आवंटित धन का खर्च हो जाना काम का पूरा होना मान लिया जाता है. इसलिए योजनाएं तो विधिवत पूरी हो रही थी, लेकिन नदियों में सड़ांध बढ़ती जा रही थी. इस कार्यक्रम के स्वतन्त्र मूल्यांकनों को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता था कि यह अट्टाहास भरते हुए किसी खलनायक का विद्रूप षड्यंत्र है. किसी विकृत कल्पना का गढ़ा हुआ भयानक मज़ाक!

(यह लेख सोपान जोशी की पुस्तक जल थल मल के बनने की प्रक्रिया पर ‘समास’ पत्रिका में छपे एक विस्तृत लेख का अंश है)

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