5 साल बाद क्यों सिर उठाया बिहार में इंसेफेलाइटिस ने

लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी और स्वास्थ्य विभाग की आपराधिक लापरवाही ने बिहार में थम चुके इंसेफेलाइटिस बुखार को फिर से हवा दे दी है.

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बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिले में दो बड़े अस्पताल हैं एसकेएमसीएच और केजरीवाल अस्पताल. दोनों अस्पतालों में इन दिनों उसी तरह की गहमा-गहमी और रुदन का माहौल फैला हुआ है, जैसा पांच साल पहले तक हुआ करता था.

हर दिन तड़के ही बड़ी संख्या में मुज़फ़्फ़रपुर, सीतामढ़ी, शिवहर, पूर्वी चंपारण और वैशाली जिलों से बीमार बच्चों के आने का सिलसिला शुरू हो जाता है. सबको एक आम शिकायत है, पूरे शरीर में ऐंठन और तेज बुखार. देखते ही देखते ये बच्चे दम तोड़ देते हैं. स्थानीय भाषा में लोग इसे चमकी बुखार भी कहते हैं. बीते 12 दिनों के दौरान यहां 176 ऐसे बच्चे आये हैं, जिनमें से 64 बच्चों की मृत्यु हो चुकी है. यह सिलसिला अभी भी जारी है.

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9 जून को यहां छह बच्चे मरे, 10 जून को 20, 11 को सात, 12 को चार बच्चों ने दम तोड़ दिया. अधिकारियों और डॉक्टरों से पूछने पर एक ही जवाब मिलता है, यह दिमागी बुखार नहीं है, हाइपो ग्लाइसीमिया है. मानो इन दो शब्दों से इन 64 बच्चों की मौत की जवाबदेही से वे मुक्त हो जाते हों. मगर उन माता-पिता की चीख और रुदन का क्या किया जाये, जिन्होंने पलक झपकते ही अपने जीवन की सबसे बड़ी अमानत खो दी है और जो सांस रोके हुए इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं, कि उनके बच्चे बचेंगे या नहीं.

यह सब देखना इसलिए भी दुखद और चिंताजनक है, क्योंकि 2015 के बाद से मुज़फ़्फ़रपुर में इस तरह की घटना पर लगभग विराम लग गया था. लोगों ने मान लिया था कि अबोध बच्चों की मौत का भयावह दौर बीत चुका है. आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं कि 2015 के पूरे साल में बिहार में दिमागी बुखार (इंसेफेलाइटिस) से सिर्फ 15 बच्चों की मौत हुई थी, 2016 में तो आंकड़ा घटकर सिर्फ चार रह गया था. स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी और खासकर राज्य स्वास्थ्य समिति के वेक्टर बॉर्न डिजीजेज के स्टेट प्रोग्रामर मैनेजर डॉ. एमपी शर्मा ने बताया, “बाहर के वैज्ञानिक इस बीमारी पर रिसर्च करते रहे, हमने एसओपी लागू करके दुनिया को दिखा दिया कि हम इन मौतों को रोक सकते हैं. 2018 तक यह एसओपी कारगर रहा, पिछले साल सिर्फ सात बच्चे इन बीमारियों से पूरे राज्य में मरे थे. फिर आखिर ऐसा क्या हो गया कि 2019 में अचानक सिर्फ 12 दिनों में 64 बच्चे मर गये.” एसओपी यानी स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग सिस्टम.

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इसका जवाब मुज़फ़्फ़रपुर के कोदरिया गांव से अपनी सात साल की बेटी जूली कुमारी को लेकर एसकेएमसीएच पहुंचे राजकिशोर महतो ने दिया. वे लगभग 45 किमी की यात्रा करके मुज़फ़्फ़रपुर पहुंचे थे. उन्होंने एक रसीद दिखायी जो एंबुलेंस वाले ने उन्हें दी थी. उस पर 450 रुपये का किराया दर्ज था और एंबुलेंस वाले ने उनसे 750 रुपये लिये थे. जबकि पांच-छह साल पहले स्वास्थ्य विभाग ने यहां फैलने वाले रोग एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम के मुकाबले के लिए जो एसओपी तैयार किया था, उसमें साफ-साफ ज़िक्र था कि मरीज से एंबुलेंस का किराया नहीं लिया जायेगा. इतना ही नहीं, अगर वह निजी साधन से अस्पताल पहुंचता है तो उसे वाहन का किराया अस्पताल प्रबंधन द्वारा हाथों-हाथ दिया जायेगा.

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हमने उनसे एसओपी से जुड़े कई सवाल पूछे. हमने पूछा कि क्या आशा या आंगनवाड़ी कार्यकर्ता उनके गांव में रात को घर-घर जाकर देखती है, कि कोई बच्चा भूखा तो नहीं सोया है और भूखा दिखने पर उसे ओआरएस या चीनी का घोल पिलाती हैं? उन्होंने कहा, नहीं. हमने पूछा कि आप अपने पास वाले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र क्यों नहीं गये, जहां इस सीजन में रात तीन बजे से ही डॉक्टरों की तैनाती होती है, जहां ग्लूकोज़ लेवल चेक करने और ड्रिप चढ़ाने की सुविधा होती है? तो उन्होंने कहा, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती. उनके पास खड़े एक मरीज ने कहा कि वे गये थे, मगर वहां से उन्हें सीधे यहां रेफर कर दिया गया. हमने उनसे पूछा कि क्या उनके गांव में इस साल, इस रोग को लेकर कोई सार्वजनिक घोषणा हुई, इस रोग से मुकाबले के लिए खास तौर पर बने पीआइसीयू के दोनों वार्ड के ज्यादातर मरीजों ने इंकार में सिर हिलाया.

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ज़ाहिर सी बात है कि साल 2015 में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम से लड़ने के लिए बना एसओपी इन चार-पांच सालों में पूरी तरह से फेल हो गया है. इसका संकेत 11 जून, 2019 को केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे के एक बयान से भी मिलता है जिसमें उन्होंने आइजीआइएमएस अस्पताल में एक समारोह में कहा कि लगता है चुनावी व्यस्तताओं की वजह से अधिकारी इंसेफेलाइटिस जागरूकता का प्रसार नहीं कर पाये. बाद में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी स्वीकार किया कि इस साल जागरूकता के काम में कमी रह गयी, यह स्थिति उसी की वजह से पैदा हुई है.

हालांकि अधिकारी इसके साथ-साथ तेज गर्मी, लू और इससे पैदा होने वाले डिहाइड्रेशन और ग्लूकोज़ की कमी को भी वजह बता रहे हैं. मगर सच तो यह है कि अगर संबंधित अधिकारियों ने ध्यान दिया होता और इस साल भी एसओपी का ठीक तरीके से पालन किया गया होता तो आज स्थिति इतनी भयावह नहीं होती. राज्य का स्वास्थ्य विभाग तब जाकर होश में आया जब 10 जून को एक ही दिन में 20 बच्चों की मौत हो गयी. हालांकि तब भी अधिकारी इसे हाइपो ग्लाइसीमिया और दूसरे आंकड़ों के जाल में मामले को उलझाने की कोशिश करते रहे.

उसके बाद से मुज़फ़्फ़रपुर में प्रशासन और अभिभावक दोनों सजग हो गये हैं, मौसम भी थोड़ा नर्म हो रहा है, जिस वजह से मौतों की संख्या में कुछ कमी आ रही है. इस बीच मंगलवार की शाम एक केंद्रीय टीम भी जांच के लिए मुज़फ़्फ़रपुर पहुंची, वहां उन्होंने देखा कि एक ही बेड पर दो-दो बच्चों को लिटाकर इलाज चल रहा था. उन्होंने इस पर कड़ी आपत्ति जतायी और साफ-सफाई को लेकर भी सवाल उठाया. टीम ने कहा कि हाइपो ग्लाइसीमिया और एईएस के साथ-साथ कुपोषण भी एक बड़ी वजह है इस बीमारी के फैलने के पीछे. अगर पहले से शारीरिक रूप से कमजोर बच्चे गर्मियों में रात में भूखे पेट सोते हैं तो इस बीमारी की चपेट में आने की आशंका काफी बढ़ जाती है.

इस बीच मुज़फ़्फ़रपुर के प्रमंडलीय आयुक्त ने एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का औचक निरीक्षण किया और यह जानने की कोशिश की कि बीमार बच्चे सीधे एसकेएमसीएच क्यों आ जाते हैं. स्थानीय अस्पतालों तक क्यों नहीं पहुंचते, जो कि एसओपी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. अगर समय रहते स्थानीय अस्पतालों में बच्चों को शुरुआती इलाज मिल जाये, तो उनकी जान बच सकती है. लेकिन उन्होंने पाया कि उस अस्पताल में एसओपी का पालन नहीं हो रहा था. यही बात दूसरे स्थानीय चिकित्सा केंद्रों के बारे में भी कही जा सकती है.

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