2019 से देश में दो स्तरों पर राजनीतिक प्रयोग शुरू होगा- एक तरफ सरकारी स्तर पर एनडीए का नया सबल स्वरूप खड़ा हो, तो दूसरी तरफ यूपीए का नया स्वरूप खड़ा हो. इसमें से वह राजनीतिक विमर्श खड़ा होगा जो भारतीय लोकतंत्र को आगे ले जायेगा.
एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस का यह अंत है और राहुल गांधी को इस अकल्पनीय हार की जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र दे देना चाहिए. यह सबसे स्वाभाविक व आसान प्रतिक्रिया है. इसे ही थोड़ा आगे बढ़ायें तो चुनाव आयोग को इस्तीफा दे देना चाहिए, क्योंकि 7 चरणों में चला यह चुनाव उसकी अयोग्यता और अकर्मण्यता का नमूना था. अपने कैलेंडर के कारण यह देश का अब तक का सबसे लंबा, महंगा, सबसे हिंसक, सबसे अस्त-व्यस्त और सबसे दिशाहीन चुनाव-आयोजन था. यह आयोग गूंगा भी था, बहरा भी; अनिर्णय से ग्रस्त भी था और एकदम बिखरा हुआ भी. इसके फैसले लगता था कि कहीं और ही लिए जा रहे हैं. जैसे अपराध के लिए मायावती, आजम खान, मेनका गांधी, प्रज्ञा ठाकुर आदि को कई घंटों तक चुप रहने की सज़ा आयोग ने दी, उसी आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराने की ज़रूरत थी, जैसे कभी महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के साथ हुआ था.
यह चुनाव हमसे यह भी कहता है कि हमें ईवीएम मशीनों के बारे में कोई अंतिम फैसला करना चाहिए, या कि फिर इनका भी इस्तीफा ले लेना चाहिए. अब वीवीपैट पर्चियों के बारे में जैसी मांग विपक्ष ने उठा रखी है, और उसे सर्वोच्च न्यायालय ने जैसी स्वीकृति दे दी है, उससे तो लगता है कि आगे हमें फैसला यह लेना होगा कि मशीन गिनें कि पर्चियां? और अगर हमारा इतना सारा कागज़ बर्बाद होना ही है, तो कम-से-कम मशीनों पर हो रहा अरबों का खर्च तो हम बचायें! तो कई इस्तीफे होने हैं लेकिन बात तो अभी राहुल गांधी के कांग्रेस की हो रही थी.
कांग्रेस को खत्म करने की पहली गंभीर और अकाट्य पेशकश इसे संजीवनी पिलाने वाले महात्मा गांधी ने की थी. मोदीजी और अमित शाहजी ने इतिहास के प्रति अपनी गज़ब की प्रतिबद्धता दिखाते हुए गांधीजी के इस सपने को पूरा करने का बीड़ा ही उठा लिया और कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की दिशा में बढ़ चले. ऐसा करते हुए वे भूल गये कि महात्मा गांधी एक राजनीतिक दर्शन के रूप में भी और एक संगठन के रूप में भी उस सावरकर-दर्शन को खत्म करने की लड़ाई ही लड़ते रहे थे, मोदी-शाह जिसकी नयी पौध हैं, और यह लड़ाई ही गांधीजी की कायर हत्या की वजह भी थी. 30 जनवरी 1948 की शाम 5.17 मिनट पर जिन 3 गाोलियों ने उनकी जान ली, वह हिंदुत्व के उसी दर्शन की तरफ से दागी गयी थी जिसकी आज मोदी-शाह पैरवी करते हैं, और संघ परिवार का हर ऐरा-गैरा जिसकी हुआं-हुआं करता रहता है.
यह बिल्कुल सच है कि महात्मा गांधी ने 29 जनवरी 1948 की देर रात में देश के लिए जो अंतिम दस्तावेज़ लिख कर समाप्त किया था, उसमें एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को खत्म करने की सलाह दी गयी है. उन्होंने लिखा था कि कांग्रेस के मलबे में से वे लोक सेवक संघ नाम का एक ऐसा नया संगठन खड़ा करेंगे जो चुनावी राजनीति से अलग रह कर, चुनावी राजनीति पर अंकुश रखेगा. उन्होंने यह भी कहा था कि कांग्रेस के जो सदस्य चुनावी राजनीति में रहना चाहते हैं उन्हें नया राजनीतिक दल बनाना चाहिए ताकि स्वतंत्र भारत में संसदीय राजनीति के सारे खिलाड़ी एक ही प्रारंभ-रेखा से अपनी दौड़ शुरू करें.
गांधीजी के लिए कांग्रेस दो थी: एक उसका संगठन और दूसरा उसका दर्शन! वे कांग्रेस का संगठन समाप्त करना चाहते थे ताकि आजादी की लड़ाई की ऐतिहासिक विरासत का बेजा हक दिखाकर, कांग्रेसी दूसरे दलों से आगे न निकल जाये. यह उस नवजात संसदीय लोकतंत्र के प्रति उनका दायित्व-निर्वाह था जिसे वे कभी पसंद नहीं करते थे और जिसके अमंगलकारी होने के बारे में उन्हें कोई भ्रम नहीं था. इस संसदीय लोकतंत्र को “बांझ व वैश्या” जैसा कुरूप विशेषण दिया था उन्होंने. लेकिन वे जानते थे कि इस अमंलकारी व्यवस्था से उनके देश को भी गुज़रना तो होगा, सो उसका रास्ता इस तरह निकाला था उन्होंने. लेकिन एक राजनीतिक दर्शन के रूप में वे कांग्रेस की समाप्ति कभी भी नहीं चाहते थे और इसलिए चाहते थे कि वैसे लोग अपना नया राजनीतिक दल बना लें. लेकिन संघ परिवार की यह जन्मजात परेशानी है कि उसे इतिहास पढ़ना और इतिहास समझना कभी आया ही नहीं! वह अपना इतिहास खुद ही लिखता है, खुद ही पढ़ता है; और इतिहास के संदर्भ में अपनी-सी ही निरक्षर पीढ़ी तैयार करने में जुटा रहता है.
गांधी के साथ जब तक कांग्रेस थी, वह एक आंदोलन थी- आज़ादी की लड़ाई का आंदोलन, भारतीय मन व समाज को आलोड़ित कर, नया बनाने का आंदोलन! जवाहरलाल नेहरू के हाथ आकर कांग्रेस सत्ता की ताकत से देश के निर्माण का संगठन बन गयी. वह बौनी भी हो गयी और सीमित भी. और फिर यह चुनावी मशीन में बदल कर रह गयी. अब तक दूसरी कंपनियों की चुनावी मशीनें भी राजनीति के बाज़ार में आ गयी थीं. सो सभी अपनी-अपनी लड़ाई में लग गयीं. कांग्रेस की मशीन सबसे पुरानी थी, इसलिए यह सबसे पहले टूटी, सबसे अधिक परेशानी पैदा करने लगी. अपनी मां की कांग्रेस को बेटे राजीव गांधी ने ‘सत्ता के दलालों’ के बीच फंसा पाया था, तो उनके बेटे राहुल गांधी ने इसे हताश, हतप्रभ और जर्जर अवस्था में पाया. कांग्रेस नेहरू-परिवार से बाहर निकल पाती तो इसे नये डॉक्टर मिल सकते थे, लेकिन पुराने डॉक्टरों को इसमें खतरा लगा और इसकी किस्मत नेहरू-परिवार से जोड़ कर ही रखी गयी. राज-परिवारों में ऐसा संकट होता ही था, कांग्रेस में भी हुआ. अब डॉक्टर राहुल गांधी के इलाज में कांग्रेस है. यह नौजवान पढ़ाई पढ़ कर डॉक्टर नहीं बना है, डॉक्टर बन कर पढ़ाई पढ़ रहा है. इसकी विशेषता इसकी मेहनत और इसका आत्मविश्वास है. मरीज अगर संभलेगा तो इसी डॉक्टर से संभलेगा.
अब इस चुनाव पर आते हैं और यह देखते हैं कि कांग्रेस विफल कहां हुई. दो कारणों से यह विफल रही: एक, वह विपक्ष की नहीं, पार्टी की आवाज बन कर रह गयी. दो, वह कांग्रेस नहीं, नकली भाजपा बनने में लग गयी. जब असली मौजूद है तब लोग नकली माल क्यों लें? कांग्रेस का संगठन तो पहले ही बिखरा हुआ था, नकल से उसका आत्मविश्वास भी जाता रहा. मोदी-विरोधी विपक्ष को कांग्रेस में अपनी प्रतिध्वनि नहीं मिली; देश को उसमें नयी दिशा का आत्मविश्वास नहीं मिला. राहुल गांधी ने छलांग तो बहुत लंबी लगायी, लेकिन वे कहां पहुंचना चाहते थे, यह उन्हें ही पता नहीं चला.
नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस विरोधी व्यक्तियों व संगठनों को अपनी छतरी के नीचे जमा कर लिया और पांच साल में सत्ता का लाभ दे कर उन्हें खोखला भी बना दिया. आज एनडीए खेमे की सारी पार्टियां भारतीय जनता पार्टी के मेमने भर रह गये हैं. वे मोदी से भी अधिक मोदीमय हैं. इसकी जवाबी रणनीति यह थी कि भाजपा विरोधी ताकतें भी एक हों. यह कांग्रेस के लिए भी जरूरी था और विपक्ष के लिए भी. लेकिन इसके लिए जरूरी था कि राहुल गांधी खुद को घोषणापूर्वक पीछे कर लेते, और विपक्ष के सारे क्षत्रपों को आपसी मार-काट के बाद इस नतीजे पर पहुंचने देते कि कांग्रेस ही विपक्षी एका की धुरी बन सकती है. शायद ऐसा होता कि ऐसा अहसास होने तक 2019 का चुनाव निकल जाता. तो आज भी तो वही हुआ! लेकिन जो नहीं हुआ वह यह कि कांग्रेस के पीछे खड़ा होने का विपक्ष का वह एजेंडा अभी पूरा नहीं हुआ. इसलिए बिखरा विपक्ष और बिखरता गया, कांग्रेस का आत्मविश्वास टूटता गया.
अब राहुल-प्रियंका की कांग्रेस को ऐसी रणनीति बनानी होगी कि 2024 तक विपक्ष के भीतर यह प्रक्रिया पूरी हो जाये और कांग्रेस सशक्त राजनीतिक विपक्ष की तरह लोगों को दिखायी देने लगे. ऐसा नया राजनीतिक विमर्श वर्तमान की ज़रूरत है. राहुल-प्रियंका की कांग्रेस यदि इस चुनौती को स्वीकार करती है, तो उसे खुद को भी और अपनी राज्य सरकारों को इस काम में पूरी तरह झोंक देना होगा. यदि वे इस चुनौती को स्वीकार नहीं करते हैं तो कांग्रेस को विसर्जित कर देना होगा. इसके अलावा तीसरा कोई रास्ता नहीं है.
2019 से देश में दो स्तरों पर राजनीतिक प्रयोग शुरू होगा- एक तरफ सरकारी स्तर पर एनडीए का नया सबल स्वरूप खड़ा हो, तो दूसरी तरफ यूपीए का नया स्वरूप खड़ा हो. इसमें से वह राजनीतिक विमर्श खड़ा होगा जो भारतीय लोकतंत्र को आगे ले जायेगा. इससे हमारा लोकतंत्र स्वस्थ भी बनेगा और मजबूत भी.