वह कौन सा रसायन है जिससे मोदी का तिलिस्म टूटेगा?

मुश्किल यह है कि कांग्रेस का वोट-आधार पहले ही बीजेपी में जा चुका है और उसका वैचारिक आधार सहिष्णुता और उदारता की ढीली-ढाली अवधारणा से आगे जाता नहीं दिखता.

WrittenBy:प्रियदर्शन
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लोकसभा चुनावों के नतीजों से कई बातें स्पष्ट हैं. पहली बात तो यह कि नरेंद्र मोदी के जिस करिश्मे के ख़त्म होने का दावा किया जा रहा था, वह बना हुआ है. लगभग हर सीट पर बीजेपी के उम्मीदवार पीछे रहे और वोट मोदी के नाम पर पड़े. उनके नाम पर प्रज्ञा ठाकुर से लेकर गौतम गंभीर तक जीत गये. जब किसी नेता की व्यक्ति पूजा का दौर चलता है तो ऐसा ही चलता है. लोग उसकी या उसकी दी हुई व्यवस्था की सारी ख़ामियां भुला देते हैं. इन चुनावों में भी यही हुआ. बेरोज़गारी हो, नोटबंदी हो या किसी भी तरह की अन्य समस्या- वोट देने वालों ने सबकुछ दरकिनार कर दिया. कहा कि मोदी का कोई विकल्प नहीं है.

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अपनी विकल्पहीनता के तर्क को प्रधानमंत्री ने भी बहुत सलीके से आगे बढ़ाया. वे लगभग हर सभा में बोलते रहे कि उनके ख़िलाफ़ महामिलावटी लोग एकजुट हो रहे हैं. ऐसा लगा, जैसे वे अकेले महागठबंधन से लोहा ले रहे हों. इससे यह सच्चाई छुपी रही कि दरअसल महागठबंधन तो बीजेपी का भी है और उसमें भी वे विसंगतियां हैं जो दूसरो में हैं. सच यह है कि सबसे बड़ा गठबंधन बीजेपी का ही था. लेकिन माहौल कुछ ऐसा बना कि गठबंधन का मतलब ही विपक्ष की पार्टियों का गठजोड़ हो गया.

यह प्रचार का कमाल था. यह कमाल कई और मामलों में दिखता रहा. चुनावों से ऐन पहले पुलवामा में सीआरपीएफ़ के 40 से ज़्यादा जवान मारे गये. क़ायदे से इस मुद्दे को सरकार के ख़िलाफ़ जाना चाहिए था. अगर पुलवामा कांग्रेस के रहते हुआ होता तो बीजेपी ने उसकी नींद उड़ा दी होती. लेकिन कमाल यह है कि पुलवामा जैसी बड़ी नाकामी का इस्तेमाल भी बीजेपी ने अपने पक्ष में कर लिया. शहीदों के शव आते रहे और बीजेपी नेता आतंकवाद और पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने की क़सम दुहराते रहे.

बालाकोट की एयर स्ट्राइक और फिर पाकिस्तान के एफ़ सोलह विमानों को सरहद से खदेड़ देने का जो नया आख्यान इसमें जुड़ा, वह राजनीतिक प्रचार में बिल्कुल ‘मोदी की सेना’ का पराक्रम हो गया. तब यह बात छुपा ली गयी कि बालाकोट पर किये गये हवाई हमले के अगले दिन पाकिस्तान के विमानों का जवाब देने की हड़बड़ी में हमारी वायुसेना ने अपनी ही मिसाइल से अपने ही हेलीकॉप्टर को छह लोगों सहित मार गिराया था. अब इस मामले की जांच के बाद सेना कार्रवाई की बात कर रही है. लेकिन चुनाव ख़त्म हो चुके हैं और नतीजे बता रहे हैं कि बीजेपी इस सैन्यवादी प्रचार का अधिकतम लाभ उठा चुकी है.

दरअसल यहीं से बड़ी बारीकी से इस चुनाव का वह सबसे बड़ा मुद्दा सामने आता है जिसने जनादेश का मिज़ाज निर्धारित किया. राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता का जो मिला-जुला नया आख्यान पिछले कुछ वर्षों में बनाया और बढ़ाया गया है, उसे बीजेपी ने चरम तक पहुंचा दिया. इस आख्यान के एक सिरे पर प्रज्ञा ठाकुर हैं तो दूसरे सिरे पर पुलवामा है. मालेगांव धमाके के मामले में आरोपी होने के बावजूद, बीजेपी ने प्रज्ञा ठाकुर को उम्मीदवार बनाया और उसके नेता भगवा आतंकवाद की अवधारणा को ख़ारिज करने में लगे रहे. इधर चुनाव प्रचार के दौरान प्रज्ञा ठाकुर हेमंत करकरे और महात्मा गांधी को ख़ारिज करती रहीं और गाय और गोमूत्र की पवित्रता और महत्ता का बखान करती रहीं. अचानक हम पाते हैं कि भगवा आतंकवाद की यह कड़ी सीधे गोरक्षा के नाम पर चल रही उस मॉब लिंचिंग से जुड़ती है, जिसने एक पूरे समुदाय को आतंकित कर रखा है और उसके खानपान से लेकर कारोबार तक को प्रभावित किया है.

दूसरी तरफ़ पुलवामा को पाक प्रेरित आतंकवाद से जोड़ने के साथ बीजेपी और केंद्र सरकार ने आतंकवाद और पाक विरोधी जो शब्दाडंबर शुरू किया, वह संयुक्त राष्ट्र में मसूद अज़हर को वैश्विक आतंकी करार दिये जाने के साथ एक दूसरे चरम पर पहुंच गया. बेशक, इस कदम के अपने कूटनीतिक लाभ हैं और पाकिस्तान पर यह दबाव बढ़ा है कि वह आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्रवाई करे, लेकिन इस पूरे मामले में चीन के झुकने और पाकिस्तान के संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लेने को भारतीय चुनावों में बीजेपी ने इस तरह पेश किया, जैसे आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में आख़िरी फ़तह मिल गयी हो.

ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि प्रज्ञा ठाकुर बनाम मसूद अज़हर वाली बहस में धर्म वह निर्धारक तत्व बन जाता है, जिससे यह शिनाख़्त की जाती है कि कौन आतंकी है और कौन नहीं, कौन दुश्मन है और कौन नहीं. अचानक बीजेपी का यह राष्ट्रवाद एक आक्रामक बहुसंख्यकवाद के साथ मिलकर चुनावों की दिशा तय करने लगता है.

सबसे बड़ी बात है कि बीजेपी के इस पूरे प्रचार में पूंजी की भूमिका बहुत बड़ी रही. उसका हर कार्यक्रम इतना भव्य होता था जैसे कोई फिल्म दिखायी जा रही हो. अख़बार-रेडियो-टीवी और सिनेमाघर तक बीजेपी के विज्ञापनों से भरे रहे. नामांकन से पहले प्रधानमंत्री का जो रोड शो हुआ, उसका खर्च अरबों में नहीं तो करोड़ों में रहा होगा. ज़ाहिर है, यह लोकतंत्र पर पूंजीतंत्र के बढ़ते शिकंजे की भी सूचना है.

बहरहाल, जब बीजेपी का यह अश्वमेध चल रहा था तो विपक्षी दल क्या कर रहे थे? उनकी बनायी सारी रणनीतियां क्यों नाकाम रहीं? बिहार में कांग्रेस-आरजेडी और दूसरे दलों का गठबंधन, यूपी में अखिलेश-माया-अजित सिंह का महागठबंधन, कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस का अजेय लगता गठजोड़ क्यों बिखर गये? यह एक तरह से मंडल और कमंडल की पुरानी लड़ाई का नया संस्करण था, जिसे कमंडल ने जीत लिया. धार्मिक या सांप्रदायिक आधार पर बने ध्रुवीकरण जातिगत आधारों पर बने समीकरणों पर भारी पड़े- इसलिए भी कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करते हुए बीजेपी ने जातिगत ध्रुवीकरण का भी उतना ही ख़याल रखा.

बिहार में हिलते-डुलते पासवान को जोड़े रख कर और यूपी में कई छोटी-छोटी पार्टियों को साथ लेकर बीजेपी ने सामाजिक न्याय की राजनीति में ऐसी अचूक सेंधमारी की कि मंडल कमंडल में समा गया. बेशक, इस सेंधमारी में कुछ सफलता इस तथ्य से भी मिली कि अपने गठबंधन में नरेंद्र मोदी की विराट छवि के आगे दूसरे गठबंधनों में कोई सर्वस्वीकार्य नेता उभर नहीं पाया- या कम से कम उसकी कोई घोषित पहचान नहीं बन सकी.

कम-से-कम दो कड़ियों के उल्लेख के बिना यह विश्लेषण अधूरा है. पहली बार कांग्रेस ने बीजेपी का राष्ट्रीय विकल्प बनने की कोशिश लगभग घोषित तौर पर छोड़ दी. ‘चौकीदार चोर है’ के आक्रामक नारे का सहारा लेने के बावजूद कुल मिलाकर शिष्ट और शालीन राजनीति करने वाले राहुल गांधी लगातार यह कहते रहे कि जो भी बीजेपी को रोकने में मददगार होगा, वे उसका समर्थन करेंगे. मुश्किल यह है कि कांग्रेस का जो वोट-आधार था, वह पहले ही बीजेपी में जा चुका है और उसका वैचारिक आधार सहिष्णुता और उदारता की ढीली-ढाली अवधारणा से आगे जाता नहीं दिखता. कांग्रेस बस एक उदार और सहनीय बीजेपी की तरह नज़र आती रही.

योगेंद्र यादव ने जब कांग्रेस के मरने की बात कही, तो शायद उनका इशारा इसी तथ्य की ओर था कि कांग्रेस बीजेपी को रोकने की अपनी ऐतिहासिक भूमिका खो चुकी है और वह दूसरे विकल्पों की राह का रोड़ा ही बन रही है. यूपी के वोटों का विश्लेषण संभवतः यह बतलाये कि कांग्रेस ने यूपी में अखिलेश-माया को ज़्यादा नुक़सान पहुंचाया, बीजेपी को कम. हद तो यह हो गयी कि राहुल गांधी वायनाड में रिकॉर्डतोड़ जीत हासिल करने के बावजूद अमेठी की अपनी पारंपरिक सीट हार गये.

साफ है कि कांग्रेस को विचार और संगठन दोनों के स्तर पर पुनर्विचार और पुनर्गठन की ज़रूरत है. 2004 में सोनिया गांधी ने यूपीए की अध्यक्ष के तौर पर कई जनोन्मुख और पारदर्शिता लाने वाले ऐतिहासिक फ़ैसले किये थे- सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, मनरेगा यानी न्यूनतम रोज़गार गारंटी योजना आदि इसी का हिस्सा थे- लेकिन वह इन्हें प्रशासनिक सुधारों के सरकारी क़दमों से आगे का दर्ज़ा नहीं दिला सकी या उन्हें अपने ऐसे राजनैतिक कार्यक्रम की तरह नहीं पेश कर सकी जिसका मक़सद देश और समाज को बदलना हो. जबकि नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनी छोटी-से-छोटी पहल को बड़े राजनैतिक कदम की ही तरह नहीं, बिल्कुल सामाजिक क्रांति की तरह पेश किया. यहां तक कि कांग्रेस के समय शुरू हुए कई कार्यक्रम मोदी के कार्यकाल का नगीना बना दिये गये.

दरअसल यहां सोच और संगठन दोनों स्तरों पर कांग्रेस फिसड्डी दिखायी पड़ती है. चुनावों के दौरान बीजेपी अध्यक्ष जहां बूथों की रणनीति में लगे रहे, वहां कांग्रेस बस कुछ जनसभाओं तक सिमटी दिखायी दी. ज़ाहिर है, सांगठनिक स्तर पर कांग्रेस को आमूलचूल सुधारों से गुज़रना होगा. वंशवादी राजनीति को बढ़ावा देने की बीजेपी की इकहरी आलोचना दरअसल इस तथ्य से बल पाती है कि सांगठनिक सक्रियता के अभाव में कांग्रेस के भीतर कई स्तरों पर वंशवाद बढ़ता जाता है. वाकई कांग्रेस या तो ख़ुद को बदले या ख़त्म हो जाये- यही उसके सामने रास्ता है.

कांग्रेस से कहीं ज़्यादा विकट चुनौती इस मामले में वाम दलों के सामने है. बंगाल और केरल जैसे अपने गढ़ों से वे उखड़ चुके हैं. पहले तृणमूल ने उनकी सीटों पर कब्ज़ा किया और फिर बीजेपी उनके हिस्से के वोट ले उड़ी. आख़िर वाम दलों का ये हाल क्यों हुआ? क्योंकि बंगाल और केरल में अपने राजनीतिक वर्चस्व को एक सांगठनिक स्वरूप देने के अलावा वाम ने अपनी वैचारिकी के सांस्कृतिक पक्षों की अनदेखी की. पश्चिम बंगाल बड़ी सुविधा से वामपंथी भी बना रहा और हिंदू कर्मकांडों में भी लगा रहा. पार्टी इससे संतुष्ट रही. लेकिन इसी का नतीजा है कि वाम मोर्चे की धुरी खिसकी तो उसके समर्थकों को बीजेपी में जाने में कोई सांस्कृतिक दुविधा नहीं हुई.

कुल मिलाकर जो नतीजे आये हैं, वे भारतीय लोकतंत्र की नयी चुनौतियों की ओर इशारा करते हैं. दक्षिणपंथ की राजनीति भारत में नयी नहीं है- एक दौर में कांग्रेस का एक बड़ा हिस्सा दक्षिणपंथी ही रहा है- लेकिन दूसरों को समायोजित न करने वाला ऐसा उद्धत दक्षिणपंथ हम पहली बार देख रहे हैं जो सैन्यवाद, राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद का पूरी आक्रामकता से इस्तेमाल करता है. लोकतंत्र में बहुमत से मिले आदेश को जनादेश माना जाता है, लेकिन वह बहुमत बहुसंख्यकवाद के विशेषाधिकार में बदल जाये तो एक तरह के फ़ासीवाद का रास्ता खुलता है. कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसे फ़ासीवाद को व्यक्ति पूजा रास आती है.

दुर्भाग्य से भारतीय लोकतंत्र के इस नये उभार को वैश्विक परिस्थितियों का समर्थन भी हासिल है. अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद की अनिश्चितता ने दुनिया भर में नये भय पैदा किये हैं. लोग और समुदाय ख़ुद को पहले से ज़्यादा असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. तेल के बाजार पर वर्चस्व बनाये रखने की अमेरिकी-यूरोपीय कोशिशों से पहले पश्चिम एशिया ही तनावग्रस्त था, अब दक्षिण एशिया भी हो चुका है और दुनिया भर में आतंकवाद की एक नयी शक्ल उभरी है. इसकी मूल वजहों को समझने की जगह इनके मुक़ाबले के लिए तमाम देशों को राष्ट्रवाद और सैन्यवाद के नये खोल में घुसने का रास्ता आसान लग रहा है. भारत में भी लोकतंत्र के रास्ते पांव पसार रही फ़ासीवादी वैचारिकी को यह अंतरराष्ट्रीय स्थिति और इससे पैदा तर्क रास आ रहे हैं.

सवाल है, इनसे उबरने का क्या कोई रास्ता है? कभी लोहिया पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों को संदेह से देखते थे. उनका कहना था, वे एशिया पर हमले के आख़िरी यूरोपीय हथियार हैं. इक्कीसवीं सदी में शायद बीसवीं सदी के राजनीतिक मुहावरे बहुत काम न आयें, लेकिन फिर भी आधुनिक भारत की अपनी वैचारिक विरासत में बहुत कुछ ऐसा है जिससे विकल्प की राजनीति अपने लिए रसद जुटा सकती है. अपनी मौजूदा सारी विफलताओं के बावजूद वामपंथ ने भारत में अपना एक वैचारिक और सांगठनिक आधार तैयार किया है. इसी तरह आज़ादी की लड़ाई के दौरान भारत की आत्मा को पहचानने और आकार देने का एक वैचारिक उपक्रम गांधीवाद के रूप में हमारे सामने है. इसके अलावा अस्मितावादी छटपटाहट की कोख से निकला अंबेडकरवाद अपने तेज के साथ मौजूद है.

क्या यह संभव है कि हम कुछ मार्क्स और लोहिया, कुछ गांधी और कुछ अंबेडकर को मिलाकर वह वैचारिक रसायन तैयार कर पायें, जो हमारे राजनैतिक आंदोलन को नयी ताकत और चेतना दे सके? ध्यान से देखें तो सपा-बसपा की एकता और लेफ्ट और कांग्रेस द्वारा उसके समर्थन में बहुत दूर तक इन वैचारिकियों का साझा दिखायी पड़ता है. लेकिन इस साझेदारी को तात्कालिक चुनावी फ़ायदों के नुस्खे की तरह इस्तेमाल करने की जगह एक संपूर्ण राजनैतिक आंदोलन के रूप में विकसित किया जाये तो शायद वह तिलिस्म तोड़ा जा सकेगा जो नरेंद्र मोदी नाम के व्यक्ति के साथ मिलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा पैदा कर रही है. 2019 का सबसे बड़ा संदेश शायद यही है.

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