राजनीति, अपराध और दौलत का कॉकटेल : एक नज़र लोकसभा चुनाव के उम्मीदवारों पर

राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को नामांकित क्यों करते हैं? इसका उत्तर स्पष्ट है- क्योंकि वे जीतते हैं! कोई भी बाज़ार मांग के बिना आपूर्ति करने का काम नहीं करता.

WrittenBy:सूर्यकांत सिंह
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लोकसभा चुनाव लोकतांत्रिक भारत के सबसे बड़े त्योहार के रूप में मनाया जा रहा है. अन्य सांस्कृतिक त्योहारों की भांति आम चुनाव में भी खूब तमाशे चल रहे हैं और रंगीनियां बिखेरी जा रही हैं. देश में “पहली बार मतदान करने वाले” मतदाताओं की संख्या “2012 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव” में मतदान करने वाले “कुल मतदाताओं की संख्या” से ज़्यादा हो गयी है. इन तमाशों के बीच चुनावों ने एक विकृत लय हासिल कर ली है. वास्तविक मुद्दे कभी खबरों में तो थे ही नहीं, लेकिन भाषणों से भी मुद्दे गायब हैं और ऐसा लग रहा है जैसे कमोबेश हर सीट से बस एक ही उम्मीदवार, प्रधानमंत्री मोदी, चुनाव में हैं. साल 2019 से पहले के सभी आम चुनावों के दौरान, मीडिया के माध्यम से, हमें अपने उम्मीदवारों के बारे में जानकारी मिला करती थी. टीवी और प्रिंट में उनके जीवन संबंधी विवरण लगातार आते थे. लेकिन इस बार के चुनावों में एक अलग ही प्रवृत्ति देखने को मिल रही है. मीडिया में चारों ओर चाटुकारों की फौज है, जो अपने राजनीतिक आकाओं की माया का बखान करने में लगे हुए हैं. परिणाम के दिन रुझान आने के साथ ही सरकार बनाने की कवायद शुरू हो जायेगी. तब तक अवाम भी परिणाम, शपथ ग्रहण, कैबिनेट का गठन और नये सपनों के मसालेदार रिपोर्टों में उलझ चुकी होगी और आने वाले राजनेताओं के आपराधिक इतिहास के बारे में कोई भी ज़िक्र नहीं होगा. नये सपनों में खोने से पहले क्यों न आने वाले राजनीतिक किरदारों और उनके पूर्वजों के आपराधिक इतिहास पर एक नज़र डाली जाये?

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साल 2003 में सिविल सोसायटी द्वारा दायर जनहित याचिका के जवाब में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर निर्वाचन के लिए खड़े किसी भी व्यक्ति को नामांकन में उसकी वित्तीय संपत्ति और दायित्व, शिक्षा और लंबित आपराधिक मामलों का विवरण देता हुए एक न्यायिक हलफ़नामा प्रस्तुत करना होगा. चुनावी उम्मीदवारों के बारे में एक नये स्तर की पारदर्शिता लाने की ओर यह सराहनीय कदम था और इसी आदेश की बदौलत हम आज अपने जन प्रतिनिधियों के आंकड़े देख सकते हैं.

स्मृति ईरानी की डिग्री पर उत्पन्न विवादों से यह जगज़ाहिर हो गया की कि हलफ़नामे भी कमियों से परे नहीं हैं. एफिडेविट में दी गयी जानकारी दरअसल आत्म-सूचना है जो कि उम्मीदवार खुद प्रस्तुत करते हैं. इसका एक अर्थ यह है कि हलफ़नामों की सटीकता पर सवाल उठाया जा सकता है. इसके अलावा, अपराध पर दिया जाने वाला आंकड़ा, सज़ा के बजाय वर्तमान में चल रहे मामलों को संदर्भित करता है. हम सभी जानते हैं कि भारत की न्याय प्रणाली की जटिलताओं के कारण फैसला दिये जाने में दशकों का समय लग सकता है. फिर भी, आंकड़ों को समग्र रूप से लिया जाये तो इनसे हमारे नेताओं का रेखांकन प्रस्तुत होता है. इससे जो तस्वीर उभरती है, वह भयावह है!

मौजूदा सांसदों-विधायकों में से 36% पर आपराधिक मामले

राजनीति के अपराधीकरण की एक गंभीर तस्वीर पेश करते हुए, केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया था कि:

  • कुल 4,896 सांसदों-विधायकों में से 1,765 यानी 36% सांसद और राज्य विधानसभा सदस्य आपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे हैं.
  • कुल मामलों की संख्या 3,045 है.
  • राज्यों में 13% मंत्रियों पर गंभीर आपराधिक आरोप हैं, जिनमें बलात्कार, हत्या का प्रयास, अपहरण या चुनावी उल्लंघन शामिल हैं.
  • 35% मुख्यमंत्रियों पर आपराधिक मामले हैं, जिनमें से 26 प्रतिशत सीएम ने हत्या, हत्या की कोशिश, धोखाधड़ी और बेईमानी से संपत्ति के वितरण, आपराधिक धमकी सहित अन्य गंभीर आपराधिक मामलों की घोषणा की है.
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यहां हम छोटे अपराधों के बारे में बात नहीं कर रहे. गंभीर अपराधों के अंतर्गत आने वाले अधिकांश अपराधों में पांच साल या उससे ज़्यादा की संभावित सज़ा निर्धारित की गयी हैं. और इन सांसदों पर हत्या, बलात्कार, जालसाजी, धोखाधड़ी और धोखा , नफ़रती हिंसा और कानूनी रूप से संदिग्ध सौदों को अंजाम देने जैसे आरोप हैं. पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों के उम्मीदवारों का कोई व्यवस्थित आंकड़ा या विश्लेषण उपलब्ध नहीं है, लेकिन इस बात के सबूत हैं कि स्थानीय स्तर की राजनीति भी अपराध से मुक्त नहीं.

राजनीति का अपराधीकरण समाज के बढ़ते अपराधीकरण को भी दर्शाता है. आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे लोकसभा सदस्यों, उम्मीदवारों और अपराध के आधिकारिक आंकड़ों पर किये गये विश्लेषण से हमें यह भी पता चलता है कि सांसदों/विधायकों और गैर-राजनीतिक लोगों की आपराधिक प्रवृत्तियों के अनुपात में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है. “संसद में आपराधिक मुकदमों वाले नेताओं की संख्या”, “आम जनता के बीच मौजूद आपराधिक मुकदमों वाले लोगों की संख्या” के अनुपात के मुकाबले 20 से 200 गुना तक अधिक है. आंकड़ों के हिसाब से समझें, तो गंभीर अपराधों का आरोप झेलने वालों की संख्या यदि प्रति 1000 व्यक्ति 1 है, तो सांसदों एवं उम्मीदवारों के मामले में यह प्रति 1000 व्यक्ति 200 तक हो सकती है.

बेशक, यह संभव है कि सांसदों पर लगाये गये आरोपों में से एक महत्वपूर्ण हिस्सा राजनीति से प्रेरित हो, लेकिन अगर उनमें से 10% भी वास्तविक हैं तो इसका मतलब यह है कि हमारे सांसदों में आम लोगों की तुलना में अपराधियों का अनुपात बहुत अधिक है.

राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने के संघर्ष में जागरूकता बढ़ाने के लिए कुछ सकारात्मक और साहसपूर्ण प्रयास भी हुए हैं. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक और फैसला दिया है, जिसके मुताबिक आपराधिक गतिविधियों के लिए दोषी ठहराये गये राजनेताओं को सज़ा होने पर पद से हटा दिया जायेगा. यह निश्चित रूप से वांछित निर्णय है, लेकिन यदि आम चुनाव के हलफ़नामों से मिल रहे आंकड़ों पर नज़र डालें, तो ऐसा संकेत मिलता है मानो इस प्रकार के प्रयासों से सतह पर खरोंच भी नहीं आयी है. इस बार के आम चुनावों में:

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  • 19% से अधिक (1500) उम्मीदवारों पर आपराधिक मुक़द्दमा है.
  • 13% पर गम्भीर अपराध का मुक़द्दमा है.
  • 29% से अधिक (2297) उम्मीदवार करोड़पति हैं.
  • कुल 716 महिला उम्मीदवारों में से 255 करोड़पति (36%)
  • महिला उम्मीदवारों में से 110 पर (15%) पर आपराधिक मुक़द्दमा है.
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इन मामलों में विविध प्रकार के बड़े और छोटे आरोप शामिल हैं, जिनमें शरारत से लेकर हत्या तक के बीच का लगभग सब कुछ है.

आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को टिकट

राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को नामांकित क्यों करते हैं? इसका उत्तर स्पष्ट है- क्योंकि वे जीतते हैं! कोई भी बाज़ार मांग के बिना आपूर्ति करने का काम नहीं करता. लोकसभा चुनाव 2014 के डाटा से पता चलता है:

  • बिना किसी आपराधिक मामले वाले उम्मीदवार के जीतने की संभावना मात्र 7% है.
  • कम से कम एक आपराधिक आरोप का सामना कर रहे उम्मीदवार के जीतने की संभावना 22% है.
  • 74% दागी उम्मीदवारों को दूसरा मौका मिलता है.
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सफलता की संभावना के अलावा, पार्टियों ने बाहुबल को इसलिए महत्व दिया है क्योंकि यह अक्सर धन के अतिरिक्त लाभ को भी साथ लाता है. चूंकि चुनाव की लागत बढ़ गयी है, तो सत्ताधारी पार्टी को छोड़ बाकी पार्टियों को संगठनात्मक कमज़ोरियों की वजह से धन के वैध स्रोतों को आकर्षित करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. नतीज़तन, वे ऐसे उम्मीदवारों पर दांव लगाते हैं जो पार्टी में संसाधन ला सकें और सीमित पार्टी फंड को खर्च न करें. इस प्रकार, चुनावी वित्त व्यवस्था की खामियों और पारदर्शिता की कमी के फलस्वरूप निजी निधियों की खोज तेज़ी से आगे बढ़ रही है.

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भारत में चुनाव की लागत कई कारकों जैसे जनसंख्या, प्रतिस्पर्धा और चुनाव पूर्व मतदाताओं की प्रत्याशियों से अपेक्षा की वजह से बढ़ी है. 2004 और 2009 के आंकड़ों को अगर आधार बनायें तो:

  • सबसे गरीब 20% उम्मीदवारों के संसदीय चुनाव जीतने की संभावना केवल 1% थी.
  • सबसे अमीर 20% के जीतने की संभावना 25% से अधिक रही.
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जब चुनाव अभियान में नकद आपूर्ति की बात आती है, तो आपराधिक मामलों के आरोपी उम्मीदवार एक और फायदा पहुंचाते हैं. वे दोनों तरह के वित्त (ब्लैक/व्हाइट) के तरल रूपों तक पहुंच रखते हैं और इसे पार्टी की सेवा में तैनात करने के इच्छुक भी होते हैं.

तथाकथित तौर पर “फंसाये गये” उम्मीदवारों की सफलता का दुष्प्रभाव साफ़-सुथरे रिकार्ड वाले भावी उम्मीदवारों पर भी पड़ता है. जो साफ छवि वाले नेता चुनावी मैदान में उतरने के बारे में सोच सकते थे, वे भी अपराधियों के सफल होने पर भाग खड़े होते हैं. आपराधिक मामलों वाले लोगों की सफलता की वजह से सारा समीकरण बदल जाता है. संदिग्ध रिकार्ड वाले राजनेता का कार्यालय में स्वागत होता है और “स्वच्छ” उम्मीदवार बाहर निकाल दिये जाते हैं.

आपराधिक राजनेताओं की मांग

धन इस कहानी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन अपने आप में यह अपर्याप्त है. पार्टियों के पास ऐसे अमीर उम्मीदवारों का विकल्प भी है, जिनका आपराधिक गतिविधियों से दूर-दूर तक कोई नाता न हो. इनमें क्रिकेटर से लेकर फ़िल्मी सितारे और उद्योगपति तक शामिल हो सकते हैं. लेकिन तब यह सवाल उठता है कि क्या मतदाता एक अमीर “दागी” उम्मीदवार के बजाय अमीर “स्वच्छ” विकल्प को पसंद करेंगे?

भारत में कानून का शासन कमज़ोर है और स्थानीय समुदायों के बीच सामाजिक संबंध ख़राब. जब सरकार अपने बुनियादी कार्यों को भी पूरा करने में सक्षम नहीं, वोटर एक ऐसे प्रतिनिधि की तलाश करते हैं, जो अपने समूह की सामाजिक स्थिति की रक्षा करने के लिए जो कुछ भी करना पड़े, करे! यहां उम्मीदवार अपनी आपराधिकता का उपयोग अपनी विश्वसनीयता के संकेत के रूप में करते हैं, जो उनके समर्थकों के लिए “चीजों को प्राप्त करने में” सक्षम है. यहां वोटर की मानसिकता होती है कि:

“अगर कोई मेरे घर में प्रवेश करता है और मेरी रोटी लेकर भाग जाता है तो मुझे क्या करना चाहिए? मुझे उसे थप्पड़ मार कर रोटी को छीन लेना चाहिए क्योंकि यह मेरी रोटी है, उसकी नहीं”

उम्मीदवार ऐसी अपीलों से, वोटरों को संकेत देते हैं कि वे अपने समुदाय के हितों की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, इनसे उनके आपराधिक सहयोगियों को हितों की रक्षा और सरकारी लाभ का संकेत भी मिलता है. इस तरह राजनेता अक्सर अपनी आपराधिक प्रतिष्ठा का उपयोग सम्मान के बैज के रूप में कर जाते हैं.

हमारी विधानसभाओं में बाहुबल का वर्चस्व होने के बावजूद मतदाताओं ने कई बार समझदारी और विवेक दिखाया है.

  • जहां-जहां लंबित आपराधिक आरोपों के साथ केवल एक उम्मीदवार था, मतदाताओं ने दागी उम्मीदवारों को खारिज़ कर दिया और 10 में से 8 बार स्वच्छ उम्मीदवार चुना.
  • 5 से अधिक दागी उम्मीदवारों वाले क्षेत्रों में 10 में से 3 बार स्वच्छ उम्मीदवार सफल हुए.

आम आदमी पार्टी (आप) की दिल्ली विधानसभा चुनावों में अप्रत्याशित जीत एक सकारात्मक संकेत है, जिससे “आप” ने साबित किया कि है कि एक पार्टी लंबी रैप शीट वाले उम्मीदवारों को समर्थन दिये बिना भी जीत सकती है. “आप” के उम्मीदवारों के 7% की तुलना में उस वक़्त सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के 21% और विपक्षी भारतीय जनता पार्टी के 46% उम्मीदवार आपराधिक मामलों में शामिल थे.

वैसे भी भारत का औसत वोटर चुनाव के मामले में स्वतंत्र नहीं है. वह या तो धार्मिक गुरु या ग्राम प्रधानों के चंगुल में है, जिन्हें 300 से 500 रुपये, शराब, कपड़े, भोजन या अपने कर्ज़ वापसी का समय बढ़ाये जाने के एवज में अपना वोट बेचना पड़ता है. भ्रष्टाचार को जानबूझकर सरकारी मशीनरी के सिर से पैर तक में इंजेक्ट कर दिया गया है जिससे हवलदार और ईमानदार, दोनों पीड़ित हैं. कॉरपोरेट, पॉलिटिक्स, धार्मिक गुरुओं और ब्युरोक्रेट्स नेक्सस ने आम आदमी को सांस लेने की अनुमति दी है, वही बहुत मालूम पड़ता है.

फलस्वरूप मतदाताओं के पास आज चुनने के लिए योग्य उम्मीदवारों की भारी कमी है और भारतीय चुनाव प्रणाली की “फर्स्ट-पास्ट-दी-पोस्ट सिस्टम” की वजह से उम्मीदवारों के हलफ़नामों को जानने के बावजूद उपलब्ध “शैतानों” में से ही एक को अपना नेता चुनने के लिये मतदान करना पड़ता है.

एक ओर मतदाता जहां सड़क, बिजली, स्कूल और अस्पतालों का इंतेज़ार कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सरकार गरीबी को कम करने के लिए बड़ी नीतियां बना कर, बड़ी धनराशि स्वीकृत कर लाभार्थियों की एक श्रृंखला के माध्यम से “वोट बैंक” धारकों (धार्मिक गुरु/ग्राम प्रमुख) के जेब भरने में व्यस्त है.

बेरोज़गार युवाओं को बरगला कर विश्व के कई पूर्व बाहुबलियों ने अपनी फौज तैयार की है. आज हमारे नेता भी कुछ उसी तरह धन-धर्म-धोखे से, अपनी रैलियों में इकट्ठा होने वाली भीड़ पर दांव लगा रहे हैं. एक बड़ी मतांध सेना तैयार की जा चुकी है जो सोशल मीडिया से लेकर चौराहों तक विरोधियों को चुप कराने में सक्षम है. एक ऐसी भीड़ खड़ी है, जिसके कोलाहल में महात्मा और विद्यासागर की दिवंगत आत्माओं का क्रंदन भी सुनायी नहीं देता. नाकाम सरकारों के बोझ तले दबे, क्षेत्र-धर्म-वर्ण में बंटे, राजनेताओं की भक्ति में लीन समाज में इन सब के ख़िलाफ़ किसी स्वर की उम्मीद की जा सकती है?

संदर्भ:

1.   Jérôme, Bruno & Duraisamy, P. (2017). Who wins in the indian parliament elections: Criminals, Wealthy and incumbents? Journal of Social and Economic Development.

2.      MyNeta

3.      Indpaedia

4.      Vice

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