मीडिया ने अपने माल की खपत के लिए एक डंपिंग ग्राउंड तैयार किया है. इसे मीडिया सोसायटी कहते हैं. इस मीडिया सोसायटी में आम समस्याओं से लैस जनता विस्थापित कर दी गयी है.
इंडिया टुडे, आज तक-एक्सिस पोल बार-बार दावा कर रहा है कि आठ लाख सैंपल का एग्जिट पोल है. सभी लोकसभा क्षेत्रों में किया गया है. एक क्षेत्र में कोई साढ़े बारह सौ सैंपल लिये गये हैं. क्या सोलह-सत्रह लाख वाले लोकसभा क्षेत्र में बारह सौ मतदाताओं से बात कर नतीजे बताये जा सकते हैं? मैं न तो सांख्यिकी विज्ञान का एक्सपर्ट हूं और न ज्योतिष का. कुछ क्षेत्र तो हैं ही जहां कई चैनलों के डिबेट हुए, शो हुए और रिपोर्टरों ने लोगों से बात की. अख़बार और वेबसाइट को जोड़ लें. क्या यही लोग आपस में मिलकर नतीजा बता सकते हैं?
दरअसल मैं क्यों कहता हूं कि आप न्यूज चैनल न देखें, यह जानते हुए भी कि इससे चैनलों पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा और न ही दर्शकों की संख्या में कमी आयेगी. कोशिश है कि आप चैनलों को समझें. आपके भीतर की जो जिज्ञासा है वो आपकी नहीं, आपके भीतर इन चैनलों की पैदा की हुई है. इनके बनाये दायरे से बाहर निकलना किसी साधारण दर्शक के लिए उसी तरह मुश्किल है, जिस तरह मेरे लिए गणित में प्रतिशत का सवाल हल कर लेना. भिन्न का सवाल तो भूल ही जाइये.
आज आप एंकरों और एक्सपर्ट की बातों को ग़ौर से सुनिये. आपको पता चलेगा कि जब कहने को कुछ न हो तो कैसे उसे महत्व और गंभीरता के साथ कहा जाता है. दुनिया भर में टीवी की यही समस्या है. भारत में भी. हम भी यही करेंगे और आप भी यही देखेंगे. कंटेंट यानी सामग्री के नाम पर चमक-दमक पैदा की जा रही है. वही बातें तो जो एक साल पहले से 2019 के नाम पर लाखों बार कही जा चुकी हैं, आज से लेकर सरकार बनने तक दोहरायी जायेंगी. कुछ भी कहने के लिए न हो तब भी कहना न्यूज़ चैनलों का व्याकरण है.
न्यूज़ चैनलों ने अपनी इस कमी को ख़ूबी में बदल दिया है. एक ऐसी परंपरा क़ायम कर चुका है कि उसके दायरे से बाहर निकलना मुश्किल है. एंकर और विश्लेषक प्रासंगिक बनने की लड़ाई लड़ रहे हैं. बल्कि इसे प्रासंगिक बनाने के लिए अच्छा बोलने वाले या बोलते रहने वाले एक्सपर्ट लाये जाते हैं. ताकि आपको यह न लगे कि आप फ़ालतू में वक़्त बर्बाद कर रहे हैं.
यही दुनिया और दस्तूर है. कहीं से कुछ भी बोला जा रहा है. बार-बार ट्विट हो रहा है कि देश भर के सात लाख सैंपल हैं. मगर हैं एक लोकसभा में तेरह सौ भी नहीं. मैं यह नहीं कह रहा कि सिर्फ़ किसी एक चैनल का बोगस है बल्कि सबका बोगस है. किसी के पास कोई फ़ार्मूला नहीं है कि चुनाव की जानकारी को नये तरीक़े के साथ पेश किया जा सके. तो जो आप देख रहे हैं, सुन रहे हैं, ज़रा-सा दिमाग़ पर ज़ोर डालेंगे तो याद आ जायेगा कि पहले भी देख चुके हैं. पहले भी सुन चुके हैं.
मीडिया ने अपने माल की खपत के लिए एक डंपिंग ग्राउंड तैयार किया है. इसे मीडिया सोसायटी कहते हैं. इस मीडिया सोसायटी में आम समस्याओं से लैस जनता विस्थापित कर दी गयी है. उसकी जगह चैनलों के ड्रिल से तैयार दर्शकों को जनता घोषित कर दिया गया है. इस मीडिया सोसायटी में एंकर और दर्शक एक-दूसरे की भाषा बोलते हैं. आपको तब तक यह सामान्य लगता है जब तक आपका सामना किसी समस्या से नहीं होता. और तब आपको समझ आता है कि मीडिया मूल मुद्दा नहीं दिखाता. आप ही जब मूल मुद्दा नहीं देख रहे थे या जो देखने के लिए मजबूर किये गये, वह मूल मुद्दा नहीं था तो फिर दोष किसे देंगे. दरअसल आपको दोष मुझे देना चाहिए कि मैंने कहा कि न्यूज़ चैनल न देखें. मैं अपनी बात पर अब भी क़ायम हूं. न्यूज़ चैनल (सभी) भारत के लोकतंत्र को बर्बाद कर चुके हैं.
चैनलों ने आपके भीतर की लोकतांत्रिकता को समाप्त कर दिया है. सैकड़ों चैनल हैं मगर सूचना की विविधता नहीं है. यह कैसे संभव है? यह संभव हो चुका है. आप उस गिद्ध में बदल दिये गये हैं जहां असहमति मांस के टुकड़े की तरह नज़र आती है, सूचना मरी हुई लाश की तरह नज़र आती है. आप चाहें तो टीवी देखिये, फिर भी मैं कहूंगा कि चैनल न देखने का भारत में सत्याग्रह चले. हो सके तो कीजिये वरना मत कहियेगा किसी टीवी वाले ने ये बात न कही.