एक पटकथा और जलने का अभिनय करते दो दीपक

दो दिनों के अंतराल में दीपक चौरसिया के दो इंटरव्यू (नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी) पत्रकारीय विद्रूपता की मिसाल हैं.

WrittenBy:अनिल यादव
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‘न्यूज़ नेशन’ के उस साक्षात्कार को क्या कहा जा सकता है? नकल उतारने की साधना करने वाले भांड़-मिरासी ऐसे रचनात्मक और मौलिक कलाकार हुआ करते थे, जिन्होंने कभी आजीविका देने वालों को अपने हास्यपूर्ण अभिनय से रिझाने के अलावा किसी चीज़ का दावा नहीं किया. इसे सत्य के दावों और सत्य के उपभोक्ताओं के बीच की दलाली भी नहीं कह सकते. ऐसे कमीशनयेजेंट परस्पर सहयोग से लाभ पाने वाले दो पक्षों के बीच व्यावहारिकता का लचीला पुल बनाते हैं लेकिन काम करा देने की अपनी विश्वसनीयता का सौदा कभी नहीं करते. इसे वेश्याओं को कम करके आंकने वाले मोदी सरकार के एक मंत्री की शब्दावली में ‘प्रेस्टिट्यूशन’ भी नहीं कह सकते. कभी कोई वेश्या ऐसा नहीं करती कि सेक्स का वादा करे और अपने बदले पत्थर या प्लास्टिक के पुतले को ग्राहक के आगे कर दे.

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यह कुछ और केमिस्ट्री है जिसमें एक प्रधानमंत्री पांच साल तक प्रेस से बचते हुए उसके रीढ़विहीन होकर अपने अनुकूल हो जाने का इंतज़ार करते हैं. नरम होने से आगे बढ़कर व्यापारिक सहयोग करने की प्रक्रिया में नये करेंसी नोटों में चिप लगाता, गाय के मुंह से आक्सीजन निकालता, चमत्कारी व्यक्तित्व के नये झंडे सिलता न्यूज़ मीडिया जब पिछलग्गू हो जाता है, प्रधानमंत्री अचानक पूर्वनिर्धारित पटकथा के अनुसार चलते साक्षात्कार के बीच में मीडिया को विपक्ष का पक्षकार, टीआरपीखोर, डरपोक और अपने कर्तव्य से भागने के लिए ललकारने लगते हैं. पत्रकार मिमियाता है और दर्शकों के आगे ‘जैसी करनी-वैसी भरनी’ का कैलेंडर फड़फड़ाने लगता है, जिसमें हर पाप की अलग सज़ा के रंगीन चित्र बने हुए हैं.

इस साक्षात्कार की व्यूहरचना कुछ इस तरह से की गयी है कि जब मक्खन लेपने की फूहड़ता अरुचि पैदा करने लगे, तो साहेब कह सकें- “मोदी को अख़बार के पन्नों और टीवी की स्क्रीन ने नहीं बनाया. वह पैंतीस साल की तपस्या से बना है.” साहेब चाहे वह अमित शाह के हों, किसी चापलूस क्लर्क के हों या निर्गुनिया कबीरदास के, हमेशा दूर की सोचते हैं. अदृश्य को देखते हैं. हर माध्यम को अपना संदेश देने के जुगाड़ से ज़्यादा कुछ नहीं समझते.

अगर कोई अब भी प्रधानमंत्री से साक्षात्कार को दो दिमागों की मुठभेड़ मानता है जिसके बीच सच अनायास उछल पड़ता है तो वह नादान है या ढोंगी है. अब सत्ता के प्रतीक पुरुष से साक्षात्कार को रंगकर्म या थिएटर में बदला जा चुका है. यहां भी पहले से लिखी पटकथा थी जिसे दोनों तरफ के अभिनेताओं को दर्शकों की नजर में विश्वसनीय बनाना था. जितनी भी थोड़ी बहुत पत्रकारिता हो पायी, वह टीवी चैनल के उस बेचारे टेलीफोन ऑपरेटर ने की थी जिसने हफ्तों पीएमओ को फोन लगाया होगा. जिससे रोज़ पूछा जाता था- ‘क्या हुआ, अप्वाइंटमेंट मिला!’ क्या पता इसकी भी नौबत न आने पायी हो. सत्ता को नये मेकअप की ज़रुरत थी सो बुला लिया.

दीपक चौरसिया (दीपक सिर्फ एक सैंपल हैं. उनकी जगह कोई अन्य भी हो सकता था) ने हाथ में नया कलावा लपेटकर और बंद गले के कोट में लाल रुमाल खोंस कर एक धर्मभीरु-कॉरपोरेट पत्रकार का भेष तो धरा, लेकिन गर्दन प्राइमरी के छात्र की तरह हिलाने लगा. यह बुनियादी चूक थी. प्रधानमंत्री के स्वमहिमा-संवादों की हवा से रह-रह कर असहाय गुब्बारे की तरह फूलना थिएटर के लिहाज़ से गलत देहभाषा थी. लेकिन यह दिलफरेब पटकथा लिखी किसी भीषण कलाकार ने थी, यह सवालों के सिलसिले से पता चलता है.

पत्रकार ने इतने सवालों के बीच सिर्फ एक ही सवाल के पहले पुछल्ला लगाया, देश जानना चाहता है (नेशन वांट्स टू नो!). वह सवाल था- क्या आप अपनी जेब में पर्स रखते हैं?

प्रधानमंत्री की आश्चर्य से फैलती आंखों में बनती जगह में उसने अपने शब्द रखे, जी हां, बटुआ! जिसमें रुपये रखते हैं. यह दूसरे सवाल को जाती पगडंडी थी- क्या आपने कभी अपने पैसे से विलासिता की कोई चीज़ खरीदी है? जवाब आया कोई साधना के लिए हिमालय जाने को विलासिता समझता है तो समझे. धांसू लाइन थी. लेकिन उससे क्या होता है, यह सब पटकथा लेखक के असली सरोकार की भूमिका भर थे. विडंबना में डूबा असली विचार था कि ऐसा संतमना आदमी जिसका बैंक खाता पहली बार गुजरात में एमएलए बनने के बाद खुला, जो पैसे को हाथ का मैल समझता है, उस पर जब राहुल गांधी तीस हजार करोड़ के भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं तो भला उसे कैसा महसूस होता होगा? यह उस सादगी का ‘पत्रकारीय अभिनंदन’ था, जिस पर सवाल उठाना गुनाह है. अगर उठ ही गया तो यह उससे होने वाली पीड़ा के आकलन का प्रोफेशनल प्रयास था.

साथ गयी पत्रकार पीनाज त्यागी का जिम्मा माहौल को नारीसुलभ मानवीयता देना था. इसी कारण उनके हिस्से प्रधानमंत्री के सिर्फ तीन घंटे सोने की बहुश्रुत कथा से निकला, पटकथा का एक बहुत मानीखेज़ सवाल आया- बालाकोट स्ट्राइक की रात आप सोये थे क्या? बात मिशन पर गये जवानों की चिंता में न आने वाली नींद पर ख़त्म हो सकती थी, लेकिन जवाब की शुरुआत हुई, मेरी कार्यशैली विशिष्ट है और प्रसंगवश ख़राब मौसम में बादलों के पीछे लड़ाकू जहाजों को छिपाकर पाकिस्तानी रडार को चकमा देने का रॉ-विज़डम सामने आया.

लंबे साक्षात्कार-मंचन के आखिरी छोर पर दीपक चौरसिया के माध्यम से जनता एक बार फिर प्रकट होती है और प्रधानमंत्री से जानना चाहती है कि आप इलेक्ट्रानिक गैजेट के शौकीन कैसे बने? इसके जवाब में 87-88 में डिजिटल कैमरे से मोदी द्वारा गुजरात के बीरमगांव तहसील की सभा में खींची और ई-मेल से दिल्ली भेजकर छपवायी गयी आडवाणी की चकित कर देने वाली रंगीन फोटो का ज़िक्र आता है. यह अमेरिका में ई-मेल के साथ पहला अटैचमेंट भेजने की ऐतिहासिक घटना से भी पहले की बात है लेकिन पत्रकार ‘विज्ञान प्रगति’ पढ़कर चैनल में नहीं आया है. आया भी हो तो उसका काम अभिनय करना है तर्क नहीं.

यहां संदेह होता है कि यह पटकथा लेखक तथ्यों से लापरवाह होकर ऐसा जोखिम क्यों ले रहा है, जो प्रधानमंत्री को मनोरंजक बना देगा. कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह जानता है कि फिर मौका नहीं मिलने वाला. वह एक सच्चे कलाकार की तरह चुनाव के आखिरी चरण में जनता के दिमाग को प्रभावित करने की अपनी धुंआधार शैली में आर या पार खेल रहा है. जो भी हो उसे प्रधानमंत्री की छवि से अधिक अपनी कल्पना के पंखों की चिंता है. वह इतिहास में घुसकर तथ्यों की ऐसी-तैसी करते हुए प्रधानमंत्री से जब चाहे तब ई-मेल करा सकता है, सेनापतियों को बादलों में छिपकर रडार को चकमा देने की सलाह दिला सकता है.

जनता की ही ओर से पूछे गये अगले दो सवालों से खुलासा होता है कि नाटक की क्षमता पर गर्व करने वाला पटकथा लेखक, जनता की स्मृति को तुच्छ समझता है और अपने दो अभिनेताओं की मदद से स्मृति की स्लेट साफ कर कुछ नया लिख रहा है. वह किंवदंती बन चुकी दुर्लभ काजू की रोटी-मशरूम की सब्जी की जगह मूंग की दाल और फाफड़ा उर्फ सूखी रोटी लिखता है. मां की मदद करने की इच्छा को वह रोटी बेलने में बदल देता है. वह कुछ भी पहन कर चल देने वाले, साबुन की बट्टी बचाने के लिए कुर्ते की बांह काट देने वाले प्रधानमंत्री के सूरत में नीलाम हुए बारह लाख के सूट पर चिपके वे सोने के तार नोंच रहा है, जिनमें उनका नाम छिपा हुआ है.

इसी बीच उस उत्पाती कविता का ज़िक्र आता है जो पटकथा लेखक का भेद खोल देती है. पत्रकार प्रधानमंत्री से हैंडराइटिंग दिखाने के लिए कहता है. वे दिखाते हैं. फोटो में कविता के ऊपर पटकथा लेखक द्वारा सही जगह टांका गया वह सवाल भी दिख जाता है, जिसके जवाब में कविता में हुए सूर्योदय को 23 मई के बाद बनने वाली नयी सरकार की दोपहर में घसीटा जाना है.

प्रधानमंत्री की इच्छा के अनुसार, पत्रकार अगले दिन इस कविता पर कविसम्मेलन आयोजित करने और उसके वीडियो का लिंक भेजने का वादा करता है. क्या शानदार आत्मविश्वास का अभिनय है! लगने लगता है कि कई ऐसे प्रतिभाशाली कवि उसकी मुट्ठी में हैं, जो आज की रात इस कविता के आधार पर अपनी गर्दा-काट कविताएं लिखेंगे और कल टीवी चैनल के स्टूडियो में जोत से जोत जलाने का काम करेंगे. ऐसा हुआ होगा तो गज़ब हुआ होगा. कवि सम्मेलन बहुत से कारणों से होते हैं, लेकिन ‘एक कविता’ की छांव में बैठकर थोक के भाव कविताएं लिखने की प्रतियोगिता के रूप में आज तक एक भी नहीं हुआ.

दो दिन बाद वही पत्रकार विपक्ष के नेता राहुल गांधी का इंटरव्यू लेने पहुंचता है. आज कोई पटकथा नहीं है. आज वह उस दिन जितना औपचारिक भी नहीं है, कुर्ता पहन कर छुट्टी के मूड में घूम रहे राजनीतिक समझ वाले पत्रकार का अभिनय कर रहा है. राहुल गांधी उसे बोलने का मौका नहीं देना चाहते. सहयोगी पत्रकार को उसके सवाल के लिए जगह बनानी पड़ती है. जगह बनते ही प्रधानमंत्री से साक्षात्कार की पटकथा का अदृश्य लेखक बीच में आ खड़ा होता है. राहुल, दीपक चौरसिया से पूछते हैं, उस पटकथा लेखक के मुकाबले उसकी जगह कहां है? यह क्या, दो दिन पहले प्रधानमंत्री के समर्थन में जिस पप्पू के वीडियो गेम के चस्के पर पूरक ठहाका लगाया था, उसने तो सरेबाज़ार बेपर्दा कर दिया.

तो इन दिनों पत्रकार होने से ज़्यादा पत्रकार नज़र आना ज़रूरी हो गया है. वस्तुतः बिना पत्रकार का अभिनय किये पत्रकारिता का तियां-पांचा नहीं किया जा सकता है. खासतौर से उस नयी चीज़ को तो समझा ही नहीं जा सकता जो न दलाली है, न प्रेस्टिट्यूशन. वह ‘और ही चीज़ है’ जो पत्रकारिता की जगह ले रही है.

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