‘विद्यासागर की मूर्ति पर हमला हमारी प्रगतिशील चेतना पर हमला है’

आधुनिक बांग्ला समाज ही नहीं, बल्कि अग्रगामी भारतीय समाज भी इस साजिश को कभी स्वीकार नहीं करेगा.

WrittenBy:सुजाता
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हम बचपन में ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम राजा राममोहन राय के साथ सुनते थे, जब पढ़ते थे कि उन्होंने कैसे 1856 में विधवा पुनर्विवाह के लिए कानून पास करवाया. लेकिन बड़े होते-होते अंतर्विषयी अध्ययन करते हैं कुछ लोग, कुछ नये संदर्भों में इतिहास का पुनरावलोकन करते हैं, कुछ विद्वान वर्तमान की समस्याओं के लिए इतिहास को रीविज़िट करते हैं, और कुछ मूर्ख व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए इतिहास को ही नष्ट करने निकलते हैं.

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बंगाल में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो के दौरान बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं व विद्यार्थियों के बीच हुई हिंसक झड़प में ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति का तोड़ा जाना हम सबके लिए शर्मिंदगी की वजह बन गया है. नफ़रत और विभाजन की नीति के पांच सालों में शर्मिंदगियों का सिलसिला अटूट रहा है. कोलकाता अपनी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक विरासत पर गर्व करने वाला समाज है और ईश्वरचंद्र विद्यासागर बंगाली अस्मिता और पुनर्जागरण के प्रतीक पुरुष हैं. उनका मूर्ति भंजन और उस दौरान “विद्यासागरेर शेष दिन” यानी विद्यासागर के दिन बीत गये के नारे लगना, दरअसल उत्तर भारतीय सवर्ण पुरुषों के मनुस्मृति केंद्रित उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद का बंगाली नवजागरण की कोख से उपजे आधुनिक बांग्ला राष्ट्रवाद और इस रूप में देश की प्रगतिशील परंपरा पर हमला है. यह पूरे देश को एक प्रतिक्रियावादी रंग में रंगने की और पिछली सदियों के समाजसुधारों से निर्मित भारतीय आधुनिकता को नष्ट करने की उसी कोशिश का हिस्सा है, जिसके तहत कभी गांधी का मूर्तिभंजन किया जाता है, कभी अंबेडकर और कभी नेहरू के ख़िलाफ़ कुत्सा अभियान चलाया जाता है.

(सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे इस वीडियो को घटनास्थल का वीडियो बताया जा रहा है, जिसमें कुछ लोग मूर्ति तोड़ते नज़र आ रहे हैं. लेकिन न्यूज़लॉन्ड्री इस वीडियो की पुष्टि नहीं करता है) 

दुखद है कि इस हिंसा में शामिल तत्त्वों की इस सबके प्रति कोई संवेदनशीलता और जवाबदेही अब तक तय नहीं की गयी. यह प्रकरण इसलिए भी और दुखद है कि भाजपा और तृणमूल कांग्रेस लगभग एक तर्ज़ पर ध्रुवीकरण की कोशिश कर रहे हैं.

हमारे लिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर का मूर्ति-भंजन इस ध्रुवीकरण की राजनीति से कहीं अलग है, लेकिन अ-राजनीतिक नहीं है. याद करना चाहिए कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक समाज-सुधारक, शिक्षा-सुधारक, भाषा-विद्वान और विज़नरी के रूप में जाने जाते हैं. 1850 के आस-पास जब सामाजिक-धार्मिक सुधार गतिविधियों में तेज़ी आयी, तो साथ ही इनके खिलाफ़ रूढ़िवादी हिंदुओं की प्रतिक्रिया में भी तेज़ी आयी. इसकी एक बड़ी वजह अंग्रेजों का इन सुधारों को मिलने वाला समर्थन था. लेकिन प्रतिक्रियावादी ताक़तों को नज़रंदाज़ करते हुए ईश्वरचंद्र ने विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए अभियान चलाया और एक पुस्तिका लिखकर विधवा विवाह को शास्त्र-सम्मत सिद्ध किया. हिंदू पंडितों के साथ शास्त्रार्थ भी किया. स्थानीय स्तर पर यह अभियान लोकप्रिय होता गया. कहा जाता है कि इस अभियान और नेता की प्रशंसा में गीत भी गाये जाने लगे, जिन्हें शांतिपुर के जुलाहों ने अपने सांचों में तैयार होने वाले कपड़ों पर इन्हें बुन दिया.

यह भी याद करना चाहिए कि इसी समय स्त्री-शिक्षा और समाज-सुधार के कामों में लगे फुले-दंपत्ति अपेक्षाकृत अधिक विरोध पुणे में झेल रहे थे. 1855 में विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह के लिए एक याचिका भारत के गवर्नर-जनरल को दी और विधवा विवाह पर लगा प्रतिबंध हटाने की मांग की. इसमें कहा गया था कि ब्राह्मणों की मान्यताओं को सभी हिंदुओं पर लागू नहीं किया जा सकता. 1856 में अंतत: कानून बनाकर हिंदू विधवाओं के विवाह की सभी कानूनी बाधाएं हटा दी गयीं. स्वयं विद्यासागर ने अपने बेटे का विवाह भी एक विधवा से किया. यह काम और स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में जो अन्य काम विद्यासागर ने किये, उनकी वजह से वे मनुवादियों की आंख की किरकिरी रहे होंगे, इसमें कोई आश्चर्य नहीं.

वे चाहते थे कि स्त्रियों को निरक्षरता और अज्ञानता के कुंड से निकालने के लिए उन्हें ‘धर्मनिरपेक्षता’ के सिद्धांत पर शिक्षित करने की ज़रूरत है, क्योंकि हिंदुत्व और इस्लाम दोनों ही स्त्रियों की अवनति के लिए जिम्मेदार थे. 1838 में कोलकाता में स्थापित स्टूडेंट सोसायटी के वे भी एक सदस्य थे. बाद में लड़कियों के लिए उन्होंने कई स्कूल खोले.

आधुनिक बंगाली गद्य विद्यासागर का हमेशा ऋणी रहेगा. भाषा को पांडित्यपूर्ण आतंक से निकाल कर उन्होंने सहज रूप देने की कोशिश की. पुराने तरीकों के हिमायती लेखकों (जैसे चंडीचरण बंधोपाध्याय) ने उनकी भाषा को बहुत नापसंद किया. विराम-चिह्नों और वाक्य-विन्यास का मानकीकरण, आधुनिक अवधारणाओं के वाहक शब्दों का सावधानीपूर्वक चयन और संयोजन जैसे अनेक छोटे और महत्वपूर्ण काम उन्होंने किये, जिसके लिए रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा कि यह उनका अकेला सबसे बड़ा योगदान था. विदेशी शिक्षा से उन्होंने अपने समाज के लिए महज़ प्रेरणा ली. एक आलोचनात्मक रवैये की वजह से अंग्रेजी से उन्हें पाश्चात्य- समर्थन की नहीं, अपनी भाषा के सुधार के लिए मदद मिली.

1820 में पश्चिम बंगाल में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में जन्मे ईश्वरचंद्र स्वयं ब्राह्मणवाद के आलोचक रहे. 1941 में कानूनी शिक्षा पास करके संस्कृत कॉलेज के हेड हो गये और अपने मानवतावादी विचारों और जीवन दर्शन के लिए प्रसिद्ध हो गये. संस्कृत- कॉलेज के द्वार उन्होंने सभी के लिए खोल दिये, क्योंकि वे मानते थे कि शिक्षा पर सभी का अधिकार है, जेंडर और जाति के भेद-भाव के बिना. संस्कृत कॉलेज में नियुक्ति के लिए उन्होंने ब्राह्मण होने की शर्त को भी समाप्त करवाया. अपने आलोचनात्मक विवेक और संवेदनशीलता से उन्होंने अपने समय और समाज में ज़रूरी हस्तक्षेप किया और दिशा दी. यह कम उल्लेखनीय बात नहीं कि एक व्यक्ति जो स्वयं साहित्यकार था, जिसने ‘सीतार बनोबास’ (सीता का वनवास) जैसी, रामायण को सीता के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करती, कृति लिखी, उसने अपनी साहित्यिक-प्रतिभा को एक तरफ रखकर अपने समय के दबावों के आगे सहर्ष संघर्षपूर्ण जीवन को अपनाया.

स्त्री-सशक्तीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण-आरंभिक काम करने वालों में ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम अविस्मरणीय रहेगा. भले ही आज फिर से बलवती होती ब्राह्मणवादी-हिंदुत्ववादी ताक़तें ऐसे नायकों की मूर्तियों का भंजन करें, लेकिन न केवल आधुनिक बांग्ला समाज बल्कि अग्रगामी भारतीय समाज भी इस साजिश को कभी स्वीकार नहीं करेगा. इतिहास से खिलवाड़ किसी भी क़ौम को हमेशा महंगा पड़ता है, और आज जब प्रतिक्रियावादी ताक़तें इसकी कोशिश कर रही हैं, तो प्रगतिशील ताक़तों को इनके ख़िलाफ़ खुलकर आना होगा.

(सुजाता दिल्ली विवि में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं और स्त्री विमर्श पर चर्चित किताब ‘स्त्री निर्मिति’ की लेखक हैं, साथ ही कवि भी)

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