भारतीय राजनीति में ये दो चुनाव मंडल कमीशन और राममंदिर मुद्दे के लिए याद किये जायेंगे
पिछले लेख में हमने पढ़ा कि कैसे राजीव गांधी को उनकी मां, इंदिरा गांधी की हत्या से उत्पन्न सहानुभूति की लहर का फ़ायदा मिला और वो अप्रत्याशित जीत लेकर संसद में पंहुचे. पर राजीव गांधी के पास राजनैतिक अनुभव नहीं था, न ही उनका नेहरु जैसा करिश्माई व्यक्तित्व था और न ही इंदिरा गांधी जैसी आक्रामकता और अपील थी, फिर उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे घपले हो गये जिसने सरकार और उनकी निजी छवि पर दाग़ लगा दिये.
बतौर प्रधानमंत्री उनका रिपोर्ट कार्ड औसत ही कहा जा सकता है. उनके कार्यकाल में बोफ़ोर्स और फेयरफ़ेक्स घोटाले उछले, जिनकी वजह से कांग्रेस 1989 में हार गयी. कांग्रेस पार्टी की अवनति भी इनके कार्यकाल में ही शुरू हुई थी और यहीं से क्षेत्रीय पार्टियों का लोकसभा के आमचुनावों में प्रभुत्व हमेशा के लिए बढ़ गया था.
1989 के आम चुनाव परिस्तिथियां और गठबंधन
राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में विश्वनाथ प्रताप सिंह वित्त मंत्री थे. वो कुछ समाजवाद प्रवत्ति के इंसान थे, जिन्हें कॉर्पोरेट जगत से बैर तो नहीं था, लेकिन प्रेम हो ऐसा नहीं कहा जा सकता. उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज जैसे बड़े घरानों पर टैक्स की चोरी संबंधित मामलों में छापे डलवाये. इसी दौरान रिलायंस इंडस्ट्रीज और बॉम्बे डाईंग के बीच जंग छिड़ गयी, जिसमें रिलायंस समूह पर बॉम्बे डाईंग के नुस्ली वाडिया की हत्या का आरोप लगा. जिससे कॉर्पोरेट जगत में भूचाल आ आ गया. राजीव इन दिनों अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू कर चुके थे. इन घटनाओं की वजह से कॉर्पोरेट दुनिया के मठाधीशों ने उनकी किरकिरी की जिससे विचलित होकर उन्होंने वी वी सिंह से वित्त मंत्रालय लेकर रक्षा मंत्रालय का भार दिया और खटपट के चलते उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया. बाहर आकर, वीपी सिंह ने खुल्लमखुल्ला राजीव गांधी पर बोफ़ोर्स तोप की ख़रीद में धांधली का आरोप लगाया, जिससे राजीव की दिक्कतें बढ़ गयीं.
इसके पहले, महेंद्र सिंह टिकैत ने किसान महापंचायत करके सरकार को घुटनों पर ला दिया था. फिर सरकार ने श्रीलंका में भारत से शांति सेना भेजने के नाम पर लिट्टे ग्रुप का सफ़ाया करने का ऑपरेशन छेड़ दिया, जिसकी वजह से तमिल वर्ग नाराज़ हो गया.
इन सब बातों से कांग्रेस की मिट्टी-पलीत हुई और कोढ़ में खाज का काम किया मानहानि बिल ने, जो मीडिया पर लगाम कसने के लिए लाया गया था. हालांकि, सरकार को इसे वापस लेना पड़ा था पर तब तक नुकसान हो चुका था. शाहबानो के मामले में राजीव गांधी की बड़ी फ़जीती हुई थी और उससे बचने के लिए उन्होंने बाबरी मस्जिद में हिंदुओं को पूजा करने का अधिकार देकर भारतीय समाज में बढ़ रहे ध्रुवीकरण की रफ़्तार को तेज़ कर दिया.
इसी दौरान वीपी सिंह ने जन मोर्चा की स्थापना की. 11 अक्टूबर, 1988 को उन्होंने जनता पार्टी, जन मोर्चा, लोक दल और कांग्रेस (एस) को मिलाकर जनता दल बनाया. बाद में उन्होंने जनता दल, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके), तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) और असम गण परिषद् के साथ मिलकर यूनाइटेड फ्रंट का गठन किया. देखा जाये तो 1989 का चुनाव कांग्रेस, यूनाइटेड फ़्रंट और बीजेपी के होने की वजह से त्रिकोणीय हो गया था. इसके चलते राष्ट्रीय परिदृश्य पर कई क्षेत्रीय राजनैतिक दल उभर कर आये.
बोफ़ोर्स घोटाले मुद्दे पर वीपी सिंह ने राजीव को घेरकर अपने पक्ष में हवा बांध ली. जनता राजीव को ‘मिस्टर क्लीन’ कहती थी, अब उसने ये ताज वीपी सिंह के सर पहना दिया.
1989 के चुनावी आंकड़े
चुनावों में कांग्रेस की ज़बर्दस्त हार हुई. उसे केवल 197 सीटें ही मिलीं. वहीं वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल ने 143 सीटें जीतीं. यूनाइटेड फ्रंट की बाकी पार्टियों ने कुछ कमाल नहीं किया पर हां, भारतीय जनता पार्टी को 85 सीटें मिलीं. कांग्रेस का वोट प्रतिशत 39.5%, वहीं यूनाइटेड फ्रंट का लगभग 24% रहा और भाजपा का वोट प्रतिशत था 11.4%.
वीपी सिंह की सरकार
कांग्रेस दूसरी बार विपक्ष में बैठी. भाजपा का ये अब तक का सबसे बढ़िया प्रदर्शन था. भाजपा ने बाहर से रहकर यूनाइटेड फ्रंट को समर्थन दिया और वीपी सिंह ने संसद में देवी लाल का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया, जिसे उन्होंने बड़े नाटकीय ढंग से मना करते हुए वीपी सिंह का नाम पेश किया. वीपी देश के सातवें प्रधानमंत्री बने और देवी लाल देश के दूसरे उपप्रधानमंत्री बने.
यूनाइटेड फ्रंट की सरकार
वीपी सिंह उम्मीदों की लहरों पर सवार होकर प्रधानमंत्री बने थे. जनता को आस थी कि बोफ़ोर्स और अन्य घोटाले करने वालों के नाम सार्वजनिक किये जायेंगे. उन्होंने जांच आयोग बिठाये पर नतीजा कुछ नहीं निकला. वीपी सिंह सरकार का कार्यकाल कुछ विशेष नहीं कहा जा सकता. आर्थिक स्तर पर कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हुए. हां, वीपी सिंह ने कॉरपोरेट और राजनैतिक सांठगांठ पर ज़बरदस्त प्रहार किया था. रिलायंस इंडस्ट्रीज के दफ़्तरों में रातों-रात छापे डाले गये थे. उधर, कश्मीर में मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी का दिनदहाड़े अपहरण हो गया था, उसके एवज़ में कुछ आतंकवादियों को रिहा करने के फ़ैसले से सरकार की बहुत किरकिरी हुई थी.
साल 1990 देश के इतिहास में ‘वाटरशेड इयर’ था. वीपी कुछ ख़ास नहीं कर पा रहे थे. सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए उन्होंने मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को लागू कर देश में हड़कंप मचा दिया. सवर्ण छात्रों ने देश में आंदोलन छेड़ दिया और एकबारगी तो ऐसा लगा कि फ्रांस की तरह यहां भी छात्र क्रांति का बयाज़ बनेंगे. देश झुलस गया पर वीपी ने अपना निर्णय वापस नहीं लिया. मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया जहां सरकार के निर्णय को संवैधानिक मोहर मिल गयी और देश में आरक्षण लागू हो गया.
उधर भाजपा ने राम मंदिर के मुद्दे पर देश में आंदोलन छेड़ दिया. 25 सितंबर, 1990 को लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की रथयात्रा शुरू की. उन्हें छह हफ़्ते बाद अयोध्या पहुंचना था. जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ी, सांप्रदायिक तनाव भी बढ़ता गया. आडवाणी के साथ विश्व हिंदू परिषद और अन्य हिंदू संगठनों के समर्थक थे. शहर-दर-शहर राम मंदिर के निर्माण का आह्वान करते हुए नारे गूंजने लगे. रथ यात्रा के बिहार पहुंचते ही मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने इसे रोक लिया और आडवानी को गिरफ़्तार कर लिया. भाजपा यही चाह रही थी, उसने लोकसभा में सरकार को घेरते हुए कहा कि भाजपा ने कहा कि यूनाइटेड फ्रंट ने सरकार में रहने का नैतिक अधिकार खो दिया है. भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया और वहीं यूनाइटेड फ्रंट के चंद्रशेखर भी अपने 64 समर्थकों के साथ पार्टी से अलग हो गये. वीपी सिंह सरकार अल्पमत में आ गयी, उन्होंने 7 नवम्बर, 1990 को इस्तीफ़ा दे दिया.
चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने
चूंकि कांग्रेस के पास 197 सीटें थीं, राष्ट्रपति आर वेंकटरमन ने राजीव गांधी को सरकार बनाने का न्यौता दिया, पर उन्होंने मुकम्मल सीट न होने की बात कहकर मना कर दिया. यहां चंद्रशेखर की एंट्री होती है. महान जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव और राम मनोहर लोहिया जैसे दिग्गज समाजवादियों की सरपरस्ती में अपना राजनैतिक जीवन शुरू किया. बाद में मौका ताड़कर वो कांग्रेस में शामिल हो गये. आपातकाल के मुद्दे पर फिर समाजवादी पार्टी के साथ हो लिए. जब उन्होंने वीपी सिंह की हवा देखी, वो उनके साथ हो लिए थे और अब राम मंदिर मुद्दे पर मौका ताड़ते हुए, वीपी सिंह के विरोध में आ गये.
उन्होंने आनन-फ़ानन में राजीव गांधी से मुलाकात कर कांग्रेस से समर्थन लेकर सरकार बना ली और इस प्रकार वो देश के आठवें प्रधानमंत्री बने. उनकी सरकार कांग्रेस की मेहरबानी पर थी, जिसके चलते आये दिन खींचातानी होती. उन दिनों अमेरिका ने खाड़ी युद्ध छेड़ रखा था. कांग्रेस की नाराज़गी के बावजूद चंद्रशेखर सरकार ने अमेरिकी की लड़ाकू जहाजों को भारत में तेल भरने की इजाज़त दी थी.
फिर एक दिन राजीव गांधी के आवास के बाहर हरियाणा पुलिस के दो कांस्टेबल सादा कपड़ों में पकड़े गये. इस पर कांग्रेस ने कोहराम मचाते हुए सरकार से समर्थन वापस ले लिया. सरकार गिर गयी. राष्ट्रपति के पास दोबारा चुनाव कराने के अलावा कोई चारा नहीं था. दरअसल, राजीव गांधी ने भी मौकापरस्त होते चंद्रशेखर की सरकार गिराकर इतिहास दोहराया था. इंदिरा गांधी ने भी चौधरी चरण सिंह की सरकार किसी छोटी-सी बात पर गिरा दी थी.
1991 का चुनाव
ये चुनाव दिलचस्प होने वाला था, क्योंकि किसी भी पार्टी के पक्ष में लहर नहीं थी. दूसरी पार्टियां कांग्रेस पर बोफ़ोर्स के गोले दागती थीं, कांग्रेस भाजपा को मंदिर मुद्दे पर सांप्रदायिकता फैलाने का इलज़ाम लगाती. कांग्रेस आर्थिक सुधार लागू करने और देशव्यापी पार्टी होने की बात कहती, जो एकता और स्थायित्व देने में सक्षम थी. चंद्रशेखर 7 महीने के कार्यकाल में एक भी घोटाला न होने और साफ़-सुथरे प्रशासन की बात करते. भाजपा राममंदिर पर हिंदुओं को इकट्ठा करने का प्रयास कर रही थी. वहीं, जनता दल पार्टी मंडल कमीशन लागू करने का सेहरा अपने सर बांधते हुए पिछड़े और दलितों की खैरख्वाह होने का दावा कर रही था.
टीएन शेषन उस वक़्त देश के मुख्य चुनाव आयुक्त थे. इतिहास उन्हें इस बात के लिए याद रखेगा कि उन्होंने देश में चुनाव सुधार लागू किये थे. 20 मई, 1991 को पहले चरण का मतदान पूरा हुआ. अगले दिन राजीव गांधी श्री पेरम्बदुर में एक चुनाव सभा संबोधित करने जा ही रहे थे कि लिट्टे समर्थकों ने उनकी नृशंस हत्या कर दी. देश स्तब्ध रह गया! शेषन ने कुछ दिनों के लिए चुनाव स्थगित कर दिये.
231 सीटें जीतकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. राजीव गांधी की हत्या से कांग्रेस और गांधी परिवार के प्रति सहानभूति की लहर बनी, ये चुनाव परिणाम से साफ़ ज़ाहिर होता है, क्योंकि उनकी हत्या के बाद हुए मतदान में कांग्रेस को बड़ी जीत मिली थी. जबकि पहले चरण में जिन सीटों पर चुनाव हुए थे, वहां उसका प्रदर्शन औसत से भी ख़राब था. 119 सीटें लेकर भाजपा दूसरे नंबर पर रही. जनता दल को 59, सीपीएम 35, सीपीआई 14, एआईडीएमके 11 और तेलगु देशम पार्टी को 13 सीटें मिलीं. निर्दलीय और अन्य के खाते में 38 सीटें आयीं. कुल 8954 प्रत्याशी थे और अब तक के हुए सभी आम चुनावों में यह सबसे ज़्यादा था. प्रति सीट 16.1 प्रत्याशी थे. कुल 51.41 करोड़ मतदाता थे और कुल 51.13% मतदान हुआ था, जो चुनावी इतिहास में तीसरा सबसे कम मतदान प्रतिशत था.
पार्टी | प्रत्याशी संख्या | सीटें प्राप्त | %वोट |
कांग्रेस | 492 | 231 | 36.5 |
भाजपा | 468 | 119 | 20.8 |
जनता दल | 307 | 59 | 11.88 |
सीपीएम | 60 | 35 | 6.16 |
सीपीआई | 42 | 14 | 2.49 |
एआईडीएमके | उपलब्ध नहीं | 11 | 1.62 |
टीडीपी | उपलब्ध नहीं | 13 | 2.99 |
अन्य | 7585 | 38 | 17.56 |
कुल | 8954 | 520 | 100 |
नरसिंहा राव का उदय
राजीव गांधी के बाद कांग्रेस में कोई नेहरु-गांधी के उपनाम वाला नेता नहीं बचा था. लिहाज़ा, कांग्रेसियों ने उनकी विधवा सोनिया गांधी को मनाने की कोशिश की, पर उन्होंने राजनीति में आने से इंकार कर दिया. तब दूसरी बार कोई ग़ैर नेहरु खानदान से राष्ट्रीय स्तर पर उभर कर आया और पी वी नरसिंहा राव प्रधानमंत्री बने.