हिंदी अख़बारों का मिथकों के प्रति आकर्षण उतना बुरा नहीं है, जितना बुरा तर्कों व तथ्यों के प्रति उनकी उदासीनता है.
बीते 29 अप्रैल को भारतीय सेना के जन सूचना विभाग की तरफ से एक ट्वीट किया गया, जिसमें कहा गया था, “पहली बार भारतीय सेना की एक पर्वतारोही टीम ने मकालू बेस कैंप के पास पौराणिक जानवर ‘येती’ के 32×15 इंच के पैरों के निशान देखे हैं. इससे पहले यह मायावी हिममानव केवल मकालू-बरुन नेशनल पार्क में देखा गया है.” बताया गया कि भारतीय सेना ने येती के पैरों के निशान 9 अप्रैल को देखे थे.
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Contribute‘येती’ मुख्यतः नेपाल और लद्दाख की लोककथाओं का हिस्सा रहे हैं. समय-समय पर इन्हें देखे जाने के दावे पहले भी किये जा चुके हैं, पर वैज्ञानिकों द्वारा आज तक कोई पुष्टि नहीं की जा सकी है.
सेना के ट्वीट के बाद सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा की मीडिया तक ‘येती’ के अस्तित्व को लेकर बहसें शुरू हुईं, चुहलबाज़ी भी हुई.
यह शोध का विषय है कि मुख्यधारा की मीडिया ने येती की लेकर जैसी ख़बरें चलायीं, क्या उनमें अवैज्ञानिक तथ्यों को ऊपर रखा गया और नाटकीय ढंग से पौराणिक पात्र येती को हमारे बीच उपस्थित दिखाने की कोशिश की गयी? हिममानव के अस्तित्व को लेकर आज तक की गयी वैज्ञानिक जांचों और उनके परिणामों को सामने रखा गया या नहीं?
इन सवालों के जवाब खोजने के लिए कुछ प्रमुख हिंदी अख़बारों में ‘येती’ को लेकर की गयी रिपोर्टिंग पर एक नज़र डालते हैं.
दैनिक जागरण ने 1 मई को अपने पहले पन्ने पर ‘भारतीय सेना ने देखे हिम मानव के 32 इंच लंबे पदचिह्न’ शीर्षक से इस ख़बर को जगह दी थी. शीर्षक ऐसा है कि केवल हेडिंग पढ़कर गुजरने वाले इस ख़बर पर भरोसा कर सकते हैं. हालांकि, दैनिक जागरण ने अपनी साख के विपरीत ख़बर संतुलित रखी. पहले पैराग्राफ़ में ही वैज्ञानिकों द्वारा येती को मिथक मानने की बात लिखी गयी थी. दूसरे पैराग्राफ़ में सेना के दावों के बारे में बताया गया था, वहीं इस ख़बर के सियासी रुख़ लेने और नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला व बीजेपी के तरुण विजय के बयानों का ज़िक्र भी किया गया था.
लेख में इस बात पर भी चर्चा की गयी कि हिममानव ‘येती’ के मौजूद होने की रहस्यमय कहानियां हिमालय के क्षेत्रों में रहने वाले और पर्वतारोहियों के किस्सों में शामिल हैं. इसके बाद एक बार फिर ख़बर में इन दावों की कोई पुष्टि न होने की बात कही गयी है.
अरसे से पत्रकारिता में ऐसे शीर्षक लगाने का ट्रेंड देखा गया है, जिससे पाठक को आकर्षित किया जा सके. इस प्रक्रिया में कई बार शीर्षक बेहद भ्रामक लगाये जाते हैं. कई दफ़ा शीर्षक का अंदर की ख़बर से कोई लेना-देना ही नहीं होता. ऐसे में कोई अगर केवल शीर्षक पढ़कर अपनी राय कायम करने लगे तो सही ख़बर से उसका पाला शायद कभी न पड़े. दैनिक भास्कर ने येती को लेकर कुछ ऐसी ही हेडलाइन के साथ ख़बर चलायी. “हिमालय में एक बार फिर हिममानव होने की बात, इस बार दावा भारतीय सेना ने किया है” शीर्षक पढ़कर पाठक ख़बर पर सहज भरोसा कर सकता है. वैसे भी भारत में सेना के दावों को पवित्रता से देखने का चलन है.
हालांकि लेख में आगे पहले के दावों की चर्चा की गयी है और उनकी जांच के परिणामों को भी शामिल किया गया है. इन सामग्रियों के लिए बाकायदा संदर्भ भी दिये गये हैं.
अमर उजाला ने एक कदम आगे जाते हुए ख़बर कुछ इस तरह चलायी जैसे वह ख़बर की पुष्टि की मुद्रा में है. इतना ही नहीं, अमर उजाला ने अपनी ख़बर को दौड़ाने के लिए आर्मी द्वारा ट्वीट की गयी तस्वीर के अलावा हफिंगटन पोस्ट की साल 2016 की एक ख़बर से तस्वीर का इस्तेमाल भी किया.
जनसत्ता की भाषा भी कुछ यूं रही, जैसे वह येती के होने की पुष्टि कर रहा हो. इस ख़बर में सेना के ट्वीट का ज़िक्र किया गया है और विस्तार से उसकी डिटेल्स बतायी गयी हैं. ख़बर को बैलेंस करने के लिए पुराने दावों और शोधकर्ताओं की राय शामिल करने की कोशिश की गयी है. हालांकि जनसत्ता की ख़बर और भाषा से ऐसा लगता है कि उसे वैज्ञानिक मतों की जगह दावों और गल्प-आधारित धारणाओं की प्रस्तुति में ज़्यादा रुचि है.
नवभारत टाइम्स ने भी इस ख़बर को पहले पन्ने पर जगह दिया ही है, साथ-ही-साथ ख़बर की प्रस्तुति में सर्वाधिक ‘ग्लोरिफिकेशन’ नवभारत टाइम्स में ही देखने को मिला. सेना की खींची गयी तस्वीर के अलावा, येती की एक सांकेतिक कार्टून इमेज का इस्तेमाल किया गया. इसके अतिरिक्त, शीर्षक “सेना को मिले येती के निशान!” कुछ इस अंदाज़ में छापा गया था कि सेना के दावे की पुष्टि हो चुकी है. जबकि सच्चाई यह नहीं है.
ख़बर के अंदर नवभारत टाइम्स ने इस दावे की जांच होने की बात छापी है तथा भारत, नेपाल और तिब्बत के पहाड़ी क्षेत्रों में येती से जुड़े पौराणिक किस्सों और दावों का भी ज़िक्र किया है. हालांकि येती को लेकर वैज्ञानिकों के पूर्व के मतों का ज़िक्र नहीं किया गया है.
बिहार-झारखंड के प्रमुख अख़बार प्रभात ख़बर में उनके ‘नेशनल कंटेंट सेल’ ने 1 मई को पहले पन्ने पर ख़बर छापी कि “हिमालय पर मिले ‘यति’ के पदचिह्न”. बहुत चालाकी से शीर्षक के ऊपर छोटे फॉण्ट में लिखा गया है, “दावा: सेना ने जारी की तस्वीरें, अनुमान- ‘हिममानव’ के पैरों के हो सकते हैं निशान”. तस्वीर के बगल में एक बॉक्स है, जिसमें 1832 के एक दावे का ज़िक्र किया गया है. दावों की जांच की बात सिरे से गायब है, वैज्ञानिकों के मत भी नहीं हैं. लेकिन, नेशनल कंटेंट सेल ने बॉक्स की आख़िरी पंक्ति में लिखा है, ‘इस तरह के कई सबूत सामने आये हैं’. प्रभात ख़बर द्वारा दावों को ‘सबूत’ लिखना कहां तक जायज़ हो सकता है, यह सोचने वाली बात है.
हिंदी अख़बारों का मिथकों के प्रति आकर्षण उतना बुरा नहीं है, जितना बुरा तर्कों व तथ्यों के प्रति उनकी उदासीनता है. लाखों-करोड़ों पाठकों के बीच पढ़े जाने वाले अख़बारों की जिम्मेदारी समाज में वैज्ञानिक सोच भरने और जागरूक करने की भी होती है. संविधान को किनारे करके, लोकप्रियता के सस्ते रास्तों पर चलकर पहुंच व रीडरशिप बढ़ाने की यह सस्ती कोशिशें समाज में अवैज्ञानिक सोच, अंधविश्वास, अतार्किकता को बढ़ावा दे रही हैं.
सालों से धारणाएं बनाने-बिगाड़ने में लगे मीडिया के बड़े हिस्से ने देश के विशाल जनसमूह के आईक्यू पर धावा बोल दिया है. ज़रूरत है मीडिया के इन खेलों और दावपेंचों को समझा जाये और इनका ख़ुलासा किया जाये.
जाते-जाते देखिये, येती पर आज तक का एक शाहकार:
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