चतुर्दिक चापलूसी के अंधकार की पैदावार हैं चतुर्वेदी

राबड़ी देवी की खिल्ली उड़ाने से पहले संविधान के कुछ पाठ पढ़ने की सलाह है निशांत चतुर्वेदी को.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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एक बात शुरू में ही समझ लीजिये कि तीन नहीं, छह बार भी धाराप्रवाह ‘ट्विटर’ बोल लेने से निशांत चतुर्वेदी कोई ज़हीन, मेधावी और प्रतिभाशाली पत्रकार नहीं बन जायेंगे. वे एक औसत किस्म के एंकर हैं, टीवी स्टूडियो में प्रवचन उनकी पत्रकारिता की कुल जमा-पूंजी है. गलती से भी अगर आपने उनके सामने उनकी की हुई तीन यादगार स्टोरी (ग्राउंड रिपोर्ट) का चैलेंज उछाल दिया, तो यकीन मानिए चतुर्वेदी का गला चोक हो सकता है. लेकिन यही हमारे समय का सच है. यहां टीवी पर दिखने वाले औसत व्यक्ति, हज़ार किस्म के तिकड़म और प्रबंधन से निर्मित विशालकाय छवियों में नज़र आने लगते हैं. किसी कवि ने ऐसे ही मौके पर कहा था- ‘ताड़ जैसे दिख रहे हैं, बौने-बौने लोग. मोतियों से तुल रहे हैं, औने पौने लोग.’

यहां स्वाभाविक-सा सवाल पैदा होता है, ऐसे औसत, महत्वहीन, गैरज़रूरी, दरबारी प्रवृत्ति वाले किसी व्यक्ति पर समय और लेख क्यों खर्च किया जाये? इसकी ज़रूरत इसलिए है कि चतुर्वेदी सिंपटम हैं, लक्षण! एक बार लक्षण पकड़ में आ जाये तो बीमारी डायग्नोज़ होने में आसानी हो जाती है.

निशांत चतुर्वेदी अतीत में भी इस तरह की हरकतें करते रहे हैं. उनके पुराने ट्वीट्स के आधार पर कहा जा सकता है कि उनके अंदर एक दरबारी प्रवृत्ति है, बिल्कुल फ़कीरी की तरह. ट्विटर या फेसबुक पर एकाधिक मौकों पर उन्होंने इसका मुज़ाहिरा किया है. मसलन पुलवामा हमले पर उनका एक ट्वीट प्रधानमंत्री मोदी की पीठ थपथपाने वाला था, तो श्रीलंका में हुए आतंकी हमलों पर उनका ट्वीट वहां की सरकार की असफलता पर धिक्कारने वाला था. एक ही विषय पर सुविधा के हिसाब से दो अलग-अलग तर्क खोज लेना इनकी और इस तरह के तमाम पत्रकारों की ख़ासियत है. हाल के दिनों में हमने देखा है कि प्रधानमंत्री और सत्ता पक्ष के लोग यदाकदा टीवी पत्रकारों का नाम लेकर उन्हें विभिन्न सरकारी अभियानों में अघोषित ब्रांड एंबेस्डर के तौर पर प्रमोट करते रहे हैं. महीने भर पहले प्रधानमंत्री ने तमाम पत्रकारों को टैग करके उनसे मतदाताओं को जागरूक करने की अपील की थी.

ज़ाहिर है प्रधानमंत्री की भी सीमाएं हैं, वो सभी पत्रकारों को तो टैग नहीं कर सकते. लेकिन इससे एक होड़ शुरू हो गयी है. प्रधानमंत्री की टैग-कृपा की लालसा पाले पत्रकारों की एक बड़ी फौज है. वो तमाम पत्रकार जो इस होड़ में पीछे छूट जाते हैं, वो यदाकदा इस तरह के अशोभनीय, उत्श्रृंखल ट्वीट आदि करते रहते हैं, ज़ाहिर है इसके पीछे मकसद अपनी वफ़ादारी को दरबार की नज़रों तक पहुंचाना और बदले में दरबार का कृपापात्र हो जाना होता है. यह कुंठा पत्रकारों के एक बड़े तबके में मौजूद है.

जिस अंदाज़ में निशांत ने राबड़ी देवी की खिल्ली उड़ाई, उसके दो पहलू हैं- एक तो उनके नाम में लगा पुछल्ला यानी चतुर्वेदी और दूसरा पत्रकारों की वह फौज जो काफी हद तक अनपढ़ तो नहीं, लेकिन कुपढ़ ज़रूर है.

राबड़ी देवी इस देश के एक महत्वपूर्ण राज्य की आठ साल तक मुख्यमंत्री रही हैं. यानी एक ऐसे संवैधानिक पद पर जिसका अधिकार उन्हें इस देश के संविधान ने दिया है. इस संविधान में निहित कुछ मूलभूत बातों का ज़िक्र इस मौके पर बेहतर होगा. खासतौर पर निशांत चतुर्वेदी और उनके जैसे तमाम पत्रकारों के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है, जब उन्हें संविधान जैसे दूरदर्शी दस्तावेज़ का पुनर्पाठ कर लेना चाहिए. मैं पुनर्पाठ भी क्यों कहूं, जबकि मुझे नहीं पता कि उन्होंने इसे कभी पढ़ा भी है या नहीं. सरकारें आती-जाती रहेंगी, संविधान और पत्रकारिता को यहीं टिके रहना है.

भारत के संविधान की कहानी उस देश के आम आदमी की कहानी है, जिसे दुनिया भूखा-नंगा और सपेरा समझती थी. उस देश ने अपने अनपढ़, भूखे, नंगे नागरिकों को किस तरह से ये ताकत दी कि राबड़ी देवी या मायावती जैसी नेता हमारे सामने उभर कर आ सकीं. दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले पश्चिम ने लंबे समय तक अपने नागरिकों के बीच यूनिवर्सल वोटिंग फ्रेंचाइज़ यानी हर वयस्क व्यक्ति को वोट का अधिकार को लेकर भेदभाव किया. हम ब्रिटेन का ही उदाहरण लें, जिन्होंने 200 सालों तक हिंदुस्तान पर राज किया तो वहां महिलाओं को वोट देने का अधिकार 1928 में जाकर दिया गया. उससे पहले वहां महिलाएं वोट नहीं दे सकती थी. अंग्रेज यही हथकंडा यहां भारत में भी अपनाते रहे. आज़ादी से पहले प्रांतीय सरकारों के चुनाव में आर्थिक, शैक्षिक, लैंगिक और सामाजिक हैसियत के आधार पर लोगों को वोट देने का अधिकार दिया जाता था. इसका नतीजा यह था कि देश की आबादी का सिर्फ 10 फीसदी हिस्सा ही वोट देने का पात्र था.

फ्रांस जैसा देश, जिसने दुनिया को लिबर्टी, इक्वैलिटी और फ्रटर्निटी का लोकप्रिय लोकतांत्रिक नारा दिया, उसने भी अपने यहां महिलाओं और पुरुषों को यूनिवर्सल वोटिंग फ्रेंचाइज़ 1945 में जाकर दिया. यानी भारत की आज़ादी से महज दो साल पहले. इसके बरक्स भारत को देखें, तो इसने अपनी आज़ादी के बाद संविधान लागू होने के पहले दिन से इस देश के हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के वोटिंग का अधिकार दिया. जाति, धर्म, शिक्षा, सामाजिक, आर्थिक और लैंगिक भेदभाव किये बिना एक ओर से सबको वोट का अधिकार मिला. जो बात स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों को 1973 में जाकर समझ में आयी, उसे भारतीय संविधान निर्माताओं ने 26 जनवरी, 1950 यानी संविधान लागू होने के पहले दिन से ही लागू कर दिया था.

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दिमाग में सवाल आ सकता है कि इसका राबड़ी देवी और निशांत चतुर्वेदी से क्या संबंध है. इसका संबंध बहुत गहरा है. राबड़ी देवी या मायावती जैसी सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाएं वहां सिर्फ इसीलिए पहुंच पायी, क्योंकि उनकी जड़ें इस देश के संविधान की खाद से सिंची थी. चतुर्वेदी जैसे लोग जब अपनी कुंठा ज़ाहिर करते हैं, तब वे संविधान जैसे मूलभूत विषय के शिक्षण के अभाव को ही उजागर करते हैं. वे नहीं देख पाते कि 12वीं पास नेता हमारे देश की शिक्षामंत्री हो सकती है.

‘हाउ इंडिया बिकेम डेमोक्रेटिक’ नाम की किताब इस बात की तसल्ली से व्याख्या करती है कि चुनिंदा, प्रभावशाली लोगों से छीनकर हर वर्ग, हर समुदाय को वोटिंग का अधिकार देकर भारत ने 50 के दशक में ही अपने नागरिकों का स्तर और समानता की दिशा में दूरगामी, क्रांतिकारी बदलाव कर दिया था.

निशांत जैसे लोगों की समस्या उनके नाम के साथ जुड़ा उपनाम भी है. जातिगत अहमन्यता भारतीय समाज का वह सच है जो किसी के लिए मीठा है, तो बहुतों के लिए कड़वा. निशांत ‘मीठा-सच’ वाली श्रेणी में आते हैं. ब्राह्मणवाद इस देश में सबसे साधनसंपन्न, स्वीकार्य और विशेषाधिकारयुक्त विचारधारा है. यह किसी विशेष कोशिश या जतन से नहीं, बल्कि दैनंदिन आचार-व्यवहार, सामाजिक परिवेश और परिवारगत संस्कारों से स्वत: व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है. और मानसिक जड़ता या इग्नोरेंस में जहां-तहां परिलक्षित होता रहता है.

राबड़ी देवी का इस तरह से मज़ाक़ उड़ाने का अधिकारबोध किसी चतुर्वेदी, मिश्रा या शुक्ला को अपना विशेषाधिकार लगता है. यह जातिगत अहमन्यता से पैदा हुई सोच है. इसकी आइरनी यानी विडंबना यह है कि यह सब किया इसलिए जा रहा है, ताकि दूसरे पक्ष का दरबारी बना जा सके. इस तरह के तमाम विघ्नसंतोषी कथित पत्रकार हमारे-आपके बीच मौजूद हैं, जो पिछड़े-दलित तबके के नेताओं का इसी तरीके से चरित्र-चित्रण करते रहते हैं. महिला नेता इनका सबसे आसान शिकार हैं. वे जाति की मार भी सहती हैं और औरत होने की सज़ा भी भुगतती हैं.

राबड़ी देवी ने जो जवाब दिया, बात उसी से ख़त्म करना ठीक रहेगा- चतुर्वेदीजी, ‘तबियत ठीक बा नू.’

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